नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शनिवार, 30 मई 2015

साहित्य में दर्शन के पैरोकार

हिंदी साहित्य के लिए यह साल कुछ अच्छे संकेत नहीं दे रहा है। कई दिग्गज साहित्यकार हमसे दूर जा रहे हैं। अभी पिछले दिनों वरिष्ठ कथा-आलोचक विजय मोहन सिंह के निधन के सदमे से साहित्य जगत उबरने की कोशिश ही कर रहा था कि अचानक से वरिष्ठ कवि कैलाश वाजपेयी के निधन ने सबको सन्न कर दिया। कैलाश वाजपेयी हिंदी के उन चंद कवियों में से थे जिनके लेखन में वैचारिकी से इतर बातें भी होती थी। उनकी कविताओं में हमारा समृद्ध साहित्य बार बार आता था। कैलाश वाजपेयी ने कभी भी किसी वाद के साथ कदमताल करना स्वीकार नहीं किया। इस वजह से उनको कई मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा, लेकिन वो अंत तक डटे रहे। इसी वजह से कैलाश वाजपेयी हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओं में समादृत रहे। कैलाश वाजपेयी का अनुभव संसार बहुत ही व्यापक था। वो फिल्मों से लेकर साहित् और कविता से लेकर अन्य विधाओं पर समान रूप से लेखन करते थे। पिछले दिनों एक हिंदी दैनिक में हर सप्ताह फिल्मों से जुड़े उनके संस्मरण छपा करते थे। उन संस्मरणों को पढ़ते हुए फिल्मों में रुचि रखने वाले पाठकों को आनंद मिलता था। हिंदी का इतना वरिष्ठ लेखक और फिल्मों पर लिखे ये बात थोड़ा चौंकाती है। हिंदी में फिल्मों पर लेखन को गंभीर लेखन से इतर माना जाता रहा है। कथित प्रगतिशिील लेखकों का मानना रहा है कि मनोरंजन के साधनों पर लिखना गुनाह है। हिंदी में कमोबेश इस विचारधारा के लेखकों का दबदबा रहा है लिहाजा फिल्मों पर गंभीर लेखन हो नहीं पाया। संस्मरणात्मक लेखन तो और भी कम। लेकिन कैलाश वाजपेयी ने ये जोखिम उठाया और लगातार फिल्मों पर लेखन किया। उत्तर प्रदेश के हमीरपुर जिले में उन्नीस सौ छत्तीस में जन्मे कैलाश वाजपेयी ने लखनऊ से स्नातकोत्तर किया। वो अपने छात्र जीवन से ही कविताई में जुट गए थे। कवि गोष्ठियों में उनकी कविताओं की नोटिस ली जाने लगी थी। उन्नीस सौ साठ में उन्होंने टाइम्स ग्रुप में नौकरी की और नुंबई चले गए। लेकिन मुंबई उनको रास नहीं आया और फिर वो दिल्ली विश्वविद्लाय के एक कॉलेज में अध्यापन करने वापस चले आए। यहां उन्होंने लंबे वक्त तक अध्यापन किया। बीच में तीन साल के लिए वो मैक्सिको चले गए जहां वो युनिवर्सिटी ऑफ मैक्सिको में विजिटिंग प्रोफेसर रहे। एक काव्य गोष्ठी में कैलाश वाजपेयी की कविता सुनने के बाद हरिवंश राय बच्चन उनके लेखन पर रीझ गए। बच्चन जी ने कैलाश वाजपेयी को प्रोत्साहन देना शुरू किया और कह सकते हैं कि कैलाश वाजपेयी की प्रतिभा को बच्चन ने ना केवल पहचाना बल्कि उसको तराशा भी। बाद में दोनों के बीच घनिष्ठ संबंध बन गए। इस संदर्भ में एक दिलचस्प प्रसंग याद आता है। कैलाश वाजपेयी जब एक सिख लड़की से प्रेम कर बैठे और उससे शादी करने का एलान कियातो उनके परिवार में बवाल मच गया। परिवारवालों ने उनकी शादी का बहिष्कार कर दिया तो बच्चन जी ने लड़के के परिवार की भूमिका निभाई थी। कैलाश वाजपेयी का पहला संग्रह संक्रात उन्नीस सौ चौंसठ में छपा था। उसके बाद तो कैलाश वाजपेयी की कई किताबें प्रकाशित हुई और उनका नाम साहित्य में प्रमुखता से स्वीकार्य हो गया। दो हजार नौ में उनको प्रतिष्ठित व्यास सम्मान मिला। यह उनकी कृति पृथ्वी का कृष्ण पक्ष नाम की किताब पर मिला। दो हजार नौ में उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार – हवा में हस्ताक्षऱ - पर मिला। साहित्य अकादमी पुरस्कार पर विवाद हुआ था लेकिन कमोबेश उनका जीवन विवादों से परे रहा। कैलाश वाजपेयी को हिंदी साहित्य में एक ऐसे लेखक के रूप में याद किया जाएगा जिन्होंने अपने लेखन में भारतीय संस्कृति और दर्शन का जमकर उपयोग किया।
अनंत विजय

