नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 25 मार्च 2016

औद्योगिक रुग्णता व बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियां चिंताजनक

भारतीय बैंकों खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की बढ़ती हुई अनर्जक परिसम्पत्तियां एन.पी.ए. भारतीय रिजर्व बैंक बल्कि भारत सरकार के वित्त मंत्रालय के लिए भी चिन्ता का सबब बन गई है। अनर्जक परिसम्पत्तियों में किस प्रकार से कमी लाई जाय इस पर चर्चा हेतु वित्तमंत्री अरुण जेटली ने 21 मार्च को बैंक के अधिकारियों की बैठक दिल्ली में आहूत की। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा पहले से ही सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को मार्च 2017 तक अनर्जक परिसम्पत्तियां अर्थात् एन.पी.ए. में कमी लाकर वस्तुस्थिति साफ करने की सलाह जारी की जा चुकी है। अनर्जक परिसम्पत्तियां जिन्हें हिन्दी में गैर-निष्पादन आस्तियां भी कहा जाता है, बैंकों द्वारा दिया गया वह कर्ज है जो कालातीत हो चुका है तथा जिसकी वापसी संदेहास्पद है अथवा सामान्य परिस्थितियों में वापसी की सम्भावना नहीं के बराबर है। 31 दिसम्बर 2014 को बैंकों का सकल एन.पी.ए. 300 हजार करोड़ रुपए था जिसमें से भारतीय स्टेट बैंकों के समूह सहित 24 सरकारी क्षेत्र के बैकों का एन.पी.ए. 273 हजार करोड़ रुपए था। 31 दिसम्बर 2015 को कुल एन.पी.ए. बढ़कर लगभग 401 हजार करोड़ हो गया है अर्थात एक साल में एन.पी.ए. का आकार में 34 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है । 401 हजार करोड़ रुपए के एनपीए में सरकारी क्षेत्र के बैंकों का एन.पी.ए. 361 हजार करोड़ रुपए था कुल एनपीए में सरकारी बैंकों का हिस्सा 90 प्रतिशत था। एनपीए की गंभीरता इस बात से आंकी जा सकती है कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों के 100 रुपए के इक्विटी शेयर मूल्य पर 150 रुपए का एन.पी.ए. है। भारत के सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा दिए गए कुल कर्ज का 7.30 फीसदी संदेहास्पद वसूली कालातीत ऋण या अनर्जक परिसम्पत्ति बन चुका है। इस अनर्जक परिसम्पत्ति के अलावा सरकारी बैंकों द्वारा कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन सीडीआर की प्रक्रिया के तहत पुनर्भुगतान की अवधि बढ़ाकर ब्याज रकम में कमी की जाने वाले राशि 272 हजार करोड़ रुपए है जिसकी वसूली सीडीआर प्रक्रिया के तहत होनी है। जबकि निजी क्षेत्र के 16 बैंकों का एनपीए उनके द्वारा दिए गए कुल कर्ज का 2.36 फीसदी है। 2 मार्च को विजय माल्या के भारत से इंग्लैंड पलायन के बाद वे 9 हजार करोड़ रुपए का बकाया कर्ज अर्थात एन.पी.ए. के कारण समाचारपत्रों में सुर्खियों में छाए रहे हैं तो दूसरी ओर विजय माल्या के कारण ही समाचार माध्यमों में अनर्जक परिसम्पत्तियों एन.पी.