शनिवार, 4 अक्टूबर 2014

भारतीय सिनेमा की पहली फीचर फिल्म – राजा हरिश्चंद्र

 
भारतीय सिनेमा की पहली फुल लेंथ फिल्म राजा हरिश्चंद्र, तीन मई, 1913 को प्रदर्शित हुई थी.
इस फीचर फिल्म का निर्माण और निर्देशन धुंदिराज फाल्के उर्फ दादा साहेब फाल्के ने किया था. इस फिल्म की सबसे बड़ी विशेषता इस फिल्म का पूरी तरह स्वदेश निर्मित होना था. फिल्म बनाने के लिए दादा साहेब फाल्के ने कोई भी विदेशी सहायता नहीं ली थी.   फिल्म राजा हरिश्चंद्र  पौराणिक कथाओं में हम अकसर सत्य के मार्ग पर चलने वाले राजा हरिश्चंद्र के विषय में सुनते आए हैं. भारत की पहली फीचर फिल्म भी इस पात्र पर आधारित एक मूक फिल्म थी. इस फिल्म का निर्देशन गिरगांव (मुंबई) स्थित कोरोनेशन सिनेमा में किया गया था.
  इस फिल्म को देखने के लिए लोग इतने ज्यादा उत्साहित थे कि इसके पहले शो के दौरान जुटी भीड़ सिनेमा हॉल से निकलकर सड़क तक जा पहुंची. फिल्म अत्यंत सफल रही. दादा साहेब फाल्के को ग्रामीण इलाकों में यह फिल्म दिखाने के लिए अतिरिक्त प्रिंट बनवाने पड़े. इस फिल्म की रील 37 सौ फीट लंबी थी जो करीब 40 मिनट की थी.   इस फिल्म में दत्तात्रेय दामोदर ने राजा हरिश्चंद्र का किरदार निभाया था. तीन अन्य फिल्मों में काम करने के बाद वह निर्देशक एवं सिनेमेटोग्राफर बन गए थे. वर्ष 1924 में उन्होंने राजा हरिश्चंद्र का रीमेक भी बनाया.   राजा हरिश्चंद्र से अपना फिल्मी कॅरियर शुरू करने वाले दादा साहेब (1870-1944) ने मोहिनी भस्मासुर (1913), सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917) और कालिया मर्दन (1919) जैसी फिल्में भी बनाईं. दादा साहेब फाल्के को सम्मान देने के लिए सरकार ने 1969 से दादा साहेब फाल्के पुरस्कार देना शुरू किया. यह सिने जगत का सबसे बड़ा पुरस्कार है.   दादा साहेब महान चित्रकार राजा रवि वर्मा (1848-1906) से बेहद प्रभावित थे, वर्मा भी रामायण और महाभारत जैसी पौराणिक कथाओं के दृश्यों की चित्रकारी करते थे. वह दौर ऐसा था जब फिल्मों में काम करना सामाजिक दृष्टिकोण से बुरा माना जाता था. इसीलिए राजा हरिश्चंद्र फिल्म के सभी किरदार पुरुष थे. यहां तक कि महिला के किरदार भी पुरुषों ने ही निभाए थे.

 राजा हरिश्चंद्र भारतीय सिनेमा की पहली फ़िल्म है जो अवाक (मूक) थी। यह फ़िल्म भारतीय सिनेमा के जनक माने जाने वाले दादा साहेब फाल्के ने1913 में बनाई थी। ‘राजा हरिश्चंद्र’ के रिलीज़ होते ही चारों ओर धूम मच गई। भारत ने पूरी लम्बाई की पारम्परिक फ़िल्मों के जगत में कदम रख दिया था। धुंडीराज गोंविद फाल्के यानी दादा साहेब फाल्के इस फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक थे और इस तरह वे भारतीय फ़िल्मों के पितामह बन गए। इस फ़िल्म ने खूब धूम मचाई और फाल्के को इसकी अतिरिक्त प्रिंट्स बनवाकर गांव-गांव में दिखाना पड़ा। कथानक  फ़िल्म का कथानक हिंदू पौराणिक ग्रंथों में वर्णित महान सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के जीवन पर आधारित था। कलाकार      दत्तत्रेय दामोदर दबके     सालुंके     भालाचंद्र डी. फ़ाल्के     जी.वी. सेन   प्रदर्शन तिथि  21 अप्रैल 1913 को ओलम्पिया थियेटर, मुम्बई में प्रीमियर हुआ और 13 मई, 1913 को फ़िल्म आम लोगों के लिए प्रदर्शित की गई।

