नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 31 जनवरी 2015

लोकतंत्र की प्रगति



जहां तक लोकतंत्र का संबंध है, वह मानता है कि मनुष्य दरअसल असमान होते हैं, और फिर भी वह कहता है कि हरेक मनुष्य के साथ ऐसा बर्ताव किया जाना चाहिए मानो उसका राजनीतिक समाजी महत्व सबके बराबर है। अगर इस लोकतंत्री सिद्धान्त को पूरी तरह मान लें तो हम तरह-तरह के क्रांतिकारी नतीजों पर पहुंच जाते हैं। यहां हमें इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं, लेकिन इस सिद्धांत से लाजिमी  नतीजा यह निकला कि शासन करने वाली विधान-सभा या संसद के लिए प्रतिनिधि के चुनाव में हर व्यक्ति को वोट देने का हक होना चाहिए। वोट देने का हक राजनीतिक सत्ता का निशान है, और यह मान लिया गया है कि अगर हर आदमी को वोट का हक हो तो उसे राजनीतिक सत्ता में बराबर का हिस्सा मिल जाएगा। इसलिए सारी उन्नीसवीं सदी में लोकतंत्र की खास मांग यह थी कि मताधिकार बढ़ाया जाय। लोकतंत्र का यह तो कभी कहना नहीं था कि सब मनुष्य असलियत में बराबर हैं। वह ऐसा कह भी नहीं सकता था, क्योंकि यह तो जाहिर ही है कि मनुष्य-मनुष्य के बची असमानताएं होती हंै; तन की असमानताएं जिनके सबब से ही कुछ लोग दूसरों से बलवान होते हैं; दिमागी असमानताएं जिनसे कुछ लोग दूसरों से ज्यादा काबिल बुद्धिमान दिखाई देते हैं; और नैतिक असमानताएं जो कुछ को स्वार्थी बनाती हंै और कुछ को नहीं।  
 यह बिलकुल मुमकिन है कि इनमें से बहुत-सी असमानताएं अलग-अलग तरह के लालन-पालन शिक्षा के सबब से या शिक्षा के अभाव से होती हों। दो एक-सी काबलियत वाले लड़कों या लड़कियों में से एक को अच्छी शिक्षा दे दो और दूसरे को बिलकुल दो, तो कुछ वर्षों बाद दोनों में जबर्दस्त फर्क हो जायगा। या एक को तन्दुरुस्ती बढ़ानेवाला भोजन दो, और दूसरे को खराब और नाकाफी भोजन दो, तो पहला ठीक तरह से बढ़ेगा और दूसरा कमजोर, रोगी और दुबला-पतला रहेगा। इसलिए लालन-पालन, चौगिर्द, ट्रेनिंग शिक्षा मनुष्य में भारी भेद पैदा कर देते हैं। और हो सकता है कि अगर सबको एक ही तरह की ट्रेनिंग और मौके मिलें तो असमानता आज के मुकाबले में कम हो जाय। असल में यह बहुत सम्भव है। लेकिन जहां तक लोकतंत्र का संबंध है, वह मानता है कि मनुष्य दरअसल असमान होते हैं, और फिर भी वह कहता है कि हरेक मनुष्य के साथ ऐसा बर्ताव किया जाना चाहिए मानो उसका राजनीतिक समाजी महत्व सबके बराबर है। अगर इस लोकतंत्री सिद्धान्त को पूरी तरह मान लें तो हम तरह-तरह के क्रांतिकारी नतीजों पर पहुंच जाते हैं। यहां हमें इसकी चर्चा करने की जरूरत नहीं, लेकिन इस सिद्धांत से लािामी नतीजा यह निकला कि शासन करनेवाली विधान-सभा या संसद के लिए प्रतिनिधि के चुनाव में हर व्यक्ति को वोट देने का हक होना चाहिए। वोट देने का हक राजनीतिक सत्ता का निशान है, और यह मान लिया गया है कि अगर हर आदमी को वोट का हक हो तो उसे राजनीतिक सत्ता में बराबर का हिस्सा मिल जाएगा। इसलिए सारी उन्नीसवीं सदी में लोकतंत्र की खास मांग यह थी कि