नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

शुक्रवार, 30 सितंबर 2016

नदी और औरत


किसी झरने का नदी बन जाना
ठीक वैसे ही तो
जैसे किसी लड़की का औरत बन जाना
जैसे एकवचन से बहुवचन हो जाना
जैसे अपने लिए जीना छोड़कर
दुनिया के लिए जीना
जैसे दूसरों को अमृत पिला
खुद जहर पीना
अद्भुत सी समानताएं हैं
नदी और औरत में
दोनों ही से मिलकर
धुल जाते हैं कलुष
तन और मन के
तृप्त हो जाती है आत्मा भी
मिलती है अद्भुत सी शांति
रेतीले, पथरीले, जंगल, पहाड़ से
गुजरती है नदी कितनी ही चोटें खाकर
खुशहाली पहुंचाती है मगर
नगर-नगर हर गाँव-घर जाकर
भले ही मिलता हो उसे बदले में
इंसानी गन्दगी का दलदल
पिता हो, पति हो, या पुत्र
औरत भी तो ले लेती है
सबकी थकान और चिंताएं अपने ही सर
फिर भी कोई गिला नहीं दोनों को ही
खुशियाँ बांटती जा मिलती हैं
दोनों ही अपने-अपने समंदर को

              (कृष्ण धर शर्मा, २०१६)

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