रविवार, 14 दिसंबर 2014

आधुनिक बाल साहित्य-दशा एवं दिशा

बच्चों को साहित्य की आवश्यकता भले ही महसूस न हो परन्तु हमें यह आभास होता है कि उपयोगी बहुउद्देशीय बाल साहित्य की आवश्यकता आज भी उतनी है जितनी कि मरीज को डॉक्टर की। यह भी सच है कि बाल्यकाल सुखद अनुभूति और कल्पनाओं का सुनहरा संसार है फिर भी साहित्य की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए यदि आप बच्चों को साहित्य देना ही चाहते हैं तो वह इस प्रकार का होना चाहिए जिससे हर दृष्टि से बच्चों का समुचित विकास हो सके। आधुनिक बाल जगत पूरी तरह विज्ञान की गिरफ्त में है। इलेक्ट्रानिक क्षेत्र की चुनौतियां और बच्चों की तीव्र होती बुद्धि तथा नई-नई जिज्ञासा के बीच सामंजस्य स्थापित करना संभव नहीं, बड़ा जटिल काम है। आज इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर खड़ा बालक अपनी उम्र से आगे की कल्पना आसानी से कर लेता है भारत की अनूठी संस्कृति की गरिमा कायम रखते हुए बाल साहित्य ने अपने रंग-ढंग बदले हैं। समय के हिसाब से रूप परिवर्तन जरूरी है। बाल साहित्य में नैतिक शिक्षा, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, देश-प्रेम, विचार-विमर्श, मर्यादा और आगे बढऩे की प्रबल इच्छा भी समाहित रहे तो निश्चित ही बच्चों को एक नई दिशा मिलेगी। वर्तमान समय में बच्चों की दशा बहुत अच्छी तो नहीं किन्तु संतोषप्रद है। महापुरुषों का आदर्श हमारे समक्ष है। महान बनने के लिए जन्म से ही बच्चों को ऐसे संस्कार देने चाहिए जो भविष्य में उनके जीवन को सार्थक बना सके। किताबी ज्ञान से सिर्फ जानकारी मिल सकती है पर दिल और दिमाग में परिवर्तन लाने की क्षमता तो केवल सत साहित्य में ही मौजूद रहती है। बाल साहित्य की दशा एवं दिशा पर केन्द्रित यह विषय बड़ा जटिल है किन्तु गम्भीरता से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि आज भी बच्चों को अच्छे साहित्य की जरूरत है। प्रत्येक माता पिता अपने बच्चों के स्वास्थ्य और शारीरिक विकास का ध्यान तो रखते हैं पर उनके बौद्धिक विकास का ध्यान साहित्यकारों को रखना पड़ता है। बच्चे हृदय से कोमल और मन से सच्चे होते हैं तभी तो सभी को अच्छे लगते हैं इन्हें अच्छे से अच्छा बनाये रखना हमारा प्रथम मुख्य कर्तव्य है। बच्चों के लिए श्रेष्ठ साहित्य सृजन आसान नहीं, अपितु काफी परिश्रम के पश्चात ही अच्छे परिणाम सामने आते हैं। बच्चों को सहज ही बहकाया नहीं जा सकता, क्योंकि उनकी जिज्ञासाएं अनन्त हैं। इन्हें संतुष्ट करना हंसी खेल नहीं जबकि इन्हें पता भी नहीं कि क्या गलत और क्या सही है। बचपन जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय होता है। यह उतना ही नाजुक होता है जितना कि एक कोमल फूल। ऐसे वक्त उसकी सुरक्षा और देखभाल का दायित्व अनिवार्य रूप से सभी का बराबर है। इस दायित्व को मिल-जुलकर