नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

मुहावरे (ओ,औ)

औंधी खोपड़ी : उलटी बुद्धि, बुद्धिहीनता।
मिट गए पर ऐंठ है अब भी बनी, है अज़ब औंधी हमारी खोपड़ी।

औने - पौने निकालना : कम दाम पर या घाटा उठाकर बेचना।
मैंने तो यही सोचा है कि कोई गाहक लग जाय तो एक्के को औने-प ने निकाल दूँ।

शनिवार, 24 सितंबर 2011

आत्म-सुधार तो ह्रदय परिवर्तन से ही संभव है

संत एकनाथ के साथ तीर्थयात्रा पर एक चोर भी चल पड़ा. साथ लेने से पूर्व संत ने उससे रस्ते में चोरी न करने की प्रतिज्ञा करवाई.
यात्रा मंडली को नित्य ही एक परेशानी का सामना करना पड़ता, रात को रखा गया सामान कहीं से कहीं चला जाता फिर लोग जैसे-तैसे कहीं से अपना सामान ढूंढकर लाते.
नित्य की इस परेशानी से तंग आकर कारण की खोज शुरू हुई और रात भर जागकर इस उलट-पलट की वजह ढूँढने का जिम्मा एक चतुर यात्री ने उठाया.
खुराफाती पकड़ा गया और उसे संत एकनाथ के सम्मुख पेश किया गया. पूछने पर उसने वास्तविकता बताई कि चोरी करने कि उसकी आदत पड़ चुकी है और यात्रा में उसे कसम दिलाये जाने के कारण वह चोरी नहीं कर पा रहा है, पर मन नहीं मानता इसलिए वह सामानों को इधर से उधर रख देता है और ऐसा करने से उसका मन बहल जाता है.
संत एकनाथ ने अपनी मंडली के सदस्यों को समझाया कि मन भी एक चोर है, उसे बाहरी दबाव से सीमित मात्रा में ही काबू में रखा जा सकता है. आत्म-सुधार तो ह्रदय परिवर्तन से ही संभव है और उसे स्वयं ही करना होता है. 

जमींदार की आँखें खुल गई

एक जमींदार महात्माजी को बहुत देर से अपने धन-वैभव की बातें खूब बढ़ा-चढ़ाकर सुना रहा था साथ ही अपने आलीशान महल का  भी बहुत विस्तार से  वर्णन कर रहा था. महात्माजी  जब जमींदार की बड़ाई सुन-सुनकर थक गए तब उन्होंने विश्व का एक नक्शा मगवाया और उससे पूछा-अब बताओ इस नक़्शे में तुम या तुम्हारा महल कहाँ पर है? 
जमींदार नक्शा देखकर परेशान हो गया उस नक़्शे में वह या उसका महल तो दूर उसका प्रान्त भी कहीं नजर नहीं आ रहा था, तब महात्माजी ने भारत का नक्शा मगवाया और जमींदार से फिर वही सवाल किया तब जमींदार ने नक्शा देखकर महात्माजी से कहा इस नक़्शे में तो खाली मेरे राज्य ही नाम है! मेरा तो कहीं पर नाम ही नहीं है?
महात्माजी बोले- देखो जिस धन-दौलत और महल पर तुमको इतना अभिमान है उसका विश्व के नक्शे पर तो क्या तुम्हारे देश के नक़्शे पर ही कोई नामोनिशान नहीं है! फिर किस बात का अभिमान करते हो तुम भला? महात्मा जी की बातें सुनकर जमींदार की आँखें खुल गई और अब वह अपनी बड़ाई छोड़कर लोगों की भलाई के काम में लग गया. 

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

मैंगो जूस

संता मैंगो जूस का ग्लास लेकर बैठा था।
बंता आया और फटाक से जूस पी गया।
संता: मेरी तो यार किस्मत ही खराब है। बेटा फेल हो गया,बीवी दोस्त के साथ भाग गई,घर में चोरी हो गई,नल में पानी नहीं है,घर में लाइट नहीं है। अब जूस में जहर डाल कर पीने को रखा था तो वो भी तू पी गया साले!!!

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की। उनके योगदान से हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' के नाम से जाना जाता है।
महावीर प्रसाद द्विवेदी का जन्म रायबरेली जिले के दौलतपुर गाँव में सन  1864  में हुआ था। इनके पिता का नाम पं. रामसहाय दुबे था। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण थे। धनाभाव के कारण इनकी शिक्षा का क्रम अधिक समय तक न चल सका। इन्हें जी आई पी रेलवे में नौकरी मिल गई। इन्होंने बड़ी लगन और परिश्रम से काम किया तथा उन्नति करते-करते एक महत्वपूर्ण पद पर पहुँच गए। किंतु स्वाभिमान के कारण इन्हें अपनी नौकरी से इस्तीफ़ा देना पड़ा।
नौकरी के साथ-साथ द्विवेदी अध्ययन में भी जुटे रहे और हिंदी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती, संस्कृत आदि का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया।
सं १९५६ में द्विवेदी जी ने सरस्वती मासिक पत्रिका के संपादन का कार्यभार सँभाला और उसे सत्रह वर्ष तक कुशलतापूर्वक निभाया।
संपादन-कार्य से अवकाश प्राप्त कर द्विवेदी जी अपने गाँव चले आए। और वहीं पर  दिसम्बर, १९३८ में इनका स्वर्गवास हो गया।

द्विवेदी जी ने विस्तृत रूप में साहित्य रचना की। इनके छोटे-बड़े ग्रंथों की संख्या कुल मिलाकर ८१ है। पद्य के मौलिक-ग्रंथों में काव्य-मंजूषा, कविता कलाप, देवी-स्तुति, शतक आदि प्रमुख है। गंगा लहरी, ॠतु तरंगिणी, कुमार संभव सार आदि इनके अनूदित पद्य-ग्रंथ हैं।
पद्य के मौलिक ग्रंथों में तरुणोपदेश नैषध चरित्र चर्चा, हिंदी कालीदास की समालोचना, नाटय शास्त्र, हिंदी भाषा की उत्पत्ति, कालीदास की निरंकुशता आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। अनुवादों में वेकन विंचार, रत्नावली, हिंदी महाभारत वेणी संसार आदि प्रमुख हैं।

