हिन्दी भाषा साहित्य और पत्रकारिता
के उन्नायक
आचार्य महावीरप्रसाद
द्विवेदी की
एक सौ
पचासवीं वर्षगांठ
(जन्म-15 मई
1864 और निधन-21
दिसंबर 1938) के अवसर पर उन्हीं
के शब्दों
में उनका
परिचय- 'आत्मनिवेदन
-प्रस्तुत है। यह सन 1933 में
आचार्य जी
के लोक
अभिनंदन के
प्रत्युत्तर में पढ़ा गया था।
'सरस्वतीÓ के हीरक जयंती अंक
से इसे
उद्धृत किया
गया है।
मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूं तो उससे मेरी सहनशीलता तो अवश्य सूचित होती है; पर उससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता। परन्तु कुछ समयोत्तर बानक कुछ ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार करना चाहा। हुक्म हुआ कि तुम इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह 8 बजे दफ्तर में आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरे मेज पर मुझे रखे मिलें। मैंने कहा- 'मैं आऊंगा; पर औरों को आने के लिए लाचार न करूंगा। उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है। बस बात बढ़ी और बिना किसी सोच-विचार के मैंने इस्तीफा दे दिया। बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नही; सिफाारिशें तक की गईं। पर सब व्यर्थ हुआ। क्या इस्तीफा लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विषण्ण होकर कहा- ''क्या थूककर भी कोई उसे चाटता है? मैं बोला- ''नहीं ऐसा कभी न होगा; तुम धन्य हो।
जीवन कथा
मैं क्या हूं, यह तो प्रत्यक्ष ही है। परंतु मैं क्या था, इस विषय का ज्ञान मेरे मित्रों और कृपालु हितैषियों को बहुत ही कम है। उन्होंने मुझे अनेक पत्र लिखे हैं; अनेक उलाहने दिए हैं, अनेक प्रणयानुरोध किए हैं; वे चाहते हैं कि मैं अपनी जीवन कथा अपने ही मुंह से कह डालूं। पर पूर्ण रूप से उनकी आज्ञा का पालन करने की शक्ति मुझमें नहीं। अपनी कथा कहते मुझे संकोच भी बहुत होता है। उसमें कुछ तत्व भी तो नहीं। उससे कोई कुछ सीख भी तो नहीं सकता। तथापि जिन सज्जनों ने मुझे अपना कृपापात्र बना लिया है उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी धृष्टता होगी। अतएव, इस अवसर पर, मैं अपने जीवन से संबंध रखने वाली कुछ बातें, सूत्ररूप में सुना देना चाहता हूं। बड़े-बड़े लोगों ने, इस विषय में मेरे लिए मैदान पहले ही से साफ कर रक्खा है। मेरी इस कथा से यह फल प्राप्ति भी हो सकती है कि आज आप जिसका इतना अभिनन्दन कर रहे हैं वह उस अभिनन्दन का कहां तक पात्र है।
मैं एक ऐसे देहाती का एकमात्र आत्मज हूं जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10 रुपए था। अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी-सी उर्दू और घर पर थोड़ी-सी संस्कृत पढ़कर, 13 वर्ष की उम्र में, मैं 36 मील दूर, रायबरेली के जिला स्कूल में अंग्रेजी पढऩे गया। आटा-दाल घर से पीठ पर लाद कर ले जाता था। दो आने महीने फीस देता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकियाएं पका कर पेटपूजा करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। संस्कृत भाषा उस समय उस स्कूल में वैसी ही अछूत समझी गई थी जैसी कि मद्रास के नम्बूदरी ब्राह्मणों में वहां की शूद्रजाति समझी जाती है। विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहां कटा। फिर पुरवा, फतेहपुर और उन्नाव के स्कूलों में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दुरावस्था के कारण मैं उससे आगे न बढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा की वहीं समाप्ति हो गई।
एक साल अजमेर में 15 रुपए महीने पर नौकरी करके, पिता के पास मुंबई पहुंचा और तार का काम सीखकर जी.आई.पी. रेलवे में 20 रुपए महीने पर तारबाबू बना। बचपन ही से मेरी प्रवृत्ति सुशिक्षित जनों की संगति करने की ओर थी। देवयोग से हरदा और होशंगाबाद (म.प्र.) में मुझे ऐसी संगति सुलभ रही। फल यह हुआ कि मैंने अपने लिए चार सिद्धांत या आदर्श निश्चित किए। यथा 1. वक्त की पाबन्दी करना 2. रिश्वत न लेना 3. अपना काम ईमानदारी से करना और 4. ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना। पहले तीन सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था; पर चौथे के सचेष्ट रहना कठिन था। तथापि सतत अभ्यास से उसमें भी सफलता होती गई। तारबाबू होकर भी, टिकटबाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, यहां तक कि रेल की पटरियां बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी करने वाले प्लेट-लेयर तक का भी काम मैंने सीख लिया। फल अच्छा ही हुआ। अफसरों की नज़र मुझ पर पड़ी। मेरी तरक्की होती गई। वह इस तरह कि एक दफे छोड़कर मुझे कभी तरक्की के लिए दख्वास्त नहीं देनी पड़ी। जब इंडियन मिडलैंड रेलवे बनी और उसके दफ्तर झाँसी में खुले तब जी.आई.पी. रेलवे के मुलाजिम जो साहब वहां के जनरल ट्रैफिक मैनेजर मुकर्रर हुए वे मुझे भी अपने साथ झाँसी लाए और नए-नए काम मुझसे लेकर मेरी पदोन्नति करते गए। इस उन्नति का प्रधान कारण मेरी ज्ञानलिप्सा और गौण कारण उन साहब बहादुर की कृपा या गुण-ग्राहकता थी। दस-बारह वर्ष बाद मेरी मासिक आय मेरी योग्यता से कई गुनी अधिक हो गई।
जब इंडियन मिडलैंड रेलवे जी.आई.पी. रेलवे से मिला दी गई तब कुछ दिन मुंबई में रहकर मैंने अपना तबादला झाँसी को करा लिया। वहीं रहना मुझे अधिक पसंद था। पाँच वर्ष में वहां डिस्ट्रिक्ट ट्रॉफिक सुपरिटेंडेट के दफ्तर में रहा। वे दिन मेरे अच्छे नहीं कटे। लार्ड कर्जन का देहली-दरबार उसी जमाने में हुआ था। मेरे गौरांग प्रभु अपनी रातें अपने बंगलों या क्लब मेें बिताते थे। मैं दिन भर दफ्तर का काम करके रात भर, अपनी कुटिया में पड़ा हुआ, उनके नाम आए तार लेता और उनके जवाब देता था। ये तार उन स्पेशल रेलगाडिय़ों के संबंध में होते थे जो दक्षिण से देहली की ओर दौड़ा करती थीं। उन चाँदी के टुकड़ों की बदौलत जो मुझे हर महीने मिलते थे, मैंने अपने ऊपर किए गए इस अत्याचार को महीनों बर्दाश्त किया।
मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूं तो उससे मेरी सहनशीलता तो अवश्य सूचित होती है; पर उससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता। परन्तु कुछ समयोत्तर बानक कुछ ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार करना चाहा। हुक्म हुआ कि तुम इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह 8 बजे दफ्तर में आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरे मेज पर मुझे रखे मिलें। मैंने कहा- 'मैं आऊंगा; पर औरों को आने के लिए लाचार न करूंगा। उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है। बस बात बढ़ी और बिना किसी सोच-विचार के मैंने इस्तीफा दे दिया। बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नही; सिफाारिशें तक की गईं। पर सब व्यर्थ हुआ। क्या इस्तीफा लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विषण्ण होकर कहा- ''क्या थूककर भी कोई उसे चाटता है? मैं बोला- ''नहीं ऐसा कभी न होगा; तुम धन्य हो। तब उसने तो 11 रुपए रोज तक की आमदनी से भी मुझे खिलाने-पिलाने और गृह-कार्य चलाने का दृढ़ संकल्प किया और मैंने 'सरस्वती की सेवा से मुझे हर महीने जो 20 रुपए उजरत, और 3 रुपए डाकखर्च की आमदनी होती थी उसी से संतुष्ट रहने का निश्चय किया। मैंने सोचा- 'किसी समय तो मुझे महीने में 15 रुपए ही मिलते थे; 23 रुपए तो उसके ड्योढ़े से भी अधिक है। इतनी आमदनी मुझ देहाती के लिए कम नहीं।
मेरे पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की एक पलटन में सैनिक या सिपाही थे। मामूली हिन्दी पढ़े थे। बड़े भक्त थे। सिपाहियाने काम से छुट्टी पाने पर राम-लक्ष्मण की पूजा किया करते थे। इसी से साथी सिपाहियों ने उनका नाम रखा था- लछिमन जी। गदर में पिता की पलटन बागी हो गई। जो बच निकले बच गए; बाकी जवान तोपों से उड़ा दिए गए। पलटन उस समय होशियारपुर (पंजाब) में थी। पिता ने भागकर अपना शरीर सतलज की वेगवती धारा को अर्पण कर दिया। एक या दो दिन बाद, बेहोशी की हालत में, सैकड़ों कोस दूर आगे की तरफ, कहीं वे किनारे लग गए। होश आने पर संभले और हरी-हरी मोटी घास के तिनके चूस-चूस कर कुछ शक्ति सम्पादान की। मांगते-खाते, साधु-वेश में, कई महीने बाद, वे घर आए। घर पर कुछ दिन रह कर, इधर-उधर भटकते हुए, वे मुंबई पहुंचे। वहां वल्लभ-सम्प्रदाय के एक गोस्वामीजी के यहां वे नौकर हो गए। इस तरह वहां भी उन्हें ठाकुरजी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे समर्थ होने तक वे इसी सम्प्रदाय के गोस्वामियों की मुलाजिमत में रहे। फिर सदा के लिए उसे छोड़ कर घर चले गए।
