डा. विनायक सेन- एक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं, पढ़ाई से डाक्टर हैं, प्रख्यात श्रमिक नेता स्व.शंकरगुहा नियोगी के साथ मिलकर मजदूरों के बीच काम किया, गरीबों के डाक्टर हैं और चाहते हैं कि आम आदमी की जिंदगी से अंधेरा खत्म हो। ऐसे आदमी का माओवादियों से क्या रिश्ता हो सकता है ? लेकिन रायपुर की अदालत ने उन्हें राजद्रोह का आरोपी पाया है। आजीवन कारावास की सजा दी है। प्रथम दृष्ट्या यह एक ऐसा सच है जो हजम नहीं होता। रायपुर में रहते हुए मैंने उन्हें देखा है। उनके जीवन और जिंदगी को सादगी से जीने के तरीके पर मुग्ध रहा हूं। किंतु ऐसा व्यक्ति किस तरह समाज और व्यवस्था को बदलने के आंदोलन से जुड़कर कुछ ऐसे काम भी कर डालता है कि उसके काम देशद्रोह की परिधि में आ जाएं, मुझे चिंतित करते हैं। क्या हमारे लोकतंत्र की नाकामियां ही हमारे लोगों को माओवाद या विभिन्न देशतोड़क विचारों की ओर धकेल रही हैं? इस प्रश्न पर मैं उसी समय से सोच रहा हूं जब डा. विनायक सेन पर ऐसे आरोप लगे थे।
अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-
अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।
उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-
आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।
मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।
विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः
सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।
डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।
देशतोड़कों की एकताः
देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता ।
लोकतंत्र में ही असहमति का सौंदर्य कायम-
बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या माओवाद की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है। अगर है तो हमारे ये समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जनसंगठनों के लोग उनके प्रति सहानुभूति क्यों रख रहे हैं। क्या भारतीय राज्य को गिलानियों, माओवादियों, मणिपुर के मुईया, खालिस्तान समर्थकों के आगे हथियार डाल देने चाहिए और कहना चाहिए आइए आप ही राज कीजिए। इस देश को टुकड़ों में बांटने की साजिशों में लगे लोग ही ऐसा सोच सकते हैं। हम और आप नहीं। जनतंत्र कितना भी घटिया होगा किसी भी धर्म या अधिनायकवादी विचारधारा के राज से तो बेहतर है। महात्मा गांधी जिन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया, अरूँधती का बेशर्म साहस ही है जो नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ कह सकती हैं। ये सारा भी अरूंधती, गिलानी और उनकी मंडली इसलिए कर पा रही है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है। अगर मैं लोकतंत्र में असहमति के इस सौंदर्य पर मुग्ध हूं- तो गलत क्या है। बस, इसी एक खूबी के चलते मैं किसी गिलानी के इस्लामिक राज्य, किसी छत्रधर महतो के माओराज का नागरिक बनने की किसी भी संभावना के खिलाफ खड़ा हूं। खड़ा रहूंगा।
संजय द्विवेदी [साभार प्रवक्ता.कॉम]
अदालत के फैसले पर हाय-तौबा क्यों-
अदालत, अदालत होती है और वह सबूतों की के आधार पर फैसले देती हैं। अदालत का फैसला जो है उससे साबित है कि डा. सेन के खिलाफ आरोप जो थे, वे आरोप सच पाए गए और सबूत उनके खिलाफ हैं। अभी कुछ समय पहले की बात है कि सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें इसी मामले पर जमानत दी थी। उस जमानत को एक बड़ी विजय के रूप में निरूपित किया गया था और तब हमारे कथित बुद्धिजीवियों ने अदालत की बलिहारी गायी थी। अब जब रायपुर की अदालत का फैसला सामने है तो स्वामी अग्निवेश से लेकर तमाम समाज सेवकों की भाषा सुनिए कि अदालतें भरोसे के काबिल नहीं