हिंदी भाषा के प्रसार, पाठकों के रुचि परिष्कार और ज्ञानवर्धन के लिए द्विवेदी जी ने विविध विषयों पर अनेक निबंध लिखे। विषय की दृष्टि से द्विवेदी जी निबंध आठ भागों में विभाजित किए जा सकते हैं - साहित्य, जीवन चरित्र, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, उद्योग, शिल्प भाषा, अध्यात्म। द्विवेदी जी ने आलोचनात्मक निबंधों की भी रचना की। उन्होंने आलोचना के क्षेत्र में संस्कृत टीकाकारों की भांति कृतियों का गुण-दोष विवेचन किया और खंडन-मंडन की शास्त्रार्थ पद्धति को अपनाया है।
द्विवेदी जी सरल और सुबोध भाषा लिखने के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं सरल और प्रचलित भाषा को अपनाया। उनकी भाषा में न तो संस्कृत के तत्सम शब्दों की अधिकता है और न उर्दू-फारसी के अप्रचलित शब्दों की भरमार है वे गृह के स्थान पर घर और उच्च के स्थान पर ऊँचा लिखना अधिक पसंद करते थे। द्विवेदी जी ने अपनी भाषा में उर्दू और फारसी के शब्दों का निस्संकोच प्रयोग किया, किंतु इस प्रयोग में उन्होंने केवल प्रचलित शब्दों को ही अपनाया। द्विवेदी जी की भाषा का रूप पूर्णतः स्थित है। वह शुद्ध परिष्कृत और व्याकरण के नियमों से बंधी हुई है। उनका वाक्य-विन्यास हिंदी को प्रकृति के अनुरूप है कहीं भी वह अंग्रेज़ी या उर्दू के ढंग का नहीं।

द्विवेदी जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप दृष्टिगत होते हैं-
१- परिचयात्मक शैली - द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों पर लेखनी चलाई। विषय नये और प्रारंभिक होने के कारण द्विवेदी जी ने उनका परिचय सरल और सुबोध शैली में कराया। ऐसे विषयों पर लेख लिखते समय द्विवेदी जी ने एक शिक्षक की भांति एक बात को कई बार दुहराया है ताकि पाठकों की समझ में वह भली प्रकार आ जाए। इस प्रकार लेखों की शैली परिचयात्मक शैली है।
२ - आलोचनात्मक शैली - हिंदी भाषा के प्रचलित दोषों को दूर करने के लिए द्विवेदी जी इस शैली में लिखते थे। इस शैली में लिखकर उन्होंने विरोधियों को मुंह-तोड़ उत्तर दिया। यह शैली ओजपूर्ण है। इसमें प्रवाह है और इसकी भाषा गंभीर है। कहीं-कहीं यह शैली ओजपूर्ण न होकर व्यंग्यात्मक हो जाती है। ऐसे स्थलों पर शब्दों में चुलबुलाहट और वाक्यों में सरलता रहती है। 'इस म्यूनिसिपाल्टी के चेयरमैन(जिसे अब कुछ लोग कुर्सी मैन भी कहने लगे हैं) श्रीमान बूचा शाह हैं। बाप दादे की कमाई का लाखों रुपया आपके घर भरा हैं। पढ़े-लिखे आप राम का नाम हैं। चेयरमैन आप सिर्फ़ इसलिए हुए हैं कि अपनी कार गुज़ारी गवर्नमेंट को दिखाकर आप राय बहादुर बन जाएं और खुशामदियों से आठ पहर चौंसठ घर-घिरे रहें।'
३ - विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली - गंभीर साहित्यिक विषयों के विवेचन में द्विवेदी जी ने इस शैली को अपनाया है। इस शैली के भी दो रूप मिलते हैं। पहला रूप उन लेखों में मिलता है जो किसी विवादग्रस्त विषय को लेकर जनसाधारण को समझाने के लिए लिखे गए हैं। इसमें वाक्य छोटे-छोटे हैं। भाषा सरल है। दूसरा रूप उन लेखों में पाया जाता है जो विद्वानों को संबोधित कर लिखे गए हैं। इसमें वाक्य अपेक्षाकृत लंबे हैं। भाषा कुछ क्लिष्ट है। उदाहरण के लिए - अप्समार और विक्षप्तता मानसिक विकार या रोग है। उसका संबंध केवल मन और मस्तिष्क से है। प्रतिभा भी एक प्रकार का मनोविकार ही है। इन विकारों की परस्पर इतनी संलग्नता है कि प्रतिभा को अप्समार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक परिणाम समझ लेना बहुत ही कठिन है।

हिंदी साहित्य की सेवा करने वालों में द्विवेदी जी का विशेष स्थान है। द्विवेदी जी की अनुपम साहित्य-सेवाओं के कारण ही उनके समय को द्विवेदी युग के नाम से पुकारा जाता है।
  • भारतेंदु युग में लेखकों की दृष्टि की शुध्दता की ओर नहीं रही। भाषा में व्याकरण के नियमों तथा विराम-चिह्नों आदि की कोई परवाह नहीं की जाती थी। भाषा में आशा किया, इच्छा किया जैसे प्रयोग दिखाई पड़ते थे। द्विवेदी जी ने भाषा के इस स्वरूप को देखा और शुध्द करने का संकल्प किया। उन्होंने इन अशुध्दियों की ओर आकर्षित किया और लेखकों को शुध्द तथा परिमार्जित भाषा लिखने की प्रेरणा दी।
  • द्विवेदी जी ने खड़ी बोली को कविता के लिए विकास का कार्य किया। उन्होंने स्वयं भी खड़ी बोली में कविताएं लिखीं और अन्य कवियों को भी उत्साहित किया। श्री मैथिली शरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय जैसे खड़ी बोली के श्रेष्ठ कवि उन्हीं के प्रयत्नों के परिणाम हैं।
  • द्विवेदी जी ने नये-नये विषयों से हिंदी साहित्य को संपन्न बनाया। उन्हीं के प्रयासों से हिंदी में अन्य भाषाओं के ग्रंथों के अनुवाद हुए तथा हिंदी-संस्कृत के कवियों पर आलोचनात्मक निबंध लिखे गए।
सौजन्य-विकिपीडिया व अन्य

मंगलवार, 13 सितंबर 2011

मुहावरे (ए,ऐ)

एक आँख न भाना : तनिक भी अच्छा न लगना।
भाभी को अपनी देवरानी का यों रानी बने बैठे रहना एक आँख न भाता था।

एक कान सुनना, दूसरे से निकालना : किसी बात पर ध्यान न देना।
विभाग के अध्यापकों ने यह सूचना एक कान से सुनी और दूसरे से निकाल दी।

एक की दो कहना : थोड़ी बात के लिए बहुत अधिक भला-बुरा कहना।
कड़ी बात तक चिन्ता नहीं, कोई एक की दो कह ले।

एकटक देखना : बिना पलक गिराए देखते रहना।
मग्गी उसे मुग्ध होकर, एकटक देखती रहती है।

एक तीर से दो शिकार करना : एक युक्ति या साधन से दो काम करना।
इस बार उसने ऐसी बुद्धिमानी से काम किया कि उसके शत्रु पराजित हो गए और उसके मित्रों तथा संबंधियों को अच्छे-अच्छे पद प्राप्त हो गए।इस प्रकार उसने एक तीर से दो शिकार कर लिए।

एक न चलना : कोई युक्ति सफल न होना।
भगवती ने बहुत तर्क-कुतर्क किया, पर प्रवीण के आगे उसकी एक न चली।

