क्रांति
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वह आएगी
पर आएगी किसी की पीठ पर चढ़कर
क्यों कि वह है लंगड़ी
सब इन्तज़ार कर रहे हैं उसका ;
आकाश से नहीं
दिलों में उठ रहे हैं बवंडर
उथल-पुथल मची हुई है
लोग उठाने लगे हैं
राज्य, धर्म पर अँगुली ।
कभी तो
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कभी तो भूलो
बच्चों को भूगोल पढ़ाना
हँसो गड़गड़ हँसी ।
हँसो !
जिससे बज उठें हिय के तार ।
पहली बारिश से जैसे पनपते हैं
वर्षों से सूखे-थार में पुष्प पल्लव ।
तुम्हारे हँसते ही
हँसने लगेगा
चूल्हे पर तपता तवा
और तवे पर सिकती हुई रोटी ।
तुम्हारे हँसते ही
खिल उठेंगे
बेलों पर फूल ।
खेजड़ों पर मिमंझर
और बच्चों की आँखों में भूगोल
(ज़रूरत नहीं रहेगी फिर तुम्हें भूगोल रटाने की)
कभी तो बनाओ
मन को चिड़िया
जंगल का विहाग
घर आँगन की गौरैया ।
उड़ो आकाश में
ऊँचे और ऊँचे
बताओ बच्चों को आकाश और
ऊँचाई का अर्थ ।
कभी ‘फ्लैट’ की पाँचवीं मंज़िल में
बच्चों के सामने बन जाओ ऐसे
जैसे हुड़दंग करते थे बचपन में
फससों और चौपालों पर ।
भूलो कभी तो कुछ ज़रूरी बातें
बदलो पुरानी पुस्तकों के पन्ने
पढ़ो वह आखर माल
जिसके नीचे कभी खींची थी लकीरें ।
(लकीरें जिनमें छुपे हैं उस समय के अर्थ)
आँखें खोलो और देखो
अभी तक आते हैं
रोहिड़ों पर लाल फूल
वर्षा ऋतु में हरियल होता है
धरती का आँगन
हरे होते हैं सूखे ठूँठ
आज तक ।
आकाश में अभी तक उगता है वह तारा
जिसे तुम बचपन में निहारा करते थे
बाल कथाओं के बीच ।
(अपने बच्चों की आँखों में उगाओ वह तारा)
उछलो बछड़ो की भाँति
सुनहरे धोरों पर जा कर
कभी तो
कभी तो वे काम भी करो
जिनको करने से डरने लगे हो
आजकल ।
(राजस्थानी से अनुवाद : मोहन आलोक)
वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर कविताएं 1
जवाब देंहटाएंधन्यवाद् निर्मला जी
जवाब देंहटाएंमेरा उद्देश्य कुछ अच्छी रचनाओं को सामने लाना है.
very nice article you write this article in the meaningful way thanks for sharing this.
जवाब देंहटाएंplz visit my website