मेरे पितामह अलबत्ते संस्कृतज्ञ थे और अच्छे पण्डित भी थे। बंगाल की छावनियों में स्थित पलटनों को वे पुराण सुनाया करते थे। उनकी एकत्र की हुई सैकड़ों हस्तलिखित पुस्तकें बेच-बेच कर मेरी पितामही ने मेरे पिता और पितृव्य आदि का पालन किया। वयस्क होने पर दो-चार पुस्तकें मुझे भी घर में पड़ी मिलीं।
मेरे पितृव्य दुर्गाप्रसाद नाममात्र को हिन्दी क्या कैथी जानते थे। पर उनमें नए-नए किस्से बनाकर कहने की अद्भुत शक्ति थी। रायबरेली जिले में दीनशाह के गौरा के तत्कालीन तअल्लुकेदार, भूपालसिंह के यहां किस्से सुनाने के लिए वे नौकर थे।
मेरे नाना और मामा भी संस्कृतज्ञ थे। मामा की संस्कृतज्ञता का परिचय स्वयं मैंने, उनके पास बैठकर, प्राप्त किया था।
जब मैं झाँसी में था तब वहां के तहसीली स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे कोर्स की एक पुस्तक दिखाई। नाम था- तृतीय रीडर। उसने उनमें बहुत से दोष दिखाए। उस समय तक मेरी लिखी हुई कुछ समालोचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। इससे उस अध्यापक ने मुझसे उस रीडर की भी आलोचना लिखकर प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने रीडर पढ़ी और अध्यापक महाशय की शिकायत को ठीक पाया। नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकाकार में प्रकाशित की। इस रीडर का स्वत्वाधिकारी था, प्रयाग का इंडियन प्रेस। अतएव इस समालोचना की बदौलत इंडियन प्रेस से मेरा परिचय हो गया और कुछ समय बाद उसने 'सरस्वतीÓ पत्रिका का सम्पादन-कार्य मुझे दे डालने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे स्वीकार कर लिया। यह घटना रेल की नौकरी छोडऩे के एक साल पहले की है।
नौकरी छोडऩे पर मेरे मित्रों ने कई प्रकार से मेरी सहायता करने की इच्छा प्रकट की। किसी ने कहा- 'आओ, मैं तुम्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाऊँगा।Ó किसी ने लिखा - 'मैं तुम्हारे साथ बैठकर संस्कृत पढूंगा,Ó किसी ने कहा- 'मैं तुम्हारे लिए एक छापाखाना खुलवा दूंगाÓ इत्यादि। पर मैंने सबको अपनी कृतज्ञता की सूचना दे दी और लिख दिया कि अभी मुझे आपके साहाय्यदान की विशेष आवश्यकता नहीं। मैंने सोचा- अव्यवस्थित-चित्त मनुष्य की सफलता में सदा संदेह करता है। क्यों न मैं अंगीकृत कार्य ही में अपनी सारी शक्ति लगा दूं? प्रयत्न और परिश्रम की बड़ी महिमा है। अतएव 'सब तज, हरि भजÓ की मसल को चरितार्थ करता हुआ, इंडियन प्रेस के प्रदत्त काम ही में मैं अपनी शक्ति खर्च करने लगा। हाँ, जो थोड़ा-बहुत अवकाश कभी मिलता तो उसमें अनुवाद आदि का कुछ काम और भी करता समय की कमी के कारण मैं विशेष अध्ययन न कर सका। इसी से 'संपत्ति शास्त्रÓ नामक पुस्तक को छोड़कर और किसी अच्छे विषय पर में कोई नई पुस्तक न लिख सका।
साहित्य-प्रेम
नहीं कह सकता, शिक्षा प्राप्ति की तरफ प्रवृत्त होने का संस्कार मुझे किससे प्राप्त हुआ- पिता से या पितामह से या मातामह से या अपने ही किसी पूर्वजन्म के कृत कर्म से। बचपन ही से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के बृजविलास पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कण्ठ कर लिए थे। होशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचनसुधा और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहां कचहरी में मुलाजिम थे, पिंंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा। मेरा यह रोग बहुत समय तक ज्यों का त्यों रहा। झाँसी आने पर जब मैंने, पण्डितों की कृपा से, प्रकृत कवियों के कव्यों का अनुशीलन किया तब मुझे अपनी भूल मालूम हो गई और छन्दोबद्ध प्रलापों के जाल से मैंने सदा के लिए छुट्टी ले ली। पर गद्य में कुछ न कुछ लिखना जारी रखा। संस्कृत और अंग्रेजी पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी मैंने किए।
सरस्वती के सम्पादन में मेरे आदर्श
'सरस्वतीÓ के सम्पादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिए कुछ आदर्श निश्चित किए। मैंने संकल्प किया कि 1. वक्त की पाबंदी करूंगा 2. मालिकों का विश्वासपात्र बनने की चेष्टा करूंगा 3. अपने हानि-लाभ की परवाह न करके पाठकों के हानि-लाभ का सदा ख्याल रखंूगा और 4. न्यायपथ से कभी न विचलित हूँगा। इसका पालन कहां तक मुझसे हो सका, संक्षेप मेें, सुन लीजिए-