ए. पर चर्चा हो रही है। विजय माल्या पर बकाया 9000 करोड़ रुपए का कर्ज सिक्योरिटीझेेसन एक्ट 2002 के प्रावधानों के तहत पुनर्गठित किये जाने के बाद अवधि बढ़ाई जा चुकी है तथा तकनीकी रूप से यह कर्ज एनपीए की बजाय कॉरपोरेट ऋण पुनर्गठन सीडीआर के अंतर्गत आता है। देखा जाय तो जिन कारपारेट का ऋण पुनर्गठन हुआ है उसकी भी वसूली बहुत कमजोर होने से उसको भी एनपीए माना जा सकता है। इस प्रकार 31 दिसम्बर 2015 बैंकों का 401 हजार करोड़ रुपए का एनपीए तथा 272 हजार करोड़ रुपए का सीडीआर इस प्रकार कुल मिलाकर कालातीत बकाया कर्ज 673 हजार करोड़ रुपए हो जाता है। इस 673 हजार करोड़ रुपए कुल कालातीत कर्ज में विजय माल्या का बहुचर्चित कर्ज 9 हजार करोड़ रुपए तो मात्र 1.34 फीसदी हिस्सा है। एकल स्वामित्व उद्योग व्यवसाय एवं किसान से कर्ज वसूली आसान है किन्तु कारपोरेट एनपीए की जटिलताओं के कारण वसूली बकाया रकम की वसूली बहुत कठिन हो जाती है। रिजर्व बैंक अधिकारियों के अनुसार 31 दिसम्बर 2015 को जानबूझकर बैंक कर्ज अदा न करने वाले कारपोरेट कर्जदारों की संख्या 7686 थी जिन पर 66,190 करोड़ रुपए बकाया है। इनमें से 1669 कर्जदारों के विरूद्ध एफ.आई.आर दर्ज करवाई जा चुकी है। इनमें से 584 प्रकरणों पर बैंकों द्वारा सिक्योरिटीझेसन एक्ट 2002 के तहत कार्रवाई प्रारम्भ कर दी गई है। जहां तक अलग-अलग बैंकों की अर्जक परिसम्पत्तियों का संबंध है जो बैंक जितना बड़ा है तथा जिसने जितना अधिक कर्ज दिया है उसकी एनपीए राशि भी उतनी ही अधिक है। एनपीए राशि में पहले स्थान पर भारतीय स्टेट बैंक है जिसका एनपीए 600 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक है। दूसरे क्रम पर पंजाब नेशनल बैंक है जिसका एनपीए 200 हजार करोड़ रुपए से अधिक है। तीसरे, चौथे एवं पांचवें क्रम में क्रमश: सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया, बैंक ऑफ इंडिया तथा बैंक ऑफ बड़ौदा हैं। किन्तु कुल दिए गए कर्ज से एनपीए के अनुपात में यूनाइटेड बैंक ऑफ इंडिया 19.0 प्रतिशत के साथ पहले स्थान पर है। 17 प्रतिशत से 18 प्रतिशत के कुल कर्ज एनपीए अनुपात में पंजाब एण्ड सिंध बैंक, पंजाब नेशनल बैंक, इंडियन ओवरसीज बैंक, सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया तथा यूको बैंक शामिल हैं। दूसरी ओर 5 निजी बैंकों का कुल कर्ज से एनपीए का अनुपात 1 प्रतिशत से भी नीचा है। वैसे तो बैंकों की अनर्जक परिसम्पत्तियों के अनेक कारण हैं लेकिन इसका सबसे बड़ा कारण औद्योगिक रुग्णता है। औद्योगिक रुग्णता के कारण नकदी का आगमन प्रवाह धीमा हो जाता है तथा बैंकों को किया जाने वाला प्रभावित होने लगता है। कारपोरेट सेंटर के उद्यमों की औद्योगिक रुग्णता बैंकों के लिए सदैव ही समस्या होती है। बैंक अपनी ओर से सिक्योरिटीझेसन एक्ट 2002 के तहत कर्ज का पुनर्गठन करते हैं यह किस्त का पुनर्गठन वे एनपीए के उपचार के रूप में कर्ज वसूली सुनिश्चित करने के लिए करते हैं किन्तु वह औद्योगिक रुग्णता का उपचार नहीं होता है। औद्योगिक रुग्णता की वर्तमान स्थिति यह है कि कुछ सरकारी क्षेत्र के बैंक भी रुग्णता की स्थिति में है। हमारे देश में औद्योगिक रुग्णता भी बढ़ती जा रही है तथा बैंकों का एनपीए भी बढ़ता जा रहा है । अधोसंरचना जिसमें विद्युत, दूरसंचार, हवाई अड्डे, सड़क निर्माण, बंदरगाह, रेल