रहीं और अदालतों से भरोसा उठ गया है और जाने क्या-क्या। ये बातें बताती हैं कि हम किस तरह के समाज में जी रहे हैं। जहां हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं को सम्मान देना तो दूर उनके प्रति अविश्वास पैदा कर न्याय की बात करते हैं। निशाना यहां तक कि जनतंत्र भी हमें बेमानी लगने लगता है और हम अपने न्यायपूर्ण राज्य का स्वर्ग माओवाद में देखने लगते हैं। देश में तमाम ऐसी ताकतें, जिनका इस देश के गणतंत्र में भरोसा नहीं है अपने निजी स्वर्ग रचना चाहती हैं। उनकी जंग जनतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने, उसे सार्थक बनाने की नहीं हैं। उनकी जंग तो इस देश के भूगोल को तितर-बितर कर देने के लिए है। वे भारत को सांस्कृतिक इकाई के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं। शायद इसी वैचारिक एकता के नाते अलग काश्मीर का ख्वाब देखने वाले अलीशाह गिलानी, माओ का राज लाने में लगे कवि बरवर राव और देश को टुकड़ों का बांटने की स्वप्नदृष्टा अरूंघती राय, खालिस्तान के समर्थक नेता एक मंच पर आने में संकोच नहीं करते। यह आश्चर्यजनक है इन सबके ख्वाब और मंजिलें अलग-अलग हैं पर मंच एक हैं और मिशन एक है- भारत को कमजोर करना। यह अकारण नहीं है मीडिया की खबरें हमें बताती हैं कि जब छत्तीसगढ़ में माओवादियों की एक महत्वपूर्ण बैठक हुयी तो उसमें लश्करे तैयबा के दो प्रतिनिधि भी वहां पहुंचे।
उनकी लड़ाई तो देश के गणतंत्र के खिलाफ है-
आप इस सचों पर पर्दा डाल सकते हैं। देश के भावी प्रधानमंत्री की तरह सोच सकते हैं कि असली खतरा लश्करे तैयबा से नहीं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से है। चीजों को अतिसरलीकृत करके देखने का अभियान जो हमारी राजनीति ने शुरू किया है ,उसका अंत नहीं है। माओवादियों के प्रति सहानूभूति रखने वाली लेखिका अगर उन्हें हथियारबंद गांधीवादी कह रही हैं तो हम आप इसे सुनने के लिए मजबूर हैं। क्योंकि यह भारतीय लोकतंत्र ही है, जो आपको लोकतंत्र के खिलाफ भी आवाज उठाने की आजादी देता है। यह लोकतंत्र का सौन्दर्य भी है। हमारी व्यवस्था जैसी भी है किंतु उसे लांछित कर आप जो व्यवस्थाएं लाना चाहते हैं क्या वे न्यायपूर्ण हैं? इस पर भी विचार करना चाहिए। जिस तरह से विचारों की तानाशाही चलाने का एक विचार माओवाद या माक्सर्वाद है क्या वह किसी घटिया से लोकतंत्र का भी विकल्प हो सकता है? पूरी इस्लामिक पट्टी में भारत के समानांतर कोई लोकतंत्र खोजकर बताइए ? क्या कारण है अलग- अलग विचारों के लोग भारत के गणतंत्र या भारतीय राज्य के खिलाफ एक हो जाते हैं। उनकी लड़ाई दरअसल इस देश की एकता और अखंडता से है।
मोहरे और नारों के लिए गरीबों की बात करना एक अलग बात है किंतु जब काश्मीर के आतंकवादियों- पत्थर बाजों, मणिपुर के मुइया और माओवादी आतंकवादियों के सर्मथक एक साथ खड़े नजर आते हैं तो बातें बहुत साफ हो जाती हैं। इसे तर्क से खारिज नहीं किया जा सकता कि घोटालेबाज धूम रहे हैं और विनायक सेन को सजा हो जाती है। धोटालेबाजों को भी सजा होनी चाहिए, वे भी जेल में होने चाहिए। किसी से तुलना करके किसी का अपराध कम नहीं हो जाता। अरूंधती की गलतबयानी और देशद्रोही विचारों के खिलाफ तो केंद्र सरकार मामला दर्ज करने के पीछे हट गयी तो क्या उससे अरूंधती का पाप कम हो गया। संसद पर हमले के आरोपी को सजा देने में भारतीय राज्य के हाथ कांप रहे हैं तो क्या उससे उसका पाप कम हो गया। यह हमारे तंत्र की कमजोरियां हैं कि यहां निरपराध लोग मारे जाते हैं, और अपराधी संसद तक पहुंच जाते हैं। किंतु इन कमजोरियों से सच और झूठ का अंतर खत्म नहीं हो जाता। जनसंगठन बना कर नक्सलियों के प्रति सहानुभूति के शब्दजाल रचना, कूटरचना करना, भारतीय राज्य के खिलाफ वातावरण