"अतुल्य भारत का हृदय"
किसी देश या राज्य की भौगोलिक स्थिति, उस स्थान की ऐतिहासिक घटनाओं और
आर्थिक विकास को बहुत अधिक प्रभावित करती है। यह अपने नागरिकों और उनके
व्यवहार के दृष्टिकोण को भी प्रभावित करती है। भौगोलिक रूप से देश के
केंद्रीय स्थान पर स्थित मध्यप्रदेश, वास्तव में भारत के हृदय समान है।.
रूपरेखा मौसम जनजीवन भाषाएं अर्थव्यवस्था
रूपरेखा
3,08,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र के साथ मध्यप्रदेश, राजस्थान के बाद भारत का दूसरा सबसे बड़ा राज्य है। यह भारत के उत्तर-मध्य हिस्से में बसा प्रायद्वीपीय पठार का एक हिस्सा है, जिसकी उत्तरी सीमा पर गंगा-यमुना के मैदानी इलाके है, पश्चिम में अरावली, पूर्व में छत्तीसगढ़ मैदानी इलाके तथा दक्षिण में तप्ती घाटी और महाराष्ट्र के पठार है।मध्यप्रदेश की स्थलाकृति नर्मदा-सोन घाटी द्वारा सुनिश्चित होती है। यह एक संकीर्ण और लंबी घाटी है, जिसका विस्तार पूरे राज्य में पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है। सोन घाटी से ऊपरी भाग बनता है, शहडोल और सीधी जिलें इस घाटी में बसे हैं। निचले हिस्से से नर्मदा घाटी बनती है। यहां की औसत ऊंचाई एमएसएल से ऊपर 300 मीटर है और यहां की भूमि जलोढ़ मिट्टी से आच्छादित है। इस क्षेत्र में जबलपुर, मंडला, नरसिंहपुर, होशंगाबाद, रायसेन, खंडवा, खरगोन और बड़वानी जिले आते है। सोन घाटी से नर्मदा घाटी संकरी है और तुलनात्मक रूप से जमा जलोढ़ भी खराब और पतला है, इसलिए कृषि गतिविधियों के लिए सोन घाटी की तुलना में नर्मदा घाटी अधिक महत्वपूर्ण है। घाटी के उत्तर में मध्यवर्ती पहाड़ी इलाक़ा, दक्षिण में सतपुड़ा-मैकल पर्वतमाला और दक्षिण-पूर्व में पूर्वी पठार है। राज्य इन तीन हिस्सों में, प्राकृतिक भौगोलिक क्षेत्रों में विभाजित है | केन्द्रीय पहाड़ी इलाक़े, नर्मदा-सोन घाटी और अरावली पर्वतमाला के बीच त्रिकोणीय रूप में पश्चिम में फैले हुए हैं। पहाड़ी इलाक़े उत्तर की ओर ढलते हुए यमुना में समा जाते है। राज्य के केन्द्रीय पहाड़ी इलाक़े, निम्नलिखित चार ऊपरी भूभाग में शामिल हैं: विंध्य पठार के रूप में भी पहचाना जानेवाला रीवा-पन्ना पठार, केन्द्रीय पहाड़ी इलाक़ों के उत्तर-पूर्वी भाग में स्थित है। इस क्षेत्र में बहनेवाली मुख्य नदियों में केन, सोनार, बर्ना और टन शामील है। इस क्षेत्र में रीवा, पन्ना, सतना, दमोह और सागर यह जिले आते है|
चौथे मालवा पठार में लगभग पूरा पश्चिमी मध्यप्रदेश शामिल हो जाता हैं। पठार के उत्तर में चंबल और दक्षिण में नर्मदा है। पर्वतमाला की औसत ऊंचाई एमएसएल से ऊपर 300-500 मीटर है। इस क्षेत्र में शाजापुर, देवास, इंदौर, उज्जैन, धार, रतलाम और सीहोर के कुछ हिस्से और झाबुआ जिला शामील है। मालवा पठार के पूर्वी किनारे पर भोपाल स्थित है। मालवा पठार से गुजरते हुए शिप्रा, पार्वती, काली सिंध, गंभीर और चंबल नदियों का प्रवाह बहता है। यह गंगा और नर्मदा के प्रवाह को भी अलग करती है। बेसाल्ट अपक्षय के परिणाम स्वरूप इस क्षेत्र की मिट्टी काली है।
