गर्मी की छुट्टियाँ चल रही थीं इसलिये ट्रेन में भीड़ होना स्वाभाविक ही था, किसी तरह मुझे बैठने के लिये जगह मिल गयी. मेरे सामने की सीट पर तीन 'हीरो टाइप' लड़के बैठे हुये थे जिन्होने 4-5 लोगों की जगह घेर रखी थी, मेरे पीछे ही दो बुजुर्ग महिला-पुरूष भी ट्रेन में चढ़े और उन लड़कों के बीच जगह खाली देखकर उन्होंने अनुरोध किया कि 'बेटा हमको भी बैठने के लिये थोड़ी सी जगह दे दो, लड़के हंसकर बोले 'अंकल आप जैसे लोग सफर में बहुत मिलते हैं आप को बैठाकर हमें खड़े होने का शौक नहीं चढा़ है. यह सुनकर आसपास बैठे कुछ बेशर्म लोग हंसने लगे तो बुजुर्ग थोड़ा झेंपकर आगे जगह ढूढ़ने निकल गये. अगले स्टेशन पर एक युवती अपनी मां के साथ ट्रेन में चढी़ और लड़कों के पास कुछ जगह देखकर बोली 'प्लीज मेंरी मां के लिये थोड़ी सी जगह दे दीजिये'. लड़कों में से एक हीरो टाइप उठा और बोला जरूर मैडम, पहले आप यहां मेरी सीट पर बैठिये मैं आपकी मां को भी बैठाता हूं' यह कहते हुये उसने लड़की को अपनी जगह बैठा दिया और सामने की सीट पर बैठे हुए लड़के को हाथ पकड़कर उठाते हुये बोला 'अबे शरम नहीं आती तेरी मां जैसी औरत खड़ी है और तू आराम से सीट पर बैठा है'. लड़का चाहकर भी विरोध नहीं कर पाया और उठ गया. युवती की मां को बैठाकर 'हीरो टाइप' युवती के पास आया और बोला 'यदि आपको कष्ट ना हो तो मैं भी बैठ जाऊं और 'हीरो टाइप' युवती के बगल में बैठ गया. अब तीनों लड़कों ने मिलकर युवती से बैठने की जगह देने की कीमत वसूलने का अभियान शुरू कर दिया और उनके बीच में बैठी युवती कसमसाने के अलावा और कुछ नहीं कर पा रही थी..(कृष्ण धर शर्मा,2005)
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