निर्माण शामिल हैं लौह व इस्पात उद्योग, बिजली, कपड़ा तथा निर्माण उद्योगों में अधिक कर्ज दिए जाने के कारण वसूली कमजोर होने से बैंकों का दो तिहाई एनपीए इन्हीं क्षेत्रों में है। वर्तमान में कारपोरेट मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर मांग की मंदी से जूझ रहा है जिसके कारण अनेक इकाइयां बीमारी की स्थिति में चल रही हैं। जब तक औद्योगिक रुग्णता का प्रभावी उपचार व रुग्णता से बचाव के प्रभावी तरीके नहीं अपनाए जाएंगे तब तक एनपीए की संभावना बनी रहेगी। बड़े कारपोरेट सेक्टर के मालिकों को जेल में डालकर पूरी कर्ज वसूली में संदेह है क्योंकि उनके जेल जाते ही इनकी संपत्ति का बाजार इतना नीचा गिर जाएगा कि बैंकों का एक चौथाई एनपीए भी वसूल नहीं हो पाएगा। अब तो बैंकों को अपने एनपीए के एक बड़े हिस्से को बट्टे खाते में डालने पर ही इस समस्या से छुटकारा मिल पाएगा। उपचार के रूप में अमेरिका तथा अन्य विकसित देशों में मजबूत इकाई द्वारा अधिग्रहण, संविलियन, व सम्मिलन बहुत प्रभावी सिद्ध हुए हंै इसलिए भारत में भी अधिग्रहण, संविलियन, व सम्मिलन की प्रक्रिया सरल बनाकर इसको प्रोत्साहित करने पर विचार किया जा सकता है। डॉ. हनुमंत यादव (साभार-देशबंधु)

अविरलता बिना नहीं आएगी निर्मलता

देश के मुख्य न्यायाधीश प्रयाग संगम पर पूजा अर्चना करने गये तो पंडित ने दक्षिणा में गंगा की निर्मलता और अविरलता मांगी। मांग बिल्कुल सही है चूंकि गंगा को निर्मल बनाने के लिये उसका अविरल बहना अनिवार्य है। गंगा के पानी में कुछ विशेष सुकीटाणु होते हैं जो जहरीले कीटाणुओं को खा जाते हैं। इन्हें कालीफाज कहा जाता है। ये कालीफाज गंगा के पहाड़ी हिस्से में पैदा होते हैं। गंगा में प्रवेश करने वाले सीवेज में विद्यमान हानिप्रद कीटाणुओं को खाकर ये पानी को निर्मल बना देते हैं। ये लाभप्रद कीटाणु गंगा की मिट्टी में चिपक कर रहते हैं। गंगा की मिट्टी के साथ बहकर ये नीचे प्लेन में पहुंचते हैं। गंगा पर बने हाइड्रोपावर के बांधों के पीछे यह मिट्टी जमा हो जाती है और सिंचाई के बराजों से निकाल ली जाती है और नीचे नहीं पहुंचती है। फलस्वरूप मैदानी गंगा में इन लाभप्रद कीटाणुओं की मात्रा कम हो जाती है, गंगा में गिर रही गंदगी साफ नहीं होती है तथा गंगा की निर्मलता नष्ट हो जाती है। गंगा को निर्मल बनाने में मछलियों की अहं भूमिका है। ये जल की गंदगी को खाकर उसकी सफाई करती हैं। जीवित रहने के लिये इन्हें पानी में पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन की जरूरत होती है। बहता पानी हवा से आक्सीजन सोखता है और मछलियों को जीवित रखता है। नदी का पानी बांधों के पीछे रुक जाने से पानी द्वारा अक्सीजन कम सोखी जाती है। उल्टे बांध की तलहटी में सडऩे वाले पत्ते इत्यादि पानी में उपलब्ध आक्सीजन को सोख लेते हैं और मछलियों को आक्सीजन नहीं मिलती है। फलस्वरूप पानी को निर्मल बनाने वाली मछलियों की संख्या भी कम होती जा रही है। अतएव निर्मल बनाने के लिये जरूरी है कि गंगा का पानी अविरल बहे जिससे कालीफाज तलहटी में पहुंचे और मछलियों को पर्याप्त आक्सीजन मिले। गंगा में सीवेज न डाला जाये तो भी पानी साफ नहीं होगा चूंकि नदी में प्राकृतिक कूड़ा तो पहुंचता ही है जैसे पशुओं के शव तथा टहनियां एवं पत्तियां। इनके सडऩे से पानी में आक्सीजन समाप्त हो जाती है। नेशनल इनवायरमेंट इंजिनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट नागपुर द्वारा किये गये एक अध्ययन में पाया गया कि टिहरी बांध में सूक्ष्म मात्रा में मीथेन गैस निकल रही है। इसका अर्थ है कि पानी सड़ रहा है। पानी में आक्सीजन उपलब्ध हो तो झील की तलहटी में सडऩे वाली पत्तियां सड़ कर कार्बन डाई आक्साइड गैस बनाती हैं। पानी में आक्सीजन उपलब्ध न हो तो वही कार्बन डाई आक्साइड मीथेन गैस में परिवर्तित हो जाती है। टिहरी में मीथेन गैस का निकलना इसका प्रमाण है कि झील के नीचे के पानी में आक्सीजन समाप्त हो गई है और पानी सड़ रहा है। टिहरी क्षेत्र में गंगा में सीवेज कम ही डाला जाता है फिर भी पानी सड़ रहा है। केवल सीवेज रोक देने से गंगा निर्मल नहीं होगी इसके साथ-साथ अविरल प्रवाह को स्थापित करना अनिवार्य है। सीवेज को रोकना भी कठिन चुनौती है। सरकार के द्वारा गंगा के किनारे बसे शहरों की नगरपालिकाओं को सीवेज को साफ करने के लिये ट्रीटमेंट प्लांट लगाने को आर्थिक मदद दी जा रही है। लेकिन इन्हें चलाने में नगरपालिका को भारी मात्रा में बिजली खर्च करना पड़ता है। नगरपालिका के सामने च्वायस होती है कि उपलब्ध बिजली को सड़कों पर बिजली जलाने के लिये उपयोग किया जाये अथवा सीवेज ट्रीटमेंट के लिये। जनता को सड़क की लाइट से सीधे सरोकार होता है जबकि सीवेज का प्रभाव अप्रत्यक्ष है। इसलिये सीवेज प्लांट कम ही चलाये जाते हैं। इस समस्या का उपाय है कि सरकार के द्वारा साफ पानी को खरीदा जाये। निजी उद्यमियों द्वारा सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट लगाये जायें और इनके द्वारा उत्पादित पानी को सरकार खरीदकर किसानों को सिंचाई के लिये उपलब्ध करा दे। तब सरकार को उतना ही खर्च करना होगा जितना पानी साफ किया जायेगा। मुम्बई तथा नागपुर में उद्योगों द्वारा नगरपालिका से सीवेज खरीदकर साफ करके काम में लिया जा रहा है। उद्याोगों के लिये सस्ता पड़ता है कि सीवेज को खरीदकर साफ करके पानी को काम में लें। इसी प्रकार उद्यमियों द्वारा सीवेज को साफ करके सिंचाई विभाग को सप्लाई किया जा सकता है। अर्थशास्त्र में कहावत है कि कुछ भी मुफ्त नहीं होता है। गंगा की अविरलता और निर्मलता का भी मूल्य अदा करना होगा। समस्या है कि जनता को नदी की निर्मलता के आर्थिक लाभ न तो बताये जाते हैं न ही समझ आते हैं। आज तमाम घरों में पीने के साफ पानी के लिये आ.