मताधिकार बढ़ाया जाय। बालिग मताधिकार का मतलब यह होता है कि हर बालिग व्यक्ति को वोट देने का अधिकार हो। बहुत समय तक स्त्रियों को वोट देने का अधिकार नहीं था, और बहुत दिन नहीं हुए जब स्त्रियों ने, खासतौर पर इंग्लैण्ड में, इस बारे में जबर्दस्त आन्दोलन किया था। ज्यादातर उन्नत देशों में आजकल स्त्रियों और पुरुषों दोनों को बालिग मताधिकार हासिल है। मगर विचित्र बात यह हुई कि जब ज्यादातर लोगों को वोट का हक मिल गया, तब उन्हें मालूम पड़ा कि इससे उनकी हालत में कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ा। वोट का हक मिल जाने पर भी राज्य में या तो उन्हें कुछ भी सत्ता नहीं मिली या बहुत ही थोड़ी मिली। भूखे आदमी को मताधिकार किस काम का? असली सत्ता तो उन लोगों के हाथों में रही, जो उसकी भूख से फायदा उठा सकते थे और उसे मजबूर करके अपने फायदे का कोई भी मनचाहा काम उससे करा लेते थे। बस, वोट के हक से जिस राजनीतिक सत्ता के मिलने का ख्याल था, वह बिना असलियत की परछाई और बिना आर्थिक सत्तावाली साबित हुई। शुरू के लोकतंत्रवादियों के वे रौनकदार सपने कि मताधिकार मिलते ही बराबरी जायेगी, झूठे साबित हुए। मगर यह बात तो बहुत आगे चलकर पैदा हुई। शुरू के दिनों में, यानी अठारहवीं सदी के अंत और उन्नीसवीं सदी के शुरू में, लोकतंत्रवादियों में बड़ा जोश था। लोकतंत्र सबको ााद और बराबरी का नागरिक बनाने वाला था, और सरकार राज्य सबके सुख का उपाय करनेवाले! अठारहवीं सदी के बादशाहों और सरकारों ने जैसी मनमानी चलाई थी और अपनी निरंकुश सत्ता का जैसा बुरा इस्तेमाल किया था, उसके खिलाफ बड़ी प्रतिक्रिया हुई। इससे लोगों को अपनी घोषणाओं में व्यक्तियों के हकों का भी ऐलान करना पड़ा। शायद अमेरिका और फ्रांस की घोषणाओं में व्यक्तियों के हकों के ये बयान जरूरत से कुछ आगे बढ़ गये थे। समाज की गठरी में से व्यक्तियों को अलग-अलग करके उन्हें पूरी ाादी दे सकना आसान नहीं है। ऐसे व्यक्ति और समाज के हित आपस में टकरा सकते हैं और टकराते भी हैं। खैर, कुछ भी हो, लोकतंत्र व्यक्तियों को खूब ाादी देने का दम भरता है। इंग्लैण्ड पर, जो अठारहवी सदी में राजनीतिक विचारों में पिछड़ा हुआ था, अमेरिका और फ्रांस की राज्यक्रांतियों का गहरा असर पड़ा। उस पर पहली प्रतिक्रिया तो इस दहशत की हुई कि नये लोकतंत्री विचारों से देश में समाजी क्रांति हो जाय। शासन-वर्ग पहले से भी ज्यादा कट्टर और प्रतिगामी हो गये। फिर भी दिमागी लोगों में नये विचार फैलते गए। टामस पेन इस जमाने का एक दिलचस्प अंग्रेज हुआ है। स्वाधीनता के युद्ध के समय यह अमेरिका में था, और उसने अमेरिकावासियों की मदद की थी। मालूम होता है कि अमेरिकी लोगों का विचार पूरी स्वाधीनता की तरफ बदल देने में इसका भी कुछ हाथ था। इंग्लैण्ड लौटने पर उसने फ्रांस की राज्य-क्रांति की पैरवी में ''दि राइट्स ऑफ मैनÓÓ (मनुष्य के अधिकार) नामक पुस्तक लिखी। यह क्रांति उस समय शुरू ही हुई थी। इस पुस्तक में उसने राजाशाही पर हमला किया और लोकतंत्र की हिमायत की। इसके