एक न चलने देना : जज ने तो पुलिस का पक्ष करना चाहा था, पर डॉक्टर इर्फान अली ने उसकी एक न चलने दी।

एक मुट्ठी अन्न को तरसना : गरीब होना।
बंगाल के अकाल में लोग एक मुट्ठी अन्न को तरस गए।

एक लाठी से हाँकना : सबके साथ समान व्यवहार करना।
आप सबको एक लाठी से हाँकना चाहते हैं। यह अनुचित है। आपको मित्र-शत्रु, योग्य-अयोग्य तथा बुद्धिमान-मूर्ख का विचार करके व्यवहार करना चाहिए।

एक ही थैली के चट्टे-बट्टे : एक ही प्रकार के लोग।
भगवती ने ज़रा व्यंग्य से कहा, सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

एहसान उतारना : जिसने उपकार किया हो उसका प्रत्युपकार करना।
अगर हमारे उन पर कुछ एहसान थे भी, तो आज उन्होंने सब उतार दिए।

सोमवार, 12 सितंबर 2011

'यहां सोने पर लोन मिलता है'

एक बार रमन जब बैंक गया तो देखा कि वहां लगी तख्ती पर कुछ लिखा है। उसके समझ में कुछ नहीं आया तो उसने अपने पास कुर्सी पर बैठे व्यक्ति से पूछा, भाई साहब! इस तख्ती पर क्या लिखा है आप बताएंगे क्या? अपरिचित व्यक्ति ने कहा- उसमें लिखा है, 'यहां सोने पर लोन मिलता है।' फिर क्या था, रमन वहीं कुर्सी पर सो गया।

कैनवास खरीदों और पेंटिंग करो

थके हुए रमन को डॉक्टर ने सलाह दी- 'तनाव कम करने की कोशिश करो। ऐसा करो कल छुट्टी ले लो। बाजार से रंग और कैनवास खरीदों और पेंटिंग करो। बहुत मजा आएगा। जब तीन दिन बाद रमन सूजी आंखें लेकर डॉक्टर साहब के पास गया। डॉक्टर बोले- ये क्या हुआ तुम्हारी आंखों को। रमन झल्लाकर बोला- आपने पेंटिंग करने की सलाह दी थी। तीन दिन से लगातार दिन-रात जाग कर पेंटिंग कर रहा था।

मेरी शादी कब होगी

एक बार अकेलेपन से परेशान रमन ज्योतिषी महाशय के पास गया और अपना हाथ आगे बढ़ाता हुआ बोला- महाराज बताइए ना, मेरी शादी कब होगी? ज्योतिषी- कभी भी नहीं होगी। घबराहट से रमन ने पूछा- पर क्यों? ज्योतिषी- भला कैसे होगी! तुम्हारे भाग्य में तो सिर्फ सुख ही सुख लिखा है।

जज ने वकील को डांटा

एक बार पेशी के दौरान जज ने वकील को डांटा और कहा- मिस्टर! तुम अपनी लिमिट क्रॉस कर रहे हो। वकील- कौन साला ऐसा कहता है। जज ने ‍डांट कर फिर कहा- अरे, तुमने गाली दी! वकील महोदय मायूस होकर बोले- नहीं माई लॉर्ड, मैंने कहा कि कौन सा ऐसा लॉ कहता है।

दीवार के पार

रमन- मैं एक ऐसा आविष्कार करूंगा कि लोग दीवार के पार भी आसानी से देख सकेंगे। चमन- पर ऐसा आविष्कार तो पहले भी हो चुका है। रमन- यार, तुम किसकी बात कर रहे हो? चमन- विंडो की।

डॉक्टर साहब ने कहा

एक युवती ने हड़बड़ी में कहीं जाते देखकर अपने डॉक्टर पिता से कहा- क्या बात है पापा? आप इतनी जल्दी में कहां जा रहे हैं? डॉक्टर साहब ने कहा- अभी-अभी फोन आया था- हाय मैं मर जाऊंगा... तुरंत आ जाओ। नवयुवती ने शरमाकर कहा- पापा पापा...! वह... वह फोन आपके लिए नहीं, मेरे लिए आया था।

सीढ़ी का इंतजार

एक बच्चे ने अपनी मम्मी से जाकर कहा- मम्मी-मम्मी मुझसे सीढ़ी गिर गई। मां ने कहा, मेरा दिमाग क्यों खा रहे हो जा पापा से से कहो सीढ़ी उठा देंगे। बच्चा बोला- मां पापा भला कैसे सीढ़ी उठा पाएंगे। वे बेचारे तो लटके हुए हैं और सीढ़ी का इंतजार कर रहे है।

शादी का प्रस्ताव

एक बार रास्ते से जा रहे पति से पत्नी ने कहा- देखो जी! उस पियक्कड आदमी को देख रहे हो? आठ साल पहले मैंने ही उसका शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। तब से वह ऐसा ही घूम रहा है। पति बोला- वाह ! इतना लंबा सेलिब्रेशन।

शादी के पांच साल

प्रेमिका शादी के समय फेरे के दौरान प्रेमी से बोली- सुनो जी! आज से तुम्हारे बिना मैं नहीं और मेरे बिना तुम नहीं। शादी के पांच साल गुजरने के बाद वही प्रेमिका बोली- धोखेबाज ठहर जा! आज या तो तुम नहीं या मैं नहीं।

मगर! मेरी शादी

कोर्ट में खड़ा वकील एक आदमी से बोला- अगर तलाक चाहते हो तो पच्चीस हजार रुपए लगेंगे। आदमी- मगर! मेरी शादी तो केवल एकसौ एक रुपए में ही हो गई थी। फिर तलाक के इतने ज्यादा रुपए क्यों? वकील- देख लिया ना सस्ते का नतीजा?

चाइनीज फूड फेस्टिवल

एक रेस्रां मैनेजर शेफ से- तुम इतने दुखी क्यों दिख रहे हो? शेफ- इस पूरे खाने में बहुत सारी चींटियां आ गई हैं, पता नहीं कहां से...? अब मुझे समझ नहीं आ रहा है कि क्या करूं? रेस्त्रां मैनेजर- घबराओ मत, मैं सबसे कह दूंगा कि आज हम चाइनीज फूड फेस्टिवल मना रहे हैं।

मुझे देखिए!!!

