मंगलवार, 6 सितंबर 2011

हिंदी कविता और हिंदी के कवि


हिंदी में कविता की परंपरा बहुत ही समृद्ध है, यहाँ पर  प्रस्तुत है हिंदी पद्य का संक्षिप्त इतिहास:-
कविता का शाब्दिक अर्थ है काव्यात्मक रचना या कवि की कृति, जो छन्दों की श्रृंखलाओं में विधिवत बांधी जाती है।
काव्य, कविता या पद्य, साहित्य की वह विधा है जिसमें किसी कहानी या मनोभाव को कलात्मक रूप से किसी भाषा के द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है। भारत में कविता का इतिहास और कविता का दर्शन बहुत पुराना है। कविता या काव्य क्या है, इस विषय में भारतीय साहित्य में आलोचकों की बड़ी समृद्ध परंपरा है— आचार्य विश्वनाथ, पंडितराज जगन्नाथ, पंडित अंबिकादत्त व्यास, आचार्य श्रीपति, भामह आदि संस्कृत के विद्वानों से लेकर आधुनिक आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा जयशंकर प्रसाद जैसे प्रबुद्ध कवियों और आधुनिक युग की मीरा महादेवी ने कविता का स्वरूप स्पष्ट करते हुए अपने अपने मत व्यक्त किए हैं। विद्वानों का विचार है कि मानव हृदय अनन्त रूपतामक जगत के नाना रूपों, व्यापारों में भटकता रहता है, लकिन जब मानव अहं की भावना का परित्याग करके विशुद्ध अनुभूति मात्र रह जाता है, तब वह मुक्त हृदय हो जाता है। हृदय की इस मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। कविता मनुष्य को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित घेरे से ऊपर उठाती है और शेष सृष्टि से रागात्मक संबंध जोड़ने में सहायक होती है। काव्य की अनेक परिभाषाएं दी गई हैं। ये परिभाषाएं आधुनिक हिंदी काव्य के लिए भी सही सिद्ध होती हैं। काव्य सिद्ध चित्त को अलौकिक आनंदानुभूति कराता है तो हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। काव्य में सत्यं शिवं सुंदरम् की भावना भी निहित होती है। जिस काव्य में यह सब कुछ पाया जाता है वह उत्तम काव्य माना जाता है।

वीरगाथा काल(सन १००० से १३२५ तक)
  • दलपति विजय,
  • चंदबरदाई,
  • नरपति नाल्ह,
  • जगपति,
  • अमीर खुसरो,
  • विद्यापति आदि हैं।

हिन्दी साहित्य का भक्ति काल १३७५ वि0 से १७०० वि0 तक माना जाता है। यह काल समग्रतः भक्ति भावना से ओतप्रोत काल है। इस काल को समृद्ध बनाने वाली चारा प्रमुख काव्य-धाराएं हैं ज्ञानाश्रयी, प्रेमाश्रयी, कृष्णाश्रयी ओर रामाश्रयी। इन चार भक्ति शाखाओ के चार प्रमुख कवि हुए जो अपनी-अपनी धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये कवि हैं क्रमश:

हिंदी साहित्य का रीति काल संवत १६०० से १९०० तक माना जाता है यानि १६४३ई० से १८४३ई० तक। रीति का अर्थ है बना बनाया रास्ता या बंधी-बंधाई परिपाटी। इस काल को रीतिकाल कहा गया क्योंकि इस काल में अधिकांश कवियों ने श्रृंगार वर्णन, अलंकार प्रयोग, छंद बध्दता आदि के बंधे रास्ते की ही कविता की। हालांकि घनानंद, बोधा, ठाकुर, गोबिंद सिंह जैसे रीतिमुक्त कवियों ने अपनी रचना के विषय मुक्त रखे।

रीतिबद्ध रीतिमुक्त् रीतिसिद्द्

आधुनिक काल (१८५० ईस्वी के पश्चात)हिंदी साहित्य पिछली दो सदियों में विकास के अनेक पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें गद्य तथा पद्य में अलग अलग विचार धाराओं का विकास हुआ। जहां काव्य में इसे छायावादी युग, प्रगतिवादी युग, प्रयोगवादी युग और यथार्थवादी युग इन चार नामों से जाना गया, वहीं गद्य में इसको, भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, रामचंद‍ शुक्ल व प्रेमचंद युग तथा अद्यतन युग का नाम दिया गया।
अद्यतन युग के गद्य साहित्य में अनेक ऐसी साहित्यिक विधाओं का विकास हुआ जो पहले या तो थीं ही नहीं या फिर इतनी विकसित नहीं थीं कि उनको साहित्य की एक अलग विधा का नाम दिया जा सके। जैसे डायरी, या‌त्रा विवरण, आत्मकथा, रूपक, रेडियो नाटक, पटकथा लेखन, फ़िल्म आलेख इत्यादि.
इस काल के कवियों को अध्ययन की दॄ्ष्टि से विभिन्न काल-खंडों में बांटा गया है !