आज हम भले ही फिल्मों को देखकर रोमांचित होते हैं, पर इसका यह सफर इतना आसान नहीं था। फिल्मों ने पूरी दुनिया में एक लम्बा सफर तय किया है और आज भी यह विभिन्न देशों में लोगों को अपनाें से जोड़ती हैं। इतिहास पर नजर दौड़ायें तो, विश्व में पहली फिल्म का प्रदर्शन 28 दिसंबर, 1895 को पेरिस के 'इंडिया कैफे' में किया गया था। यह फिल्म फ्रांस के ल्यूमियर ब्रदर्स की सात अति लघु फिल्मों का पैकेज थी जिनकी कुल अवधि दो मिनट 30 सेकेंड थी। भारत में बंबई के 'वाटसन होटल' में 7 जुलाई 1896 को ल्यूमियर बंधुओं के सहयोग से पहली बार फिल्म का प्रदर्शन किया गया तो 1898 में हीरालाल ने भारत की पहली लघु फिल्म 'फ्लॉवर ऑफ परसिया' बनाई। भारत में पहला ग्रामोफोन रिकॉर्ड 1902 में बनाया गया, उसमें पहली बार गौहर खान की तीन मिनट की रिकॉर्डिंग कोलकाता के एक होटल में की गई। भारत की पहली फीचर फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' थी। इसका पहला व्यावसायिक प्रदर्शन 3 मई, 1913 को बंबई के 'कोरोनेशन थिएटर' में किया गया।

'राजा हरिश्चंद्र' को मूक होने के बावजूद हिंदी फिल्म इसलिए माना जाता है कि इसमें कथा विकास को दर्शाने के लिए 'हिंदी शीर्षक' का प्रयोग किया गया था और साथ में अंग्रेजी अनुवाद भी किया गया था। 'राजा हरिश्चंद्र' की कुल अवधि 40 मिनट थी। 30,000 रूपये की लागत से बनी यह फिल्म 23 दिन चली थी। इस फिल्म के निर्माता दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्मों का पितामह कहा जाता है, उन्होंने भारत में सिनेमा का सूत्रपात किया था। भारत में 1913 में सिनेमा की शुरुआत से लेकर 1917 तक दादा साहब फाल्के ही एकमात्र निर्माता थे। हिंदी फिल्मों के पितामह धुंड़िराज गोविंद फाल्के (30 अप्रैल 1870-16 फरवरी 1944) यानी दादा साहेब फाल्के ने पहली हिंदी फिल्म का निर्माण यूँ ही नहीं कर लिया, बल्कि इसके लिए उन्हें काफी पापड़ भी बेलने पड़े। 30 अप्रैल 1870 को नासिक के पास त्रयम्बकेश्वर गाँव के ब्राह्मण परिवार में जन्मे फाल्के ने बचपन में घर पर ही पढ़ाई कर उत्तीर्ण होने पर बंबई के कला संस्थान जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। वहांँ उन्होंने छात्रवृत्ति मिलने पर एक कैमरा भी खरीद लिया। फिर क्या था, कैमरे के साथ-साथ फाल्के साहेब का मन भी रोमांचित होने लगा और अन्तत: उस दौर के नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित दादा फाल्के ने सरकारी नौकरी छोड़ दी। उसके बाद उन्होंने भागीदारी में प्रिंटिंग प्रेस का संचालन किया। दादा साहेब फाल्के के जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन तब आया जब सन् 1911 में क्रिसमस में बंबई के एक तम्बू सिनेमा में उन्होंने ''लाइफ ऑफ क्राइस्ट'' नामक फिल्म देखी। वे फिल्म देखकर घर लौटे और सारी रात बेचैन रहे। दूसरे दिन अपनी पत्नी सरस्वती काकी के साथ वही फिल्म दोबारा देखी। लगातार अलग-अलग नजरिए से उन्होंने 10 दिन फिल्म देखकर मन में निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर फिल्म बनाना चाहिए। उन्होंने यह बात अपनी पत्नी, रिश्तेदार तथा मित्रों को बताई। सबने फिल्म निर्माण की व्यावहारिक कठिनाइयांँ सामने रखीं। उभरकर सुझाव आया कि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन में विस्तार तथा उतार-चढ़ाव अधिक हैं इसलिए किसी सरल कथानक पर फिल्म बनाना चाहिए। अंत में राजा हरिश्चंद्र का कथानक सबको पसंद आया। दादा साहब के व्यापारी मित्र नाडकर्णी ने उन्हें बाजार दर पर रुपए उधार देने की पेशकश की। चूँकि उस जमाने में भारत में फिल्म निर्माण के विषय में नहीं के बराबर ही जानकारी थी इसलिये इंग्लैंड में रहकर उन्होंने फिल्म निर्माण की कला सीखी। 1 फरवरी 1912 को दादा साहब लंदन के लिए पानी के जहाज से रवाना हुए। वहांँ उनका कोई परिचित नहीं था। केवल 'बायस्कोप' पत्रिका के संपादक को इसलिए जानते थे कि उनकी पत्रिका नियमित मंगाकर पढ़ते थे। इसी रिश्ते को जोड़कर दादा फाल्के 'बायस्कोप' के संपादक कैबोर्ग से मिले। वह भले आदमी थे। वह उन्हें स्टूडियो तथा सिनेमा उपकरण एवं केमिकल्स की दुकानों पर ले गये और फिल्म निर्माण का सारा सामान खरीद दिया। अन्तत: 1 अप्रैल 1912 को दादा साहब फाल्के बंबई लौट आए और फिर आरंभ हुआ हिंदी सिनेमा की पहली फिल्म के निर्माण का।