निभाना ज्यादा अच्छा होगा यही सोचकर सदी का अंतिम दशक गहमागहमी भरा बीता। सभी साहित्यकारों ने बच्चों के लिए बहुत कुछ लिखा परन्तु बच्चों ने कितना पढ़ा यह बताना मुश्किल है। इन दिनों तमाम दैनिक, साप्ताहिक पत्र तथा विभिन्न पत्रिकाओं ने बच्चों द्वारा लिखी स्वरचित रचनाओं को प्रकाशित करने का मन बना लिया है तभी तो बच्चों का पृष्ठ अलग से प्रकाशित हो रहा है। वैसे भी बच्चे कई दृष्टियों से हमसे अच्छे हैं। बच्चों में न तो राग-द्वेष होता है न कोई छल-कपट। बिना किसी भेदभाव के वे सभी को समान रूप से देखते हैं इसीलिए तो वे प्रत्येक को प्रिय लगते हैं। हालांकि आज का बालक अणु युग, कम्प्यूटर युग का बालक है और वह इससे अधिक जीवन की कठिनाइयां संसार की जानकारियां, जन्म से ही देख रहा है इसलिए हमसे ज्यादा समझदार है। इन्हें बिना तर्क-वितर्क समझाने का प्रयास व्यर्थ है। सच पूछा जाए तो बाल साहित्य की भाषा गूढ़ नहीं, बल्कि सीधी सरल जो सहज समझ में आ सके ऐसी होनी चाहिए। शब्दावली भी ऐसी हो जो बच्चों को स्वयं अर्थ प्रदान करती चले। यथार्थ अर्थ द्वारा ही बच्चे समर्थ बन सकते हैं। हमारी लेखनी तब तक सार्थक नहीं कहलाएगी जब तक प्रत्येक बच्चा पढ़कर आनंद विभोर न हो जाए। वैसे तो बाल साहित्य का विपुल भण्डार भरा पड़ा है परन्तु विडम्बना यह है कि बच्चों में पढऩे की अपेक्षा टी.वी. देखने की रुचि अधिक है। शिक्षाप्रद प्रेरणादायी छोटी-छोटी कहानियां भी यदि बच्चे ध्यानपूर्वक पढ़ लें तो निश्चित ही जीवन में सुधार और बदलाव आ जाएगा। साहित्य से समाज का निर्माण तो हो सकता है मगर बच्चों का उत्थान कोरे ज्ञान से संभव नहीं। इन्हें स्नेह सम्पन्न, सारगर्भित, रोचक साहित्य की जरूरत है। जिस प्रकार महादेवी वर्मा, कविवर रवीन्द्र, निराला, पंत, हरिऔध, मैथलीशरण गुप्त, जयप्रकाश भारती, बालकृष्ण रेड्डी, कमलेश्वर आदि ने भी बच्चों के लिए उद्बोधक, प्रेरक और ज्ञानवर्धक साहित्य लिखा। वर्तमान समय में बच्चों की पसंद को ध्यान में रखते हुए अनेकों बालोपयोगी पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं। पिछली शताब्दी को बाल साहित्य के स्वरूप, स्थिति और संभावनाओं की दृष्टि से देखा जाए तो आरंभ के पांच दशक एवं पांच और दर्शक के अलग-अलग स्वभाव चरित्र देखने को मिलते हैं। अव्वल तो आरंभ का साहित्यिक परिवेश दशक बाद बाल साहित्य का रूप बदला। बाल साहित्य लेखन में क्रांति और नई दिशा का श्रेय पत्रिका 'शिशुÓ (1914) एवं 'बालसखाÓ (1917) को जाता है। बच्चों की अभिरुचि और उनकी बाल सुलभ चंचलताओं को ध्यान में रखकर कई कविताएं, कहानियां, नाटक आदि लिखे गये जो काफी चर्चित रहे। इसके पश्चात् 'बालकÓ तथा 'किशोरÓ पत्रिका का प्रकाशन क्रमश: पंडित रामलोचन शरण एवं रामदीन मिश्र ने किया। सन् 1947 के बाद लोककथाओं एवं बोधकथाओं की इसी धारा में 'पंचतंत्रÓ का पुन: प्रकाशन हुआ पर बालसखा का प्रकाशन बंद हो गया। कुछ हिन्दी की व्यवसायिक पत्रिकाओं ने बाल साहित्य के लिए पृथक पृष्ठ सुरक्षित रखे जिनमें 'धर्मयुगÓ और 'हिन्दुस्तानÓ प्रमुख हैं। 