शुक्रवार, 22 जून 2018

लोकसत्ता कहीं गहरा अन्याय कर बैठे तो सत्याग्रह ही रास्ता है

आज के भारत की तस्वीर के साथ विश्व में बदलते घटनाक्रम को समझने में हमें महात्मा गांधी से विनोबा भावे और इसके साथ कई और भी महापुरुषों के साथ यात्राएं करनी होंगी। हमें प्रजातांत्रिक मूल्यों के विघटन को रोकने के साथ-साथ उन मानवीय मूल्यों की स्थापना भी करनी होगी जिसका सपना गांधी ने देखा था। गांधी के विचारों का विस्तार विनोबा हैं।

हमारा यह सौभाग्य है कि देश के कालानुसार गांधी के विचार हमारे सामने कभी पुस्तक, कभी फिल्म और कभी सत्याग्रह के रुप में सामने आते रहते हैं। दक्षिण अफ्रीका, चम्पारण और भारत छोड़ो आन्दोलन तक गांधी हमें बहुत सारी 'स्पेस' देते हैं हम कभी भी, कहीं भी गांधी विचारों, जुलूस में शामिल हो सकते हैं।
गांधी-150 के अवसर पर सुपरिचित लेखक-चिंतक नन्दकिशोर आचार्य विनोबा भावे की अक्षरदेह ''साम्ययोग के आयाम-विनोबा दृष्टि का पुनर्पाठ'' पुस्तक के रुप में देश के सामने लेकर आये हैं। इस पुस्तक के प्रकाशक ''प्राकृत-भारती अकादमी''जयपुर स्वयं अपने मूल्य आधारित प्रकाशनों के लिए जाने जाते हैं। सबसे पहले यह स्पष्ट करना जरुरी है कि यह विनोबा पर उपदेशात्मक पुस्तक नहीं है। इसमें श्री अरविंद, एम. एन. राय, पं. सुन्दरलाल, धीरेन्द्र मजूमदार, डॉ. राधाकृष्णन, कार्ल मार्क्स, तोलस्तोय, बट्रेंड रसल, जॉन राल्स, डार्विन, ल्योजार जां, लुडविग विटगेंस्टाइन और ई. एफ. शुमाकर जैसे विद्वानों को विचारों के बरक्स विनोबा के चिन्तन का समसामयिक अनुशीलन है।

हम कह सकते हैं कि यह पुस्तक विनोबा चिन्तन के पांच अध्यायों में बंधी एक मुठ्ठी है। इस पुस्तक में साम्ययोग का तत्वचिन्तन आर्थिक साम्य की प्रक्रिया, अहिंसकसत्ता का स्वप्न, साहित्य: साम्ययोग की प्रक्रिया और परिशिष्ट में अध्यात्म की वैज्ञानिकता का अर्थ अध्यायों में यह यात्रा पूर्ण होती है।
गांधी-150 की राष्ट्रीय समिति के अनुसार देश का वह अंतिम आदमी कैसा है जिसे गांधी ने देश के विकास का एकमात्र पैमाना माना था और आजाद हिन्दुस्तान की पहली सरकार से कहा था-हमें हर आंख के आंसू पोंछने हैं क्योंकि उसके बिना आजादी का कोई मतलब नहीं है ?
गांधी के इस गहरे प्रश्न का उत्तर विनोबा स्वयं देते हैं। वे कहते हैं कि 'लोकसत्ता कहीं गहरा अन्याय कर बैठे और सत्पुरुषों को लगे कि उसमें अन्याय हो रहा है, तो सत्याग्रह की आवश्यकता होगी। और मैं कहना चाहता हूं कि ऐसे सत्याग्रह का निषेध कोई भी मनुष्य नहीं कर सकता।
इसी तरह महात्मा गांधी ने कहा था कि यदि मैं स्वतंत्रता के बाद जीवित रहा तो मुझे उतनी ही मुस्तैदी से अनेक लड़ाईयां लड़नी पडेंगी जिस मुस्तैदी से मुझे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना पड़ रहा था। क्या यह गांधीजी द्वारा हमें दिया गया संदेश नहीं है ? हमें गांधी के संदेश को गांधी के आदेश के रुप में भी ग्रहण करना होगा।
नन्दकिशोर आचार्य विनोबा के साम्ययोग के आयाम को स्पष्ट करने के लिए भी अरविंद का उल्लेख करते हैं। श्री अरविंद के दर्शन में यह प्रतिपादित किया गया है कि जड़ जगत या पदार्थ से प्रसूत होकर जीवन वनस्पति, प्राण और मन के स्तर पर क्रमश: विकसित होता गया है क्योंकि विकास की यह प्रक्रिया एक वैज्ञानिक अवधारणा या कहें कि प्रकृति का नियम है।विनोबा भी स्वीकार करते हैं कि जीवन अन्न अर्थात् वनस्पति, प्राण अर्थात पशु स्तर तथा मन अर्थात् मनुष्य के वर्तमान स्तर से बढ़कर विज्ञानमय कोष की ओर अग्रसर है। विनोबा के विचारों में जीवन एक निरन्तर विकासमान प्रक्रिया है और उसकी मंजिल 'साम्ययोग' है।
विनोबा मानते हैं कि मानव स्वभाव कोई नियमित और स्थिर वस्तु हैं, ऐसा नहीं। वह सतत विकसित होता चला आया है और आगे भी होता चला जायेगा। आजकल हमारे देश में मानव स्वभाव के सतत विकसित होने की प्रक्रिया में एक विचलन सा आया है। राज का धर्म से विचलन पूरे समाज की चेतना को जड़भूत बना रहा है।
हमारे देश के समकालीन राजनीतिक परिदृश्य के संदर्भ में पुस्तक में उल्लेखित कीन्ज का वक्तव्य महत्वपूर्ण और सामयिक हो उठता है। कीन्ज कहते हैं कि अभी तो आने वाले कम से कम सौ सालों तक हमें अपने आपको और प्रत्येक व्यक्ति को इस भुलावे में रखना होगा कि जो उचित है, वह गलत है और जो गलत है वह उचित है क्योंकि जो गलत है वह उपयोगी है-जो उचित है वह नहीं।