अर्द्ध चक्र के रूप में फैला हुआ पूर्वी भाग अर्थात सतपुड़ा, पश्चिमी भाग से अधिक व्यापक है, जो मैकल पर्वतमाला के रूप में जाना जाता है। मैकल पर्वतमाला मे अमरकंटक पठार शामील है,, जो नर्मदा और सोन, दोनों नदियों का उद्गम है। जोहिला, मछेर्वा, देनवा और छोटी तवा इस क्षेत्र की अन्य नदियों है, जो नर्मदा में समा जाती है।
मैकल पर्वतमाला और छत्तीसगढ़ के मैदानी क्षेत्र के बीच बसे पूर्वी पठार क्षेत्र में बघेल खण्ड पठार बसा हुआ हैं, जो एमएसएल से ऊपर 1033 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
मौसम
सर्दियों का मौसम नवंबर के महीने से शुरू होता है। राज्य के दक्षिणी भागों की तुलना में उत्तरी भागों में तापमान कम रहता है। उत्तरी क्षेत्र के अधिकांश भाग में जनवरी महीने का दैनिक अधिकतम तापमान 15 और 18 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। मौसम आमतौर पर शुष्क और साफ आसमान के साथ सुखद रहता है।
जनजीवन
बैगा स्वयं को द्रविड़ के वंशज मानते हैं और यह जनजाति मंडला, बालाघाट, शहडोल और सीधी जिलों में पायी जाती है। सहारीया मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिम क्षेत्र में, ग्वालियर, शिवपुरी, भिंड, मुरैना, श्योपुर, विदिशा और रायसेन जिलों में रहते हैं। अधिकांश सहारीया किसान हैं। भरिया जनजाति मध्यप्रदेश के जबलपुर और छिंदवाड़ा जिलों में प्रमुखता से बसी हुई है। छिंदवाड़ा के पातालकोट में लगभग 90 प्रतिशत जनसंख्या भरिया की है। वे कृषि मजदूरों के रूप में काम करने के साथ बांस की सुंदर टोकरी और अन्य वस्तुएं बनाते है|
गोंड सबसे अधिक ज्ञात जनजाति है और मध्यप्रदेश में सबसे बडी संख्या में है। वे प्रमुखता से नर्मदा के दोनों तटों पर मण्डला, छिंदवाड़ा, बैतूल और सिवनी क्षेत्रों तथा विंध्य और सतपुड़ा क्षेत्रों के पहाड़ी इलाकों में निवास करते है। आगारिया, प्रधान, ओझन और सोलाहास, गोंड से उपजे आदिवासी गुट है, जिनकी राजगोंद और दातोलिया, यह दो उप जातियों है। दूसरी सबसे बड़ी जनजाति भील, झाबुआ, खरगौन, धार और रतलाम के आसपास के क्षेत्रों में बसी है। विरासत में मिली गुरिल्ला रणनीति और तीरंदाजी कौशल के कारण वे योद्धा माने जाते हैं।
पंचायत प्रमुख के रूप में सरपंच द्वारा कोरकू आदिवासी समुदाय प्रशासित होता है और वे मध्यप्रदेश के होशंगाबाद, बैतूल, छिंदवाड़ा, हरदा और खंडवा जिलों में पाए जाते हैं। संतिया मालवा की एक जनजाति है, जो खुद को मूल रूप से राजपूत मानती है। वे खानाबदोश रहना पसंद करते हैं। कोल, जो मुख्य रूप से श्रमिक वर्ग के है, वे रीवा, सीधी, सतना, शहडोल और जबलपुर जिलों में पाए जाते हैं। प्राचीन पुराणों और रामायण-महाभारत के प्रसिद्ध महाकाव्यों में भी इस जाति का उल्लेख मिलता है और वे बेहद धार्मिक तथा हिंदू पुराणों के कट्टर आस्तिक होते हैं। धनुक, पणीक तथा सौर जैसी कम ज्ञात जनजातियों का भी एक महत्वपूर्ण समूह है।
भाषाएं
हिन्दी, मध्यप्रदेश की आधिकारिक भाषा है, जो सबसे व्यापक रूप में बोली जाती है और आसानी से राज्य के दूरस्थ हिस्सों में भी समझी जाती है। प्रमुख कस्बों और शहरों में बड़ी संख्या में रहनेवाले तथा व्यापार वर्ग के लोगों के लिए अंग्रेजी, दूसरी महत्त्वपूर्ण भाषा है। व्यापक रूप से आतिथ्य और सेवा उद्योग में लगे लोग इस भाषा का प्रयोग करते है। दुकानों और कार्यालयों के साइनबोर्ड समेत कई महत्त्वपूर्ण स्थानो पर हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओ के शब्दों का प्रयोग किया जाता है। मालवी, बुंदेली, बघेली, निमरी यह आमतौर पर बोली जानेवाली क्षेत्रीय बोलियों हैं। कई बोलियों में बाते की जाती हैं|अर्थव्यवस्था