(क) भारतेंदु हरिश्चंद्र युग की कविता (१८५०-१९००)
ईस्वी सन १८५० से १९०० तक की कविताओं पर भारतेंदु हरिश्चंद्र का गहरा प्रभाव पड़ा है। वे ही आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह हैं। उन्होंने भाषा को एक चलता हुआ रूप देने की कोशिश की। आपके काव्य-साहित्य में प्राचीन एवं नवीन का मेल लक्षित होता है। भक्तिकालीन, रीतिकालीन परंपराएं आपके काव्य में देखी जा सकती हैं तो आधुनिक नूतन विचार और भाव भी आपकी कविताओं में पाए जाते हैं। आपने भक्ति-प्रधान, श्रृंगार-प्रधान, देश-प्रेम-प्रधान तथा सामाजिक-समस्या-प्रधान कविताएं की हैं। आपने ब्रजभाषा से खड़ीबोली की ओर हिंदी-कविता को ले जाने का प्रयास किया। आपके युग में अन्य कई महानुभाव ऐसे हैं जिन्होंने विविध प्रकार हिंदी साहित्य को समृध्द किया.इस काल के प्रमुख कवि हैं-
(ख) द्विवेदी युग (१९००-१९२०)
पं महावीर प्रसाद द्विवेदी युग की कविता (१९००-१९२०)
सन 1900 के बाद दो दशकों पर पं महावीर प्रसाद द्विवेदी का पूरा प्रभाव पड़ा। इस युग को इसीलिए द्विवेदी-युग कहते हैं। 'सरस्वती' पत्रिका के संपादक के रूप में आप उस समय पूरे हिंदी साहित्य पर छाए रहे। आपकी प्रेरणा से ब्रज-भाषा हिंदी कविता से हटती गई और खड़ी बोली ने उसका स्थान ले लिया। भाषा को स्थिर, परिष्कृत एवं व्याकरण-सम्मत बनाने में आपने बहुत परिश्रम किया। कविता की दृष्टि से वह इतिवृत्तात्मक युग था। आदर्शवाद का बोलबाला रहा। भारत का उज्ज्वल अतीत, देश-भक्ति, सामाजिक सुधार, स्वभाषा-प्रेम वगैरह कविता के मुख्य विषय थे। नीतिवादी विचारधारा के कारण श्रृंगार का वर्णन मर्यादित हो गया। कथा-काव्य का विकास इस युग की विशेषता है। भाषा खुरदरी और सरल रही। मधुरता एवं सरलता के गुण अभी खड़ी-बोली में आ नहीं पाए थे। सर्वश्री मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध', श्रीधर पाठक, रामनरेश त्रिपाठी आदि इस युग के यशस्वी कवि हैं। जगन्नाथदास 'रत्नाकर' ने इसी युग में ब्रज भाषा में सरस रचनाएं प्रस्तुत कीं। इस युग के प्रमुख कवि-
(ग) छायावाद-युग (१९२०-१९३६)
सन १९२० के आसपास हिंदी में कल्पनापूर्ण स्वछंद और भावुक कविताओं की एक बाढ़ आई। यह यूरोप के रोमांटिसिज़्म से प्रभावित थी। भाव, शैली, छंद, अलंकार सब दृष्टियों से इसमें नयापन था। भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद लोकप्रिय हुई इस कविता को आलोचकों ने छायावादी युग का नाम दिया। छायावादी कवियों की उस समय भारी कटु आलोचना हुई परंतु आज यह निर्विवाद तथ्य है कि आधुनिक हिंदी कविता की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि इसी समय के कवियों द्वारा हुई।

(घ) उत्तर-छायावाद युग (१९३६-१९४३) यह काल भारतीय राजनीति में भारी उथल-पुथल का काल रहा है.राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय,कई विचारधाराओं और आन्दोलनों का प्रभाव इस काल की कविता पर पडा . द्वितीय विश्वयुद्ध के भयावह परिणामों के प्रभाव से भी इस काल की कविता बहुत हद तक प्रभावित है. निष्कर्षत:राष्ट्रवादी, गांधीवादी,विप्लववादी,प्रगतिवादी, यथार्थवादी, हालावादी आदि विविध प्रकार की कवितायें इस काल में लिखी गई. इस काल के प्रमुख कवि हैं--
(च) प्रयोगवाद-नयी कविता (१९४३-१९६०) अज्ञेय ने सात नये कवियों को लेकर १९४३ में 'तारसप्तक' नामक एक काव्य संग्रह प्रकाशित किया. उन्होंने इन कवियों को प्रयोगशील कहा. कुछ आलोचकों ने इसी आधार पर इन कवियों को प्रयोगवादी कहना शुरु किया और इस काल को प्रयोगवाद नाम दे दिया. इस नाम को नये कवियों ने अस्वीकार किया .इसके बाद पुन:अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित काव्य-संग्रह 'दूसरा सप्तक' की भूमिका तथा उसमें शामिल कुछ कवियों के वक्तव्यों मे अपनी कवितओं के लिये 'नयी कविता' शब्द को स्वीकार किया गया . १९५४ में इलाहाबाद की साहित्यिक संस्था परिमल के कवि लेखकों-जगदीश गुप्त,रामस्वरुप चतुर्वेदी और विजय देवनरायण साही ने "नयी कविता" नाम से एक पत्रिका प्रकाशित कर बाकायदा 'नयी कविता-आंदोलन' का आरंभ किया .इस काल के प्रमुख कवि है-
 इस प्रकार आधुनिक हिंदी खड़ी बोली कविता ने भी अल्प समय में उपलब्धि के उच्च शिखर सर किए हैं। क्या प्रबंध काव्य, क्या मुक्तक काव्य, दोनों में हिंदी कविता ने सुंदर रचनाएं प्राप्त की हैं। गीति-काव्य के क्षेत्र में भी कई सुंदर रचनाएं हिंदी को मिली हैं। आकार और प्रकार का वैविध्य बरबस हमारा ध्यान आकर्षित करता है। संगीत-रूपक, गीत-नाटय वगैरह क्षेत्रों में भी प्रशंसनीय कार्य हुआ है। कविता के बाह्य एवं अंतरंग रूपों में युगानुरूप जो नये-नये प्रयोग नित्य-प्रति होते रहते हैं, वे हिंदी कविता की जीवनी-शक्ति एवं स्फूर्ति के परिचायक हैं।
[साभार-विकिपीडिया व अन्य स्रोत]

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