जाति-व्यवस्था पर फिर से सवाल उठ रहे हैं। नए सिरे से मूल्यांकन हो रहा है। जाति-व्यवस्था को लेकर सबसे अधिक आरोपों का सामने करने वाली संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने स्पष्ट तौर पर कहा है कि हिंदू जाति-व्यवस्था की दीवारों को ढहा दें। इस व्यवस्था पर सबसे अधिक सुगठित प्रहार डॉ. भीमराव आंबेडकर ने किया था। उन्होंने जाति व्यवस्था के दंश को झेला भी था। आंबेडकर ने जाति-पांत तोड़क मंडल के लाहौर अधिवेशन के लिए एक लिखित भाषण प्रस्तुत किया था। इस भाषण की काफी चर्चा हुई है। वास्तव में यह समरस समाज बनाने की दिशा में प्रकाशस्तंभ की तरह है।
मित्रों,
जात-पांत तोड़कर मंडल के जिन सदस्यों ने कृपापूर्वक मुझे इस सम्मेलन का सभापति चुना है, मुझे चिंता है, उन लोगों से मेरे चुनाव के संबंध में अनेकों प्रश्न किए जाएंगे। उनसे पूछा जा सकता है, क्या लाहौर में कोई योग्य पुरूष नहीं था जो सभापति चुनने के लिए बंबई दौड़ गए। मैं हिंदू धर्म का आलोचक हूं, मैंने महात्मा जी के सिद्धांतों की भी, जिन पर हिंदुओं की श्रद्धा है, आलोचना की है, जिससे वे मुझे अपनी वाटिका का सर्प समझते हैं। मैं समझता हूं शायद राजनीतिक हिंदू भी मंडल से जवाब तलब करेंगे कि उसने इस आदरणीय पद के लिए मुझे चुनकर हिंदुओं का अपमान क्यों किया। सामान्य हिंदुओं को तो यह पसंद नहीं आएगा, क्योंकि सवर्ण हिंदुओं की सभा में संबोधन के लिए एक अंत्यज का चुना जाना शास्त्रीय मर्यादा को भंग करना है। अंत्यज कितना भी अनुभवी क्यों न हो, शास्त्र उसे ‘उपदेष्टा’ स्वीकार करने की आज्ञा नहीं दे सकते। शास्त्रानुसार ब्राह्मण ही तीनों वर्णों का उपदेष्टा और गुरु है। हिंदू-राज्य के संस्थापक शिवाजी के गुरु संत रामदास जी ने अपने मराठी ग्रंथ ‘दासबोध’ में हिंदुओं से प्रश्न किया है कि क्या तुम किसी अंत्यज को, जो तुम्हारे सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है, अपना गुरु स्वीकार कर सकते हो। यही प्रश्न यदि मैं करूं, तो मंडल के पास इसका क्या उत्तर होगा। उस कारण को तो मंडल ही जानता है, जिसने उसे बंबई भेजा और जिसने उसे मेरे जैसे व्यक्ति को, जो हिंदू धर्म का इतना विरोधी और अंत्यज है, मर्यादा के विरुद्ध सवर्ण हिंदुओं को संबोधन करने के लिए सभापति चुना।
अपने संबंध में, मैं आपसे यह कहने की अनुमति चाहता हूं कि मैंने आपके निमंत्रण को अपनी एवं अपने अछूत साथियों की इच्छा से स्वीकार नहीं किया। मैं जानता हूं, हिंदू मुझसे और मेरे भाइयों से घृणा करते हैं, इसलिए मैंने सदा अपने को उनसे अलग रखा और अपने विचारों का प्रकाश अपने प्लेटफार्म पर करता रहा। हिंदुओं के प्लेटफार्म पर अपनी बातें सुनाकर अपने को उनके ऊपर रखने की मैंने कभी इच्छा नहीं की। यहां भी मैं अपनी इच्छा से नहीं, आपके चुनाव से आया हूं। मैंने इससे इनकार करना इसलिए उचित नहीं समझा, क्योंकि मुझे बताया गया कि इस सम्मेलन का उद्देश्य सामाजिक सुधार है, और समाज सुधार एक ऐसा विषय है जिससे मुझे मोह है- विशेषत: उस दशा में, जबकि आप समझते हों कि इस काम से मैं आपकी कुछ सहायता कर सकता हूं, उस समस्या के हल के लिए आप कहां तक ग्रहण कर सकेंगे।
इस प्राक्कथन के साथ अब मैं मुख्य विषय पर अपने विचार आपके सामने रखने की अनुमति चाहता हूं।
कांग्रेस और समाज सुधार
भारत में समाज सुधार का काम निर्वाण-प्राप्ति के मार्ग के समान अनेक कठिनाइयों से पूर्ण हैं। कारण, भारत में समाज सुधार के मित्र थोड़े और शत्रु बहुत अधिक हैं। इंडियन नेशनल कांग्रेस देश की बहुत बड़ी संस्था है, किंतु समाज सुधार के साथ उसका व्यवहार कैसा रहा है, पहले इसी पर नजर डालिए।
