रविवार, 8 नवंबर 2015

आरक्षण नहीं, सरकारी कर्मियों की लूट है समस्या

सुप्रीम कोर्ट ने उच्च शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण लागू न करने की जरूरत की तरफ संकेत किया है। लेकिन यह छोटी समस्या है। इन संस्थाओं में आरक्षण हो जाए तो समाज को अधिक नुकसान नहीं होता है। चुनिंदा अक्षम छात्र-छात्राओं को दाखिला मिल जाता है। आगे समुचित पढ़ाई न कर पाने पर ये बेकार हो जाते हैं। जैसे आदमी गलत माल खरीद ले और उसे कूड़ेदानी में फेंकना पड़े ऐसे ही अक्षम छात्र फेंक दिये जाते हैं। समाज चलता रहता है। इस आरक्षण की तुलना में सरकारी नौकरियों में आरक्षण का बहुत ज्यादा नुकसान हो रहा है। सरकारी कर्मियों द्वारा आज देश को लूटा जा रहा है। इस लूट में शामिल होने को देश के युवा भारी संख्या में आगे आ रहे हैं। इनका एक मात्र उद्देश्य लुटेरों के समूह में शामिल हो जाने का है। हर समुदाय का लक्ष्य हो गया है कि अपने अधिकाधिक सदस्यों को इस लूट में शामिल करा ले। फलस्वरूप पूरे देश को आरक्षण के बवाल से जूझना पड़ रहा है। बाबा साहेब अम्बेडकर ने आरक्षण की मांग इसलिए की थी कि पिछड़े वर्ग का सर्वागींण विकास हो। इसके स्थान पर आज आरक्षण का स्वरूप विकृत हो गया है। महात्मा ज्योति राव फूले ने 1882 में हन्टर कमीशन को ज्ञापन दिया था कि जाति के अनुपात में सरकारी नौकरियों में भर्ती की जाए। कोल्हापुर राज्य ने 1902 में पिछड़ी जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत आरक्षण लागू किया था। मंडल कमीशन के केन्द्र में सरकारी नौकरियों में आरक्षण की संस्तुति की थी। बीते समय में गुर्जरों तथा जाटों द्वारा चलाए गए आन्दोलनों का केन्द्र सरकारी नौकरियों में आरक्षण था। कुछ मनीषियों का मानना है कि पिछड़ी जातियों से नियुक्त सरकारी कर्मचारियों द्वारा अपने कमजोर भाइयों को मदद पहुंचाई जाएगी। जैसे पिछड़ी जाति के पुलिस कर्मी द्वारा अपने भाइयों एवं बहनों के प्रति नरम रुख अपनाया जाएगा। परन्तु प्रत्यक्ष अनुभव बताता है कि पिछड़ी जातियों से चुने गए कर्मियों का झुकाव ऊपरी जातियों से जुडऩे का होता है। हाल में मैं गुजरात के डांग जिले के आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासियों की रामायण के बारे में मान्यता का अध्ययन कर रहा था। मित्रों ने पिछड़ी जातियों से बने दो प्रोफेसरों का नाम लिया परन्तु फिर कहा कि वे आदिवासी विरासत को तुच्छ मानते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री एमएन श्रीनिवास ने इस प्रवृत्ति को संस्कृताइजेशन की संज्ञा दी थी। आपका कहना था कि हर समाज में कमजोर वर्ग का प्रयास रहता है कि उच्च वर्ग में शामिल हो जाएं जैसे छोटी क्लास का बच्चा शीघ्र प्रोमोट होना चाहता है। अत: सरकारी नौकरी में आरक्षण का सामाजिक न्याय से कुछ लेना-देना नहीं है। एकमात्र एवं सीधा उद्देश्य सरकारी नौकरियों द्वारा प्रदत्त सुविधाओं पर कब्जा करना है। नई दिल्ली स्थित इन्स्टीट्यूट फार स्टडी इन इंडस्ट्रियल डेवलेपमेंट के अनुसार, 2007-08 में प्राइवेट नौकरी में औसत आय 46,802 रुपए प्रतिवर्ष थी। भारत सरकार द्वारा प्रकाशित आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, इसी वर्ष में सार्वजनिक क्षेत्र में औसत वेतन 4,10,898 रुपए था। सरकारी कर्मियों की आय लगभग नौ गुणा थी। इसके अतिरिक्त घूस से भारी आय होती है। आज देश के किसी भी गांव में चले जाइए, सबसे बड़े मकान सरकारी कर्मियों के ही मिलेंगे। दूसरे देशों में ऐसा नहीं है। रीजन फाउन्डेशन