रमन और चमन दवा बेचने का काम करने लगे। चमन- यह दवा ले लीजिए, इसे खाने वाला सदा जवान रहता है, कभी बूढ़ा नहीं होता। मुझे देखिए अभी मेरी उम्र अभी सिर्फ तीन सौ साल है। दुकानदार (पास खड़े व्यक्ति से बोला)- क्या तुम्हें ये तीन सौ साल के लगते हैं। रमन- यह मैं कैसे बताऊँ! मैं तो इनके साथ डेढ सौ साल से हूँ।

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

संत तुलसीदास

तुलसीदासजी का जन्म सन १५३२ को उत्तर प्रदेश (वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार " लाज न आई आपको दौरे आएहु नाथ" सुननी पड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया । पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे,जिन्होंने इन्हे दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकूट, काशी तथा अयोध्या में बीता।तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवैरामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शिष्य परम्परा

गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति और वेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ वा सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के विद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:
"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"
उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंक्काओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रथित करने का जो काम पहले शंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। जैसा पहले लिखा जा चुका है, गोस्वामीजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जो रामानुजाचार्य के विशिष्टद्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों में अद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजापद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे। उनके ग्रन्थों में रामचरितमानस, विनयपत्रिका, कवितावली, गीतावली, दोहावली आदि अधिक प्रसिद्ध है।

प्रखर बुद्धि के स्वामी

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ( उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक ज़िला है।) ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561 माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया । बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी । एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये । काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तक वेद-वेदांग का अध्ययन किया । इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है । उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध् किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे ।

तुलसीदास से ईर्ष्या

इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई । वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे । चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी । इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी । उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं । पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा । इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-
आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

मुख्य रचनाएँ

अपने जीवनकाल में तुलसीदास जी ने 12 ग्रन्थ लिखे और उन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ट कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदासजी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे। श्रीराम जी को समर्पित ग्रन्थ श्री रामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारांतर से अवधी भाषांतर था जिसे समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है। विनयपत्रिका तुलसीदासकृत एक अन्य महत्त्वपूर्ण काव्य है।

तुलसीदास
रामचरितमानस – “रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।
दोहावली -दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है।
कवितावली - सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं।
गीतावली -गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है।
विनय पत्रिका -विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की।
कृष्ण गीतावली -कृष्ण गीतावली में श्री कृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है।
अपने दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास ने कालक्रमानुसार निम्नलिखित कालजयी ग्रन्थों की रचनाएं कीं -
  • रामललानहछू
  • वैराग्यसंदीपनी
  • रामाज्ञाप्रश्न
  • जानकी-मंगल
  • रामचरितमानस
  • सतसई
  • पार्वती-मंगल
  • गीतावली
  • विनय पत्रिका
  • कृष्ण-गीतावली
  • बरवै रामायण
  • दोहावली
  • कवितावली
तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं।

छोटी रचनाएँ

बरवै रामायण, जानकी मंगल, रामलला नहछू, रामज्ञा प्रश्न, पार्वती मंगल, हनुमान बाहुक, संकट मोचन और वैराग्य संदीपनी तुलसीदास जी की छोटी रचनाएँ हैं।
रामचरितमानस के बाद हनुमान चालीसा, जो कि हिन्दुओं की दैनिक प्रार्थना कही जाती है, तुलसीदास जी की अत्यन्त लोकप्रिय साहित्य रचना है।

निधन

तुलसीदासजी का देहांत सं. 1680 में काशी के असी घाट पर हुआ -
संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।

[साभार-भारतकोश]

हिंदी कविता और हिंदी के कवि


हिंदी में कविता की परंपरा बहुत ही समृद्ध है, यहाँ पर  प्रस्तुत है हिंदी पद्य का संक्षिप्त इतिहास:-
कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की श्रृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है।
काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। कविता या काव्य क्या है, इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है— आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद जैसे प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है, लकिन जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

वीरगाथा काल(सन १००० से १३२५ तक)
  • दलपति विजय,
  • चंदबरदाई,
  • नरपति नाल्ह,
  • जगपति,
  • अमीर खुसरो,
  • विद्यापति आदि हैं।

हिन्दी साहित्य का भक्ति काल १३७५ वि0 से १७०० वि0 तक माना जाता है। यह काल समग्रतः भक्ति भावना से ओतप्रोत काल है। इस काल को समृद्ध बनाने वाली चारा प्रमुख काव्य-धाराएं हैं ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी, कृष्णाश्रयी ओर रामाश्रयी। इन चार भक्ति शाखाओ के चार प्रमुख कवि हुए जो अपनी-अपनी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये कवि हैं क्रमश:

हिंदी साहित्य का रीति काल संवत १६०० से १९०० तक माना जाता है यानि १६४३ई० से १८४३ई० तक। रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी-बंधाई परिपाटी। इस काल को रीतिकाल कहा गया क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बध्दता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की। हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीतिमुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे।

रीतिबद्ध रीतिमुक्त् रीतिसिद्द्

आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें गद्य तथा पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ। जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और यथार्थवादी युग इन चार नामों से जाना गया, वहीं गद्य में इसको, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद‍ शुक्ल व प्रेमचंद युग तथा अद्यतन युग का नाम दिया गया।
अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, या‌त्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख इत्यादि.
इस काल के कवियों को अध्ययन की दॄ्ष्टि से विभिन्न काल-खंडों में बांटा गया है !

(क) भारतेंदु हरिश्चंद्र युग की कविता (१८५०-१९००)
ईस्वी सन १८५० से १९०० तक की कविताओं पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का गहरा प्रभाव पड़ा है। वे ही आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह हैं। उन्होंने भाषा को एक चलता हुआ रूप देने की कोशिश की। आपके काव्य-साहित्य में प्राचीन एवं नवीन का मेल लक्षित होता है। भक्तिकालीन, रीतिकालीन परंपराएं आपके काव्य में देखी जा सकती हैं तो आधुनिक नूतन विचार और भाव भी आपकी कविताओं में पाए जाते हैं। आपने भक्ति-प्रधान, श्रृंगार-प्रधान, देश-प्रेम-प्रधान तथा सामाजिक-समस्या-प्रधान कविताएं की हैं। आपने ब्रजभाषा से खड़ीबोली की ओर हिंदी-कविता को ले जाने का प्रयास किया। आपके युग में अन्य कई महानुभाव ऐसे हैं जिन्होंने विविध प्रकार हिंदी साहित्य को समृध्द किया.इस काल के प्रमुख कवि हैं-
(ख) द्विवेदी युग (१९००-१९२०)
पं महावीर प्रसाद द्विवेदी युग की कविता (१९००-१९२०)
सन 1900 के बाद दो दशकों पर पं महावीर प्रसाद द्विवेदी का पूरा प्रभाव पड़ा। इस युग को इसीलिए द्विवेदी-युग कहते हैं। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक के रूप में आप उस समय पूरे हिंदी साहित्य पर छाए रहे। आपकी प्रेरणा से ब्रज-भाषा हिंदी कविता से हटती गई और खड़ी बोली ने उसका स्थान ले लिया। भाषा को स्थिर, परिष्कृत एवं व्याकरण-सम्मत बनाने में आपने बहुत परिश्रम किया। कविता की दृष्टि से वह इतिवृत्तात्मक युग था। आदर्शवाद का बोलबाला रहा। भारत का उज्ज्वल अतीत, देश-भक्ति, सामाजिक सुधार, स्वभाषा-प्रेम वगैरह कविता के मुख्य विषय थे। नीतिवादी विचारधारा के कारण श्रृंगार का वर्णन मर्यादित हो गया। कथा-काव्य का विकास इस युग की विशेषता है। भाषा खुरदरी और सरल रही। मधुरता एवं सरलता के गुण अभी खड़ी-बोली में आ नहीं पाए थे। सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि इस युग के यशस्वी कवि हैं। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने इसी युग में ब्रज भाषा में सरस रचनाएं प्रस्तुत कीं। इस युग के प्रमुख कवि-
(ग) छायावाद-युग (१९२०-१९३६)
सन १९२० के आसपास हिंदी में कल्पनापूर्ण स्वछंद और भावुक कविताओं की एक बाढ़ आई। यह यूरोप के रोमांटिसिज़्म से प्रभावित थी। भाव, शैली, छंद, अलंकार सब दृष्टियों से इसमें नयापन था। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय हुई इस कविता को आलोचकों ने छायावादी युग का नाम दिया। छायावादी कवियों की उस समय भारी कटु आलोचना हुई परंतु आज यह निर्विवाद तथ्य है कि आधुनिक हिंदी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि इसी समय के कवियों द्वारा हुई।