1. सम्पादकजी बीमार हो गए, इस कारण 'स्वर्ग समाचार दो हफ्ते बंद रहा। मैनेजर महाशय के मामा परलोक-प्रस्थान कर गए, लाचार 'विश्व विमोहिनीÓ पत्रिका देर से निकल रही है। 'प्रलयंकारी पत्रिका के विधाता का फाउंटेनपेन टूट गया। उसके मातम में 13 दिन काम बंद रहा। इसी से पत्रिका के प्रकटन में विलंब हो गया। प्रेस की मशीन नाराज हो गई। क्या किया जाता। 'त्रिलोक मित्रÓ का यह अंक, इसी से, समय पर न छप सका। इस तरह की घोषणाएं मेरी दृष्टि में बहुत पड़ चुकी थीं। मैंने कहा- 'मैं इन बातों का कायल नहीं। प्रेस की मशीन टूट जाए तो उसका जिम्मेदार मैं नहीं। पर कापी समय पर न पहुंचे तो उसका जिम्मेदार मैं हूं।
मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी-जान होम कर किया। चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही क्यों न लिखना पड़ा हो, कापी समय पर ही मैंने भेजी। मैंने तो यहां तक किया कि कम से कम छह महीने आगे की सामग्री सदा अपने पास प्रस्तुत रक्खी। सोचा कि यदि मैं महीनों बीमार पड़ जाऊँ तो क्या हो? 'सरस्वतीÓ का प्रकाशन तब तक बंद रखना क्या ग्राहकों के साथ अन्याय करना न होगा? अस्तु, मेरे कारण, सोलह-सत्रह वर्षों के दीर्घकाल में, एक बार भी 'सरस्वतीÓ का प्रकाशन नहीं रुका। जब मैंने अपना काम छोड़ा तब भी मैंने नए सम्पादक को बहुत से बचे हुए लेख अर्पण किए। आप विश्वास कीजिए, उस समय के उपार्जित और अपने लिखे हुए कुछ लेख अब भी मेरे संग्रह में सुरक्षित हैं।
2. मालिकों का विश्वासभाजन बनने की चेष्टा में मैं यहां तक सचेत रहा कि मेरे कारण उन्हें कभी उलझन में पडऩे की नौबत नहीं आई 'सरस्वतीÓ के जो उद्देश्य थे उनकी रक्षा मैंने दृढ़ता से की। एक दफे अलबत्ते मुझे इलाहाबाद के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के बंगले पर हाजिर होना पड़ा पर मैं भूल से तलब किया गया था। एक गैरकानूनी लाटरी का विज्ञापन 'सरस्वतीÓ में निकल गया था। उसी के संबंध में मैजिस्ट्रेट को चेतावनी देनी थी। वह और किसी को मिली। क्योंकि विज्ञापनों की छपाई से मेरा कोई सरोकार न था।
मेरी सेवा से 'सरस्वतीÓ का प्रचार जैसे-जैसे बढ़ता गया और मालिकों का मैं जैसे-जैसे अधिकाधिक विश्वासभाजन होता गया, वैसे ही वैसे मेरी सेवा का बदला भी मिलता गया और मेरी आर्थिक स्थिति प्राय: वैसी ही हो गई जैसे कि रेलवे की नौकरी छोडऩे के समय थी। इसमें मेरी कारगुजारी कम, दिवंगत बाबू चिन्तामणि घोष की उदारता ही अधिक कारणीभूत थी। उन्होंने मेरे सम्पादन-स्वातंत्र्य में कभी बाधा नहीं डाली; वे मुझे अपना कुटुम्बी-सा समझते रहे, और उनके उत्तराधिकारी अब तक भी मुझे वैसा ही समझते हैं।
3. इस समय तो कितनी ही महारानियां तक हिन्दी का गौरव बढ़ा रही हैं, पर उस समय एकमात्र 'सरस्वतीÓ ही पत्रिकाओं की रानी, नहीं, पाठकों की सेविका थी। तब उसमें कुछ छपाना या किसी के जीवन-चरित्त आदि प्रकाशन कराना जरा बड़ी बात समझी जाती थी। दशा ऐसी होने के कारण मुझे कभी-कभी बड़े-बड़े प्रलोभन दिए जाते थे। कोई कहता- 'मेरी मौसी का मरसिया छाप दो, मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा।Ó कोई लिखता- 'अमुक सभा में दी गई अमुक सभापति की 'स्पीचÓ छाप दो; मैं तुम्हारे गले में बनारसी दुपट्टा डाल दूंगा।Ó कोई आज्ञा देता- 'मेरे प्रभु का सचित्र जीवन-चरित्र निकाल दो तो तुम्हें एक बढिय़ा घड़ी या पैरगाड़ी नजर की जाएगीÓ- इन प्रलोभनों का विचार करके मैं अपने दुर्भाग्य को कोसता और कहता कि जब मेरे आकाश-महलों को खुद मेरी ही पत्नी ने गिराकर चूर कर दिया तब भला ये घडिय़ाँ और गाडिय़ाँ मैं कैसे हजम कर सकूंगा। नजीता यह होता कि मैं बहरा और गूंगा बन जाता और 'सरस्वतीÓ में वही मसाला जाने देता जिससे मैं पाठकों का लाभ समझता। मैं उनकी रुचि का सदैव ख्याल रखता और देखता रहता कि मेरे किसी काम से उनको, सत्पथ से विचलित होने का साधन न प्राप्त हो। संशोधन द्वारा लेखों की भाषा अधिक संख्यक पाठकों की समझ में आने लायक कर देता। यह न देखता कि यह शब्द अरबी का है या फारसी का, या तुर्की का। देखता सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। अल्पज्ञ होकर भी किसी पर अपनी विद्वता की झूठी छाप लगाने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।