मध्यप्रदेश ने भारत के खनिज उत्पादन में बड़ा योगदान दिया है। भिलाई और छिन्दवाड़ा जिले में मैंगनीज के बड़े भंडार पाए जाते हैं। भारत के कुल बॉक्साइट उत्पादन मे से 45% उत्पादन, राज्य में जबलपुर, मंडला, शहडोल, सतना और रीवा जैसे महत्वपूर्ण बॉक्साइट उत्पादन केन्द्रों से प्राप्त होता है। बालाघाट, जबलपुर और मंडला जिलों में लौह अयस्क पाया जाता हैं। मध्यप्रदेश राज्य के पूर्वोत्तर और सतपुड़ा क्षेत्रों में कोयले का समृद्ध भंडार है। पन्ना और छत्तीसगढ जिलों में हीरे का उत्पादन देनेवाला मध्यप्रदेश, भारत में हीरे का उत्पादन लेनेवाला इकलौता राज्य है।
राज्य के कुल क्षेत्रफल मे से 30% से अधिक क्षेत्र पर जंगल छाया हुआ है। बालाघाट, मण्डला, शहडोल, सीधी जैसे पूर्वी जिलों में घने वन है। सागौन, साल, बांस और तेंदू के पेड यहां बडी संख्या में पाए जाते है। यहां के ग्रामीणों का मुख्य व्यवसाय खेती है और सोयाबीन, गेहूं और ज्वार (सोरघम) मुख्य फसलें हैं। कई हिस्सों में धान और बाजरा भी बोया जाता है। दलहन, अनाज और मूंगफली भी उगाए जाते हैं। नकदी फसलों मे कपास, गन्ना और तिलहन शामील हैं। मंदसौर, देश में सबसे बड़ा अफीम उत्पादक जिला है|
नर्मदा, चंबल, ताप्ती, बेतवा, सोन, शिप्रा, काली सिंध और तवा जैसी प्रमुख नदियों पर भूमि की सिंचाई निर्भर है। चंबल और नर्मदा घाटी में पनबिजली उत्पादन की अच्छी क्षमता हैं। तापीय और पन बिजली उत्पादन के अलावा, अन्य कई पारंपरिक और गैर पारंपरिक बिजली परियोजनाएं कई जगह और प्रगति के विभिन्न चरणों में हैं। वर्तमान में 80 हजार किलोमीटर से अधिक लंबी सड़क बनी हुई है, जो लगातार बढ़ रही है। कम्युनिकेशन्स भी अच्छी तरह से विकसित हो रहे हैं|
मध्यप्रदेश में प्रमुख पर्यटन स्थल बनने की विशाल क्षमता और संसाधनों मौजूद है। राज्य में ऐतिहासिक, पुरातात्विक, वास्तु और तीर्थयात्रा की दृष्टी से महत्वपूर्ण अनेक स्मारकों है। यहां के जंगल, वन्य जीवन से समृद्ध है। अपने केंद्रीय स्थान और आसानी से पहुंच के कारण यह राज्य, पर्यटन एक प्रमुख आकर्षण बनता जा रहा है।
मेले और त्यौहार
मेलों को मध्य प्रदेश की संस्कृति और रंगीन जीवन शैली का पैनोरमा कहा जा सकता है। इन मेलों में आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप का एक अद्वितीय और दुर्लभ सामजस्य दिखाई देता है, जो कहीं और नहीं दिख पाता।
अगर संख्या के बारे में देखा जाए, तो सबसे अधिक 227 मेलें, उज्जैन जिले में लगते हैं और होशंगाबाद जिले में आयोजित मेलों की संख्या 13 है। इनमें से अधिकांश मेले मार्च, अप्रैल और मई महीनों के दौरान आयोजित होते है, जब किसानों को खेतों में कम काम करना पडता है। जून, जुलाई, अगस्त और सितंबर महीनों में कम मेलें लगते है, क्योंकी बरसात के मौसम के दौरान किसान व्यस्त रहते हैं।
यहाँ ऐसे कुछ मेलों के बारे में संक्षिप्त जानकारी लेते है:
सिंहस्थ
रामलीला का मेला