गुरुवार, 28 मई 2015

संप्रति समाज के संदर्भों के बीच हिंदी कविता

समकालीन समाज जिन संकटों से जूझ रहा है वे सारे संकट किसी-न-किसी रुप में समकालीन हिंदी कविता की प्रवृत्तियाँ भी निर्धारित कर रही हैं। ऐसे में स्वाभाविक है कि समकालीन हिंदी कविता की प्रवृत्तियों की तलाश करने का प्रत्येक उद्यम समाज के संदर्भों के बीच से ही अपना रास्ता बनाता है या आकार पाता है। भारतीय समाज का भूगोल भी बहुत बड़ा है और इतिहास भी। हिंदी समाज और भाषा में इसके अनुभव युगों से संचित होते रहे हैं। हिंदी समाज और भाषा एक अर्थ में भारतीय स्मृति और संस्कृति का केंद्रीय कोष है। इसलिए समस्याओं से जूझते हुए भी इस समाज में सिर्फ हताशा या पराजयबोध ही नहीं है बल्कि सहज उल्लास भी है और धैर्य भी है और है एक अद्भूत तथा स्पृहणीय जीवनशैली। एक भिन्न प्रकार का जीवन-बोध। समकालीन हिंदी कविता में समस्याओं से जूझते हुए इस विस्तृत भैगोलिक-ऐतिहासिक समाज की पीड़ाओं की काव्यात्मक अभिव्यिक्त की प्रचुरता है। इसे किसी वैचारिक दर्शन से जोडक़र भी देखा जा सकता है या सीधे सामाजिक परिप्रेक्ष्य के हवाले से भी समझा जा सकता है। लेकिन यह बिल्कुल स्पष्ट है कि इस दुष्चक्र में फँसे समाज के साथ हिंदी की समकालीन कविता खड़ी है और पूरी ताकत, वह जितनी भी हो, के साथ खड़ी है। कुछ ऋषिनुमा लोग और भी हैं जो हिंदी कविता के पथ के दावेदार हैं और जो कालजयी कविता लिखने के व्यापक कारोबार में व्योम-व्यस्त हैं। उनकी कविताएँ कालजयी चाहे जितनी हो काल-सिद्ध और काल-बिद्ध तो बिल्कुल ही नहीं है। इसलिए ये चाहे तुमार जितना बांधें समकालीन हिंदी कविता की सामान्य प्रवृत्तियों को समझने में सहायक तो बिल्कुल ही नहीं हैं। यदि आचार्य रामचंद्र शुक्ल को प्रमाण मानें (न मानने की कोई आवश्यकता नहीं दीखती है) तो किसी भी समय के साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों को पहचानने का सबसे प्रामाणिक ढंग होता है जनता की चित्तवृत्तियों आ रहे बदलाव को स्वर देनेवाले साहित्य-रुपों का संगठित अध्ययन किया जाये। समकालीन हिंदी कविता की सामान्य प्रवृत्तियों को समझने के लिए भी इससे बड़ा, प्रामाणिक और महत्वपूर्ण कोई दूसरा सूत्र नहीं हो सकता है। हां, विभिन्न समकालीन हिंदी कवियों की कविताओं में इसके काव्यात्मक निभाव का स्वरुप अपना और अनोखा है। आधुनिक हिंदी साहित्य की शुरूआत से लेकर आज तक के समय में बहुत बदलाव घटित हो चुका है। यह बदलाव सामाजिक संरचना के ऊपरी स्तर से लेकर उत्पादन की शैली और लोगों की हैसियत में भी आया है। ज्ञान-विज्ञान के सभी क्षेत्र में बदलाव आया है राजनीतिक संरचना में आया बदलाव तो भयंकर है। अर्थ-संबंध का स्वरूप भी बहुत तेजी से बदला है। इस परिवर्तन का थोड़ा-सा प्रभाव थोड़े-से लोगों के लिए सकारात्मक रहा है तो बहुत सारे लोगों के लिए नकारात्मक ही रहा है। साहित्य ने इस थोड़े और बहुत के ऊपर पडऩेवाले प्रभाव को कैसे अभिव्यक्त किया है और इस अभिव्यिक्त के क्रम में खुद कितना परिवर्तित हुआ है इसका आकलन करना निश्चय ही दिलचस्प होगा। वास्तव में किसी भी समय में समकालीनता की पहचान निर्विवाद नहीं हुआ करती है। फिर