लिए ब्रिटिश सरकार ने उसे बागी करार दिया और उसे भागकर फ्रांस चला जाना पड़ा। पेरिस में वह बहुत जल्द नेशनल कन्वेंशन का सदस्य बन गया, मगर 1793 . में जैकोबिनी लोगों ने उसे कैद कर दिया, क्योंकि उसने सोलहवें लुई की हत्या का विरोध किया था। पेरिस के जेलखाने में उसने 'दि एज ऑफ रीजनÓ (तर्क का युग) नाम की दूसरी पुस्तक लिखी। इसमें उसने ाहबी नजरिये की बुराई की। रोबेसपीर की मृत्यु के बाद उसे पेरिस जेल से छोड़ दिया गया। चूंकि स्पेन अंग्रेजी अदालतों के दायरे के बाहर था, इसलिए इस पुस्तक को छापने के जुर्म में उसके अंग्रेज प्रकाशन को कैद की सजा दे दी गई। ऐसी पुस्तक समाज के लिए खतरनाक समझी गई, क्योंकि गरीबों को जहां-का-तहां रखने के लिए ाहब जरूरी माना जाता था। पेन की पुस्तक के कई प्रकाशन जेल भेज दिये गए। इनमें स्त्रियां भी थीं। यह दिलचस्पी की बात है कि कवि शेली ने इस सजा के विरोध में न्यायाधीश को एक पत्र लिखा था। उन्नीसवीं सदी के सारे अगले हिस्से में जो लोकतंत्री विचार फैले, यूरोप में उनकी बुनियाद डालने वाली फ्रांस की राज्यक्रांति थी। हालतें जल्दी-जल्दी बदल रही थीं, फिर भी क्रांति के विचार सचमुच बने ही रहे। ये लोकतंत्री विचार बादशाहों के निरंकुशता के खिलाफ दिमागी प्रतिक्रिया थे। इन विचारों की जड़ उद्योगवाद से पहले की हालतों में थी। लेकिन भाप और बड़ी-बड़ी मशीनों का नया उद्योग पुरानी व्यवस्था को पूरी तरह उलट रहा था। फिर भी यह अजीब बात है कि शुरू उन्नीसवीं सदी के वाम-दलीय और लोकतंत्रवादी इन परिवर्तनों को दर गुजर करते रहे और क्रांति मानव-अधिकारों की घोषणा की लच्छेदार भाषा में ही बातें करते रहे। शायद उनके विचार में ये परिवर्तन निरे दुनियावी चीजों से ताल्लुक रखने वाले थे और लोकतंत्र की ऊंची आध्यात्मिक, नैतिक और राजनीतिक मांगों पर उनका कोई असर नहीं पड़ता था। मगर दुनियावी चीजों का ऐसा ढंग होता है कि उनको छोड़ा नहीं जा सकता। यह बड़ी दिलचस्पी की बात है कि लोगों के लिए पुराने विचार छोडऩा ओर नये अपनाना बहुत ही कठिन होता है। वे अपनी आंखें और अपने दिमागों को बंद कर लेते हैं और देखने से ही इंकार कर देते हैं और पुरानी बातों से उन्हें नुकसान पहुंचता हो तो उनसे चिपके रहने के लिए लड़ते हैं। नये विचारों को कबूल करने और अपने-आपको नई हालतों में ढालने के सिवा वे सब कुछ करने को तैयार रहते हैं। कट्टरपन में बड़ी जबर्दस्त शक्ति होती है। अपने को बहुत उन्नतिशील समझनेवाले वामदली लोग भी अक्सर पुराने और थोथे विचारों से चिपके रहते हैं और बदलती हुई हालतों की तरफ से आंखें मूंद लेते हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि प्रगति धीमी पड़ जाती है और अक्सर करके असली हालतें लोगों के विचारों से बहुत पीछे रह जाती है, जिसका नतीजा यह होता है कि क्रांतिकारी हालतें पैदा हो जाती हैं। इस तरह बीसियों वर्षों तक लोकतंत्रवाद का काम सिर्फ फ्रांस की राज्यक्रांति के विचारों और परम्पराओं को जारी रखना ही रहा। लोकतंत्रवाद ने अपने-आपको नई हालतों में