1954 में नर्मदाप्रसाद खरे की पुस्तक 'नवीन बाल नाटक मालाÓ के दो भाग प्रकाशित हुए। 1958 में केशवचन्द्र वर्मा का एकांकी संकलन 'बच्चों की कचहरीÓ प्रकाशित हुई। इसी समय 'किशोर भारतीÓ पत्रिका भी छप रही थी। पराग, चंदा मामा जैसी पत्रिका के साथ ही नेहरूजी की प्रेरणा से भारत सरकार ने 'बालभारतीÓ का प्रकाशन शुरु किया। बाल साहित्य को दिशा देती कई पत्र-पत्रिकाओं ने इसके पूर्व कई उतार-चढ़ाव देखे। इनमें बालक, बालहंस, नंदन, चंपक, देवपुत्र, बालवाटिका, बच्चों का देश, संदर्भ, स्नेह बाल पत्रिका ने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। 'चकमकÓ जैसी पत्रिका ने बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण जाग्रत करने और उनका मंतव्य जानने के उद्देश्य से अद्वितीय पत्रिका के रूप में स्वयं को स्थापित किया। 'विज्ञान प्रगतिÓ जैसी पत्रिका के बाल विज्ञान अंक छपे। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बाल साहित्य के प्रति साहित्यकारों का रुझान तो है। चित्रकारों का विशेष योगदान पत्रिकाओं को आकर्षक बनाने में बराबर मिल रहा है। इन सबके बावजूद भी प्रचार-प्रसार का सीधा असर बच्चों पर पड़ता है। बच्चों के हित में टी.वी. पर प्रेरणादायी सीरियल व फिल्में दिखानी चाहिए केवल कार्टूनिस्ट या मनोरंजक प्रस्तुति बच्चों के भविष्य को नहीं संवार सकती। शिक्षा के आधुनिक स्वरूप में बाल साहित्य कहीं लुप्त न हो जाए इसका भी ख्याल रखना है। आजकल मनुष्य की ऐसी मनोवृत्ति बन चुकी है कि वह बच्चों को जल्दी व्यस्त देखना चाहता है। उनकी बुद्धि में सारी दुनिया की जानकारी भर देना चाहते हैं। मानो सारा संसार बच्चों में समा जाये। बच्चों के नटखट स्वभाव और स्वच्छंद कल्पनाओं की बातें मुखरित होंगी सिर्फ आपके सहयोग से। बच्चों को हर प्रकार से सुयोग्य बनाने का प्रयत्न तो करना ही होगा क्योंकि बच्चों के विकास पर देश का विकास निर्भर है। हर हाल में बाल साहित्य की उपयोगिता और सृजन को हमेशा कायम रखना है वरना लोग हंसेंगे कि हिन्दुस्तान और हिन्दी में उच्च कोटि के बाल साहित्य की कमी है। बाल मजदूरी, बाल-विवाह, शिक्षा का अभाव ये ऐसे विषय हैं जो आज भी हमें बच्चों के प्रति सोचने पर मजबूर कर देते हैं। गरीब बच्चों की दशा सचमुच बड़ी दयनीय है। आवारा, लावारिस बच्चों का भविष्य बाल सुधार गृह में सुरक्षित रह पाता है कि नहीं यह तो वक्त ही बताएगा फिलहाल में आधुनिक बाल साहित्य की दशा एवं दिशा पर विचार करना होगा। शिक्षा के साथ-साथ कहीं हम बच्चों पर घर-परिवार व अन्य जवाबदारी का बोझ तो नहीं डाल रहे अन्यथा वे उठने की बजाय और अधिक दब जायेंगे। वर्षों से बाल साहित्य