फिल्म निर्माण कला सीख कर वापस भारत आने पर दादा साहेब फाल्के ने 'राजा हरिश्चन्द्र' फिल्म बनाना शुरू किया। किन्तु उस जमाने में फिल्म बनाना आसान नहीं था क्योंकि लोग फिल्मों को अंग्रेजों का जादू-टोना समझते थे। फिल्म के लिये कलाकार मिलना मुश्किल होता था। किसी प्रकार से पुरुष कलाकार तो मिल जाते थे किन्तु महिला कलाकार मिल ही नहीं पाती थीं क्योंकि महिलाओं का नाटक, नौटंकी, फिल्मों आदि में काम करना वर्जित माना जाता था। दादा साहब फाल्के को भी इससे रूबरू होना पड़ा।
 दरअसल 1912 में पटकथा लेखन के बाद दादा साहब फाल्के को तमाम कलाकार तो मिल गए, मगर महारानी तारामती का रोल करने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। हारकर दादा वेश्याओं के बाजार में उनके कोठे पर गए और उनसे तारामती रोल के लिए निवेदन किया। वेश्याओं ने दादा को टका-सा जवाब दिया कि उनका पेशा, फिल्म में काम करने वाली बाई से यादा बेहतर है। फिल्म में काम करना घटिया बात है। दादा निराश तथा हताश होकर लौट रहे थे। रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे में रुके और चाय का ऑर्डर दिया। जो वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने देखा कि उसकी अंगुलियांँ बड़ी नाजुक हैं और चालढाल में थोड़ा जनानापन है। दादा ने उससे पूछा- यहांँ कितनी तनख्वाह मिलती है? उसने जवाब दिया कि 5 रुपए महीना। दादा ने फिर कहा कि यदि तुम्हें 5 रुपए रोजाना मिले तो काम करोगे? उत्सुकता से वेटर ने तेजी से पूछा- क्या काम करना होगा? दादा ने सारी बात समझाई। इस तरह भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' की नायिका की खोज पूरी हुई, जो कोई महिला न होकर एक पुरुष थी और उसका नाम था  अन्ना सालुंके। आज यह सोचना भी अटपटा लगता है कि सर्वप्रथम नायिका का रोल एक पुरुष वेटर ने किया था। चूंकि उस समय कोई महिला फिल्म में नायिका बनने को तैयार नहीं हुई इसलिए एक पुरुष को महिला की वेशभूषा में नायिका के रूप में प्रस्तुत किया गया। नायिका की खोज पूरी होने के बाद सन् 1912 की बरसात के बाद बंबई के दादर इलाके में राजा हरिश्चन्द्र की शूटिंग आरंभ हुई। राजा हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई दत्तात्रेय दामोदर दाबके ने और अन्य प्रमुख कलाकार थे- भालचंद्र फाल्के, साने, तेलांग, शिंदे और औंधकर इत्यादि। सूरज की रोशनी में शूटिंग होती, शाम को पूरी यूनिट का खाना बनता और रात को किचन को डार्करूम में बदल दिया जाता। दादा और उनकी पत्नी सरस्वती देवी मिलकर फिल्म की डेवलपिंग-प्रिंटिंग का काम करते। ''राजा हरिश्चन्द्र'' के निर्माण के दौरान दादा साहेब फाल्के के समक्ष अनेक बाधाएँ आईं किन्तु उन्होंने अडिग रहकर अपनी फिल्म बनाने में सफलता प्राप्त कर ही लिया और 21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलिम्पिया सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र का प्रथम प्रदर्शन मेहमानों के लिए किया गया। लोगों की सराहना के बाद अंतत: यह फिल्म 3 मई 1913 को प्रदर्शित हो गई। राजा हरिश्चन्द्र लगातार 13 दिन चली, जो उस समय का रिकॉर्ड था। प्रदर्शित होने पर 'राजा हरिश्चन्द्र' ने इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त की कि मुंबई (उन दिनों बंबई) के गिरगाँव स्थित कोरोनेशन सिनेमा के सामने सड़कों पर लोगों की विशाल भीड़ इकट्ठी हो जाया करती थी। यह फिल्म उस जमाने में जनता के मनोरंजन का केन्द्र बिंदु बनी। परदे पर चलती फिरती आकृतियों को देखकर दर्शक भौंचक थे। इस फिल्म की इतनी अधिक मांग बढ़ी कि ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रदर्शन के लिये दादा साहेब फाल्के को फिल्म के और भी कई प्रिंट बनाने पड़े। फिल्म ने जबरदस्त सफलता प्राप्त की और दादा साहेब फाल्के एक फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित हो गये और भारतीय फिल्म उद्योग के लिये एक रास्ता खुल गया। फिल्मों का यह सफर यहीं नहीं रुका। 'राजा हरिश्चन्द्र' की सफलता के बाद दादा साहेब फाल्के ने नासिक में 1913 में कथा फिल्म 'भस्मासुर मोहिनी' का निर्माण किया। इस फिल्म के लिए रंगमंच पर काम करने वाली अभिनेत्री कमलाबाई गोखले दादा साहब को मिल गईं। कमलाबाई को हिन्दी फिल्मों की प्रथम महिला नायिका माना जाता है। उस दौर में दादा साहेब फाल्के अपनी फिल्मों के निर्माता, निर्देशक, पटकथा लेखक और डे्रस डिजायनर सब होते थे। उन्होंने कुल 95 फिल्में और 26 लघु फिल्में बनाई थीं। इनमें से भस्मासुर मोहिनी (1913),लंका दहन (1917), कालिया मर्दन (1919) प्रमुख थीं। 1934 में दादा साहब फाल्के ने कोल्हापुर सिनेटोन के लिए 'गंगातरण' नामक सवाक् फिल्म बनाई। यह उनकी पहली और अंतिम सवाक् फिल्म थी। 1935 में भारत में मूक फिल्मों का निर्माण पूरी तरह बंद हो गया। सवाक् फिल्मों के बाद बोलती फिल्मों का दौर आरंभ हुआ। आर्देशिर एम ईरानी की फिल्म 'आलम आरा' में भारत में सबसे पहले ध्वनि का संयोजन किया गया। इस फिल्म का प्रदर्शन 14 मार्च, 1931 को 'मैजेस्टिक सिनेमा', बंबई में किया गया। भारत की पहली प्रोसेस्ड रंगीन फिल्म 'किसान कन्या' (1937) के निर्माण का श्रेय भी आर्देशिर ईरानी को जाता है। आर्देशिर एम. ईरानी की उपलब्धियों का सम्मान करते हुए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'खान बहादुर' की उपाधि से नवाजा। भारतीय फिल्म उद्योग ने 22 सितंबर, 1956 को आर्देशिर ईरानी को 'भारतीय सवाक् फिल्मों के पिता' का सम्मान दिया। आज भारत में फिल्मों में कितना भी परिवर्तन हो गया हो, नयी टेक्नालाजी आ गयी हो, पर दादा साहब फाल्के का नाम उनमें सबसे ऊपर है। उनके दौर को समझने के लिए वर्ष 2008 में 'राजा हरिश्चन्द्र' के निर्माण की प्रक्रिया पर मराठी फिल्मकार परेश मोकाशी और श्रीरंग गोडबोले ने 'हरिशचंद्राची फैक्ट्री' का निर्माण किया। फिलहाल भारत में बनी पहली मूक फिल्म 'राजा हरिश्चन्द्र' अब डीवीडी फॉरमैट में भी उपलब्ध है। पुणे स्थित भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (एनएफएआई)  ने इस फिल्म को डीवीडी फॉरमैट में प्रस्तुत किया है। भारत सरकार ने दादा साहब फाल्के की स्मृति में 30 अप्रैल, 1971 को एक डाक टिकट जारी किया और आज भारत सरकार द्वारा फिल्म निर्माण में क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदानकर्ता को 'दादा साहब फाल्के' सम्मान द्वारा नवाजा जाता है जो कि इस क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान है। हिंदी फिल्मों की शताब्दी पर दादा साहेब फाल्के के साथ उन सभी का पुनीत स्मरण, जिन्होंने भारतीय सिनेमा को देश और भाषा की सीमा से परे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यापक पहचान दिलाई।

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