4. 'सरस्वती में प्रकाशित मेरे लघु लेखों (नोटों) और आलोचनाओं ही से सर्वसाधारणजन इस बात का पता लगा सकते हैं कि मैंने कहाँ तक न्यायमार्ग का अवलंबन किया है। जान-बूझकर मैंने कभी अपनी आत्मा का हनन नहीं किया। न किसी के प्रसाद की प्राप्ति की आकांक्षा की, न किसी के कोप से विचलित ही हुआ। इस प्रान्त के कितने ही न्यायनिष्ठ सामाजिक सत्पुरुषों ने 'सरस्वतीका जो 'बायकाट कर दिया था वह मेरे किस अपराध का सूचक था, इसका निर्णय सुधीजन ही कर सकते हैं।
(आंचलिक पत्रकार से साभार- देशबन्धु )
मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूं तो उससे मेरी सहनशीलता तो अवश्य सूचित होती है; पर उससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता। परन्तु कुछ समयोत्तर बानक कुछ ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार करना चाहा। हुक्म हुआ कि तुम इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह 8 बजे दफ्तर में आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरे मेज पर मुझे रखे मिलें। मैंने कहा- 'मैं आऊंगा; पर औरों को आने के लिए लाचार न करूंगा। उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है। बस बात बढ़ी और बिना किसी सोच-विचार के मैंने इस्तीफा दे दिया। बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नही; सिफाारिशें तक की गईं। पर सब व्यर्थ हुआ। क्या इस्तीफा लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विषण्ण होकर कहा- ''क्या थूककर भी कोई उसे चाटता है? मैं बोला- ''नहीं ऐसा कभी न होगा; तुम धन्य हो।
जीवन कथा
मैं क्या हूं, यह तो प्रत्यक्ष ही है। परंतु मैं क्या था, इस विषय का ज्ञान मेरे मित्रों और कृपालु हितैषियों को बहुत ही कम है। उन्होंने मुझे अनेक पत्र लिखे हैं; अनेक उलाहने दिए हैं, अनेक प्रणयानुरोध किए हैं; वे चाहते हैं कि मैं अपनी जीवन कथा अपने ही मुंह से कह डालूं। पर पूर्ण रूप से उनकी आज्ञा का पालन करने की शक्ति मुझमें नहीं। अपनी कथा कहते मुझे संकोच भी बहुत होता है। उसमें कुछ तत्व भी तो नहीं। उससे कोई कुछ सीख भी तो नहीं सकता। तथापि जिन सज्जनों ने मुझे अपना कृपापात्र बना लिया है उनकी आज्ञा का उल्लंघन भी धृष्टता होगी। अतएव, इस अवसर पर, मैं अपने जीवन से संबंध रखने वाली कुछ बातें, सूत्ररूप में सुना देना चाहता हूं। बड़े-बड़े लोगों ने, इस विषय में मेरे लिए मैदान पहले ही से साफ कर रक्खा है। मेरी इस कथा से यह फल प्राप्ति भी हो सकती है कि आज आप जिसका इतना अभिनन्दन कर रहे हैं वह उस अभिनन्दन का कहां तक पात्र है।
मैं एक ऐसे देहाती का एकमात्र आत्मज हूं जिसका मासिक वेतन सिर्फ 10 रुपए था। अपने गांव के देहाती मदरसे में थोड़ी-सी उर्दू और घर पर थोड़ी-सी संस्कृत पढ़कर, 13 वर्ष की उम्र में, मैं 36 मील दूर, रायबरेली के जिला स्कूल में अंग्रेजी पढऩे गया। आटा-दाल घर से पीठ पर लाद कर ले जाता था। दो आने महीने फीस देता था। दाल ही में आटे के पेड़े या टिकियाएं पका कर पेटपूजा करता था। रोटी बनाना तब मुझे आता ही न था। संस्कृत भाषा उस समय उस स्कूल में वैसी ही अछूत समझी गई थी जैसी कि मद्रास के नम्बूदरी ब्राह्मणों में वहां की शूद्रजाति समझी जाती है। विवश होकर अंग्रेजी के साथ फारसी पढ़ता था। एक वर्ष किसी तरह वहां कटा। फिर पुरवा, फतेहपुर और उन्नाव के स्कूलों में चार वर्ष काटे। कौटुम्बिक दुरावस्था के कारण मैं उससे आगे न बढ़ सका। मेरी स्कूली शिक्षा की वहीं समाप्ति हो गई।
एक साल अजमेर में 15 रुपए महीने पर नौकरी करके, पिता के पास मुंबई पहुंचा और तार का काम सीखकर जी.आई.पी. रेलवे में 20 रुपए महीने पर तारबाबू बना। बचपन ही से मेरी प्रवृत्ति सुशिक्षित जनों की संगति करने की ओर थी। देवयोग से हरदा और होशंगाबाद (म.प्र.) में मुझे ऐसी संगति सुलभ रही। फल यह हुआ कि मैंने अपने लिए चार सिद्धांत या आदर्श निश्चित किए। यथा 1. वक्त की पाबन्दी करना 2. रिश्वत न लेना 3. अपना काम ईमानदारी से करना और 4. ज्ञान-वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहना। पहले तीन सिद्धांतों के अनुकूल आचरण करना तो सहज था; पर चौथे के सचेष्ट रहना कठिन था। तथापि सतत अभ्यास से उसमें भी सफलता होती गई। तारबाबू होकर भी, टिकटबाबू, मालबाबू, स्टेशन मास्टर, यहां तक कि रेल की पटरियां बिछाने और उसकी सड़क की निगरानी करने वाले प्लेट-लेयर तक का भी काम मैंने सीख लिया। फल अच्छा ही हुआ। अफसरों की नज़र मुझ पर पड़ी। मेरी तरक्की होती गई। वह इस तरह कि एक दफे छोड़कर मुझे कभी तरक्की के लिए दख्वास्त नहीं देनी पड़ी। जब इंडियन मिडलैंड रेलवे बनी और उसके दफ्तर झाँसी में खुले तब जी.आई.पी. रेलवे के मुलाजिम जो साहब वहां के जनरल ट्रैफिक मैनेजर मुकर्रर हुए वे मुझे भी अपने साथ झाँसी लाए और नए-नए काम मुझसे लेकर मेरी पदोन्नति करते गए। इस उन्नति का प्रधान कारण मेरी ज्ञानलिप्सा और गौण कारण उन साहब बहादुर की कृपा या गुण-ग्राहकता थी। दस-बारह वर्ष बाद मेरी मासिक आय मेरी योग्यता से कई गुनी अधिक हो गई।