ग्वालियर जिले की भंडेर तहसील में इस मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला 100 से अधिक साल पुराना है, जो जनवरी-फरवरी महीने में लगता है।
हीरा भूमियां का मेला
ग्वालियर, गुना और आसपास के क्षेत्रों में ‘हिरामन बाबा' का नाम प्रसिद्ध है। माना जाता है कि हिरामन बाबा के आशीर्वाद से महिलाओं का बांझपन दूर हो जाता है। पिछले कुछ शतकों से हर वर्ष, इस पूरे क्षेत्र में अगस्त और सितंबर के महीनों में हीरा भूमियां का यह मेला लगता है।
पीर बुधान का मेला
250 से अधिक साल पुराना यह मेला, शिवपुरी जिले के सनवारा में मुस्लिम संत पीर बुधान की कब्र के पास आयोजित किया जाता है। अगस्त-सितंबर महीनों में इस मेले का आयोजन किया जाता है।
नागाजी का मेला
अकबर के समय के संत नागाजी की स्मृति में नवंबर-दिसंबर के दौरान इस मेले का आयोजन किया जाता है। यह मेला, मुरैना जिले के पोर्सा गांव में तकरीबन एक महीने के लिए लगता है। पहले यहां बंदरों को बेचा जाता था, लेकिन अब अन्य घरेलू पशुओं को भी यहां बेचा जाने लगा है।
तेताजी का मेला
तेताजी एक सच्चा आदमी था। कहा जाता है कि शरीर से सांप के जहर को दूर करने की शक्ति उसे प्राप्त थी। पिछले 70 वर्षों से गुना जिले के भामावड़ गांव में तेताजी के जन्मदिन पर इस मेले का आयोजन किया जाता है।
जागेश्वरी देवी का मेला
अति प्राचीन काल से गुना जिले के चंदेरी में इस मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले का एक किस्सा बताया जाता है, जिसके अनुसार चंदेरी के शासक जागेश्वरी देवी के भक्त थे। उन्हे कुष्ठ रोग था। देवी ने उन्हे 15 दिनों के बाद एक जगह पर आने के लिए कहा, लेकिन राजा तीसरे दिन ही वहां आ गये। उस समय देवी का केवल सिर ही दिखाई दिया। राजा का कुष्ठ ठीक हो गया और उसी दिन से इस मेले की शुरूवात हुई।
अमरकंटक का शिवरात्रि मेला
पिछले अस्सी सालों से शहडोल जिले के अमरकंटक में, नर्मदा नदी के उद्गम स्थल पर शिवरात्रि के दिन यह मेला आयोजित किया जाता है।
महामृत्यंजय का मेला
रीवा जिले के महामृत्यंजय मंदिर में बसंत पंचमी और शिवरात्रि के दिन यह मेला लगता है।
चंडी देवी का मेला
सीधी जिले के घोघरा गाव में चंडी देवी का मंदिर है, जिन्हे देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। मार्च-अप्रैल में यह मेला लगता है।
शहाबुद्दीन औलिया बाबा का उर्स
मंदसौर जिले के नीमच में फरवरी माह में यह उर्स मनाया जाता है, जो चार दिनों तक चलता है। यहां बाबा शहाबुद्दीन की मजार है।
कालूजी महाराज का मेला
पश्चिमी निमर के पिपल्याखुर्द में एक महीने तक यह मेला लगता है। कहा जाता है कि लगभग 200 वर्ष पहले कालूजी महाराज यहाँ अपनी शक्ति से इन्सानों और जानवरों की बीमारी ठीक किया करते थे।
सिंगाजी का मेला
सिंगाजी एक गूढ़ आदमी थे और उन्हे देवता माना जाता था। पश्चिमी निमर के पिपल्या गांव में अगस्त-सितम्बर में एक सप्ताह के लिए यह मेला लगता है।
धामोनी उर्स
सागर जिले के धामोनी नामक स्थान पर मस्तान शाह वली की मजार पर अप्रैल-मई महिने में यह उर्स लगता है।
बरमान का मेला
नरसिंहपुर जिले के गदरवारा में मकर संक्रांति से इस 13 दिवसीय मेले की शुरूवात होती है।
मठ घोघरा का मेला
शिवरात्रि के अवसर पर, सिवनी जिले के Bhaironthan में 15 दिनों का यह मेला आयोजित किया जाता है। एक प्राकृतिक झील और गुफा, इस स्थान की सुंदरता को बढाते है।