हमारा देश इस समय उपयोगितावाद की लहरों पर सवार है। लहरों पर सवार लोगों को यह आभास नहीं हो रहा है कि इस देश के करोड़ों लोगों की नाक के ऊपर तक पानी आ गया है। आज के आर्थिक-युग के संदर्भ में विनोबा के विचार बहुत ही सम-सामयिक हैं। इस संदर्भ में विनोबा कहते हैं कि सर्वोदय की दृष्टि से अमीरी और गरीबी दोनों पाप हैं। पुण्य का परिणाम सम्पत्ति नहीं, सद्बुद्धि है और पाप का परिणाम कुबुद्धि है। विनोबा मानते हैं कि 'प्रापर्टी वही है तो 'उपयुक्त' तरीेके से कमाई गई हो।
आजकल प्रतिदिन केवल सम्पत्ति ही नहीं सत्ताएं भी अनैतिक तरीकों से कमाई जा रही हैं। इस समय अनैतिक तरीकों से सत्ता प्राप्त करना ही देश का सबसे बड़ा संकट बन गया है। राजसत्ता जब स्वयं ही देश का संकट बन जाए तो देश के नागरिकों का क्या कर्तव्य है ?
नन्दकिशोर आचार्य प्रतिपादित करते हैं कि विनोबा अन्य अराजकतावादी विचारों की तरह केवल राज्यसत्ता के लोप पर ही नहीं, सम्पत्ति के लोप पर भी बल देते हैं। अराजकतावादी प्रूदो का मानना है कि 'सम्पत्ति चोरी है।' आज पूरा देश इस बात का प्रत्यक्षदर्शी बना हुआ देख रहा है कि राजकीय और सामाजिक सम्पत्ति का किस तरह अपहरण हो रहा है।
इस संदर्भ में भी विनोबा भावे के विचार बहुत ही क्रान्तिकारी हैं। विनोबा मानते हैं कि बहुसंख्यागत वाला शासन भी अल्पसंख्यक वर्ग पर अन्याय कर सकता है। विनोबा का यह मानना है कि औपचारिक लोकतंत्र में व्यक्ति एक मतदाता मात्र होकर रह जाता है।
विनोबा एकदम इतने समकालीन हैं वे मानों आज और अब की बात कर रहे हों। वे कहते हैं कि वास्तविक सत्ता प्रतिनिधि सभा में बहुमत प्राप्त दल के माध्यम से उनका नेतृत्व करने वाले कुछ लोगों में तथा अन्तत: किसी एक प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति में केन्द्रित हो जाती है। इसीलिए महात्मा गांधी संसद संस्था को 'वेश्या' और 'बांझ' बताते हैं, क्योंकि वह स्वयं अपनी मालिक नहीं होती और न वह किसी समस्या को पूर्णत: सुलझाने में सफल हो पाती है।
विनोबा केन्द्रीय शासन प्रणाली के संबंध में प्रश्न ही नहीं उठाते परन्तु उसके विकल्प भी प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि जहां शासन केन्द्रित किया, वहां सेना लगेगी ही। इसलिए हम सर्वोदय वाले कहते हैं कि शोषण विहीन ही नहीं, बल्कि शासन-मुक्त समाज की रचना करनी है। यानी गांव-गांव में सत्ता रहेगी। आज केन्द्रित सरकार चलती है, इसके बजाय गांव-गांव में 'नो पार्टी गवर्नमेन्ट'(दलविहीन-सरकार) चलेगी। विनोबा ग्राम सभा के निर्णयों को भी बहुमत के आधार पर नहीं बल्कि सर्वानुमति-कन्सेंसस के आधार पर लागू करने के पक्षधर हैं।
आज साम्प्रदायिक विद्वेश और उससे उत्पन्न हिंसा देश की सर्वाधिक गंभीर समस्या है। मंदिर-मस्जिद विवाद या ऐसे अन्य मसलों से साम्प्रदायिकता पैदा नहीं होती बल्कि साम्प्रदायिक भावना के कारण ये मसले पैदा होते हैं। विनोबा के शब्दों में भिन्न-भिन्न धर्मों की जगह अध्यात्म आना चाहिए और राजनीति की जगह विज्ञान आना चाहिए। एक अन्य प्रसंग में विनोबा ने अध्यात्म और विज्ञान के योग को ही सर्वोदय कहा है। पुस्तक का अन्त विनोबा के इस वक्तत्व से होता है कि जीवन के अभेद का स्वीकार ही धार्मिकता है और वही वैज्ञानिकता भी।

कश्मीर उप्पल   (साभार-देशबंधु)

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