आज न तो कोई प्रकट काव्यांदोलन ही है और न किसी मतवाद का कोई गहरा सामूहिक या सामाजिक असर ही। कुछ आलोचकों के निजी आग्रह भले ही कभी-कभी सक्रिय प्रतीत होते हों पर वह कोई मान्य काव्यसूत्र की रचना करने में सफल हो ऱहे हों ऐसा नहीं है। इसे कविता के लिए अच्छा माना भी जा सकता है और नहीं भी। यदि कविता में खुद किसी प्रकार की सामाजिक उपादेयता नहीं बचने के कारण या कविता से किसी प्रकार का आश्वासन न पाने के कारण कविता किसी वैचारिक उदासीनता के तात्कालिक भंवर में पड़ी है तो यह चिंता का कारण है। थोड़ी-थोड़ी सच्चाई दोनों प्रकार की सोच में है। कविता अपनी इस स्थिति से बेखबर नहीं है। आज हर समाज-सचेत हिंदी कवि इस इस बात को शिद्दत से महसूस कर ऱहा है। न सिर्फ महसूस कर ऱहा है बल्कि उसकी काव्याभिव्यिक्तयों में भी इसका प्रमाण दे रहा है। साहित्य का अपनी भाषा से गहरा सामाजिक और सांस्कृतिक संबंध होता है। अर्थात साहित्य का अपना सुनिर्दिष्ट भाषिक-समाज भी हुआ करता है। इस भाषिक-समाज को एक बनाये रखनेवाले सूत्र का एक सिरा उस समाज के सबसे निचले स्तर तक जाता है तो दूसरा सिरा सबसे ऊपर के स्तर तक भी जाता है। वृहत्तर मानव आबादी की चिंता करते हुए भी उसे उसकी भी उतनी ही चिंता करनी पड़ती है जिसके तात्कालिक हितों के खिलाफ साहित्य अपना संवेदनात्मक विस्तार सिरजता है। वर्ग साहित्य तात्कालिक दृष्टि से भले अधिक लोक हितकारी प्रतीत होता हो लेकिन अंतत: लोक हित के अपने महत्त्वपूर्ण उद्देश्य में सफल होना उसके लिए असंभव रहा है। वर्ग हित साधने के लिए भी साहित्य को वर्गातीत होना पड़ता है। एक अधिक संवेदनशील और अधिक मानवीय मान-समाज के परिगठन के लिए इस रणनीति के मर्म को समझा जाना चाहिए। तातपर्य यह कि साहित्य को अपना बाहरी वितान सबके लिए खुला रखना चाहिए। यदि वर्गबोध को साहित्य के लिए अनिवार्य माना लिया जाये तो बड़े और ख्यातिनामा साहित्यकार के साहित्य के बड़प्पन के मर्म के समझ ही नहीं पाएंगे। कालिदास से लेकर जयदेव, विद्यापति, कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी, प्रेमचंद, रवींद्रनाथ ठाकुर, निराला, प्रसाद आदि के साहित्य का वर्ग-पाठ किस प्रकार तैयार किया जा सकेगा? मुझे लगता है बाद के प्रगतिशील हिंदी साहित्य-विचारकों ने इस मामले में अपेक्षित सावधानी नहीं बरती। प्रेमचंद जैसे महान साहित्यकार जिस भाषा में हो गये उस भाषा के साहित्य में इस दुर्विपाक का घटित होना विस्मयकारी भी है और दुखद भी। प्रेमचंद की सहानुभूति एक व्यक्ति और विचारक के रूप में चाहे होरी के प्रति ही क्यों न रही हो लेकिन एक उपन्यासकार के रूप में रायसाहब समेत सभी पात्रों के प्रति उनकी सचेष्टता का संतुलन गजब है। आज के भाषा-समाज पर ध्यान देने से जो बात सबसे पहले समझ में आती है वह यह कि आज भाषिक -समाज का स्वरूप काफी बदल चुका है।  