नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

सोमवार, 6 जून 2016

लड़ाई का विकल्प


क्या लड़ना ही बचा है
आखिरी विकल्प !
जैसा कि होता आया है
आदिकाल अनादिकाल से
जैसे रामायण में महाभारत में
जैसे सुरासुर संग्राम में
जैसे भारत और पाकिस्तान में
जैसे हिन्दू और मुसलमान में
क्या दोनों पक्ष एक नहीं हो सकते
अपने-अपने अहंकार छोड़कर
मतभेदों की दीवार तोड़कर
क्यों इस अहं की लड़ाई में
शामिल होते जा रहे हैं समझदार भी
क्या समझदारी के मायने बदल चुके हैं!
क्या कुछ हारकर भी
बहुत कुछ जीत लेने की समझदारी
नहीं बची है इन समझदारों में
या नहीं बचा है धैर्य!
इस अंतहीन लड़ाई का मकसद क्या है?
दुश्मन को जीत लेने पर
क्या बंद हो जाती हैं लड़ाइयाँ!
                        (कृष्ण धर शर्मा, २०१६)

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