पश्चिमी विद्वानों के संपर्क में जब यह देश आया, तो लोग मानने लगे कि कुरीतियों से आक्रांत हिंदू समाज में सामाजिक चेतना नहीं रही। अत: कुरीतियों को मिटाने का प्रयास निरंतर होना चाहिए। इस सत्य को स्वीकार कर लेने के कारण ही ‘कांग्रेस’ के जन्म के साथ, सोशल कान्फ्रेंस(समाज सुधार सम्मेलन) की भी नींव रखी गई। और कांग्रेस अधिवेशन के साथ ही, उसी पंडाल में ‘सोशल कान्फ्रेंस’ का भी अधिवेशन होने लगा। किंतु सामाजिक सुधार की चर्चा चलने पर जब हिंदू समाज व्यवस्था की तीव्र आलोचना होने लगी, तो यह बात ब्राह्मणों और कट्टर हिंदुओं को बर्दाश्त नहीं हुई और कांग्रेस के पूना अधिवेशन में, पूना के ब्राह्मणों के अनुरोध से, जब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसका विरोध किया, तो कांग्रेस ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ को अपना पंडाल नहीं दिया और सामाजिक सम्मेलन के प्रेमियों ने जब अपना पंडाल अलग बनाना चाहा, तो विरोधियों ने उसे जला डालने की धमकी दी। कांग्रेस के इलाहाबाद अधिवेशन के सभापति मि. डब्ल्यू. सी. बनर्जी ने ‘समाज सुधार सम्मेलन’ के विरुद्ध अपने भाषण में कहा-
‘’मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूं जो कहते हैं कि जब तक हम अपनी सामाजिक पद्धति में सुधार नहीं करते, तब तक हम राजनैतिक सुधार के योग्य नहीं हैं। मुझे इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं दिखाई देता। क्या हम राजनैतिक सुधार के योग्य इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारी विधवाओं का पुनर्विवाह नहीं होता और हमारी लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती है या हमारी पत्नियां और पुत्रियां हमारे साथ गाड़ी में बैठकर हमारे मित्रों से मिलने नहीं जाती। क्योंकि हम अपनी बेटियों को ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में पढ़ने के लिए नहीं भेजते। (हर्षध्वनि)
मि. बनर्जी के इन आक्षेपों के पर्याप्त उत्तर हैं। उनसे पूछा जा सकता है, क्या आपको यह मालूम है कि हिंदू समाज व्यवस्था ने देश की पंचमांश जनसंख्या को ‘अछूत’ बना रखा है। पेशवाओं के शासनकाल में, महाराष्ट्र में, इन अछूतों को उस सड़क पर चलने की आज्ञा नहीं थी जिस पर कोई सवर्ण हिंदू चल रहा हो। इनके लिए आदेश था कि ये अपनी कलाई में या गले में काला धागा बांधें, ताकि हिंदू इन्हें भूल से छू न लें। पेशवाओं की राजधानी पूना में तो इन अछूतों के लिए यह आदेश था कि वे कमर में झाड़ बांध कर चलें ताकि इनके पैरों के चिन्ह झाड़ से मिट जाएं और कोई हिंदू इसके पद-चिन्हों पर पैर रखकर अपवित्र न हो जाए, अछूत अपने गले में हांड़ी बांधकर चलें, और जब थूकना हो तो उसी में थूकें, भूमि पर पड़े हुए अछूत के थूक पर किसी हिंदू का पैर पड़ जाने से वह अपवित्र हो जाएगा। अछूत भी मनुष्य है, पेशवा ब्राह्मण भी मनुष्य है। एक मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ यह व्यवहार।
इसी तरह मध्य भारत में गरीब बलाई जाति के विरुद्ध वहां के कालोटों, राजपूतों और ब्राह्मणों ने इंदौर जिले के 15 गांवों में ऐसे अमानवीय कानून बनाए थे, जिनका पालन न कर सकने के कारण बलाइयों को स्त्री-बच्चों सहित उन चारों को छोड़कर, जहां उनके बाप-दादे पीढि़यों से रहते आए थे, धार, देवास, बागली, भोपाल, ग्वालियर और दूसरे निकटवर्ती राज्यों के सुनसान गांवों में चला जाना पड़ा, और इन नए घरों में उनके साथ जैसी बीती, वह अवर्णनीय है। बलाई भी मनुष्य हैं और ब्राह्मण-राजपूत भी मनुष्य हैं। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 जनवरी 1920)
गुजरात के अंतर्गत कविथा ग्राम की घटना अभी पिछले साल की है। कविथा के हिंदुओं के अछूतों के बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ने नहीं दिया। अहमदाबाद के ‘जन’ नामक गांव की नवंबर 1935 की घटना है कि वहां के अछूतों की स्त्रियों पर सवर्ण हिंदुओं ने इस कारण आक्रमण किया क्योंकि वे धातु के बर्तनों में पानी लाने लगी थीं। जयपुर राज्य के चकवारा गांव की ताजा घटना है कि वहां एक अछूत ने तीर्थयात्रा से लौटकर अपने भाइयों को पकवान का भोज दिया। बेचारे अछूत मेहमान भोजन कर ही रहे थे कि सैकड़ों हिंदू लाठी लेकर उन पर टूट पड़े और उनका भोजन खराब कर दिया, क्योंकि वे लोग घी के बने पकवान खा रहे थे। उन्होंने अतिथि बन कर घी खाने की ढिठाई क्यों की। घी तो हिंदुओं का खाद्य है, अछूतों को घी खाने का अधिकार नहीं।
प्रश्न होता है, जिस समाज में मनुष्य दुर्बलों पर इस तरह के क्रूर, गर्हित और अमानवी आचरण करते हों, वहां समाज सुधार की आवश्यकता क्यों नहीं है।