आलमी तब्लीग़ी इजतिमा
आध्यात्मिक संदेश देनेवाली यह सभा, दुनिया की सबसे बड़ी धार्मिक सभाओं में से एक मानी जाती है, जो न सिर्फ मुसलमानों के लिए बल्की सभी समुदायों के लिए यथार्थ मानी जाती है।
खजुराहो नृत्य महोत्सव
अपने पुरातात्विक और ऐतिहासिक महत्त्व के कारण यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर के रूप में नामित, मध्य प्रदेश के प्रसिद्ध खजुराहो मंदिर में, प्रति वर्ष फरवरी-मार्च के महीनों में शास्त्रीय नृत्यों के समृद्ध सांस्कृतिक रूप को देखने के लिए भारत और विदेशों से भीड़ उमडती है। चंदेलों द्वारा निर्मित शानदार वास्तुकला वाले मंदिरों के बीच, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त शास्त्रीय नृत्य का यह खजुराहो नृत्य महोत्सव, देश की सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने की दिशा में, आयोजक - मध्य प्रदेश कला परिषद का एक प्रयास है।
इस सप्ताह लंबे महोत्सव के दौरान देश के हर हिस्से से लोकप्रिय शास्त्रीय नृत्य के कलाकारों को आमंत्रित किया जाता हैं। जानेमाने श्रेष्ठ कलाकार कथ्थक, कुचिपुड़ी, ओडिसी, भरतनाट्यम, मणिपुरी, और मोहिनीअट्टम जैसे भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का प्रदर्शन करते है। परंपरा और आध्यात्मिकता की ताकत इस प्रदर्शन को एक असामान्य और आकर्षक रूप प्रदान करती है। इन नृत्यों में हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अधिकांश संगत का प्रयोग किया जाता है। खजुराहो नृत्य महोत्सव के दौरान प्रदर्शन करना, भारतीय शास्त्रीय नृत्य कलाकारों के लिए विशेष सम्मान माना जाता है।
लोकरंग समारोह
भोपाल में हर साल 26 जनवरी अर्थात गणतंत्र दिवस से पांच दिनों तक चलनेवाला लोकरंग समारोह शुरू होता है। यह मध्य प्रदेश की आदिवासी लोक कला अकादमी द्वारा आयोजित एक सांस्कृतिक प्रदर्शनी है। पूरे देश भर से लोकसंस्कृति और जनजातीय संस्कृति के प्रदर्शन और रचनात्मक पहलुओं को सामने लाने का यह एक प्रयास हैं। लोक नृत्य और जनजातीय नृत्य, शास्त्रीय नृत्य, कला रूपों का प्रदर्शन इस लोकरंग की मुख्य विशेषताएं हैं। विदेशों की प्रस्तुतियों और प्रदर्शनियां भी इस समारोह का एक बड़ा आकर्षण हैं।
लोकरंजन महोत्सव
मध्य प्रदेश के पर्यटन विभाग द्वारा खजुराहो में हर साल आयोजित लोकरंजन, लोक नृत्य का एक राष्ट्रीय महोत्सव है। भारत के विभिन्न भागों से लोकप्रिय लोकनृत्य तथा आदिवासी नृत्य और पारंपरिक कारीगरों की आकर्षक रचनाएं और शिल्प प्रदर्शन, इस महोत्सव में शामिल होते हैं। खजुराहो जैसे धरोहर शहर में आयोजित यह शानदार प्रदर्शनी, दुनियाभर में प्रसिद्ध मंदिर की महिमा और भव्यता उजागर करती है और साथ-साथ आदिवासी और ग्रामीण जीवन शैली के रंग और रचनात्मकता को जानने का अवसर प्रदान करती है।
लोक नृत्य
भारत के किसी अन्य हिस्से की तरह मध्यप्रदेश भी देवी-देवताओं के समक्ष किए जानेवाले और विभिन्न अनुष्ठानों से संबंधित लोक नृत्यों द्वारा अपनी संस्कृती का एक परिपूर्ण दृश्य प्रदान करता है। लंबे समय से सभी पारंपरिक नृत्य, आस्था की एक पवित्र अभिव्यक्ति रहे है। मध्यप्रदेश पर्यटन विभाग और मध्यप्रदेश की आदिवासी लोक कला अकादमी द्वारा खजुराहो में आयोजित ‘लोकरंजन ' - एक वार्षिक नृत्य महोत्सव है, जो मध्यप्रदेश और भारत के अन्य भागों के लोकप्रिय लोक नृत्य और आदिवासी नृत्यों को पेश करने के लिए एक बेहतरीन मंच है।