रो. लगाये जाते हैं। यात्रा में लोग 20 रुपये की बोतल पानी खरीदते हैं। यह खर्च करना पड़ता है चूंकि नदी का पानी प्रदूषित है। फलस्वरूप जल निगम द्वारा सप्लाई किया गया पानी प्रदूषित होता है। यदि हम नदी के पानी को साफ कर दें तो हमें इस खर्च से मुक्ति मिल जायेगी। प्रदूषित पानी का स्वास्थ पर भी भयंकर दुष्प्रभाव पड़ता है। प्रदूषित पानी से उपजाये गये अन्न तथा सब्जी से हानिकारक तत्व हमारे शरीर में पहुंचते हैं और बीमारी को जन्म देते हैं। इनके उपचार के लिये हमें डाक्टर एवं दवा को खर्च करना पड़ता है। नदी के साफ पानी का सीधे आर्थिक लाभ भी है। सर्वे में पाया गया कि गंगा में डुबकी लगाने वालों को तमाम आर्थिक लाभ हुये। जैसे किसी को नौकरी मिली, कोई परीक्षा में पास हुआ और किसी का कारोबार चल निकला इत्यादि। यह आर्थिक लाभ भी सफाई से ही मिलती है। दूसरी तरफ गंगा को अविरल एवं निर्मल बनाने में खर्च आता है। गंगा की अविरलता बनाये रखते हुये हाइड्रोपावर बनाने के लिये बांध के स्थान पर ठोकर बनाकर पानी निकालना होगा। इसमें खर्च आयेगा। सीवेज से उत्पादित साफ पानी को खरीदने का भी खर्च आयेगा। समस्या है कि हाइड्रोपावर और सीवेज साफ करने के खर्च सीधे दिखते हैं जबकि स्वास्थ्य आदि के लाभ नहीं दिखते हैं। सरकार को चाहिये कि साफ होने से होने वाले आर्थिक लाभों का आकलन कराकर जनता को अवगत कराये जिससे जनता गंगा को साफ करने को खर्च करने का अनुमोदन करे। डॉ. भरत झुनझुनवाला (साभार देशबंधु)

सोमवार, 14 मार्च 2016

नदी और संस्कृति पर खतरा

मानव सभ्यता और संस्कृति का विकास नदियों के किनारे हुआ है, यह सर्वज्ञात तथ्य है। इंसान और नदी का रिश्ता मां और बच्चे की तरह है। यूं तो पूरे विश्व में अपने-अपने तरीके से नदियों के प्रति कृतज्ञता दिखलाई जाती है, लेकिन भारत इस मामले में भी अनूठा है। हमने नदियों को मां ही नहींदेवी का दर्जा दिया। नदियों की आरती करना, उनके नाम के साथ जी लगाना, उनके नामों की सौगंध उठाना, यह सब इस देश में खूब होता है। हमारे पुरखे दूरदृष्टि रखने वाले रहे होंगे, उन्हें अंदेशा होगा कि आने वाली पीढिय़ां नदियों के साथ बदसलूकी कर सकती हैं, इसलिए उन्होंने ऐसी परंपराएं बनाई होंगी कि कम से कम धर्मभीरू होकर ही सही, पर भावी पीढिय़ां नदियों की रक्षा करेंगी, उनका अनुचित दोहन, शोषण नहींकरेंगी। पुरखों की बनाई धार्मिक परंपराओं को हमने खूब निभाया और प्रकृति की रक्षा की उपेक्षा करते रहे। आज नियम से नदियों की आरती होती है, उनकी पौराणिक कथाएं सुनाई जाती हैं, नदियों से जुड़े तमाम कर्मकांडों को पूरा किया जाता है और बताया जाता है कि यह सब मानवता का उद्धार करने के लिए है। देश की राजधानी में यमुना नदी के किनारे होने वाले भव्य विश्व सांस्कृतिक महोत्सव को लेकर भी ऐसे ही तर्क दिए जा रहे हैं कि इससे दुनिया में देश की सांस्कृतिक छवि का नवनिर्माण होगा, दुनिया को भारतीयता की ताकत दिखाने का अवसर मिलेगा, एक साथ 35 हजार कलाकारों का प्रदर्शन और 35 लाख दर्शकों के शामिल होने का रिकार्ड गिनीज बुक में दर्ज होगा, आदि, आदि। श्री श्री रविशंकर की संस्था आर्ट आफ लिविंग पहले भी ऐसे कार्यक्रम कर चुकी है, लेकिन इस बार का कार्यक्रम इतने वृहद पैमाने पर इसलिए किया जा रहा है क्योंकि संस्था के 35 वर्ष पूरे हो रहे हैं। यूं 10, 25, 50, 75 या सौ का आंकड़ा पूरा होने पर जयंतियां मनाई जाती हैं, फिर 35 साल में ऐसा क्या खास है, यह बूझने की बात है। वैसे जब पांच साल के लिए चुनी गई सरकारें