(घ) उत्तर-छायावाद युग (१९३६-१९४३) यह काल भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल का काल रहा है.राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय,कई विचारधाराओं और आन्दोलनों का प्रभाव इस काल की कविता पर पडा . द्वितीय विश्वयुद्ध के भयावह परिणामों के प्रभाव से भी इस काल की कविता बहुत हद तक प्रभावित है. निष्कर्षत:राष्ट्रवादी, गांधीवादी,विप्लववादी,प्रगतिवादी, यथार्थवादी, हालावादी आदि विविध प्रकार की कवितायें इस काल में लिखी गई. इस काल के प्रमुख कवि हैं--
(च) प्रयोगवाद-नयी कविता (१९४३-१९६०) अज्ञेय ने सात नये कवियों को लेकर १९४३ में 'तारसप्तक' नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया. उन्होंने इन कवियों को प्रयोगशील कहा. कुछ आलोचकों ने इसी आधार पर इन कवियों को प्रयोगवादी कहना शुरु किया और इस काल को प्रयोगवाद नाम दे दिया. इस नाम को नये कवियों ने अस्वीकार किया .इसके बाद पुन:अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित काव्य-संग्रह 'दूसरा सप्तक' की भूमिका तथा उसमें शामिल कुछ कवियों के वक्तव्यों मे अपनी कवितओं के लिये 'नयी कविता' शब्द को स्वीकार किया गया . १९५४ में इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों-जगदीश गुप्त,रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजय देवनरायण साही ने "नयी कविता" नाम से एक पत्रिका प्रकाशित कर बाकायदा 'नयी कविता-आंदोलन' का आरंभ किया .इस काल के प्रमुख कवि है-
 इस प्रकार आधुनिक हिंदी खड़ी बोली कविता ने भी अल्प समय में उपलब्धि के उच्च शिखर सर किए हैं। क्या प्रबंध काव्य, क्या मुक्तक काव्य, दोनों में हिंदी कविता ने सुंदर रचनाएं प्राप्त की हैं। गीति-काव्य के क्षेत्र में भी कई सुंदर रचनाएं हिंदी को मिली हैं। आकार और प्रकार का वैविध्य बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करता है। संगीत-रूपक, गीत-नाटय वगैरह क्षेत्रों में भी प्रशंसनीय कार्य हुआ है। कविता के बाह्य एवं अंतरंग रूपों में युगानुरूप जो नये-नये प्रयोग नित्य-प्रति होते रहते हैं, वे हिंदी कविता की जीवनी-शक्ति एवं स्फूर्ति के परिचायक हैं।
[साभार-विकिपीडिया व अन्य स्रोत]

हिंदी साहित्य का इतिहास


हिन्दी जो भारत और विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है, उसकी जड़ें प्राचीन भारत की संस्कृत भाषा में तलाशी जा सकती हैं। परंतु हिन्दी साहित्य की जड़ें मध्ययुगीन भारत की ब्रजभाषा, अवधी, मैथिली और मारवाड़ी जैसी भाषाओं के साहित्य में पाई जाती हैं। हिंदी में गद्य का विकास बहुत बाद में हुआ और इसने अपनी शुरुआत कविता के माध्यम से की जो ज्यादातर लोकभाषा के साथ प्रयोग कर विकसित की गई। हिंदी में तीन प्रकार का साहित्य मिलता है। गद्य पद्य और चम्पू। हिंदी की पहली रचना कौन सी है इस विषय में विवाद है लेकिन ज़्यादातर साहित्यकार देवकीनन्दन खत्री द्वारा लिखे गये उपन्यास चंद्रकांता को हिन्दी की पहली प्रामाणिक गद्य रचना मानते हैं।
सबसे पुराना जीवित साहित्य ऋग्वेद है जो संस्कृत भाषा में लिखा गया है। संस्कृत,पालि, प्राकृत और अपभ्रंश आदि अनेक भाषाओं से गुज़रते हुए आज हम भारतीय साहित्य के आधुनिक युग तक पहुंचे हैं। भारत मे ३० से भी ज्यादा मुख्य भाषाए है और १०० से भी अधिक क्षेत्रीय भाषाए है, लगभग हर भाषा मे साहित्य का प्रचुर विकास हुआ है। भारतीय भाषाओ के साहित्य मे लिखित और मौखिक दोनो ही महत्वपूर्ण है। प्राचीन भारतीय साहित्य मे हिन्दू धार्मिक ग्रंथो की अहम भूमीका रही। वेदो के साथ-साथ रामायण और महाभारत जैसे महाग्रंथ प्राचीन भारत मे रचे गए। अन्य प्राचीन ग्रंथो मे वास्तू शास्त्र, कौतुल्य अर्थ-शास्त्र, पंचतंत्र, हितोपदेश आदी प्रमुख है। प्राचीन भारत के लेखको मे कवि कालीदास का खास वर्णन होता है, उनकी रचनाए संस्कृत मे है। इनमे प्रमुख है - अभिज्ञान शाकुंतलम, मेघदूत, ऋतुसंहार, रघुवंशम और कुमारसंभवम।

हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। यह वह समय है जब सम्राट् हर्ष की मृत्यु के बाद देश में अनेक छोटे छोटे शासनकेंद्र स्थापित हो गए थे जो परस्पर संघर्षरत रहा करते थे। विदेशी मुसलमानों से भी इनकी टक्कर होती रहती थी। हिन्दी साहित्य के विकास को आलोचक सुविधा के लिये पाँच ऐतिहासिक चरणों में विभाजित कर देखते हैं, जो क्रमवार निम्नलिखित हैं:-
  • आदिकाल (१४०० इसवी से पहले)
  • भक्ति काल (१३७५-१७००)
  • रीति काल (१६००-१९००)
  • आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)
  • नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात)

आदिकाल (१४०० इसवी से पहले)

भक्ति काल (१३७५-१७००)

कबीरदास (१३९९)-(१५१८) मलिक मोहम्मद जायसी (१४७७-१५४२) सूरदास (१४७८-१५८०) तुलसीदास (१५३२-१६०२)

रीति काल (१६००-१९००)

केशव (१५४६-१६१८), बिहारी (१६०३-१६६४), भूषण (१६१३-१७०५), मतिराम, घनानन्द , सेनापति आदि इस युग के प्रमुख रचनाकार रहे।

आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)

अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, या‌त्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख इत्यादि.