की उपयोगिता और उसके प्रभाव को प्रत्येक ने अपनी-अपनी दृष्टि से देखा और समझा किन्तु आज इसका महत्व बहुत अधिक बढ़ गया है। पालकों की यही इच्छा रहती कि हमारे बच्चे ज्यादा से ज्यादा पढ़े-लिखे और सीखे। इसके लिए उच्च कोटि का बाल साहित्य सदैव उपलब्ध रहना भी जरूरी है। प्रेरणादायी बालोपयोगी साहित्य की श्रृंखला में महामहिम राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की कृति तेजस्वी मन, मायाराम पतंग की कृति व्यवहार में निखार, सदाचार सोपान, चरित्र निर्माण; हरिशंकर कश्यप की पुस्तकें मेरे देश के महान बालक, मेरे देश के ऋषि मुनि, संत महात्मा: रोहिताश्व अस्थाना की चुनी हुई बाल कहानियां, चुने हुए बाल एकांकी, चुने हुए बाल गीत। श्यामसुन्दर शर्मा की विज्ञान माडल, विज्ञान प्रयोग, आओ प्रयोग करें। आषिद सुरती की 365 कहानियां, 365 चुटकुले। दिलीप एम. सालवी की गणित व विज्ञान प्रश्नोत्तरी आदि प्रमुख कृतियां बच्चों के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होगी। समाज रूपी बगिया का सौन्दर्य ये बच्चे ही हैं इसलिए बच्चों के प्रति सदैव सजग रहने की आवश्यकता है। अति आधुनिक परिवेश में जन्मे बालक के प्रति हमारी सहानुभूति बढऩी चाहिए। बाल साहित्य की रूपरेखा तैयार करने हेतु सेमिनार, गोष्ठियां, समीक्षा, संभाषणों का दौर भी चलना चाहिए। परिचर्चा, प्रयोग और प्रकाशन के जरिए यही प्रयास हो कि प्रत्येक बच्चा अच्छे से अच्छा बनें। हमारे सामने यही लक्ष्य होना चाहिए कि जीवन की दृष्टि से हम बालक को इस प्रकार ले चले कि कहीं से वह कुंठित न हो। उसकी प्रतिभा का दोहन न हो। विकास के अवसर प्रदान करना हमारा ही काम है आज आवश्यकता इस बात की है कि यत्र-तत्र बिखरा हुआ बाल साहित्य संग्रहीत होकर विधिवत् बच्चों के हाथों में पहुंचे। भावनाओं के अनुकूल रुचिकर, शिक्षाप्रद, सचित्र बाल साहित्य सौ प्रतिशत बच्चों के विकास में सहायक सिद्ध होगा। माना कि आजकल पुस्तक छपने में काफी व्यय आता है मगर इन्हें पढ़कर पांच बच्चे भी अपने जीवन को सफल कर लेते हैं तो हमारे लिए यही सौभाग्य की बात है। बाल साहित्य में नई प्रवृत्त्यिां, नई चुनौतियां, नई स्थितियां भी शामिल कर लें तो कोई हर्ज नहीं किन्तु सारगर्भित होनी चाहिए। व्यर्थ बातों से भरी कोई बड़ी पुस्तक की तुलना में समर्थ, सार्थक, पथ प्रदर्शक लघु पत्रिका भी अति उत्तम है। संसार के समस्त रसों का संचय कर अच्छा साहित्य प्रदान करना बच्चों के लिए जन्मघुट्टी के समान लाभदायक है। बाल सािहत्य की वर्तमान स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने की आवश्यकता है। बच्चों के विकास हेतु उठाये गये कारगर ठोस कदम निश्चित ही एक नई दिशा को अंकित करेंगे जिससे बाल साहित्य की दशा जरूर सुधरेगी। 
रामचरण यादव, बैतूल (म.प्र.)

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