जब बुंदेलखंड क्षेत्र का प्राकृतिक और सहज नृत्य मंच पर आता है, तब पूरा माहौल लहरा जाता है और देखने वाले मध्यप्रदेश की लय में बहने लगते है। मृदंग वादक ढोलक पर थापों की गति बढाना शुरू करता है और नृत्य में भी गति आ जाती है। गद्य या काव्य संवादों से भरा यह नृत्य प्रदर्शन, ‘स्वांग' के नाम से मशहूर है। संगीत साधनों के साथ माधुर्य और संगीत से भरे नर्तक के सुंदर लोकनृत्य का यह अद्वितीय संकलन है। बढ़ती धड़कन के साथ गति बढ़ती जाती है और नर्तकों के लहराते शरीर, दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देते हैं। यह नृत्य विशेष रूप से किसी मौसम या अवसर के लिए नहीं है, लेकिन इसे आनंद और मनोरंजन की एक कला माना जाता है।
बाघेलखंड का ‘रे' नृत्य, ढोलक और नगारे जैसे संगीत वाद्ययंत्र की संगत के साथ महिला के वेश में पुरूष पेश करते है। वैश्य समुदाय में, विशेष रूप से बच्चे के जन्म के अवसर पर, बाघेलखंड के अहीर समुदाय की महिलाएं यह नृत्य करती है। इस नृत्य में अपने पारंपरिक पोशाक और गहनों को पहने नर्तकियां शुभ अवसर की भावना व्यक्त करती है|
मटकी
‘मटकी' मालवा का एक समुदाय नृत्य है, जिसे महिलाएं विभिन्न अवसरों पर पेश करती है। इस नृत्य में नर्तकियां ढोल की ताल पर नृत्य करती है, इस ढोल को स्थानीय स्तर पर ‘मटकी' कहा जाता है। स्थानीय स्तर पर झेला कहलाने वाली अकेली महिला, इसे शुरू करती है, जिसमे अन्य नर्तकियां अपने पारंपरिक मालवी कपड़े पहने और चेहरे पर घूंघट ओढे शामिल हो जाती है। उनके हाथो के सुंदर आंदोलन और झुमते कदम, एक आश्चर्यजनक प्रभाव पैदा कर देते हैं।
गणगौर
बधाईं
बुंदेलखंड क्षेत्र में जन्म, विवाह और त्योहारों के अवसरों पर ‘बधाईं' लोकप्रिय है। इसमें संगीत वाद्ययंत्र की धुनों पर पुरुष और महिलाएं सभी, ज़ोर-शोर से नृत्य करते हैं। नर्तकों की कोमल और कलाबाज़ हरकतें और उनके रंगीन पोशाक दर्शकों को चकित कर देते है।
बरेडी
दिवाली के त्योहार से पूर्णिमा के दिन तक की अवधि के दौरान बरेडी नृत्य किया जाता है। मध्यप्रदेश के इस सबसे आश्चर्यजनक नृत्य प्रदर्शन में, एक पुरुष कलाकार की प्रमुखता में, रंगीन कपड़े पहने 8-10 युवा पुरुषों का एक समूह नृत्य करता हैं। आमतौर पर, ‘दीवारी' नामक दो पंक्तियों की भक्ति कविता से इस नृत्य प्रदर्शन की शुरूवात होती है।
नौराता
मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में अविवाहित लड़कियों के लिए इस नृत्य का विशेष महत्त्व है। नौराता नृत्य के जरीये, बिनब्याही लडकियां एक अच्छा पति और वैवाहिक आनंद की मांग करते हुए भगवान का आह्वान करती है। नवरात्रि उत्सव के दौरान नौ दिन, घर के बाहर चूने और विभिन्न रंगों से नौराता की रंगोली बनाई जाती है।
अहिराई
भगोरियां