नव्योत्तर काल (१९८० ईस्वी के पश्चात)

कंप्यूटर के आम प्रयोग में आने के साथ साथ हिंदी में कंप्यूटर से जुड़ी नई विधाओं का भी समावेश हुआ है, जैसे- चिट्ठालेखन और जालघर की रचनाएं। हिन्दी में अनेक स्तरीय हिंदी चिट्ठे, जालघर व जाल पत्रिकायें हैं। यह कंप्यूटर साहित्य केवल भारत में ही नहीं अपितु विश्व के हर कोने से लिखा जा रहा है. इसके साथ ही अद्यतन युग में प्रवासी हिंदी साहित्य के एक नए युग का आरंभ भी माना जा सकता है।
भारतवर्ष अनेक भाषाओं का विशाल देश है - उत्तर-पश्चिम में पंजाबी, हिन्दी और उर्दू; पूर्व में उड़िया, बंगाल में असमिया; मध्य-पश्चिम में मराठी और गुजराती और दक्षिण में तमिल, तेलुगु, कन्नड़ और मलयालम। इनके अतिरिक्त कतिपय और भी भाषाएं हैं जिनका साहित्यिक एवं भाषावैज्ञानिक महत्त्व कम नहीं है- जैसे कश्मीरी, डोगरी, सिंधी, कोंकणी, तूरू आदि। इनमें से प्रत्येक का, विशेषत: पहली बारह भाषाओं में से प्रत्येक का, अपना साहित्य है जो प्राचीनता, वैविध्य, गुण और परिमाण- सभी की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध है। यदि आधुनिक भारतीय भाषाओं के ही संपूर्ण वाङ्मय का संचयन किया जाये तो वह यूरोप के संकलित वाङ्मय से किसी भी दृष्टि से कम नहीं होगा। वैदिक संस्कृत, संस्कृत, पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों का समावेश कर लेने पर तो उसका अनंत विस्तार कल्पना की सीमा को पार कर जाता है- ज्ञान का अपार भंडार, हिंद महासागर से भी गहरा, भारत के भौगोलिक विस्तार से भी व्यापक, हिमालय के शिखरों से भी ऊँचा और ब्रह्म की कल्पना से भी अधिक सूक्ष्म।
भारत की प्रत्येक भाषा के साहित्य का अपना स्वतंत्र और प्रखर वैशिष्ट्य है जो अपने प्रदेश के व्यक्तित्व से मुद्रांकित है। पंजाबी और सिंधी, इधर हिन्दी और उर्दू की प्रदेश-सीमाएँ कितनी मिली हुई हैं ! किंतु उनके अपने-अपने साहित्य का वैशिष्ट्य कितना प्रखर है ! इसी प्रकार गुजराती और मराठी का जन-जीवन परस्पर ओतप्रोत है, किंतु क्या उनके बीच में किसी प्रकार की भ्रांति संभव है ! दक्षिण की भाषाओं का उद्गम एक है : सभी द्रविड़ परिवार की विभूतियाँ हैं, परन्तु क्या कन्नड़ और मलयालम या तमिल और तेलुगु के स्वारूप्य के विषय में शंका हो सकती है ! यही बात बँगला, असमिया, और उड़िया के विषय में सत्य है। बँगाल के गहरे प्रभाव को पचाकर असमिया और उड़िया अपने स्वतंत्र अस्तित्व को बनाये हुए हैं।
इन सभी साहित्यों में अपनी-अपनी विशिष्ट विभूतियाँ हैं। तमिल का संगम-साहित्य, तेलगु के द्वि-अर्थी काव्य और उदाहरण तथा अवधान-साहित्य, मलयालम के संदेश-काव्य एवं कीर-गीत (कलिप्पाटु) तथा मणिप्रवालम् शैली, मराठी के पवाड़े, गुजराती के अख्यान और फागु, बँगला का मंगल काव्य, असमिया के बड़गीत और बुरंजी साहित्य, पंजाबी के रम्याख्यान तथा वीरगति, उर्दू की गजल और हिंदी का रीतिकाव्य तथा छायावाद आदि अपने-अपने भाषा–साहित्य के वैशिष्ट्य के उज्ज्वल प्रमाण हैं।
फिर भी कदाचित् यह पार्थक्य आत्मा का नहीं है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचार-धाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिवयंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज-संभव है। भारतीय साहित्य का प्राचुर्य और वैविध्य तो अपूर्व है ही, उसकी यह मौलिकता एकता और भी रमणीय है।

दक्षिण में तमिल और उधर उर्दू को छोड़कर भारत की लगभग सभी भारतीय भाषाओं का जन्म-काल प्रायः समान ही है। तेलगू-साहित्य के प्राचीनतम ज्ञात कवि हैं नन्नय, जिनका समय है ईसा की ग्यारहवीं सती। कन्नड़ का प्रथम उपलब्ध ग्रंथ है ‘कविराजमार्ग’, जिसके लेखक हैं राष्क्रूट-वंश के नरेश नृपतुंग (814-877 ई.); और मलयालम की सर्वप्रथम कृति हैं ‘रामचरितम’ जिसके विषय में रचनाकाल और भाषा-स्वरूप आदि की अनेक समस्याएँ और जो अनुमानतः तेरहवीं शती की रचना है। गुजराती तथा मराठी का आविर्भाव-काल लगभग एक ही है। गुजराती का आदि-ग्रंथ सन् 1185 ई. में रचित शालिभद्र भारतेश्वर का ‘बाहु-बलिरास’ है और मराठी के आदिम साहित्य का आविर्भाव बारहवीं शती में हुआ था। यही बात पूर्व की भाषाओं में सत्य है। बँगला की चर्या-गीतों की रचना शायद दसवीं और बारहवीं शताब्दी के बीच किसी समय हुई होगी; असमिया-साहित्य के सबसे प्राचीन उदाहरण प्रायः तेरहवीं शताब्दी के अंत के हैं जिनमें सर्वश्रेष्ठ हैं हेम सरस्वती की रचनाएँ ‘प्रह्लादचरित्र’ तथा ‘हरिगौरीसंवाद’। उड़िया भाषा में भी तेरहवीं शताब्दी में निश्चित रूप से व्यंग्यात्मक काव्य और लोकगीतों के दर्शन होने लगते हैं।
उधर चौदहवीं शती में तो उड़िया के व्यास सारलादास का आविर्भाव हो ही जाता है। इसी प्रकार पंजाबी और हिंदी में ग्यारहवीं शती से व्यस्थित साहित्य उपलब्ध होने लगता है। केवल दो भाषाएँ ऐसी हैं जिनका जन्मकाल भिन्न है—तमिल, जो संस्कृत के समान प्राचीन है (यद्यपि तमिल-भाषी उसका उद्गम और भी पहले मानते हैं) और उर्दू, जिसका वास्तविक आरंभ पंद्रहवीं शती से पूर्व नहीं माना जा सकता। हालाँकि कुछ विद्वान उर्दू का भी उद्भव 13-14 वीं शती के बाबा फ़रीद, अब्दुल्ला हमीद नागोरी तथा अमीर खुसरो की रचनाओं से मानने लगे हैं।

