सपा के लखनऊ राष्ट्रीय सम्मेलन में वरिष्ठ मंत्री मोहम्मद आजम
खां ने कहा है कि भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी झाड़ू लगाने का अभियान चलाकर
दलितों की रोजी रोटी छीनने का प्रयत्न कर रहे हैं। प्रश्न इस बात का नहीं कि वे
मोदी को अपना राजनीतिक शत्रु मानकर हमला करें और उस सम्बन्ध में क्या तर्क करें, बल्कि यह कि उनके
तर्क क्या हों और समाजवादी दृष्टि से यदि उनकी परिभाषा की जाये तो वे कितने
स्वीकार्य या अस्वीकार्य हो सकते हैं। यहां तो प्रश्न यह है कि क्या सफाई का पट्टा
दलितों के ही नाम है। वे जिन्दगीभर और उनकी आने वाली पीढिय़ां इससे मुक्त न हों, यदि दूसरे इसे करना
चाहें तो उन पर रोजी-रोटी छीनने का आरोप लगे। सफाई मजदूर के रूप में जो लोग इस
कार्य को कर रहे उनमें से अधिकांश अपने को
वाल्मीकि बताते हैं लेकिन रामकथा लिखने वाले ऋषि वाल्मीकि कोई सफाई करने वाले नहीं
बल्कि वे ऐसे विद्वान थे जिनकी प्रतिष्ठा युगों बाद आज भी है। यह आरोप तो लगता है
कि वाल्मीकि ने अपराधों का त्याग कर ही नया जीवन आरम्भ किया था और समाज में ऋ षि
के रूप में स्वीकार भी हुए। संस्कृत भाषा में जिस रामायण की रचना वाल्मीकि ने की, वह केवल भारत में
ही नहीं बल्कि कई अन्य देशों में भी स्वीकार्य और प्रतिष्ठित है। जब समाजवादी समाज
की रचना होगी तब भी क्या सफ ाई का कार्य दलितों का पुस्तैनी पेशा मानकर उन्हें ही
यह काम सौंप दिया जायेगा?
संविधान
में जिस समता के सिद्धान्त का वरण किया गया है,यह उसके अनुरूप नहीं होगा। दलितों और आदिवासियों को
आरक्षण की सुविधाएं दी गयी हैं उसका लक्ष्य भी तो यही है कि उन्हें समाज की मुख्य
धारा में आना चाहिए और जिन पेशों और कार्यों के कारण उन्हें दलित और निकृष्ट माना
जाता है, उनका समापन
होना चाहिए। इसलिए उनके बाल बच्चों में भी शिक्षा और ज्ञान का विस्तार होना चाहिए।
इस रूप में यदि वे थोड़ा पीछे भी हों तो उन्हें उच्च सरकारी सेवाओं के लिये चयन
में वरीयता मिलनी चाहिए। इस प्रकार सफाई के पेशे को दलितों के लिए ही सीमित मानना
किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार ने भी जब ग्रामीण क्षेत्रों में
सफाई के लिए कार्यकर्ताओं का चयन किया तो वह दलितों के लिए आरक्षित नहीं था। उस
कार्य के लिए 47 प्रतिशत से
अधिक सवर्ण और ऊंची जातियों के लोग चयनित हुए। गांधी जी तो दलित को ही इस देश का
प्रधानमंत्री बनाने के पक्षधर थे। यह कार्य उसके पुराने पेशे से जोड़कर नहीं देखा
जा सकता बल्कि यह सर्वोच्च निर्णायक पद है
जो समाज की भावी व्यवस्था में परिवर्तन और नयी दिशा के संचार का अधिकार देता है।
गांधी जी ने यह इच्छा प्रकट की कि मैं चाहता हूं कि अगले जन्म में मैं दलित के घर
में पैदा हूं, साथ ही
गांधी जी यह भी चाहते थे कि यह काम अन्य लोगों को भी स्वीकार करना चाहिए इसलिए
अपनी पत्नी कस्तूरबा गांधी को शौचालय साफ करने का जिम्मा सौंपा था। जब कस्तूरबा ने
पसन्द न करने पर आपत्ति भी जताई थी लेकिन
गांधीजी ने उन्हें ऐसा करने का औचित्य बताया। लेकिन डॉ.अम्बेडकर और गांधी जी में
इस प्रश्न पर मतभेद था। जिन कारणों से कुछ जातियों को दलित माना जाता है उसे बनाये
रखने का औचित्य क्या है? इसे तो
समाप्त होना चाहिए। अम्बेडकर का कहना था कि आखिर गांधी जी दलित के घर पैदा होने की
इच्छा तो प्रकट करते हैं लेकिन इस घृणित प्रथा में बदलाव के लिए तैयार क्यों नहीं। उनका यही तर्क था कि सफाई वह कार्य है जिसे
किसी जाति विशेष के लिए आरक्षित करना कतई उचित नहीं है। गांधी जी को उस जाति में
जन्म लेने की इच्छा का यह अर्थ ही निकाला जायेगा कि वे इस पुरानी परम्परा की रक्षा