विलक्षण लय वाले दशहरा और डांडरियां नृत्य के माध्यम से मध्यप्रदेश की बैगा आदिवासी जनजाति की सांस्कृतिक पहचान होती है। बैगा के पारंपरिक लोक गीतों और नृत्य के साथ दशहरा त्योहार की उल्लासभरी शुरुआत होती है। दशहरा त्योहार के अवसर पर बैगा समुदाय के विवाहयोग्य पुरुष एक गांव से दूसरे गांव जाते हैं, जहां दूसरे गांव की युवा लड़कियां अपने गायन और डांडरीयां नृत्य के साथ उनका परंपरागत तरीके से स्वागत करती है। यह एक दिलचस्प रिवाज है, जिससे बैगा लड़की अपनी पसंद के युवा पुरुष का चयन कर उससे शादी की अनुमति देती है। इसमें शामिल गीत और नृत्य, इस रिवाज द्वारा प्रेरित होते हैं। माहौल खिल उठता है और सारी परेशानियों से दूर, अपने ही ताल में बह जाता है।
परधौनी, बैगा समुदाय का एक और लोकप्रिय नृत्य है। यह नृत्य मुख्य रूप से दूल्हे की पार्टी का स्वागत और मनोरंजन करने के लिए करते हैं। इसके द्वारा खुशी और शुभ अवसर की भावना व्यक्त होती है। कर्मा और सैली (गोंड), भगोरियां (भिल), लेहंगी (सहारियां) और थाप्ती (कोरकू) यह कुछ अन्य जानेमाने आदिवासी नृत्य है।
लोक गीत
किसी भी देश का इतिहास, वहां के लोकप्रिय गीतों के द्वारा बताया जाता है। पारंपरिक संगीत के चाहने वालों के लिए मध्यप्रदेश बेहतरीन दावते प्रदान करता है। यह लोक गीत, गायन की विशिष्ट शैली के द्वारा बलिदान, प्यार, कर्तव्य और वीरता की कहानियां सुनाते हैं। मूल रूप से राजस्थान के ‘ढोला मारू' लोकगीत, मालवा, निमाड़ और बुंदेलखंड क्षेत्र में लोकप्रिय है और इन क्षेत्रों के लोग अपनी विशिष्ट लोक शैली में प्यार, जुदाई और पुनर्मिलन के ढोला मारू गीत गाते है।
मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में हर अवसर पर, यहां तक कि मौत पर भी महिलाओं को लोक गीत गाते देखना, कोई आशचर्य वाली बात नही है।
लोक गायन का एक रूप ‘कलगीतुर्रा', मंडला, मालवा, बुंदेलखंड और निमाड़ क्षेत्रों में लोकप्रिय है, जो चांग और डफ की धून के साथ प्रतियोगिता की भावना में जोश भरता है। इसमे महाभारत और पुराणों से लेकर वर्तमान मामलों पर आधारित गाने शामिल होते हैं और एक दूसरे को चतुराई से मात देने की कोशिशे रात भर चलती है। इस पारंपरिक गायकी का मूल, चंदेरी राजा शिशुपाल के शासनकाल मे पाया गया है। निमाड़ क्षेत्र में ‘निर्गुनी' शैली के नाम से लोकप्रिय इस गायकी में सिंगजी, कबीर, मीरा, दादू जैसे संतों द्वारा रचित गीत गाये जाते हैं। इस गायन में आम तौर पर इकतारा और खरताल (लकडी से जुडे छोटे धातु पटल वाला एक संगीत उपकरण) इन साजों का साथ होता है। निमाड़ में लोकगायन का एक अन्य बहुत लोकप्रिय रूप है ‘फाग', जो होली के त्योहार के दौरान डफ और चांग के साथ गाया जाता है। यह गीत प्रेमपूर्ण उत्साह से भरपूर होते है।
निमाड़ में नवरात्रि का त्योहार, लोकप्रिय लोक-नृत्य गरबा के साथ मनाया जाता है। गरबा गीत के साथ गरबा नृत्य, देवी शक्ति को समर्पित होता है। पारंपरिक रूप से गरबा पुरुषों द्वारा किया जाता है और यह निमाड़ी लोक-नृत्य और नाटक का एक अभिन्न हिस्सा है। गायन को मृदंग (ढोल एक रूप) का साथ होता है। रासलीला के दौरान यह गौलन गीत गाए जाते हैं। मालवा क्षेत्र के नाथ समुदाय के बीच भर्तृहरी लोक-कथा के प्रवचन सबसे लोकप्रिय गायन फार्म है। चिंकारा नामक (सारंगी का एक रूप, जो घोड़े के बाल से बने तारों वाला वाद्य होता है, मुख्य शरीर बांस से बना होता है और नारियल खोल से धनुष बनाया जाता हैं) स्थानीय साज के साथ महान राजा भर्तृहरी और कबीर, मीरा, गोरख और गोपीचंद जैसे संतों द्वारा रचित भजन गाए जाते है। इससे एक अद्वितीय ध्वनि निकलती है।