बनाना, विदेशी पैसों के बल पर देश को तोड़ने का षडयंत्र करना ऐसे बहुत से काम हैं जो हो रहे हैं। हमें पता है वे कौन से लोग हैं किंतु हमारे जनतंत्र की खूबियां हैं कि वह तमाम सवालों पर अन्यान्न कारणों से खामोशी ओढ़ लेता है। वोटबैंक की राजनीति ने हमारे जनतंत्र को सही मायने में कायर और निकम्मा बना दिया है। फैसले लेने में हमारे हाथ कांपते हैं। देशद्रोही यहां शान से देशतोड़क बयान देते हुए घूम सकते हैं। माओ के राज के स्वप्नदृष्टा जरा माओ के राज में ऐसा करके दिखाएं। माओ, स्टालिन को भूल जाइए ध्येन आन-मन चौक को याद कीजिए।
विचारों की तानाशाही भी खतरनाकः
सांप्रदायिकता और आतंकवाद के नाम पर भयभीत हम लोगों को यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इस धरती पर ऐसे हिंसक विचार भी हैं- जिन्होंने अपनी विचारधारा के लिए लाखों लोगों को मौत के घाट उतारा है। ये हिंसक विचारों के पोषक ही भारतीय जनतंत्र की सदाशयता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। आप याद करें फैसले पक्ष में हों तो न्यायपालिका की जय हो , फैसले खिलाफ जाएं तो न्यायपालिका की ऐसी की तैसी। इसे आप राममंदिर पर आए न्यायालय के फैसले से देख सकते हैं। पहले वामविचारी बुद्धिवादी कहते रहे न्यायालय का सम्मान कीजिए और अब न्यायालय के फैसले पर भी ये ही उंगली उठा रहे हैं। इनकी नजर में तो राम की कपोल कल्पना हैं। मिथक हैं। जनविश्वास और जनता इनके ठेंगें पर। किंतु आप तय मानिए कि राम अगर कल्पना हैं मिथक हैं तो भी इतिहास से सच्चे हैं , क्योंकि उनकी कथा गरीब जनता का कंठहार है। उनकी स्तुति और उनकी गाथा गाता हुआ भारतीय समाज अपने सारे दर्द भूल जाता है जो इस अन्यायी व्यवस्था ने उसे दिए हैं।
डा. विनायक सेन, माओवादी आतंकी नहीं हैं। वे बंदूक नहीं चलाते। अरूंधती राय भी नक्सलवादी नहीं हैं। अलीशाह गिलानी भी खुद पत्थर नहीं फेंकते। वे तो यहां तक नाजुक हैं कि नहीं चाहते कि उनका बेटा कश्मीर आकर उनकी विरासत संभाले और मुसीबतें झेले। क्योंकि उसके लिए तो गरीब मुसलमानों के तमाम बेटे हैं जो गिलानी की शह पर भारतीय राज्य पर पत्थर बरसाते रहेंगें, उसके लिए अपने बेटे की जान जोखिम में क्यों डाली जाए। इसी तरह बरवर राव भी खून नहीं बहाते, शब्दों की खेती करते हैं। लेकिन क्या ये सब मिलकर एक ऐसा आधार नहीं बनाते जिससे जनतंत्र कमजोर होता है, देश के प्रति गुस्सा भरता है। माओवाद को जानने वाले जानते हैं कि यह आखिर लड़ाई किस लिए है। इस बात को माओवादी भी नहीं छिपाते कि आखिर वे किसके लिए और किसके खिलाफ लड़ रहे हैं। बहुत साफ है कि उनकी लड़ाई हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है और 2050 तक भारतीय राजसत्ता पर कब्जा करना उनका घोषित लक्ष्य है। यह बात सारा देश समझता है किंतु हमारे मासूम बुद्धिवादी नहीं समझते। उन्हें शब्दजाल बिछाने आते है। वे माओवादी आतंक को जनमुक्ति और जनयुद्घ जैसे खूबसूरत नाम देते हैं और चाहते हैं कि माओवादियों के पाप इस शब्दावरण में छिप जाएं। झूठ, फरेब और ऐसी बातें फैलाना जिससे नक्सलवाद के प्रति मन में सम्मान का भाव का आए यही माओवादी समर्थक विचारकों का लक्ष्य है। उसके लिए उन्होंने तमाम जनसंगठन बना रखे हैं, वे कुछ भी अच्छा नहीं करते ऐसा कहना कठिन है। किंतु वे माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखते हैं और उन्हें महिमामंडित करने का कोई अवसर नहीं चूकते इसमें दो राय नहीं हैं। ये सारी बातें अंततः हमारे हमारे जनतंत्र के खिलाफ जाती हैं क्या इसमें कोई दो राय है।
देशतोड़कों की एकताः