जब इंडियन मिडलैंड रेलवे जी.आई.पी. रेलवे से मिला दी गई तब कुछ दिन मुंबई में रहकर मैंने अपना तबादला झाँसी को करा लिया। वहीं रहना मुझे अधिक पसंद था। पाँच वर्ष में वहां डिस्ट्रिक्ट ट्रॉफिक सुपरिटेंडेट के दफ्तर में रहा। वे दिन मेरे अच्छे नहीं कटे। लार्ड कर्जन का देहली-दरबार उसी जमाने में हुआ था। मेरे गौरांग प्रभु अपनी रातें अपने बंगलों या क्लब मेें बिताते थे। मैं दिन भर दफ्तर का काम करके रात भर, अपनी कुटिया में पड़ा हुआ, उनके नाम आए तार लेता और उनके जवाब देता था। ये तार उन स्पेशल रेलगाडिय़ों के संबंध में होते थे जो दक्षिण से देहली की ओर दौड़ा करती थीं। उन चाँदी के टुकड़ों की बदौलत जो मुझे हर महीने मिलते थे, मैंने अपने ऊपर किए गए इस अत्याचार को महीनों बर्दाश्त किया।
मैं यदि किसी के अत्याचार को सह लूं तो उससे मेरी सहनशीलता तो अवश्य सूचित होती है; पर उससे मुझे औरों पर अत्याचार करने का अधिकार नहीं प्राप्त हो जाता। परन्तु कुछ समयोत्तर बानक कुछ ऐसा बना कि मेरे प्रभु ने मेरे द्वारा औरों पर भी अत्याचार करना चाहा। हुक्म हुआ कि तुम इतने कर्मचारियों को लेकर रोज सुबह 8 बजे दफ्तर में आया करो और ठीक दस बजे मेरे कागज मेरे मेज पर मुझे रखे मिलें। मैंने कहा- 'मैं आऊंगा; पर औरों को आने के लिए लाचार न करूंगा। उन्हें हुक्म देना हुजूर का काम है। बस बात बढ़ी और बिना किसी सोच-विचार के मैंने इस्तीफा दे दिया। बाद को उसे वापस लेने के लिए इशारे ही नही; सिफाारिशें तक की गईं। पर सब व्यर्थ हुआ। क्या इस्तीफा लेना चाहिए, यह पूछने पर मेरी पत्नी ने विषण्ण होकर कहा- ''क्या थूककर भी कोई उसे चाटता है? मैं बोला- ''नहीं ऐसा कभी न होगा; तुम धन्य हो। तब उसने तो 11 रुपए रोज तक की आमदनी से भी मुझे खिलाने-पिलाने और गृह-कार्य चलाने का दृढ़ संकल्प किया और मैंने 'सरस्वती की सेवा से मुझे हर महीने जो 20 रुपए उजरत, और 3 रुपए डाकखर्च की आमदनी होती थी उसी से संतुष्ट रहने का निश्चय किया। मैंने सोचा- 'किसी समय तो मुझे महीने में 15 रुपए ही मिलते थे; 23 रुपए तो उसके ड्योढ़े से भी अधिक है। इतनी आमदनी मुझ देहाती के लिए कम नहीं।
मेरे पिता ईस्ट इंडिया कंपनी की एक पलटन में सैनिक या सिपाही थे। मामूली हिन्दी पढ़े थे। बड़े भक्त थे। सिपाहियाने काम से छुट्टी पाने पर राम-लक्ष्मण की पूजा किया करते थे। इसी से साथी सिपाहियों ने उनका नाम रखा था- लछिमन जी। गदर में पिता की पलटन बागी हो गई। जो बच निकले बच गए; बाकी जवान तोपों से उड़ा दिए गए। पलटन उस समय होशियारपुर (पंजाब) में थी। पिता ने भागकर अपना शरीर सतलज की वेगवती धारा को अर्पण कर दिया। एक या दो दिन बाद, बेहोशी की हालत में, सैकड़ों कोस दूर आगे की तरफ, कहीं वे किनारे लग गए। होश आने पर संभले और हरी-हरी मोटी घास के तिनके चूस-चूस कर कुछ शक्ति सम्पादान की। मांगते-खाते, साधु-वेश में, कई महीने बाद, वे घर आए। घर पर कुछ दिन रह कर, इधर-उधर भटकते हुए, वे मुंबई पहुंचे। वहां वल्लभ-सम्प्रदाय के एक गोस्वामीजी के यहां वे नौकर हो गए। इस तरह वहां भी उन्हें ठाकुरजी की सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। मेरे समर्थ होने तक वे इसी सम्प्रदाय के गोस्वामियों की मुलाजिमत में रहे। फिर सदा के लिए उसे छोड़ कर घर चले गए।
मेरे पितामह अलबत्ते संस्कृतज्ञ थे और अच्छे पण्डित भी थे। बंगाल की छावनियों में स्थित पलटनों को वे पुराण सुनाया करते थे। उनकी एकत्र की हुई सैकड़ों हस्तलिखित पुस्तकें बेच-बेच कर मेरी पितामही ने मेरे पिता और पितृव्य आदि का पालन किया। वयस्क होने पर दो-चार पुस्तकें मुझे भी घर में पड़ी मिलीं।