इस बात पर विचार करना प्रासंगिक होगा कि भाषा और साहित्य का आपसी संबंध क्या होता है। क्या अंग्रेजी में हिंदी साहित्य का लेखन संभव नहीं है, यह भी कि क्या हिंदी में अंग्रेजी का साहित्य लिखना संभव है कि नहीं? यह सही है कि साहित्य का संबंध भाषा से बहुत गहरा है तथापि साहित्य को साहित्य बनानेवाले तत्त्व का नाम भावना, संवेदना, विचार, करूणा, आनंद, स्वप्न आदि से जुड़ता है। तो क्या हुआ? सामाज द्विभाषी हो या बहुभाषी लेकिन उसके सदस्यों की मूलभाषा (जरूरी नहीं कि मातृभाषा ही हो) अर्थात वह भाषा जिस भाषा के मालहौ में उसके सामाजिक-जीवन का अधिकांश कारोबार संपन्न करता है,  वह एक ही हो सकती है। भारतीय भाषा नाम की कोई एक भाषा तो है नहीं इसलिए किसी एक भाषा-समाज के संदर्भ से साहित्य को जोडक़र देखने का प्रयास बेमानी हो जाता है। प्रत्येक भाषा का अपना भाषा-समाज होता ही है चाहे वह जैसा भी होता हो। जिस भाषा का कोई समाज नहीं होता है उस भाषा के अस्तित्व का आधार संस्थानिक होता है। भारत में अंग्रेजी संस्थानिक भाषा है सामाजिक भाषा नहीं। यह याद रखना चाहिए। ऐसा इसलिए है कि भारत के संस्थानों का आर्थिक-बौद्धिक प्रभुत्व जिनके हाथ में है उनका अपना आर्थिक-बौद्धिक स्वार्थ अंग्रेजी के माध्यम से संतुष्ट होता है  भाषा से विच्छिन्नता अंतत: समाज से विच्छिन्नता का ही आधार प्रस्तुत करती है। विश्व-भाषा का मुहावरा सुनने में बेहतर है लेकिन उसमें अंतर्निहित चालाकी को समझना ही चाहिए। सामाजिक भौतिक और संसाधनिक विकास का क्रम जिस तेजी से आगे बढ़ा है वह चमत्कृत कर देने वाला है। आज का मनुष्य भौतिक रूप से जितना संपन्न और समृद्ध है उतना पहले कभी नहीं था। ज्ञान और मनोरंजन के अतिविकसित साधनवाले इस उत्तर-आधुनिक समय में अब साहित्य की क्या और किसे जरूरत है?  एक तरफ यह सचाई है तो दूसरी तरफ इस सचाई का एक और चेहरा है, जो अति भयानक है। इसका कारण यह है कि ज्ञान-विज्ञान-संसाधन जितनी तीव्रता से विकसित हुए हैं उतनी तत्परता से वितरित नहीं हो पाये हैं। विकास का चेहरा विषमता की आँच से झुलसा हुआ है। विकास के बड़े-बड़े आंकड़े पढनेवाले लोग भी विकास के इस झुलसे हुए चेहरे को देखकर डर जाते हैं। यह डर उन्हें विषमता बढ़ानेवाली प्रवृत्ति को रोकने के लिए बहुत उद्योगी या तत्पर नहीं बनाता है तो इसका कारण यह नहीं कि उनका डर नकली या नाटक है बल्कि इसका कारण उनका अपना वर्ग-चरित्र है। विकसित होने के बावजूद विषम समाज में जीने के लिए बाध्य है आज का मनुष्य। इसलिए आज का मनुष्य पहले के मनुष्य से अधिक संपन्न होने के बावजूद पहले के मनुष्य से कहीं अधिक दुखी और विपन्न है। संपन्नता उसके दुख को कम करने में किसी भी प्रकार से मददगार नहीं हो पा रही है। विपन्नता उसके जीवन का स्थाई भाव है।  सुत-वित्त-नारी/नर-भवन-परिवार, सब बेकार। कोई उसके अकेलेपन को तोड़ पाने में उसका सहायक नहीं हो पाता है। इस अकेले पड़ते मनुष्य के संदर्भ में आज साहित्य की भूमिका परीक्षणीय है। उसे इस निरंतर अकेले पड़ते जा रहे हबोडकार मनुष्य से संवाद करना, उसका साथी बनना, उसकी आहत भावनाओं का आदर करना और अंतत: उसे अकेलेपन की अंधगुहा से बाहर निकालने की युक्ति करना है। यानी एक बेहतर साथी के रूप में साहित्य की जरूरत बनी हुई है। इस भूमिका के संदर्भ में ही उन सारे सवालों के उत्तर तलाशे जाने चाहिए जिनका संबंध साहित्य से है।
शैलेन्द्र चौहान
संपर्क : 34/242, सेक्टर -3, प्रताप नगर, जयपुर : 302033 (राजस्थान)