नहीं ढाला। इसका नतीजा यह हुआ कि सदी का अंत होते-होते  वह कमजोर पड़ गया और बाद में बीसवीं सदी में तो बहुतों ने उसे बिल्कुल ही छोड़ दिया। आज भारत में भी हमारे बहुतेरे प्रगतिशील राजनीतिज्ञ अभी तक फ्रांस की राज्य-क्रांति की और मानव-अधिकारों की बातें करते हैं, इस बात को नहीं महसूस करते कि तबसे अब तक क्या-क्या हो चुका है। शुरू के लोकतंंत्रवादियों का बुद्धिवाद को अपनाना लाजिमी था। विचार और भाषण की स्वतंत्रता की उनकी मांग का कट्टरपंथी ाहब धर्मशास्त्रवाद के साथ समझौता होना असम्भव था। इस तरह लोकतंत्रवाद और विज्ञान ने मिलकर धर्मशास्त्री रूढिय़ों का शिकंजा ढीला किया। लोग बाइबिल की भी जांच करने की हिम्मत करने लगे, मानो वह एक मामूली पुस्तक थी और ऐसी चीज नहीं थी जिसे बिना शंका के अंधी भक्ति के साथ मान लिया जाय। बाइबिल की इस आलोचना को 'ऊंचे दर्जें की आलोचनाÓ कहा गया। इन आलोचकों ने यह नतीजा निकाला कि बाइबिल अलग-अलग युगों के अलग-अलग व्यक्तियों के लेखों का संग्रह है। उनका यह भी मत था कि ईसा का कोई ाहब चलाने का इरादा नहीं था। इस आलोचना से कितने ही पुराने विश्वास हिल गये। जैसे-जैसे विज्ञान और लोकतंत्री विचारों के सबब पुरानी ाहबी नीवें कमजोर होती गर्इं वैसे-वैसे पुराने मजहब बिठाने के लिए एक नया दर्शन रचने के जतन किये गए। ऐसा ही एक जतन आगस्त कौन्त नामक फ्रांसीसी दार्शनिक ने किया था। इसका समय सन् 1798 से 1857 . तक है। कौन्त ने महसूस किया कि पुराने धर्म-शास्त्रवाद और कट्टरपंथी मजहब का जमाना जाता रहा, मगर उसे यह भी विश्वास हो गया कि समाज को किसी--किसी मजहब की जरूरत है। इसलिए उसने 'मानव-धर्मÓ का प्रस्ताव किया और उसका नाम 'धनात्मकवादÓ रखा। इसके आधार प्रेम, व्यवस्था और प्रगति रखे गये। इसमें कोई बात अलौकिक नहीं थी; इसका आधार विज्ञान था। उन्नीसवीं सदी की दूसरी सब चालू विचारधाराओं की तरह इस विचारधारा के पीछे भी मनुष्यजाति की प्रगति का विचार था। कौन्त के ाहब पर कुछ गिने-चुने दिमागी लोगों का ही विश्वास रहा, मगर यूरोप के विचारों पर उसका आम असर खूब पड़ा। मानव-समाज और संस्कृति से ताल्लुक रखने वाले समाजशास्त्र का अध्ययन इसी का शुरू किया हुआ समझना चाहिए। अंग्रेज दार्शनिक और अर्थशास्त्री जॉन स्टुअर्ट मिल (1806-1873 .) कौन्त के ही समय में हुआ था, मगर वह कौन्त की मृत्यु के बहुत वर्ष बाद तक जिन्दा रहा। मिल पर कौन्त के मतों और समाजवादी विचारों का असर पड़ा था। ऐडम स्मिथ के मतों को लेकर राजनीतिक अर्थशास्त्र का जो पंथ इंग्लैण्ड में बन गया था, उसे मिल ने नई दिशा में ले जाने की कोशिश की और उसने आर्थिक विचारों, में कुछ समाजवादी सिद्धान्तों को डाला। मगर वह सबसे बड़ा 'उपयोगितावादीÓ मशहूर हुआ है। उपयोगितावाद का मत नया था, जो इंग्लैण्ड में चल तो कुछ समय पहले ही चुका था, मगर उसे ज्यादा महत्व दिया मिल ने। जैसा, कि इसके नाम से पता चलता है, इसको राह दिखानेवाला दर्शन था 'उपयोगिताÓ उपयोगितावादियों का बुनियादी सिद्धांत था 'अधिकतम लोगों का अधिकतम सुखÓ भलाई-बुराई की सिर्फ यही कसौटी थी। जो काम जितना ज्यादा सुख बढ़ाने वाला होता वह उतना ही अच्छा कहा जाता और जो जितना दु: बढ़ाता वह उतना ही बुरा माना जाता। समाज और सरकार का संगठन ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के सुख में ज्यादा-से-ज्यादा बढ़ोतरी के वास्ते ही माना गया। यह नजरिया सबको बराबरी का अधिकार देने वाले लोकतंत्रवादी सिद्धांत से अलग तरह का था। ज्यादा-से-ज्यादा लोगों के ज्यादा-से-ज्यादा सुख के लिए थोड़े-से लोगों की कुर्बानी या तकलीफ जरूरी हो सकती है। मैं तुम्हें सिर्फ यह फर्क बता रहा हूं, उसकी चर्चा करने की यहां जरूरत नहीं। इस तरह लोकतंत्र का अर्थ बहुमत के हक माना जाने लगा। जैसे-जैसे उन्नीसवीं सदी बीतती गई वैसे-वैसे मजदूर-आन्दोलन और समाजवाद के अलावा दूसरे आन्दोलनों और विचारों का भी विकास हुआ। इनका असर चालू लोकतंत्री खयालों पर पड़ा और इन खयालों का असर आन्दोलनों पर पड़ा। कुछ लोग समाजवाद को लोकतंत्र की जगह लेने वाला समझने लगे; कुछ उसे उसी का एक जरूरी अंग समझने लगे। हम देख चुके हैं कि लोकतंत्रवादियों के दिमाग में स्वतंत्रता, बराबरी और हरेक को सुख का बराबर हक के खयाल भरे हुए थे। मगर उन्होंने बहुत जल्दी महसूस कर लिया कि सुख को बुनियादी हक मान लेने से ही वह हासिल नहीं हो जाता है। दूसरी बातों के अलावा मनुष्य के लिए कुछ जिन्दगी का आराम भी जरूरी है। जो भूखा मर रहा है, वह सुखी नहीं हो सकता। इससे यह विचार पैदा हुआ कि सुख इस बात पर निर्भर है कि धन का बंटवारा लोगों में ठीक तरह से हो। इससे हम समाजवाद में चले जाते हैं; पर उसका बयान अगले पत्र में किया जाएगा। उन्नीसवीं सदी के पिछले हिस्से में जहां-जहां पराधीन राष्ट्र या कौमें आजादी के लिए लड़ रहे थे, वहां-वहां लोकतंत्र और राष्ट्रीयता का मेल हो गया था। इटली का मैजिनी इस तरह के लोकतंत्री देश-पे्रम का एक खास नमूना था। आगे चलकर इसी सदी में राष्ट्रीयता का यह लोकतंत्री रूप धीरे-धीरे नष्ट हो गया और वह दिन-पर-दिन ज्यादा सरगर्म और सत्तावादी बनती गई। राज्य एक ऐसा देवता बन गया जिसकी पूजा करना इसके लिए लाजिमी था। नये उद्योगों के नेता अंग्रेज व्यापारी थे। उन्हें ऊंचे-ऊंचे लोकतंत्री सिद्धान्तों में और जनता की स्वतंत्रता के अधिकार में कोई ज्यादा दिलचस्पी नहीं थीं। मगर उन्होंने देख लिया कि लोगों को ज्यादा स्वतंत्रता देना व्यापार के लिए अच्छी चीज है। इससे मजदूरों के रहन-सहन की सतह ऊंची उठ जाती है, वे इस भ्रम में फंस जाते हैं कि उन्हें कुछ आजादी मिली हुई है, ओर अपना काम ज्यादा मुस्तैदी से करने लगते हैं। उद्योगों के कामगरों में ज्यादा मुस्तैदी लाने के लिए सब लोगों की शिक्षा भी जरूरी थी। इसकी जरूरत को समझकर व्यापारी और उद्योगपति परोपकार का ढोंग रचकर जनता को ये मेहरबानियां इनायत करने को राजी हो गये। उन्नीसवीं सदी के पिछले हिस्से में इंग्लैण्ड और पश्चिमी यूरोप में किसी--किसी तरह की शिक्षा तेजी से फैलने लगी। 
 जवाहरलाल नेहरू (10 फरवरी, 1933) 
(साभार-देशबन्धु)