मेरे पितृव्य दुर्गाप्रसाद नाममात्र को हिन्दी क्या कैथी जानते थे। पर उनमें नए-नए किस्से बनाकर कहने की अद्भुत शक्ति थी। रायबरेली जिले में दीनशाह के गौरा के तत्कालीन तअल्लुकेदार, भूपालसिंह के यहां किस्से सुनाने के लिए वे नौकर थे।
मेरे नाना और मामा भी संस्कृतज्ञ थे। मामा की संस्कृतज्ञता का परिचय स्वयं मैंने, उनके पास बैठकर, प्राप्त किया था।
जब मैं झाँसी में था तब वहां के तहसीली स्कूल के एक अध्यापक ने मुझे कोर्स की एक पुस्तक दिखाई। नाम था- तृतीय रीडर। उसने उनमें बहुत से दोष दिखाए। उस समय तक मेरी लिखी हुई कुछ समालोचनाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। इससे उस अध्यापक ने मुझसे उस रीडर की भी आलोचना लिखकर प्रकाशित करने का आग्रह किया। मैंने रीडर पढ़ी और अध्यापक महाशय की शिकायत को ठीक पाया। नतीजा यह हुआ कि उसकी समालोचना मैंने पुस्तकाकार में प्रकाशित की। इस रीडर का स्वत्वाधिकारी था, प्रयाग का इंडियन प्रेस। अतएव इस समालोचना की बदौलत इंडियन प्रेस से मेरा परिचय हो गया और कुछ समय बाद उसने 'सरस्वतीÓ पत्रिका का सम्पादन-कार्य मुझे दे डालने की इच्छा प्रकट की। मैंने उसे स्वीकार कर लिया। यह घटना रेल की नौकरी छोडऩे के एक साल पहले की है।
नौकरी छोडऩे पर मेरे मित्रों ने कई प्रकार से मेरी सहायता करने की इच्छा प्रकट की। किसी ने कहा- 'आओ, मैं तुम्हें अपना प्राइवेट सेक्रेटरी बनाऊँगा।Ó किसी ने लिखा - 'मैं तुम्हारे साथ बैठकर संस्कृत पढूंगा,Ó किसी ने कहा- 'मैं तुम्हारे लिए एक छापाखाना खुलवा दूंगाÓ इत्यादि। पर मैंने सबको अपनी कृतज्ञता की सूचना दे दी और लिख दिया कि अभी मुझे आपके साहाय्यदान की विशेष आवश्यकता नहीं। मैंने सोचा- अव्यवस्थित-चित्त मनुष्य की सफलता में सदा संदेह करता है। क्यों न मैं अंगीकृत कार्य ही में अपनी सारी शक्ति लगा दूं? प्रयत्न और परिश्रम की बड़ी महिमा है। अतएव 'सब तज, हरि भजÓ की मसल को चरितार्थ करता हुआ, इंडियन प्रेस के प्रदत्त काम ही में मैं अपनी शक्ति खर्च करने लगा। हाँ, जो थोड़ा-बहुत अवकाश कभी मिलता तो उसमें अनुवाद आदि का कुछ काम और भी करता समय की कमी के कारण मैं विशेष अध्ययन न कर सका। इसी से 'संपत्ति शास्त्रÓ नामक पुस्तक को छोड़कर और किसी अच्छे विषय पर में कोई नई पुस्तक न लिख सका।
साहित्य-प्रेम
नहीं कह सकता, शिक्षा प्राप्ति की तरफ प्रवृत्त होने का संस्कार मुझे किससे प्राप्त हुआ- पिता से या पितामह से या मातामह से या अपने ही किसी पूर्वजन्म के कृत कर्म से। बचपन ही से मेरा अनुराग तुलसीदास की रामायण और ब्रजवासीदास के बृजविलास पर हो गया था। फुटकर कविता भी मैंने सैकड़ों कण्ठ कर लिए थे। होशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के कविवचनसुधा और गोस्वामी राधाचरण के एक मासिक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्धि कर दी। वहीं मैंने बाबू हरिश्चन्द्र कुलश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहां कचहरी में मुलाजिम थे, पिंंगल का पाठ पढ़ा। फिर क्या था, मैं अपने को कवि ही नहीं, महाकवि समझने लगा। मेरा यह रोग बहुत समय तक ज्यों का त्यों रहा। झाँसी आने पर जब मैंने, पण्डितों की कृपा से, प्रकृत कवियों के कव्यों का अनुशीलन किया तब मुझे अपनी भूल मालूम हो गई और छन्दोबद्ध प्रलापों के जाल से मैंने सदा के लिए छुट्टी ले ली। पर गद्य में कुछ न कुछ लिखना जारी रखा। संस्कृत और अंग्रेजी पुस्तकों के कुछ अनुवाद भी मैंने किए।
सरस्वती के सम्पादन में मेरे आदर्श
'सरस्वतीÓ के सम्पादन का भार उठाने पर मैंने अपने लिए कुछ आदर्श निश्चित किए। मैंने संकल्प किया कि 1. वक्त की पाबंदी करूंगा 2. मालिकों का विश्वासपात्र बनने की चेष्टा करूंगा 3. अपने हानि-लाभ की परवाह न करके पाठकों के हानि-लाभ का सदा ख्याल रखंूगा और 4. न्यायपथ से कभी न विचलित हूँगा। इसका पालन कहां तक मुझसे हो सका, संक्षेप मेें, सुन लीजिए-
1. सम्पादकजी बीमार हो गए, इस कारण 'स्वर्ग समाचार दो हफ्ते बंद रहा। मैनेजर महाशय के मामा परलोक-प्रस्थान कर गए, लाचार 'विश्व विमोहिनीÓ पत्रिका देर से निकल रही है। 'प्रलयंकारी पत्रिका के विधाता का फाउंटेनपेन टूट गया। उसके मातम में 13 दिन काम बंद रहा। इसी से पत्रिका के प्रकटन में विलंब हो गया। प्रेस की मशीन नाराज हो गई। क्या किया जाता। 'त्रिलोक मित्रÓ का यह अंक, इसी से, समय पर न छप सका। इस तरह की घोषणाएं मेरी दृष्टि में बहुत पड़ चुकी थीं। मैंने कहा- 'मैं इन बातों का कायल नहीं। प्रेस की मशीन टूट जाए तो उसका जिम्मेदार मैं नहीं। पर कापी समय पर न पहुंचे तो उसका जिम्मेदार मैं हूं।