समाज सुधार के दो अर्थ है: एक पारिवारिक सुधार और दूसरा, समाज का पुनर्गठन। विधवा विवाह, बाल विवाह, स्त्री शिक्षा आदि पारिवारिक सुधार के अंतर्गत हैं तथा समाज में ऊंच-नीच, छूत-अछूत का अधिकार-भेद, वर्ण भेद या जाति भेद मिटाना सामाजिक सुधार है। हमारे देश में जो सांप्रदायिक बंटवारा(कम्यूनल अवार्ड) हुआ, वह सामाजिक सुधार न होने के कारण हुआ। यदि देश की सामाजिक व्यवस्था ठीक होती, तो सांप्रदायिक बंटवारे का प्रश्न ही न उठता। (एक भारत के दो खंड सामाजिक कुव्यवस्था का फल है।)
इतिहास इस बात का समर्थन करता है कि समुन्नत देशों में राजनैतिक क्रांतियों से पहले सामाजिक और धार्मिक क्रांतियां हुई हैं। लूथर द्वारा किया हुआ धार्मिक सुधार यूरोपीय लोगों के राजनैतिक उद्धार का पूर्व लक्षण था। प्यूरीटिनिज्म एक धार्मिक सुधार था और इसने नए संसार की नींव रखी, अमेरिकी स्वतंत्रता का युद्ध जीता। हजरत मुहम्मद द्वारा धार्मिक क्रांति होने के बाद ही अरबों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। भगवान बुद्ध द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही चंद्रगुप्त और अशोक जैसे सम्राट हुए। साधु-संतों द्वारा की हुई धार्मिक क्रांति के बाद ही शिवाजी हिंदू राष्ट्र की स्थापना कर सके। गुरु नानक द्वारा पैदा की गई धार्मिक क्रांति के फलस्वरूप ही सिखों ने राजनैतिक शक्ति प्राप्त की। तब कैसे कहा जा सकता है कि शक्तिशाली और सुदृढ़ राष्ट्र को बनाने के लिए धार्मिक और सामाजिक क्रांति की आवश्यकता नहीं है।
कम्युनिस्ट और समाज सुधार
कांग्रेस के बाद राजनीतिज्ञों का दूसरा दल कम्युनिस्टों(साम्यवादियों) का है। इस दल के सिद्धांत सामाजिक अवस्था के अनुरूप स्थिर हुए। कम्युनिस्टों का ध्येय धार्मिक असमानता को मिटाकर समाज में समता लाना है। कम्युनिस्ट कहते हैं-‘मनुष्य एक आर्थिक प्राणी है। उसकी आकांक्षाएं और चेष्टाएं आर्थिक तथ्यों से बंधी हुई है।‘ ये लोग वर्ण भेद और जाति भेद मिटाकर सामाजिक समता पर ही सारी शक्ति लगा देते हैं। इनके मत में धार्मिक और सामाजिक सुधार भ्रम-मात्र है। साम्पत्तिक शक्ति ही एकमात्र शक्ति है, इस बात को मानव समाज का अध्ययन करनेवाला कोई भी मनुष्य स्वीकार नहीं करेगा।
साधु-संतों का सर्वसाधारण पर जो शासन होता है, वह इस विचार का अपवाद है। भारत के करोड़ों लोग लंगोटधारी संपत्तिहीन साधु-संतों की आज्ञा मानते हैं और अपना अंगूठी-छल्ला बेचकर काशी, मक्का आदि तीर्थों के दर्शनों को जाते हैं। ऐसा क्यों होता है। भारत का इतिहास बताता है कि धर्म एक बड़ी शक्ति है। भारत में पुरोहितों का शासन मजिस्ट्रेट से भी बढ़कर है। यहां काउंसिलों के चुनाव और हड़तालों को भी आसानी से धार्मिक रंगत मिल जाती है। भारत ही नहीं, यूरोप के इतिहास में भी धर्म की प्रबलता पाई जाती है। रोम के प्रजातंत्री शासन काल में एक काउंसिल (प्रतिनिधि) दूसरे काउंसिल के काम को रद्द कर देता था। वहां प्लोवियनों और पेट्रीशियनों का संघर्ष था। रोम की जनता का यह धार्मिक विश्वास था कि कोई भी अफसर वहां किसी पद को ग्रहण नहीं कर सकता, जब तक डेल्फी देवी की देववाणी उसे स्वीकार न करे। डेल्फा देवी के पुरोहित पेट्रीशियन थे, इसलिए जब कभी प्लेवियन ऐस व्यक्ति को अपना नेता चुनते, जो पेट्रीशियनों के विरूद्ध पार्टीमैन होता, तो देववाणी सदा विघोषित कर देती कि डेल्फी देवी उसे स्वीकार नहीं करतीं। इस कारण प्लेवियनों को अपने में कभी ऐसा प्रतिनिधि न मिल सका, जो पेट्रोशियनों का मुकाबला करता। प्लेवियन लोग इस ठगी को इसलिए स्वीकार कर लेते, क्योंकि उनका अपना भी विश्वास था कि देवी की स्वीकृति आवश्यक है, केवल जनता द्वारा चुना जान ही पर्याप्त नहीं है। धार्मिक विश्वास छोड़ने के बदले प्लेवियनों ने अपना लौकिक नाम छोड़ दिया। क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि प्लेवियन संपत्ति की अपेक्षा धर्म को अधिक महत्व देते थे।