देश को तोड़ने वालों की एकता ऐसी कि अरूंधती राय, वरवर राय, अली शाह गिलानी को एक मंच पर आने में संकोच नहीं हैं। आखिर कोई भी राज्य किसी को कितनी छूट दे सकता है। किंतु राज्य ने छूट दी और दिल्ली में इनकी देशद्रोही एकजुटता के खिलाफ केंद्र सरकार खामोश रही। यह लोकतंत्र ही है कि ऐसी बेहूदिगियां करते हुए आप इतरा सकते हैं। नक्सलवाद को जायज ठहराते बुद्धिजीवियों ने किस तरह मीडिया और मंचों का इस्तेमाल किया है इसे देखना है तो अरूंधती राय परिधटना को समझने की जरूरत है। यह सही मायने में मीडिया का ऐसा इस्तेमाल है जिसे राजनेता और प्रोपेगेंडा की राजनीति करने वाले अक्सर इस्तेमाल करते हैं। आप जो कहें उसे उसी रूप में छापना और दिखाना मीडिया की जिम्मेदारी है किंतु कुछ दिन बाद जब आप अपने कहे की अनोखी व्याख्याएं करते हैं तो मीडिया क्या कर सकता है। अरूंधती राय एक बड़ी लेखिका हैं उनके पास शब्दजाल हैं। हर कहे गए वाक्य की नितांत उलझी हुयी व्याख्याएं हैं। जैसे 76 सीआरपीएफ जवानों की मौत पर वे “दंतेवाड़ा के लोगों को सलाम” भेजती हैं। आखिर यह सलाम किसके लिए है मारने वालों के लिए या मरनेवालों के लिए। ऐसी बौद्धिक चालाकियां किसी हिंसक अभियान के लिए कैसी मददगार होती हैं। इसे वे बेहतर समझते हैं जो शब्दों से खेलते हैं। आज पूरे देश में इन्हीं तथाकथित बुद्धिजीवियों ने ऐसा भ्रम पैदा किया है कि जैसे नक्सली कोई महान काम कर रहे हों। ये तो वैसे ही है जैसे नक्सली हिंसा हिंसा न भवति। कभी हमारे देश में कहा जाता था वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति। सरकार ने एसपीओ बनाए, उन्हें हथियार दिए इसके खिलाफ गले फाड़े गए, लेख लिखे गए। कहा गया सरकार सीधे-साधे आदिवासियों का सैन्यीकरण कर रही। यही काम नक्सली कर रहे हैं, वे बच्चों के हाथ में हथियार दे रहे तो यही तर्क कहां चला जाता ।
लोकतंत्र में ही असहमति का सौंदर्य कायम-
बावजूद इसके कोई ऐसा नहीं कर सकता कि वह डा. विनायक सेन और उनके साथियों को रायपुर की एक अदालत द्वारा आजीवन कारावास दिए जाने पर खुशी मनाए। वैचारिक विरोधों की भी अपनी सीमाएं हैं। इसके अलावा देश में अभी और भी अदालतें हैं, मेरा भरोसा है कि डा. सेन अगर निरपराध होंगें तो उन्हें ऊपरी अदालतें दोषमुक्त कर देंगीं। किंतु मैं स्वामी अग्निवेश की तरह अदालत के फैसले को अपमानित करने वाली प्रतिक्रिया नहीं कर सकता। देश का एक जिम्मेदार नागरिक होने के नाते हमें अदालत और उसकी प्रक्रिया में भरोसा करना चाहिए, क्योंकि हमारा जनतंत्र हमें एक ऐसा वातावरण देता हैं, जहां आप व्यवस्था से लड़ सकते हैं। दिल पर हाथ रखकर सोचिए कि क्या माओवाद की लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ नहीं है। अगर है तो हमारे ये समाजसेवी, बुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, जनसंगठनों के लोग उनके प्रति सहानुभूति क्यों रख रहे हैं। क्या भारतीय राज्य को गिलानियों, माओवादियों, मणिपुर के मुईया, खालिस्तान समर्थकों के आगे हथियार डाल देने चाहिए और कहना चाहिए आइए आप ही राज कीजिए। इस देश को टुकड़ों में बांटने की साजिशों में लगे लोग ही ऐसा सोच सकते हैं। हम और आप नहीं। जनतंत्र कितना भी घटिया होगा किसी भी धर्म या अधिनायकवादी विचारधारा के राज से तो बेहतर है। महात्मा गांधी जिन्होंने कभी हिंसा का समर्थन नहीं किया, अरूँधती का बेशर्म साहस ही है जो नक्सलियों को ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ कह सकती हैं। ये सारा भी अरूंधती, गिलानी और उनकी मंडली इसलिए कर पा रही है, क्योंकि देश में लोकतंत्र है। अगर मैं लोकतंत्र में असहमति के इस सौंदर्य पर मुग्ध हूं- तो गलत क्या है। बस, इसी एक खूबी के चलते मैं किसी गिलानी के इस्लामिक राज्य, किसी छत्रधर महतो के माओराज का नागरिक बनने की किसी भी संभावना के खिलाफ खड़ा हूं। खड़ा रहूंगा।
संजय द्विवेदी [साभार प्रवक्ता.कॉम]
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