शनिवार, 29 जनवरी 2011

भारत के नंगे अमीर

मीडिया में अद्भुत दृश्य चल रहा है। टाटा से लेकर अनिल अम्बानी तक ,देशी-विदेशी राजनयिकों से लेकर अमेरिका के महान ताकतवर लोगों तक सबको आप मीडिया में नंगा देख सकते हैं। अमीर इस तरह नंगे कभी नहीं हुए। टाटा ने जनसंर्पक अधिकारी नीरा राडिया के साथ हुई बातचीत का टेप बाहर आने पर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगायी है कि उनकी प्राइवेसी का हनन हुआ है। वहीं उनकी प्रतिक्रिया आते ही केन्द्र ने तत्काल जांच के आदेश दे दिए हैं। 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में सारी पार्टियां परेशान हैं, और केन्द्र सरकार के सभ्य प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की साख तो मिट्टी में ही मिल गयी है।
उधर अमेरिकी प्रशासन परेशान है ढ़ाई लाख केबिल मेल के लीक होने से। जिस वेबसाइट ने लीक किया है उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने के बारे में अमेरिकी अधिकारी विचार कर रहे हैं।
टाटा से लेकर अनिल अम्बानी तक समस्त कारपोरेट घराने कम से कम आज बेईमानी-धोखाधड़ी आदि के मामलों में जन अदालत में नंगे खड़े हैं। उनके खिलाफ प्रमाण थे। इसे कांग्रेस पार्टी जानती थी। प्रधानमंत्री जानते थे। वे चुप रहे। कल जब संचारमंत्री कपिल सिब्बल प्रेस कॉफ्रेस करके 85 संचार कंपनियों को कारण बताओ नोटिस जारी कर रहे थे तो वे वस्तुतः नव्य आर्थिक उदार नीतियों की ओट में चल रहे सत्ता और कारपोरेट घरानों के पापी भ्रष्ट गठबंधन को स्वीकार कर रहे थे।
कपिल सिब्बल प्रच्छन्नतः यह भी संदेश दे रहे थे परवर्ती पूंजीवाद में कारपोरेट घराने सार्वजनिक संपदा को खुलेआम लूट रहे हैं। कारपोरेट घराने ईमानदारी से कारोबार नहीं कर रहे। वे संकेतों में कह रहे थे कारपोरेटतंत्र महाभ्रष्ट तंत्र है। उनके यहां कोई पारदर्शिता नहीं है। साथ में प्रच्छन्नतः बिना बोले बता रहे थे प्रधानमत्री मनमोहन सिंह कारपोरेट घरानों के आर्थिक अपराधों पर पर्दा ड़ालते रहे हैं।
जिन कंपनियों को नोटिस भेजे गए हैं वे लंबे समय से धडल्ले से काम कर रही हैं। वे यह प्रच्छन्नतः बता रहे थे दूरसंचार कंपनियां सबसे घटिया किस्म की कारपोरेट कारोबारी संस्कृति लेकर आयी हैं। ये ऐसी कारपोरेट संस्कृति है जिसका लक्ष्य सिर्फ व्यापार करना ही नहीं है बल्कि वे भारत की राजनीति के भी फैसले ले रही हैं। कौन सा मंत्रालय किसे मिले यह फैसला प्रधानमंत्री नहीं कर रहे बल्कि कारपोरेट घराने कर रहे हैं। आप कल्पना करें सीएजी की रिपोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम का घोटाला उजागर नहीं हुआ होता ,संसद को विपक्ष ने ठप्प नहीं किया होता तो क्या इतने बड़े कारपोरेट घपले और सार्वजनिक संपदा की इस खुली लूट के खिलाफ कपिल सिब्बल कारण बताओ नोटिस जारी करते ?
कपिल सिब्बल ने 2जी स्पेक्ट्रम के मामले में 85 कंपनियों को नोटिस भेजा है। साथ ही उन 119 कंपनियों को भी कारण बताओ नोटिस भेजा है जिनके नाम दूरसंचार सेवाएं प्रदान करने का लाइसेंस जारी किया गया था लेकिन वे अभी तक अपनी सेवाएं आरंभ नहीं कर पायी हैं । दूरसंचार का घपला कैसे चल रहा है इस पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने वोडाफोन को करचोरी के लिए दोषी पाया है। पहले भी रिलाएंस कंपनी को दूरसंचार नियमों की अवहेलना के चक्कर में मोटी रकमजुर्माने के तौर पर देनी पड़ी है।
उल्लेखनीय है दूरसंचार के कंधों पर ही सवार होकर नव्य उदार नीतियां बड़े लंबे-चौड़े वायदों के साथ लायी गयी थीं। उस समय वामदलों ने इन नीतियों का जमकर विरोध किया था। उस समय वामदलों को छोड़कर सभी दल एकजुट हो गए थे आज नव्य उदार नीतियों का भ्रष्टतमरूप हमारे सामने है और भारत की अधिकांश बड़ी कारपोरेट कंपनियां इसमें लिप्त हैं।
नव्य उदार नीतियों के प्रति वामदलों का बुनियादी नजरिया और जिन संभावनाओं को उन्होंने संसद और बाहर व्यक्त किया था सही साबित हुआ है। वामदलों का बुनियादी तौर पर कहना था कि नव्य उदार नीतियों के नाम पर कारपोरेट घरानों के हाथों देश की संपदा को नियमों, संप्रभुता और आत्मनिर्भरता को ताक पर रखकर गिरवी रखा जा रहा है और इन नीतियों की आड़ में सार्वजनिक संपदा की लूट को वैधता प्रदान करने की कोशिश की जा रही है। सार्वजनिक संपदा की लूट का यह सिलसिला दूरसंचार के विनियमन से होता हुआ हर्षद मेहता घोटाला मार्ग से चलकर 2जी स्पेक्ट्रम और कॉमनवेल्थ गेम घोटालों तक चरमोत्कर्ष पर पहुँचा है।
संयोग की बात है हर्षद मेहता घोटाले के समय मनमोहन सिंह वित्तमंत्री थे और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के समय प्रधानमंत्री हैं। इन सभी अवसरों पर घोटालों की राजनीतिक जिम्मेदारी लेने से वे बचते रहे हैं। वे कारपोरेट घरानों और अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पसंदीदा राजनेता हैं। हर समय कारपोरेट घराने उन पर ही दांव लगाते रहे हैं। वे वफादार कारपोरेट सेवक साबित हुए हैं।
आश्चर्य की बात है कि विपक्ष उनके इस्तीफे की मांग नहीं कर रहा ? घोटालों का सवाल राजनीतिक है। यह तकनीकी और आर्थिक नहीं है। केन्द्र सरकार के ऊपर इन घोटालों की राजनीतिक जिम्मेदारी और जबाबदेही है। हम यह भी नहीं समझ पा रहे हैं कि मीडिया के द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का इस्तीफा क्यों नहीं मांगा जा रहा ? मीडिया मनमोहन सिंह को क्यों बचाना चाहता है ? क्या मीडिया की आलोचना के दायरे में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नहीं आते ? मनमोहन सिंह ने ऐसा कौन सा पुण्य का काम किया है कि उनको राजनीतिक मुखिया होने के कारण जिम्मेदारी से बरी कर दिया जाए ?
लेखक-जगदीश्वर चतुर्वेदी
[जगदीश्वर चतुर्वेदी जाने माने मार्क्सवादी साहित्यकार और विचारक हैं. इस समय कोलकाता विश्व विद्यालय में प्रोफ़ेसर ]

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