एक
घाटी
जो
जार-जार रोती दिन भर वाहनों के शोरोगुल से
रही आक्रांत
हैरान और परेशान
जो रात में चाहे विश्राम
मगर सो न पाती
इंसानों की दिन-रात चलने की हवस
उसे सोने न देती
डर है कि कहीं घाटी
जो दिन-रात सो न पाती
नाराज गर हुई तो
आफत ही फिर आ जाती
स्वार्थी मानव आबादी
फिर चीखती चिल्लाती
घाटी मगर चाहकर भी
इनपर रहम न कर पाती
(कृष्ण धर शर्मा, २०१६)
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