धर्म, सामाजिक स्थिति और संपत्ति, ये तीनों प्रभुता के स्रोत हैं। आज के यूरोपीय समाज में संपत्ति की प्रमुखता है, किंतु भारत में धर्म और सामाजिक व्यवस्था का सुधार किए बिना आप आर्थिक सुधार नहीं कर सकते। क्या भारत का सर्वहारा वर्ग ऐसी क्रांति लाने के लिए इकट्ठा हो जाएगा। इसके लिए उसे प्रेरणा तभी मिल सकती है जब उसे विश्वास हो जाए कि जिनके साथ वह काम कर रहा है, वे समता, बंधुता और न्याय के लिए ही संघर्ष कर रहे हैं तथा क्रांति के बाद वर्ण, जाति और धर्म का कोई भेद न रहेगा। कम्युनिस्टों का केवल यह कहना काफी नहीं है कि ‘मैं जादि भेद को नहीं मानता।‘ भारत में जहां साधारण जनता धनी और निर्धन, ब्राह्मण और शूद्र एवं ऊंच-नीच के भेद को मानती है और इसे पूर्व जन्म के कर्मों का फल, विधाता का विधान अथवा तकदीर समझती है, वहां केवल धनवानों के विरुद्ध कैसे इकट्ठी हो सकती है। और यदि नहीं इकट्ठी हो सकती, तो ऐसी आर्थिक क्रांति का होना ही असंभव है। यदि किसी कारण ऐसी क्रांति हो भी गई, तो ब्राह्मण-शूद्र, ऊंच-नीच और वर्ण जाति के भेद-भाव को उत्पन्न करनेवाले पक्षपातों से युद्ध किए बिना मार्क्सवादी शासन वहां चल सकना संभव नहीं। आप किसी भी ओर मुंह कीजिए वर्ण भेद और जाति भेद एक ऐसा राक्षस है जो सब ओर से आपका मार्ग रोके हुए है। जब तक आप इस राक्षस को वध नहीं करते, आप न यहां राजनैतिक सुधार कर सकते हैं और न आर्थिक सुधार।
क्या चातुर्वर्ण श्रम का विभाजन है
कुछ लोग कहा करते हैं कि चातुर्वर्ण व्यवस्था श्रम का विभाजन है। परंतु वह बात निराधर है। वस्तुत: चातुर्वर्ण व्यवस्था का आधार भोगेश्वर्य की सुलभता, समाज पर प्रभुता और श्रेष्ठता, श्रम से बचना, आराम और लौकिक सुविधा का स्वार्थ है। यही कारण है कि इसे राष्ट्रीयता विघातक समझते हुए भी सवर्ण हिंदू नेता इसका विध्वंस सहन नहीं कर पाते। धनी और निर्धन की विषमता मिटाकर सापेक्षिक समता लाने का राग अलापनेवाला सोशलिस्ट हिंदू भी यहां चातुर्वर्णी मर्यादा की रक्षा के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता देखा जाता है। सवर्ण हिंदू को मानो जन्म में ऊंचाई का पट्टा मिला हुआ है, जिसके भोग में यह ऐसा प्रसक्त है कि वह शूद्रों के अभाव-ग्रसित कष्टमय जीवन का अनुभव ही नहीं कर सकता। एक अहीर या चमार-मजदूर ब्राह्मण-मजदूर के शाप से डर कर उसका पूजन करता एवं उसकी गाली, डींगें और बदतमीजी बर्दाश्त करता है। ब्राह्मण और भंगी के बीच परंपरागत धार्मिक कुसंस्कारों के कारण कल्पित उच्चता और पवित्रता की दीवार खड़ी है। खेद है, भारत में आज तक जितने सुधारक हुए, वे सब भी सवर्ण हिंदुओं में ही पैदा हुए। यही कारण है कि वर्ण व्यवस्था द्वारा होनेवाली घोर हानि की वे अनुभूति नहीं कर सके।
वर्ण व्यवस्था और जाति भेद वस्तुत: श्रम का नहीं, श्रमिकों का विभाजन है। यही कारण है कि यहां नीचे गिराई गई जाति का मनुष्य ऊपरवाली जाति का पेशा नहीं कर सकता। यहां भंगी हलवाई का काम नहीं कर सकता, परचूनी नहीं कर सकता, चाय और पान की दुकान नहीं रख सकता। पुरोहित नहीं बन सकता। ऐसा कोई सामाजिक कार्य नहीं, जिसमें भंगी से ब्राह्मण तक समान भाव से लग सकें। हिंदुओं को एकता या एक-राष्ट्रीयता के सूत्र में बांधनेवाली एक भी बात नहीं, सब अपने को अलग-अलग अनुभव करते हैं। हिंदू का जन्म से मरण पर्यंत सारा जीवन अपने वर्ण और जाति की तंग चहारदीवारी के भीतर ही सीमित रहता है। एक जाति और एक वर्ण का मनुष्य दूसरी जाति और दूसरे वर्ण से घृणा और द्वेष रखता है। यहां तक कि लोगों ने एक-दूसरे की जाति के विरुद्ध निंदा और घृणापूर्ण कहावतें बना रखी हैं। जैसे कि –
बनिया, बंदर, अग्नि, जल, कुटी, कटक, कलार।
ये दशों अपने नहीं, सूची सुधा सुनार।
बनिया किसका यार, उसको दुश्मन क्या दरकार।
अहिर मिताई तब करै जब सबै मीत मर जाएं।
पसिया मीत बबुर की छाहीं, छिन मां आपन छिन मां नाहीं।
जहां चार अहिर तहां बात गहिर, जहां चार कोरी तहां बात मोरी।
जाट मरा तब जानिए जब तेरहवीं होय।
यह कायथ की खोपड़ी मरे पै धोखा देय।
करिया बाम्हन गोर चमार, इनके साथ न उतरे पार।
ठाकुर मानें कहे-सुने ते, बाम्हन मानै खाये।
कागज मानें लिहे-दिहे ते, सूद जाति लतियाये।