सोमवार, 25 मई 2015

पत्थर होता आदमी


पत्थरों के बीच रहकर
खुद भी पत्थर होता जाता है आदमी
पत्थरों के साथ ही जागना-सोना
उन्ही के साथ जीना-मरना
भी सीख जाता है आदमी
पत्थरों को तोड़ते हुए, तराशते हुए
तलाशता रहता है खुद को भी उन्हीं में
पत्थरों के संगीत को ही जब
जीवन संगीत मान बैठता है आदमी
तब उसके पत्थर हो जाने में नहीं
रह जाता कोई संशय
मिलकर-घुलकर रह जाता है
वह भी पत्थरों में
नहीं लौटना चाहता फिर वह
वापस अपनी दुनिया में
जहाँ पर आदमी के भेष में
पत्थर रहते हैं

             (कृष्ण धर शर्मा, २०१५)

सोमवार, 11 मई 2015

सम्प्रेषण


बिन बोले भी हो जाती हैं
बहुत सारी बातें
बोलकर करना जो शायद
लगता है बहुत ही कठिन
बातें आँखों से भी
चेहरे के हाव-भाव से भी
और कंधे उचका कर भी
कह दी जाती हैं
कई सारी ऐसी बातें
जो नहीं कही जा सकती है जुबान से
चाहे वह माँ की नाराजगी हो
बच्चे का गुस्से से मुह फेर लेना
प्रेमिका का गाल फुला लेना
प्रेमी का आँखों-आँखों में मनाना
आपसी सम्प्रेषण उतना ही प्रभावी है
आँखों से, शरीर के बाकी अंगों से
उतना ही जितना कि जुबान से

                    कृष्ण धर शर्मा २०१५