क्यों चाहते हैं। दलित नेताओं का यह भी आरोप है कि वे राजसत्ता की लड़ाई में
पराजितों की श्रेणी में हैं, उन्हें अपमानित करने और नीचा दिखाने के लिए ही उनसे वे काम
लिये जाते थे जिसे उच्च वर्ग के लोग करना पसन्द नहीं करते थे और फिर इतिहास के ये
पराजित उन पेशों के नाम से ही पहचाने गये तथा बाद में यह पहचान ही जातियों में बदल
गयी। इसी प्रकार आदिवासी भी पराजित होने के बाद हमलों से बचने के लिए दूरस्थ और
सीमांत क्षेत्रों में पहुंच गये थे, वे जीवन निर्वाह के लिए प्राकृतिक साधनों और वन्यजीवन
व्यवस्था को स्वीकार करना मजबूरी था। इन स्थितियों में परिवर्तन होना चाहिए। लड़ाई
चाहे राम कीं रावण के खिलाफ रही हो, उस लड़ाई में राम के साथ लडऩे कौन गये थे? जब महाराणा प्रताप
पर संकट आया तो उनकी सहयोगी कोल, भील आदि जातियां ही तो थीं
कितने क्षत्रिय कुल गौरव मानकर साथ देने के लिए क्यों नहीं निकले? जो अन्त तक उनकी
सहयोगी बनी रहीं। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जिन्हें हम दलित या आदिवासी कहते
हैं वे न्यायपूर्ण संघर्षों के समय बिक गये थे या अन्याय के खिलाफ लडऩे में उनका
विवेक समाप्त हो गया था। आजम खां जैसा ही एक तर्क कभी सपा के नेता नरेश अग्रवाल जो
कांग्रेस और बसपा से होकर पुन: सपा में आये हैं, ने भी दिया था। मोदी के खिलाफ उनका तर्क था
कि चाय बेचने वाला इस देश का प्रधानमंत्री नहीं हो सकता। यह तर्क मोदी के चुनाव
अभियान में उनका प्रमुख अस्त्र बन गया कि हां हम चाय बेंचते थे लेकिन क्या वर्तमान
लोकतंत्र में हम प्रधानमंत्री पद तक पहुंचने के अयोग्य हो गये हैं, क्या मजबूरी में
जीवन निर्वाह के लिए अपनाये गये कार्य भी समतावादी न्याय के सिद्धान्त के विरुद्ध
किसी लोकतांत्रिक पद पर पहुंचने में बाधक बनने का कार्य करेंगे। जहां तक नरेन्द्र
मोदी का सम्बन्ध है, उनके
खिलाफ तो बहुत कुछ कहा जा सकता है और कहा
भी जा रहा है कि आखिर वे मूल रूप से किसे प्रोत्साहित करने का कार्य कर रहे हैं।
क्या वे देश के मुट्ठी भर पूंजीपतियों के वर्चस्व की स्थापना के लिए ही सचेष्ट
नहीं हैं। मुख्यमंत्री के रूप में उनके द्वारा किये गये समस्त कार्य और निर्णय
क्या प्रशंसनीय हैं, जिसमें गोधरा
कांड के बाद हुए दंगे और उस पर नियंत्रण न करने के आरोप से क्या उन्हें पूरी तरह
से मुक्त किया जा सकता है?
मोदी
समाज की जिस भावी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते हैं, क्या वह सर्व
कल्याणकारी कही जा सकती है?
गरीबी
और अमीरी का अन्तर कम करने की दिशा में वह कितनी सहायक हो सकती हैै? संघ परिवार जिसका
वे अपने को कार्यकर्ता बताते हैं, उसका इतिहास क्या सर्वधर्म सम्भाव जैसी संवैधानिक व्यवस्था का
पालन करने वाला है। लेकिन यहां तो आजम खां साहब पर उल्टा आरोप यह लग रहा है कि वे
दलितों को भविष्य में भी पुरानी स्थिति में ही रखना चाहते हैं और उनसे सफाई जैसे
कार्य का दायित्व निर्वाह करने की अपेक्षा करते हैं जिसमें गन्दगी करने वाला
श्रेष्ठ और उसे साफ करने वाला निकृष्ट हो जाता है। इसलिए समाजवादी सम्मेलन में इस
प्रकार के तर्कों का विरोध होना चाहिए और अपनी इस गलती के लिए आजम खां को माफ ी
मांगनी चाहिए क्योंकि समाजवाद को जाति आधारित व्यवस्था और अन्याय का समर्थक नहीं
माना जाता। यह वास्तव में सामन्ती सोच है जिसके लिए समाजवादी मंच उपयुक्त नहीं है।
जातियों की सर्वोच्चता और निकृष्टता वास्तव में लोकतंत्र के विपरीत अवधारणा है, इसे समाप्त होना ही
चाहिए।
(शीतला सिंह)
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