बाम्हन कुत्ता हाथी, नहीं किसी के साथी।
खत्री-पुत्रं कभी न मित्रं, जब मित्रं तब दगिमदगा।
गगरी दाना, सूद बताना।
ढोल, गंवार, सूद्र, पशु, नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी।
इस दुनिया में तीन कसाई, खटमल पिस्सू, बाम्हन भाई।
जे वर्णाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कौल कलवारा।
अंग्रेजों के पूर्वज भी ‘वार ऑफ रोजेज’ और क्रामवेल के युद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध लड़े थे, परंतु उनके वंशजों में अब किसी प्रकार का बैर भाव नहीं है। इसके विरुद्ध भारत का ब्राह्मणेतर आज भी ब्राह्मणों को किसी प्रकार क्षमा करने को तैयार नहीं, क्योंकि उनके पूर्वजों ने शिवाजी का अपमान किया था-तेली, कुम्हार, कलवार, कायस्थ और अहीर को वर्णाधम, शूद्र और अधरूप लिखा। इन अनुलोम-प्रतिलोम वर्ण भेद और जाति भेद ने हिंदू समाज को पारस्परिक कलह, घृणा और भिन्नता के भावों से ऐसा जर्जरित बना रखा है कि हिंदू एक जाति या एक राष्ट्र के रूप में संगठित नहीं हो सकते।
आर्य समाज की वर्ण व्यवस्था
आर्य समाज ने वर्ण व्यवस्था को आकर्षक बनाने के लिए यह दावा पेश किया कि वर्ण जन्म से नहीं, गुण-कर्म-स्वभाव से होता है। वह यह भी कहता है कि भारत की चार हजार जातियों और उपजातियों को गलाकर चार वर्णों में ढाल देना चाहिए। ये दोनों बोतें सम्भव नहीं हैं। पहली यह है कि यदि व्यक्ति को गुणों के अनुसार समाज में आदर मिलता है, तो फिर चार वर्णों का आग्रह कैसा। ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र नाम के गंदे लेबलों की आवश्यकता क्यों। वर्णों का लेबुल न लगाने से क्या समाज में सम्मान नहीं मिल सकता। दूसरा यह कि गुण क्या चार ही हैं। यदि चार ही हैं, तो यदि एक ही व्यक्ति में ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र चारों के गुणों का विकास हो, तो वह किस वर्ण में रहेगा। फिर, ऊंचे वर्ण में जनमे व्यक्ति को क्या गुण-कर्म के अनुसार नीचे वर्ण में जनमे व्यक्ति को गुण-कर्म के अनुसार ऊंचे वर्ण का माना जाने के लिए क्या समाज को मजबूर किया जा सकेगा। अत: चार हजार जातियों को चार वर्णों में ढालना असंभव-सा है। फिर गुणों के अनुसार चार वर्णों का विभाग करने के लिए क्या म्युनिसिपैलिटी और काउंसिलों के इलेक्शन की तरह वर्णों का इलेक्शन हुआ करेगा अथावा परीक्षाएं लेकर यूनिवर्सिटी से वर्णों का सर्टिफिकेट बंटा करेगा।
इसके सिवाय समाज में आधी आबादी स्त्रियों की है। क्या आज भी समस्त नारी जाति को ‘शूद्रा’ बनाकर रखा जा सकता है। यदि नहीं, तो क्या चातुर्वर्ण के अनुसार कुछ स्त्रियां पुरोहित बनेंगी, कुछ सिपाही का काम करेंगी और कुछ सेठ बनकर व्यापारी का काम करेंगी। इतिहास-प्रसिद्ध प्लेटों ने भी गुणों के अनुसार विचारक, शूर और बणिक व श्रमिक-तीन श्रेणियों मे समाज को बांटने की व्यवस्था की थी, किंतु उसकी व्याख्या भंग हो गई। यह सिद्ध हो गया कि किन्हीं दो मनुष्यों को भी सदा एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता, क्योंकि गुण और स्वभाव परिवर्तनशील होते हैं। अतएव आर्य समाजी कल्पना से उद्भूत गुणों के अनुसार चातुर्वर्ण व्यवस्था हानिकर और अस्वाभाविक ही नहीं, वरन मूखर्तापूर्ण और असम्भव भी है।
वस्तुत: चातुर्वर्णी व्यवस्था चाहे गुण-कर्म के अनुसार हो, चाहे जन्म के आधार पर, दोनों रूपों में अस्वाभाविक है। स्वतंत्र मानव समाज को चार वर्णों में केवल कठोर कानून और राज-दंड के भय से ही ठूंसा जा सकता है, जैसा कि चातुर्वर्ण के रक्षक राम ने शूद्र हो कर तप करने के कारण शंबूक का शिरच्छेदन कर दिया। आज बीसवीं शताब्दी के स्वछन्द मानव समाज को मनुस्मृति की अंधकारयुगीन दण्डनाओं से अनुशासित नहीं किया जा सकता।
वर्ण व्यवस्था असाध्य और हानिकारक