जन्मकाल के अतिरिक्त आधुनिक भारतीय साहित्यों के विकास के चरण भी प्रायः समान ही हैं। प्रायः सभी का आदिकाल पंद्रहवीं शती तक चलता है। पूर्वमध्यकाल की समाप्ति मुगल-वैभव के अंत अर्थात शती के मध्य में तथा सत्रहवीं शती के मध्य में तथा उत्तर मध्याकाल की अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के साथ होती है और तभी से आधुनिक युग का आरंभ हो जाता है। इस प्रकार भारतीय भाषाओं के अधिकांश साहित्यों का विकास-क्रम लगभग एक-सा ही है; सभी प्रायः समकालीन चार चरणों में विभक्त हैं। इस समानांतर विकास-क्रम का आधार अत्यंत स्पष्ट है, और वह है भारत के राजनीतिक एवं सांस्कृतिक जीवन का विकास-क्रम।

बीच-बीच में व्यवधान होने पर भी भारतवर्ष में शताब्दियों तक समान राजनीतिक व्यवस्था रही है। मुगल-शासन में तो लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक उत्तर-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम में घनिष्ठ संपर्क बना रहा। मुगलों की सत्ता खंडित हो जाने के बाद भी यह संपर्क टूटा नहीं। मुगल-शासन के पहले भी राज्य-विस्तार के प्रयत्न होते रहे थे। राजपूतों में कोई एक छत्र भारत-सम्राट तो नहीं हुआ, किंतु उनके राजवंश भारतवर्ष के अनेक भागों में शासन कर रहे थे। शासन भिन्न-भिन्न होने पर भी उनकी सामंतीय शासन-प्रणाली प्रायः एक-सी थी। इसी प्रकार मुसलमानों की शासन प्रणाली में भी स्पष्ट मूलभूत समानता थी। बाद में अँग्रेजों ने तो केन्द्रीय शासन-व्यवस्था कायम कर इस एकता को और भी दृढ़ कर दिया। इन्हीं सब कारणों से भारत के विभिन्न भाषा-भाषी प्रदेशों की राजनीतिक परिस्थितियों में पर्याप्त साम्य रहा है।

राजनीतिक परिस्थितियों की अपेक्षा सांस्कृतिक परिस्थितियों का साम्य और भी अधिक रहा है। पिछले सहस्राब्द में अनेक धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन ऐसे हुए जिनका प्रभाव भारतव्यापी था। बौद्ध-धर्म के ह्रास के युग में उसकी कई शाखाओं और शैव-शाक्त धर्मों के संयोग से नाथ-संप्रदाय उठ खड़ा हुआ जो ईसा के द्वितीय सहस्राब्द के आरंभ में उत्तर में तिब्बत आदि तक, दक्षिण में पूर्वी घाट के प्रदेशों में, पश्चिम में महाराष्ट्र आदि में और पूर्व में प्रायःसर्वत्र फैला हुआ था। योग की प्रधानता होने पर भी इन साधुओं की साधना में, जिनमें नाथ, सिद्ध और शैव सभी थे, जीवन के विचार और भाव-पक्ष की उपेक्षा नहीं थी और इनमें से अनेक साधु आत्माभिव्यक्ति एवं सिद्धांत-प्रतिपादन दोनों के लिए कवि-कर्म में प्रवृत्त होते थे। भारतीय भाषाओं के विकास के प्रथम चरण में इन सम्प्रदायों का प्रभाव प्रायः विद्यमान था। इनके बाद इनके उत्तराधिकारी संत-सम्प्रदायों और नवागत मुसलमानों के सूफी-संत का प्रसार देश के भिन्न-भिन्न भागों में होने लगा। संत-संप्रदाय वेदांत दर्शन से प्रभावित थे और निर्गुण भक्ति की साधना तथा प्रचार करते थे। सूफी धर्म में भी निराकार ब्रह्म की ही उपासना थी, किंतु उसका माध्यम था उत्कट प्रेमानुभूति।
सूफी-संतो का यद्यपि उत्तर-पश्चिम में अधिक प्रभुत्व था, फिर भी दक्षिण के बीजापुर और गोलकुंडा राज्यों में भी इनके अनेक केंद्र थे और वहाँ भी अनेक प्रसिद्ध सूफी संत हुए। इनके पश्चात् वैष्णव आंदोलन का आरंभ हुआ जो समस्त देश में बड़े वेग से व्याप्त हो गया। राम और कृष्ण की भक्ति की अनेक मधुर पद्धतियों की देश-भर में प्रसार हुऐ और समस्त भारतवर्ष सगुण ईश्वर के लीला-गान से गुंजारित हो उठा। उधर मुस्लिम संस्कृति और सभ्यता का प्रभाव भी निरंतर बढ़ रहा था। ईरानी संस्कृति के अनेक आकर्षक तत्त्व-जैसे वैभव-विलास, अलंकरण सज्जा आदि भारतीय जीवन में बड़े वेग से घुल-मिल रहे थे और एक नयी दरबारी या नागर संस्कृति का आविर्भव हो रहा था। राजनीतिक और आर्थिक प्रभाव के कारण यह संस्कृति शीघ्र ही अपना प्रसादमय प्रभाव खो बैठी और जीवन के उत्कर्ष एवं आनन्दमय पक्ष के स्थान पर रुग्ण विलासिता है इसमें रह गयी। तभी पश्चिम के व्यापारियों का आगमन हुआ जो अपने साथ पाश्चात्य-शिक्षा का संस्कार लाये और जिनके पीछे-पीछे मसीही प्रचारकों के दल भारत में प्रवेश करने लगे। उन्नीसवीं शती में अंग्रेजी को प्रभुत्व सारे देश में स्थापित हो गया और शासक वर्ग सक्रिय रूप से योजना बनाकर अपनी शिक्षा, संस्कृति और उनके माध्यम से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अपने धर्म का प्रसार करने लगा। प्राच्य और पाश्चात्य के इस संपर्क और संघर्ष से आधुनिक भारत का जन्म हुआ।