द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि अमेरिका में सरकारी कर्मी के वेतन प्राइवेट कर्मी से 11 प्रतिशत कम हैं। कुछ वर्ष पूर्व मैंने विश्व बैंक द्वारा कराया गया एक अध्ययन देखा था। तमाम देशों के सरकारी कर्मियों के वेतन की तुलना उसी देश के आम नागरिक की आय से की गई थी। पाया गया कि भारत के सरकारी कर्मियों के वेतन आम आदमी की आय से पांच गुणा थे। लगभग 100 देशों में भारत के सरकारी कर्मियों के वेतन एवं आम आदमी की आय में अन्तर अधिकतम था। अपने देश में सरकारी कर्मियों द्वारा की जा रही यह लूट ने पांचवे वेतन आयोग के बाद विशेष रंग पकड़ा है। पांचवे तथा छठे वेतन आयोगों ने वेतन वृद्धि की सिफारिश इस आधार पर की थी कि कर्मी की जीविका के लिए आवश्यक वेतन उसे उपलब्ध कराया जाना चाहिए। जैसे एक कर्मी को एक कार, दो बच्चों की पब्लिक स्कूल में फीस, बेटी की शादी के लिए सोने की खरीद, रिटायरमेंट के बाद अपने मकान में बसने के लिए हाउसिंग लोन का पेमेंट इत्यादि की गणना कर के वेतन की संस्तुति की गई थी। विद्वान कमीशनरों ने यह नहीं पूछा कि आम आदमी बिना कार के कैसे जीविका चलाता है? यदि आम आदमी बिना कार के जीवनयापन कर सकता है तो उसकी सेवा करने के लिए नियुक्त सरकारी कर्मी बिना कार के क्यों नहीं जीवनयापन कर सकता है? लुटेरों का कोई धर्म नहीं होता है। लुटेरों की लाइन में शामिल होने को आतुर जाति आधारित आन्दोलनों का भी कोई धर्म नहीं है। इसलिए आरक्षण की समस्या का समाधान आरक्षण के बटवारे में उलटफेर करके नहीं निकाला जा सकता है। आरक्षण की समस्या का एकमात्र निदान है कि सरकारी नौकरों की लूट को बंद कर दिया जाए। हम अमेरिका से फास्ट फूड, लक्जरी कार तथा ड्रग्स जैसी तमाम मान्यताओं का आयात कर रहे हंै। सरकारी कर्मियों को आम आदमी से 11 प्रतिशत कम वेतन देने की व्यवस्था का भी आयात कर लें तो पूरी समस्या समाप्त हो जाएगी। लोगों के लिए सरकारी कर्मी बनने का आकर्षण समाप्त हो जाएगा। साथ-साथ ये आन्दोलन फुस्स हो जाऐंगे। अमेरिका में अश्वेतों द्वारा सरकारी नौकरियों में आरक्षण के लिए आन्दोलन नहीं किया जाता है। ऐसा ही भारत में होने लगेगा। प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में सरकारी कर्मियों के बीच फैले भ्रष्टाचार पर नियंत्रण करने में काफी सफलता हासिल की है। कुछ माह पूर्व अहमदाबाद के एक टैक्सी चालक ने बताया कि ड्राइवर लाइसेंस बनाने को छोटे-बड़े सभी को एक ही लाइन में लगना पड़ता है। घूस नहीं चलती है। हाल में एक गृह सचिव को सरकारी कार्य में अनुचित दखल करने के लिए ट्रांसफर कर दिया गया था। इस दृष्टि को आगे बढ़ाने की जरूरत है। कौटिल्य ने कहा था कि सरकारी कर्मियों पर निगाह रखने के लिए जासूसों की नियुक्ति करनी चाहिए और जासूसों पर निगाह रखने के लिए दूसरे जासूसों की नियुक्ति करनी चाहिए। मोदी द्वारा इस फार्मूले को पूरे देश में लागू किया गया तो सरकारी कर्मियों की लूट आधी हो जाएगी। आरक्षण के आन्दोलन भी आधे रह जाऐंगे। इसके साथ सातवें वेतन आयोग को स्पष्ट आदेश देना चाहिए कि सरकारी कर्मियों के वेतन आम आदमी की आय से अनुपात में किए जाएं। आरक्षण का मुद्दा लूट के बंटवारे का है न कि जातीय न्याय का। लूट बंद कर दें तो ये आन्दोलन स्वत: समाप्त हो जाएंगे। उच्च शिक्षा संस्थानों में आरक्षण समाप्त करने की वकालत करके सुप्रीम कोर्ट ने मूल समस्या की अनदेखी कर दी है। जरूरत सरकारी कर्मियों की लूट पर अंकुश करने की है। आरक्षण की ऊपरी परत पर प्रहार करने के स्थान पर मुख्य समस्या पर प्रहार की जरूरत है। डॉ. भरत झुनझुनवाला