चातुर्वर्ण व्यवस्था मानव समाज के लिए असाध्य ही नहीं, हानिकर भी है। इसका अर्थ है, कुछ इने-गिने मनुष्यों के प्रभुत्व के लिए बहुत-से लोगों को सर्वहारा बना दिया जाए। थोड़े-से लोगों के जीवन के विकास और प्रकाश के लिए बहुत-से लोगों को प्रवंचित, नि:सत्व और अंधकारमय बना दिया जाए। भारत में यही हुआ। इस राक्षसी व्यवस्था ने यहां के बहुसंख्यक लोगों को निर्जीव और पंगु बना दिया। यही कारण है कि दूसरे समुन्नत देशों की तरह यहां कभी सामाजिक क्रांति नहीं हुई। यहां का खेतिहर हल के सिवाय तलवार नहीं चला सकता था। जनता के पास संगीनें न थीं। क्रांति के द्वारा दासता से मुक्त होने का कोई साधन न था। उसे समझाया गया था कि परमेश्वर ने ही तुम्हारे भाग्य में दासता लिखी है। इसके फलस्वरूप शूद्र बनाई गई जनता घोर दासता का दु:ख भोगती थी। भारतीय इतिहास में केवल मौर्य साम्राज्य का काल ही वह काल था, जब चातुर्वर्ण विध्वंस हो गया था, शूद्र औश्र दास होश में आ गए थे और देश के शासक बन गए थे।
महाभारत और पुराण ब्राह्मण-क्षत्रियों के संघर्ष से पूर्ण हैं। कभी ब्राह्मण क्षत्रियों का विनाश करते पाए जाते हैं और कभी क्षत्रिय ब्राह्मणों का। यदि क्षत्रिय और ब्राह्मण गली में मिल जाएं तो कौन किसको पहले प्रणाम करे या रास्ता छोड़ दे, ऐसी छोटी बातों पर भी लड़ पड़ते थे। क्षत्रिय और ब्राह्मण एक-दूसरे की आंख के कांटा थे। भागवत में स्पष्ट लिखा है कि कृष्ण का अवतार क्षत्रियों का विनाश करने के लिए हुआ था और ब्रह्म-हत्या निवारण के लिए ही राम को अश्वमेघ यज्ञ करना पड़ा था। इन सब बातों से सिद्ध हो जाता है कि चातुर्वर्ण व्यवस्था आदर्श रूप में कभी सफल नहीं हुई।
स्वेच्छा से व्यवसाय न चुन सकने का परिणाम यह होता है कि लोगों को अपने पैतृक कामों से अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस अरुचि का कारण व्यवसायों पर लगा हुआ कलंक तथा इसे करनेवालों के प्रति ऊंच-नीच की सामाजिक भावनाएं होती हैं। इस सबका परिणाम यह होता है कि उस व्यवसाय की उन्नति नहीं होती।
वर्ण भेद और प्रजनन विज्ञान
वर्ण भेद के हिमायती कुछ लोग इसे रक्त की पवित्रता और वंश की विशुद्धि कायम रखने का साधन कहते हैं, किंतु डॉ. भंडारकर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘फॉरेन एलिमेन्ट्स इन द हिंदू पॉपुलेशन’ (हिंदू लोगों में विदेशी तत्व) पुस्तक में तर्क और प्रमाणों ने सिद्ध कर दिया है कि भारत में ऐसी कोई श्रेणी नहीं जिसमें विजातीय अंश न हो। लड़ाकू राजपूत और मराठों में ही नहीं, ब्राह्मणों में भी शुद्ध रक्त नहीं है। वर्ण भेद वस्तुत: विभिन्न जातियों के रक्त और संस्कृति-सम्मिश्रण के बहुत पीछे बना। पंजाब और मद्रास के ब्राह्मणों अथवा बंगाल और मद्रास के अस्पृश्यों में ही एक वंश या एक ही रक्त नहीं है। वस्तुत: पंजाब के ब्राह्मण और पंजाब के चमार एवं मद्रास के बाह्मण और मद्रास के चमार में रक्त और वंश की एकता है। यदि विभिन्न वर्णों के लोगों में वर्णांतर विवाह होने दिया जाए, तो इससे हानि की अपेक्षा लाभ ही अधिक होगा। हां, पशु और मनुष्य में भेद अवश्य है। मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं है, क्योंकि विभिन्न वर्णों के विवाहों से संतान पैदा होती है, स्त्रियां बांझ नहीं हो जातीं। थोड़ी देर के लिए यदि मान लिया जाए कि रक्त सम्मिश्रण की रूकावट सुप्रजजन या रक्त शुद्धि की दृष्टि से है, तो विभिन्न वर्णों के पारस्परिक सहयोग की रूकावट का उद्देश्य क्या है।
वर्ण भेद यदि सुप्रजनन शास्त्र के मौलिक सिद्धांतों के अनुसार होता, तो इस पर अधिक आपत्तियां न होतीं, क्योंकि जब उसका उद्देश्य उत्तम संतान उत्पन्न कर नस्ल का सुधार करना होता। परंतु ऐसा पाया नहीं जाता। वृक्ष अपने फल से पहचाना जाता है। वर्ण भेद ने ऐसी नस्ल पैदा की जिसका न लंबा कद है, न बलिष्ठ शरीर। शारीरिक दृष्टि से हिंदू ठिगने और बौने लोगों की जाति है। एक ऐसी नस्ल, जिसका दसवां भाग सैनिक सेवा के अयोग्य है। ऐसी दशा में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वर्ण व्यवस्था का आधार वैज्ञानिक सुप्रजजन शास्त्र है। यह तो एक ऐसी सामाजिक पद्धति है जिसमें इसके व्यवस्थापकों का घमंड और स्वार्थ भरा है। इन्हें ऐसी शक्ति प्राप्त हो गई थी, जिससे ये ऐसा गर्हित व्यवस्था अपने से छोटों पर लाद सकें। इसने हिंदुओं को पूर्णत: असंगठित और नीति-भ्रष्ट बना दिया है।
आदिवासी और जातिभेद