भारत की भाषाओं का परिवार यद्यपि एक नहीं है, फिर भी उनका साहित्यिक आधारभूमि एक ही है। रामायण, महाभारत, पुराण, भागवत, संस्कृत का अभिजात्य साहित्य - अर्थात् कालिदास, भवभूति, बाण, श्रीहर्ष, अमरुक और जयदेव आदि की अमर कृतियाँ, पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश में लिखित बौद्ध, जैन तथा अन्य धर्मों का साहित्य भारत की समस्त भाषाओं को उत्तराधिकार में मिला। शास्त्र के अंतर्गत उपनिषद्, षड्दर्शन, स्मृतियाँ आदि और उधर काव्यशास्त्र के अनेक अमर ग्रंथ—नाट्यशास्त्र, ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण रसगांधर आदि की विचार-विभूति का उपयोग भी सभी ने निरंतर किया है। वास्तव में आधुनिक भारतीय भाषाओं के ये अक्षय प्रेरणा-स्रोत हैं जो प्रायः सभी को समान रूप से प्रभावित करते रहे हैं। इनका प्रभाव निश्चय ही अत्यंत समन्वयकारी रहा है और इनसे प्रेरित साहित्य में एक प्रकार की मूलभूत समानता स्वतः ही आ गई है।—इस प्रकार समान राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यकि आधारभूमि पर पल्लवित-पुष्पित भारतीय साहित्य में जन्मजात समानता एक सहज घटना है।
[साभार-विकिपीडिया व अन्य]

शुक्रवार, 2 सितंबर 2011

उलट दिए प्रकृति के नियम

कृत्रिम कोशिकाओं के ज़रिए धरती पर इंसान बनाने का सपना, अंडे और मुर्गी की गुत्थी सुलझाने का दावा या फिर बूढ़े चूहों को जवान कर दिखाने का कमाल. साल 2010 में इंसान ने लगातार ईश्वर और प्रकृति से एक कदम आगे रहने की कोशिशें की. विज्ञान के लिहाज़ से अलग-अलग क्षेत्रों में कैसा रहा ये साल, आइए डालते हैं एक नज़र.
2010 की सबसे बड़ी उपलब्धि के रुप में वैज्ञानिकों ने एक क्लिक करें कृत्रिम कोशिका बना कर जीव विज्ञान के क्षेत्र में तहलका मचा दिया. इस कोशिका का डीएनए पूरी तरह कृत्रिम था.
माना जा रहा है कि अमरीकी अनुसंधानकर्ताओं की यह कामयाबी कृत्रिम जीवन बनाने की दिशा में एक पहल साबित होगी.
लंदन के वैज्ञानिकों ने भी एक कृत्रिम रक्त नली (रक्त धमनी) बनाने में सफलता हासिल की. बढ़ती उम्र के चलते, बाईपास सर्जरी के लिए जिन लोगों के शरीर से स्वस्थ रक्त नली मिलना मुश्किल है, उनके लिए ये कृत्रिम नली वरदान साबित होगी.
इस साल ऑक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय के अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि हर दिन संतुलित मात्रा में क्लिक करें एस्प्रिन का सेवन हर तरह के कैंसर से बचाव करता है. हर दिन एस्प्रिन लेने वाले मरीज़ों में कैंसर से मौत का ख़तरा 25 फीसदी तक कम हो गया.
इस बीच अमरीका के डॉक्टरों ने प्रयोगशाला से एक कदम आगे मरीज़ों के शरीर पर क्लिक करें स्टेम कोशिकाओं के प्रयोग शुरु किए.
स्टेम कोशिकाओं की ख़ासियत है कि वो शरीर में मौजूद किसी भी कोशिका का रुप ले सकती हैं.
अगर ये प्रयोग सफल रहे तो कोशिकाओं के मृत होने से जुड़ी बीमारियों के इलाज और उन्हें बदलने में स्टेम कोशिकाएं चमत्कारी रुप से काम करेंगी.
कनाडा के मैक्मास्टर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने त्वचा की कोशिकाओं से रक्त बनाने का कारनामा भी कर दिखाया. त्वचा के तीन से चार सेंटिमीटर के हिस्से से एक वयस्क की ज़रूरत लायक खून बनाया जा सकता है. [साभार-बीबीसी हिंदी]

अंतरिक्ष में कचरा ख़तरनाक स्तर पर

अमरीका में वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि अंतरिक्ष में 'कचरा' ख़तरनाक़ स्तर पर पहुँच गया है. अमरीका की नेशनल रिसर्च काउंसिल ने एक रिपोर्ट में कहा है कि बेकार हुए बूसटर और पुराने उपग्रह पृथ्वी के कक्ष में पृथ्वी के आसपास चक्कर लगा रहे हैं.
             इस रिपोर्ट में ये भी कहा है कि इनसे अंतरिक्ष यान और उपयोगी उपग्रह नष्ट हो सकते है और इससे पहले कि कोई भीषण दुर्घटना हो जाए, अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा को इन्हें हटाने का काम करना चाहिए.
         नेशनल रिसर्च काउंसिल यानी राष्ट्रीय अनुसंधान परिषद ने अपनी रिपोर्ट में आहवान किया है कि अंतरिक्ष में जमा हुए 'कचरे' को सीमित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय नियम बनाए जाने चाहिए.
इसमें ये भी कहा गया है कि चुम्बकीय नेट या विशालकाय छतरियों के संभावित इस्तेमाल पर और शोध होना चाहिए ताकि इस संकट का समाधान किया जा सके. अंतरिक्ष में कचरे को सीमित करने के प्रयास को हाल के वर्षों में दो झटके लगे हैं.
वर्ष 2007 में चीन में उपग्रह निरोधक हथियार का टेस्ट किया था. इससे मौसम की जानकारी एकत्र करने वाला एक पुराना उपग्रह नष्ट हो गया और वह एक सेंटीमीटर से कुछ बड़े डेढ़ लाख हिस्सों में बिखर गया.
दो साल बाद पृथ्वी के कक्ष में एक सक्रिय उपग्रह और एक पुराने उपग्रह की टक्कर हुई जिससे और कचरा फैल गया.
नेशनल रिसर्च काउंसिल के शोध का नेतृत्व करने वाले डोनल्ड कैसलर ने कहा, "हाल के वर्षों में हुई इन दो घटनाओं (चीन के टेस्ट और उपग्रहों की टक्कर) से पृथ्वी के कक्ष में कचरे के हिस्सों की तादाद दो गुना हो गई और कचरा हटाने के हमारे पिछले 25 साल के प्रयासों पर पानी फिर गया. हमने (अंतरिक्ष में) पर्यावरण का नियंत्रण खो दिया है."
अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन को भी इन कचरे के ढेरों से बच कर निकलना पड़ता है क्योंकि ये पृथ्वी के कक्ष में 17,500 मील प्रति घंटे की गति से चलते हैं. [साभार-बीबीसी हिंदी]