मालवा क्षेत्र में युवा लड़कियों के समूह द्वारा गाये जाने वाले गीत, लोक संगीत का एक पारंपरिक मधुर और लुभावना फॉर्म है। समृद्धि और खुशी का आह्वान करने हेतु लड़कियां गाय के गोबर से संजा की मूरत बनाती है और उसे पत्ती और फूलों के साथ सजाती है तथा शाम के दौरान संजा की पूजा करती है। 18 दिन बाद, अपने साथी संजा को विदाई देते हुए यह उत्सव समाप्त होता है। मानसून की बारिश प्यासी पृथ्वी की प्यास बुझाती है, है, पेड़ो पर झुले सजते हैं और ऐसे में मालवा क्षेत्र के गीत सुनना मन को बेहद भाता है। हिड गायन में कलाकार पूर्ण गले की आवाज के साथ और शास्त्रीय शैली में आलाप लेकर गाते हैं। मालवा क्षेत्र में मानसून के मौसम के दौरान ‘बरसाती बरता' नामक गायन आमतौर पर होता है। बुंदेलखंड क्षेत्र योद्धाओं की भूमि है। अपने योद्धाओं को प्रेरित करने हेतु बुंदेलखंड के अलहैत समुदाय ने अल्लाह उदुल के वीर कर्मो से भरे गीतों की रचना की। 52 युद्ध लड़नेवाले अल्लाह उदुल की बहादुरी, सम्मान, वीरता और शौर्य के किस्से, इस क्षेत्र के लोग बरसात के मौसम के दौरान परंपरागत रूप से प्रदर्शित करते हैं। इसे ढोलक (छोटा ढोल, जिसे दोनो तरफ से हाथ के साथ बजाया जाता है) और नगारे (लोहा, तांबा जैसे धातु के दो ढोल, खोखले बर्तन के खुले चेहरे पर तानकर फैली भैंस की त्वचा जो पारंपरिक तरिके से लकड़िया से पीटा जाता है) के साथ गाया जाता है।
होली, ठाकुर, इसुरी और राय फाग उत्सव से संबंधित गाने भी होते हैं। दिवाली के त्योहार के अवसर पर ढोलक, नगारा और बांसुरी की धुन के साथ देवरी गीत गाए जाते हैं। शिवरात्री, बसंत पंचमी और मकर संक्रांति के त्योहार के मौकों पर बुंबुलिया गीत गाए जाते हैं। बाघेलखंड क्षेत्र के लोक-गीतों की गायन शैली मध्यप्रदेश के अन्य क्षेत्रों से अलग है। इसमे पुरुष और महिला, दोनों की आवाज मजबूत और शक्तिशाली होती हैं। इन गानों में समृद्धि और विविधता होती है, जो इस क्षेत्र की संस्कृति और विरासत को दर्शाते है। गीतों के विषय में काफी विविधता होती है और उनमे विभिन्न विषय शामिल होते है।
बासदेव, बाघेलखंड क्षेत्र के गायकों का पारंपरिक समुदाय है, जो सारंगी और चुटकी पैंजन के साथ, पौराणिक बेटे श्रवण कुमार से जुडे गीत गाता है। पीले वस्त्र और सिर पर भगवान कृष्ण की मूर्ति से उनकी पहचान होती हैं। गायकों की जोड़ी यह गीत गाती है। रामायण तथा कर्ण, मोरध्वज, गोपचंद, भर्तृहरी, भोलेबाबा की कहानियां, बासदेव के गीतों के अन्य विषय है। गायकों की मनोवस्था दर्शाती, बिरहा और बिदेसीयां, बाघेलखंड की गायकी की दो अन्य महत्वपूर्ण शैलियां है। बिदेसीयां गीत प्यार, जुदाई और प्रेमी के साथ पुनर्मिलन के विषय से संबंधित होते है। बिदेसीयां गीत, प्यार करनेवाले से जल्दी लौटने की गुज़ारिश करता है। होली के त्योहार पर गाए जानेवाले ‘फाग' गीत, बसंत मौसम और व्यक्तिगत संबंधों की अभिव्यक्ति करते हैं। नगारा जोर-शोर से बजता है और गाने वाले उस धून पर सवार हो जाते हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें