गुरुवार, 10 फ़रवरी 2022

विभाजित सवेरा - मनु शर्मा

 स्वराज के पहले हमने कैसे-कैसे सपने देखे थे, कैसी-कैसी कल्पनाएँ की थीं। जैसे परी देश का जल मिल जाएगा, जिसे छिड़कते ही सारा दुःख-दारिद्रय दूर हो जाएगा, किसी प्रकार का अभाव नहीं रहेगा। ट्रेनों में यात्रा करने के लिए टिकट नहीं लेना पड़ेगा, क्योंकि ट्रेनें तो अपनी हो जाएँगी। न कोई पेट भूखा रहेगा और न कोई खेत सूखा। गाँव की बूढ़ी रमदेई काकी तो अजीब 'खयाली पुलाव' पकाती थी—'कोठिला अनाज रही, पूरन हर काज रही। सोरह रुपया क नथ रही, झुलनी झुलत रही।'

 हमें क्या मालूम था कि सपने ही सपने रह जाएँगे, हमें क्या मालूम था कि आजादी के पहले जैसा था वैसा ही रह जाएगा। वैसे ही सग्गड़वाले सग्गड़ खींचते रहेंगे और रिक्शेवाले रिक्शे। वैसे ही सुमेर चाचा दिन भर 'नून, तेल, लकड़ी' बेचता रहेगा। पीपा वैसे ही सीढ़ी कंधे पर लेकर और मिट्टी के तेल का कनस्तर हाथ में लटकाए गली के सरकारी लैंपों को शाम को जलाता और सुबह बुझाता रहेगा। 

अगर कुछ बदलेगा तो केवल सरकारें, यदि बदलेंगे तो छोटे सरकार और लाला जगजीवन लाल ऐसे अमन सभाई लोगों के चेहरों के मुखौटे। उनके सिरों पर गांधी टोपियाँ सवार हो जाएँगी। पहले वे 'लॉन्ग लिव द किंग' बोलते थे, अब गांधी- जवाहर " की जय बोलने लगेंगे। (विभाजित सवेरा - मनु शर्मा)



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