मैंने अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वाह जी-जान होम कर किया। चाहे पूरा का पूरा अंक मुझे ही क्यों न लिखना पड़ा हो, कापी समय पर ही मैंने भेजी। मैंने तो यहां तक किया कि कम से कम छह महीने आगे की सामग्री सदा अपने पास प्रस्तुत रक्खी। सोचा कि यदि मैं महीनों बीमार पड़ जाऊँ तो क्या हो? 'सरस्वतीÓ का प्रकाशन तब तक बंद रखना क्या ग्राहकों के साथ अन्याय करना न होगा? अस्तु, मेरे कारण, सोलह-सत्रह वर्षों के दीर्घकाल में, एक बार भी 'सरस्वतीÓ का प्रकाशन नहीं रुका। जब मैंने अपना काम छोड़ा तब भी मैंने नए सम्पादक को बहुत से बचे हुए लेख अर्पण किए। आप विश्वास कीजिए, उस समय के उपार्जित और अपने लिखे हुए कुछ लेख अब भी मेरे संग्रह में सुरक्षित हैं।
2. मालिकों का विश्वासभाजन बनने की चेष्टा में मैं यहां तक सचेत रहा कि मेरे कारण उन्हें कभी उलझन में पडऩे की नौबत नहीं आई 'सरस्वतीÓ के जो उद्देश्य थे उनकी रक्षा मैंने दृढ़ता से की। एक दफे अलबत्ते मुझे इलाहाबाद के डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट के बंगले पर हाजिर होना पड़ा पर मैं भूल से तलब किया गया था। एक गैरकानूनी लाटरी का विज्ञापन 'सरस्वतीÓ में निकल गया था। उसी के संबंध में मैजिस्ट्रेट को चेतावनी देनी थी। वह और किसी को मिली। क्योंकि विज्ञापनों की छपाई से मेरा कोई सरोकार न था।
मेरी सेवा से 'सरस्वतीÓ का प्रचार जैसे-जैसे बढ़ता गया और मालिकों का मैं जैसे-जैसे अधिकाधिक विश्वासभाजन होता गया, वैसे ही वैसे मेरी सेवा का बदला भी मिलता गया और मेरी आर्थिक स्थिति प्राय: वैसी ही हो गई जैसे कि रेलवे की नौकरी छोडऩे के समय थी। इसमें मेरी कारगुजारी कम, दिवंगत बाबू चिन्तामणि घोष की उदारता ही अधिक कारणीभूत थी। उन्होंने मेरे सम्पादन-स्वातंत्र्य में कभी बाधा नहीं डाली; वे मुझे अपना कुटुम्बी-सा समझते रहे, और उनके उत्तराधिकारी अब तक भी मुझे वैसा ही समझते हैं।
3. इस समय तो कितनी ही महारानियां तक हिन्दी का गौरव बढ़ा रही हैं, पर उस समय एकमात्र 'सरस्वतीÓ ही पत्रिकाओं की रानी, नहीं, पाठकों की सेविका थी। तब उसमें कुछ छपाना या किसी के जीवन-चरित्त आदि प्रकाशन कराना जरा बड़ी बात समझी जाती थी। दशा ऐसी होने के कारण मुझे कभी-कभी बड़े-बड़े प्रलोभन दिए जाते थे। कोई कहता- 'मेरी मौसी का मरसिया छाप दो, मैं तुम्हें निहाल कर दूंगा।Ó कोई लिखता- 'अमुक सभा में दी गई अमुक सभापति की 'स्पीचÓ छाप दो; मैं तुम्हारे गले में बनारसी दुपट्टा डाल दूंगा।Ó कोई आज्ञा देता- 'मेरे प्रभु का सचित्र जीवन-चरित्र निकाल दो तो तुम्हें एक बढिय़ा घड़ी या पैरगाड़ी नजर की जाएगीÓ- इन प्रलोभनों का विचार करके मैं अपने दुर्भाग्य को कोसता और कहता कि जब मेरे आकाश-महलों को खुद मेरी ही पत्नी ने गिराकर चूर कर दिया तब भला ये घडिय़ाँ और गाडिय़ाँ मैं कैसे हजम कर सकूंगा। नजीता यह होता कि मैं बहरा और गूंगा बन जाता और 'सरस्वतीÓ में वही मसाला जाने देता जिससे मैं पाठकों का लाभ समझता। मैं उनकी रुचि का सदैव ख्याल रखता और देखता रहता कि मेरे किसी काम से उनको, सत्पथ से विचलित होने का साधन न प्राप्त हो। संशोधन द्वारा लेखों की भाषा अधिक संख्यक पाठकों की समझ में आने लायक कर देता। यह न देखता कि यह शब्द अरबी का है या फारसी का, या तुर्की का। देखता सिर्फ यह कि इस शब्द, वाक्य या लेख का आशय अधिकांश पाठक समझ लेंगे या नहीं। अल्पज्ञ होकर भी किसी पर अपनी विद्वता की झूठी छाप लगाने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।
4. 'सरस्वती में प्रकाशित मेरे लघु लेखों (नोटों) और आलोचनाओं ही से सर्वसाधारणजन इस बात का पता लगा सकते हैं कि मैंने कहाँ तक न्यायमार्ग का अवलंबन किया है। जान-बूझकर मैंने कभी अपनी आत्मा का हनन नहीं किया। न किसी के प्रसाद की प्राप्ति की आकांक्षा की, न किसी के कोप से विचलित ही हुआ। इस प्रान्त के कितने ही न्यायनिष्ठ सामाजिक सत्पुरुषों ने 'सरस्वतीका जो 'बायकाट कर दिया था वह मेरे किस अपराध का सूचक था, इसका निर्णय सुधीजन ही कर सकते हैं।
(आंचलिक पत्रकार से साभार- देशबन्धु )
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