फर्क
तो होता ही है
एक
अमीर साहित्यकार और एक गरीब साहित्यकार में
लिखते दोनों ही अच्छा हैं
मगर वातानुकूलित कमरे में
पुरसुकून सोफे पर बैठकर
चाय-काफी की चुस्कियां लेते हुए
52 इंच की टीवी स्क्रीन पर
चल रही किसानों की
आत्महत्या की ख़बरों को देखकर
दुखी होते हुए
उनके बारे में लिखना
आसान तो नहीं होता होगा न!
शायद तभी तो मिल जाते हैं
ढेरों पुरस्कार और सम्मान
उन लेखकों और उनकी रचनाओं को
जबकि गरीब साहित्यकार को
नहीं खोजने पड़ते हैं विषय
कुछ भी लिखने के लिए
वह तो अनायास ही मिल जाते हैं उसे
कभी खचाखच भरी हुई बस में या रेल में
कभी मेले की रेलमपेल में
कभी खेत में या खलिहान में
कभी अस्पताल में या गाँव के श्मशान में
कभी बेटे कि जिद में
कभी पत्नी की उदास आँखों में
कभी बगीचे की अमराइयों में
कभी रात कि तनहाइयों में
नदी किनारे हरी घास पर बैठकर
पानी की लहरों और मछुआरे के
जाल को देखते हुए
रची जाती हैं कितनी ही
सार्थक और जरूरी रचनाएं
एक गरीब रचनाकार के द्वारा
मगर जीवन की आपाधापी
और संसाधनों के अभाव में
नहीं पहुँच पाती हैं वह आमजन तक
पुरस्कार और सम्मान तो
दूर की कौड़ी है उसके लिए!
(कृष्ण धर शर्मा, २०१६)