देश में आदिवासियों की एक खासी संख्या है, जो मानव समाज से अलग असभ्य जंगली हालत में पाए जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी हैं जो विवश हो ‘जरायमपेशा’ हो गए हैं। हिंदू डींगे मारते हैं कि उनके वेद में सारे विश्व को ‘आर्य’ बनाने का आदेश है, तो फिर अपने ही देश में रहनेवाले इन आदिवासियों को उन्होंने अब तक सभ्य आर्य क्यों नहीं बनाया। क्या यह शर्म की बात नहीं है।
हिंदुओं ने इन आदिवासी मानवों को सभ्य बनाने का प्रयत्न क्यों नहीं किया, इसका सही उत्तर यह है कि हिंदू वर्ण और जाति के अहंकार से ग्रसित हैं, इसलिए वह इनसे संपर्क स्थापित नहीं कर सकता। इन्हें सभ्य बनाने में उसे इनके बीच बसना, इनसे प्रेम व सहानुभूति पैदा करना एवं इन्हें अपनाना पड़ता। यह सब उनके लिए संभव न था, क्योंकि ऐसा करने में हिंदू में वर्ण और जाति की पवित्रता नष्ट हो जाती। इसलिए वह इनसे दूर रहा। हिंदुओं को यह कल्पना नहीं हुई कि यदि अहिंदुओं ने इन जातियों को सुधार कर इन्हें अपने धर्म का साझीदार बना लिया, तो ये बहुसंख्यक आदिवासी उनके शत्रुओं की संख्या बढ़ा देंगे और तब हिंदुओं को अपने जाति भेद और वर्णभेद को ही धन्यवाद देना पड़ेगा।
केवल यही नहीं कि हिंदुओं ने इन जंगलियों को सभ्य बनाने का यत्न नहीं किया, ऊंचे वर्णवाले हिंदुओं ने अपने से नीचे वर्णवालों के सांस्कृतिक विकास को रोका है। महाराष्ट्र के सुनारों और पठारे प्रभुओं के साथ बलपूर्वक ऐसा किया गया। बेचारे सुनारों को शौक हुआ कि वे भी ब्राह्मणों की तरह चुनी धोती और त्रिपुंड धारण कर परस्पर ‘नमस्कार’ किया करें, तो उन्हें पेशवाओं ने दबाव डाल कर ऐसा करने से रोक दिया और पठारे प्रभु जब ब्राह्मणों की नकल कर विधवाओं को बिठलाने लगे(क्योंकि विधवा विवाह अनार्य प्रथा है, आर्य हिंदुओं में विधवा विवाह नहीं होता), तो कानूनन रोका गया।
हिंदू लोग मुसलमानों और ईसाइयों की हमेशा निंदा किया करते हैं, किंतु ये दोनों धर्म मानवता के अधिक निकट पाए जाते हैं। ये गिरे हुओं को उठाते और ज्ञान का प्रकाश फैलाकर लोगों की लोगों की उन्नति का मार्ग खोलते हैं, जबकि हिंदुओं का जातीय राग-द्वेष दुर्बलों को सदा अज्ञानांधकार में रखकर उन्हें दासता का सबक सिखाने और उन्हें दलित व पीडि़त, प्रवंचित या शोषित करने में ही अपना परम पुरूषार्थ समझता है।
शुद्धि और संगठन
ईसाई मिशनरियों की देखा-देखी हिंदुओं में भी विधर्मियों की शुद्धि करके संख्या बढ़ाने का शौक पैदा हुआ। उन्होंने यह नहीं सोचा कि हिंदू धर्म मिशनरी(प्रचारक) धर्म नहीं है, अत: शुद्धि आंदोलन एक मूर्खता और व्यर्थ चेष्टा सिद्ध होगा।
वस्तुत: हिंदू समाज वर्णों और उपवर्णों (जातियों) का संग्रह मात्र होने से प्रत्येक वर्ण एक ऐसा संगठित संघ है, जिसमें बाहर से भीतर आने का द्वार बंद है। हिंदू संस्कृति के अनुसार किसी जाति विशेष में जन्म लेनेवाला ही उस जाति का सदस्य माना जा सकता है। किंतु जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे धर्म में जाता है, तो उसके सामने केवल सिद्धांतों और दर्शनों को ही दिमाग में ठूंस लेने का प्रश्न नहीं होता, वह यह भी देखता है कि उस समाज में प्रवेश करने पर उसका स्थान क्या होगा, वह कहां रखा जाएगा, किस बिरादरी में उसे जगह मिलेगी, किन लोगों में उसके बच्चों के ब्याह होंगे, इत्यादि। हिंदुओं का जाति भेद इन प्रश्नों का उत्तर देने में विमूड़ है।
जिन कारणों से शुद्धि संभव नहीं है, प्राय: उन्हीं कारणों से संगठन भी असंभव है। जातिवाद होने से हिंदू शारीरिक शक्ति रखते हुए भी भीरु, कायर, दब्बू और अकेला है। उसे विश्वास नहीं है कि संकट पड़ने पर दूसरी जाति का हिंदू उसकी सहायता करेगा। मुसलमानों और सिखों की तरह वह किसी संकटग्रस्त को अपने घर में छिपाकर रोटी नहीं खिला सकता, न विभिन्न जातियों के हिंदू एक परिवार की तरह संगठित होकर एक घर में रह सकते हैं। यही कारणा है कि जब एक हिंदू पिटता या लुटता है, तो दूसरा उसे बचाने के लिए अपनी जान जोखिम में डालने की हिम्मत नहीं करता। किसी हिंदू लड़की का अपहरण हो जाने पर हिंदू उसे वापस लाने में इसलिए उदासीन रहता है कि उसकी शादी कहां करेगा। बिरादरी में तो उसे कोई अच्छा घर-वर मिलेगा नहीं।
