शनिवार, 15 अगस्त 2020

पुरुष का अधिकार

पुरुष को नहीं है अधिकार, नैतिक रूप से
सबके सामने रोने का
वैसे भी,घर में दादी, नानी, माँ, बुआ सहित
तमाम बड़े बुजुर्गों का कहना यही रहा है
कि, पुरुषों का रोना अपशकुन होता है
या, पुरुष भी कभी रोते हैं भला!
इन सब बातों का यह कत्तई मतलब नहीं है
कि, उसके पास आंसुओं की कमी है
या वह कम भावुक है बनिस्बत स्त्री के
इकठ्ठा होते-होते भर चुका होता है
उसके भी आंसुओं का बांध, मगर
वह जानता है कि उसके रोने से
टूट सकती हैं कई सारी उम्मीदें
धराशायी हो सकते हैं सपनों के महल
फिर वह नहीं कर पाता है साहस
उन सपनों को तोड़ पाने का
जिन्हें देखने में लगी हैं कई जोड़ी आँखें
और कितनी ही रातें
वह नहीं व्यक्त कर पाता
कभी-कभी अपनी थकान भी
क्योंकि दिनभर काम की
जद्दोजहद के बाद भी, उससे
रहती हैं कई अपेक्षाएं और आशायें
बहुत ही मुश्किल लगता है उसे
उन्हें नजरअंदाज कर पाना
फिर, वह बिखेरता अपने चेहरे पर
एक बनावटी और सजावटी मुस्कान
ताकि, उसकी थकावट देखकर
थक न जायें कितनी ही उम्मीदें

            (कृष्णधर शर्मा 9.3.2019)

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