सौ दिन पूरा होने पर जश्न मनाती हैं, तो फिर रजत, स्वर्ण या हीरक जयंती की बात बेमानी है। श्री श्री रविशंकर के अनुयायी पूरे विश्व में हैं और वे चाहते तो कहींभी ऐसा सांस्कृतिक महोत्सव कर लेते। लेकिन उन्होंने यमुना का किनारा ही चुना। कुछ वर्ष पहले उन्होंने यमुना का सफाई अभियान अपनी संस्था के जरिए चलवाया था। अब यमुना पहले से अधिक गंदी हो गई है, इसमें उनका कोई कसूर नहींहै। लेकिन ऐसा लगता है कि सफाई अभियान का मेहनताना इस सांस्कृतिक उत्सव के जरिए लिया जा रहा है। यमुना के डूब वाले क्षेत्र में इस कार्यक्रम को मंजूरी देने से लेकर, लोकनिर्माण विभाग, पुलिस और सेना के इस्तेमाल तक कई सवाल उठाए गए हैं। सबसे गंभीर सवाल है यमुना नदी के साथ हो रहे खिलवाड़ का। इस आयोजन से यहां की जैवपारिस्थितिकी को होने वाले नुकसान का। पर्यावरण का। किसानों की उजाड़ी गई फसल का। बहुत दुख होता है यह देखकर कि कैसे कार्यक्रम के आयोजक, समर्थक और कानूनी पैरोकार इन सवालों के एवज में जवाबों और तर्कों को इस तरह प्रस्तुत कर रहे हैं मानो यमुना नदी कुछ लोगों की जागीर है, जिसका वे मनमाना उपयोग कर सकते हैं। अगर वे इसे अपनी जागीर मान रहे हैं, तब तो उन्हें इसके साथ और सावधानी से बर्ताव करना चाहिए। मौजूदा माहौल तो ऐसा है, मानो नदी से पुरानी दुश्मनी निकाली जा रही हो। यमुना के डूब वाला क्षेत्र भूकंप और बाढ़ दोनों के लिहाज से काफी संवेदनशील है। प्राकृतिक आपदाएं बोलकर नहींआती, लेकिन मानव अपनी सावधानी से उनसे बच सकता है। जब सावधानियां नहींबरती गईं तो उसका नुकसान कितना जानलेवा साबित हुआ यह सुनामी और बाढ़ के प्रसंगों में देखा जा सकता है। यमुना किनारे एक बार फिर विश्व सांस्कृतिक महोत्सव के बैनर तले नदी और इंसानी जीवन से खिलवाड़ की आलीशान तैयारी की गई है। आयोजकों का कहना है कि पर्यावरण को किसी तरह का नुकसान नहींपहुंचाया जा रहा है। लेकिन खबरें हैं कि कई एकड़ की फसल नष्ट कर दी गई है और लगभग 200 किसान इससे प्रभावित हुए हैं। बहुत सा कचरा डालकर नदी किनारे के गड्ढों को भरा गया है और जमीन समतल की गई है। 35 लाख लोगों समेत कई अतिविशिष्ट मेहमानों के लिए भव्य मंच, दर्शकदीर्घा इत्यादि का निर्माण किया गया है। लगभग 650 मोबाइल शौचालय आयोजन स्थल पर होंगे, जो नदी किनारे ही है। कई गाडिय़ों की पार्किंग की व्यवस्था है। तीन दिनों के कार्यक्रम के लिए आसपास के कई इलाकों की यातायात व्यवस्था प्रभावित होगी और इन सबसे जो ध्वनि प्रदूषण होगा, सो अलग। क्या यह सब पर्यावरण के लिए घातक नहींहै। शायद इसी वजह से नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने आयोजकों पर पांच करोड़ का जुर्माना लगाया है, जिससे श्री श्री रविशंकर सहमत नहींहैं। अगर वे इतना जुर्माना भर भी देते हैं तो क्या यह नदी की कीमत तय करने जैसा नहींहै। अच्छा होता अगर सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद केवल और केवल नदी के हित को देखते हुए फैसला लिया जाता। नदी भी बचती, संस्कृति भी और तब महोत्सव का आनंद उठाया जाता। साभार: देशबंधु (सम्पादकीय)