वर्ण भेद और जाति भेद से ग्रस्त होने के कारण हिंदू समझता है कि भाग्य ने उसे अकेला पैदा किया है। हिंदू के रहन-सहन, खान-पान और पूजा-उपासना में कोई ऐसी बात नहीं है, जो उसे मुसलमानों और सिखों की तरह एकनिष्ठ करके परस्पर सहानुभूति उत्पन्न करे, न ऐसा कोई सामाजिक बंधन है जिससे एक हिंदू दूसरे हिंदू को अपना भाई समझे। इसीलिए हिंदू संगठित भी नहीं हो पाता।
जाति भेद और सदाचार
वर्णवाद और जातिवाद ने इस देश में मानवी सदाचार का भी संहार कर दिया है, जो अत्यंत खेदजनक है। मानवीय सदाचार का अर्थ है सार्वजनिक सद्गुण और सार्वजनिक सदाचार। मनुष्यों के केवल दो विभाग किए जा सकते हैं: अच्छे और बुरे, ज्ञानी और अज्ञानी, धर्मात्मा और धर्महीन, विद्वान और मूर्ख। किंतु वर्ण और जाति की भावना ने हिंदुओं की दृष्टि को ऐसा संकुचित बना दिया है कि अन्य मनुष्य कितना ही सद्गुणी और सदाचारी क्यों न हो, यदि वह किसी वर्ण-विशेष या जाति-विशेष का व्यक्ति नहीं है, तो उसकी कोई सुनेगा ही नहीं। एक ब्राह्मण किसी अब्राह्मण को अपना नेता और गुरु नहीं मानेगा। इसी तरह कायस्थ कायस्थ को और बनिया बनिए को ही अपना नेता मानेगा। वर्ण और जाति का विचार छोड़कर मनुष्यों के सद्गुणों की कद्र वह तभी करेगा, जब वह व्यक्ति उसका जाति-भाई हो। वहां मानवीय सदाचार ‘कबायली सदाचार’ बन गया है। सद्गुण और सदाचार की प्रधानता नहीं है, वर्ण और जाति की प्रधानता है। (महात्मा गांधी भी तभी तक ‘राष्ट्रपिता’ रहे थे, जब तक आजादी नहीं मिली थी। आजादी मिल जाने पर उनकी एक नहीं चली, और अंत में वह एक ब्राह्मण की गोली का निशाना बन गए।)
मेरा आदर्श समाज
आप पूछ सकते हैं, यदि आप वर्ण और जाति नहीं चाहते, तो आपका आदर्श समाज क्या है। मैं कहूंगा, एक ऐसा समाज, जिसमें न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता हो। मैं समझता हूं, किसी भी विचारवान को इससे इन्कार न होना चाहिए। बन्धुता का अर्थ यह है कि देश में उत्पन्न सभी व्यक्ति परस्पर भाई-भाई हैं और सभी का पिता की संपत्ति की भांति देश की संपत्ति पर समान अधिकार है। जीवन के लिए आवश्यक भोजन, वसन, औषधि और शिक्षा के लिए सभी बराबर के हकदार हैं। इसी का नाम बन्धुता या भाईचारा है। इसका दूसरा नाम है जनतंत्र या लोकतंत्र।
‘समता’ शब्द पर फ्रांसीसी राज्य क्रांति के समय बहुत विवाद हुआ, क्योंकि सब मनुष्य समान नहीं होते। कोई प्रतिभाशाली है। कोई जड़-बुद्धि, कोई कलाकार है, कोई लंठ, कोई बलिष्ठ है, कोई दुर्बल, कोई वीर है, कोई भीरु, कोई पुरुषार्थी है, कोई आलसी, कोई कर्मिष्ठ है और कोई आरामतलब, कोई सर्वांग-सुन्दर है और कोई कुरूप इत्यादि। प्राकृतिक असमानता के कारण व्यवहार में भी असमानता न्यायसंगत है। किंतु प्रत्येक व्यक्ति को, उसके अन्दर निहित शक्ति के पूर्ण विकास में, समान भाव से प्रोत्साहन और सुविधा मिलना आवश्यक है। इसमें जाति, वंश, खानदान, पारिवारिक ख्याति, सामाजिक संबंध इत्यादि बातें बाधक नहीं होनी चाहिए। जनतंत्र में वोट सबके समान होते हैं, वोटों का वर्गीकरण नहीं होता। अत: सबके उन्नति के अधिकार और व्यवहार में भी समता होना अनिवार्यत: आवश्यक है।
स्वतंत्रता समय की मांग और युग-धर्म है। जैसे उठने-बैठने, चलने-फिरने, हिलने-डुलने, सोने-जागने की स्वतंत्रता सभी को प्राप्त है, उसी तरह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी इच्छानुसार व्यवसाय चुनने और आचरण करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। दूसरों की इच्छानुसार जीविका अर्जन करने और अपने जीवन का कर्तव्य स्थिर करने की विवशता होना तो दासता है। वर्ण विधान अर्थात् कल्पित वर्णों के अनुसार कर्मों की व्यवस्था तो एक वैधानिक ‘दास प्रथा’ मात्र है। खान-पान, रहन-सहन, धर्माचरण, चिंतन-भाषण, लेखन-मुद्रण इत्यादि की स्वतंत्रता सभी को होनी चाहिए।
इस प्रकार न्याय, बन्धुता, समता और स्वतंत्रता से युक्त समाज ही मेरा आदर्श समाज है।भीमराव आंबेडकर
[साभार प्रवक्ता.कॉम]