रविवार, 22 मार्च 2009

समय का महत्व

यह घटना उस समय की है, जब स्वतंत्रता आंदोलन जोर पकड़ रहा था। गांधीजी घूम-घूमकर लोगों को स्वराज और अहिंसा का संदेश देते थे। एक बार उन्हें एक सभा में बुलाया गया। सभा का संचालन एक स्थानीय नेता को करना था। गांधीजी समय के पाबंद थे। वह निर्धारित समय पर सभास्थल पर पहुंच गए। उन्होंने देखा कि सभास्थल पर सभी लोग पहुंच गए हैं, लेकिन जिन नेता को सभा का संचालन करना था, वह नहीं पहुंच पाए हैं। सभी लोग बेसब्री से उस नेता की प्रतीक्षा करते रहे।

वह पूरे पैंतालीस मिनट बाद सभास्थल पर पहुंचे। उन्होंने देखा कि उनकी अनुपस्थिति में ही सभा चल रही है। यह देखकर वह लज्जित हुए। मंच पर पहुंच कर उन्होंने आयोजकों से पूछा कि उनके बिना सभा कैसे प्रारंभ हुई? इस पर आयोजक कुछ नहीं बोले।

गांधीजी नेताजी के हाव-भाव से उनकी बातें समझ गए। वह मंच पर आए और नेताजी की ओर देखते हुए बोले, 'माफ कीजिएगा, लेकिन जिस देश के अग्रगामी नेतागण ही महत्वपूर्ण सभा में पैंतालीस मिनट देर से पहुंचेगे वहां पर स्वराज भी उतनी ही देर से आएगा। नेता के इंतजार में अन्य लोग भी कार्य प्रारंभ नहीं कर सकते। यह सोचकर मैंने सभा शुरू करा दी क्योंकि मुझे डर था कि आपके देर से आने की आदत धीरे-धीरे अन्य लोगों को भी न लग जाए। मेरा मानना है कि लोग एक-दूसरे की अच्छी बातें ही सीखें, बुरी बातें नहीं।' गांधीजी की बात सुनकर नेताजी को शर्मिंदगी महसूस हुई। उन्होंने उसी क्षण संकल्प लिया कि आगे से वह भी वक्त का महत्व समझेंगे और अपना हर कार्य निर्धारित समय पर करेंगे।

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