मंगलवार, 22 मार्च 2011

इस सत्याग्रह से कौन पिघला?

पिछले एक दशक से मणिपुर घाटी की एक युवा महिला का अनशन जारी है। पुलिस और डॉक्टर प्लास्टिक ट्यूब  के जरिए भोजन देकर उन्हें जीवित रखे हुए हैं। इन दस सालों का बड़ा हिस्सा उन्होंने अस्पताल में पुलिस के कड़े पहरे के बीच बिताया है। एक दुर्लभ साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकारा कि अस्पताल में अगर उन्हें किसी चीज की सबसे ज्यादा कमी खलती है तो वह है अपने लोगों का साथ। बीते एक दशक से उन्होंने अपनी मां का चेहरा नहीं देखा है। उन्होंने अपनी निरक्षर मां के साथ यह अनुबंध कर लिया है कि जब तक वे अपने राजनीतिक लक्ष्यों को अर्जित नहीं कर लेतीं, तब तक एक-दूसरे से भेंट नहीं करेंगी।

इरोम शर्मिला की जिद यह है कि जब तक भारत सरकार मणिपुर से आम्र्ड फोर्सेस (स्पेशल पॉवर्स) एक्ट 1958 (एएफएसपीए) को वापस नहीं लेती, तब तक वे अपना अनशन जारी रखेंगी। पुलिस बार-बार उन्हें आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लेती है, जिसके लिए अधिकतम सजा एक साल की कैद है। हर बार रिहाई के फौरन बाद उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया जाता है। अहिंसक राजनीतिक प्रतिरोध की ऐसी मिसाल दुनियाभर में कोई और नहीं है। इरोम शर्मिला एक ऐसे कानून को वापस लेने की मांग कर रही हैं, जो उनके अनुसार वर्दीधारियों को बिना किसी सजा के भय के बलात्कार, अपहरण और हत्या करने के अधिकार मुहैया करा देता है। वर्ष 1958 में यह कानून इस लक्ष्य के साथ लागू किया गया था कि नगालैंड में सशस्त्र विद्रोहों का प्रभावी सामना करने के लिए भारतीय सशस्त्र बलों को अधिक शक्तियां प्रदान की जा सकें। 1980 में यह कानून मणिपुर में भी लागू हो गया।

1 नवंबर 2000 को असम रायफल्स अर्धसैन्य बल ने मणिपुर घाटी के मालोम कस्बे में बस की प्रतीक्षा कर रहे दस निर्दोष नागरिकों को गोलियों से भून डाला। इनमें एक किशोर लड़का और एक बूढ़ी महिला भी थी। हादसे की दर्दनाक तस्वीरें अगले दिन अखबारों में छपीं। 28 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार और कवयित्री इरोम शर्मिला ने भी ये तस्वीरें देखीं। असम रायफल्स ने अपने बचाव में तर्क दिया कि आत्मरक्षा के प्रयास में क्रॉस फायर के दौरान ये नागरिक मारे गए, लेकिन आक्रोशित नागरिक स्वतंत्र न्यायिक जांच की मांग कर रहे थे। इसकी अनुमति नहीं दी गई, क्योंकि असम रायफल्स को एएफएसपीए के तहत ओपन फायर के अधिकार प्राप्त थे। शर्मिला ने शपथ ली कि वे इस कानून के अत्याचार से अपने लोगों को मुक्त कराने के लिए संघर्ष करेंगी। उनके सामने अनशन के अलावा और कोई चारा नहीं था। उन्होंने अपनी मां का आशीर्वाद लिया और 4 नवंबर 2000 को अनशन की शुरुआत की। एक दशक बीतने के बाद भी कानून यथावत है और शर्मिला का अभियान भी जारी है।

इस दौरान एक बार रिहाई की क्षणिक अवधि में वे दिल्ली पहुंचने में सफल रहीं। उन्होंने अपने आदर्श महात्मा गांधी की समाधि पर आदरांजलि अर्पित की, लेकिन जल्द ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। दिल्ली के एक अस्पताल में कुछ समय बिताने के बाद उन्हें फिर इम्फाल के हाई सिक्योरिटी अस्पताल वार्ड में भेज दिया गया, जहां वे अब भी हैं। महात्मा गांधी का विश्वास था कि अहिंसक सत्याग्रह के जरिए अत्याचारियों के मन में संवेदनाएं जगाई जा सकती हैं, लेकिन बीते एक दशक में ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता कि इस युवा महिला के सत्याग्रह ने भारतीय राजनीतिक तंत्र की संवेदनाओं को झकझोरा हो। वर्ष 2004 में भारत सरकार ने इस बात की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया कि मानवाधिकारों की रक्षा के लिए क्या इस कानून में संशोधन की आवश्यकता है या उसे समाप्त कर दिया जाना चाहिए। 2005 में आयोग ने अनुशंसा की कि कानून को समाप्त कर दिया जाना चाहिए और इसके कई प्रावधानों को अन्य कानूनों में समायोजित कर लिया जाना चाहिए, लेकिन सरकार ने आयोग की इस अनुशंसा की अनदेखी कर दी।

शर्मिला द्वारा अनशन प्रारंभ किए जाने के बाद घाटी की कई महिलाओं ने अहिंसक प्रतिरोध के कई अन्य स्वरूप ईजाद किए। वर्ष 2004 में राजनीतिक कार्यकर्ता थंगियम मनोरमा के साथ किए गए सामूहिक बलात्कार और फिर उनकी नृशंस हत्या ने पूरे देश को झकझोर दिया। घाटी में जनाक्रोश चरम पर पहुंच गया। मणिपुरी महिलाएं असम रायफल्स के मुख्यालय कांगला फोर्ट के द्वार पर एकत्र हुईं और निर्वस्त्र होकर विरोध प्रदर्शन किया। प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली एक महिला तुनुरी ने बताया यह दृश्य देखकर सैनिक शर्मसार होकर फोर्ट में लौट गए। निर्वस्त्र महिलाएं आधे घंटे तक विरोध प्रदर्शन करती रहीं। अगले दिन इस प्रदर्शन के समाचारों ने पूरे देश का ध्यान मणिपुर की स्थितियों की ओर खींचा। सरकार ने असम रायफल्स को ऐतिहासिक कांगला फोर्ट खाली कर देने का आदेश दिया। रायफल्स के मुख्यालय को घाटी के दूरस्थ क्षेत्रों में स्थापित कर दिया गया और न्यायिक जांच के आदेश दिए गए। लेकिन असम रायफल्स ने मनोरमा के साथ किए गए बलात्कार और उसकी नृशंस हत्या को एक तरह से उचित ठहराते हुए बयान जारी किया कि वह पीपुल्स लिबरेशन आर्मी की एक आतंकवादी थी।

वर्ष 2008 के बाद से रोज लगभग सात से दस महिलाएं इरोम शर्मिला के साथ एक दिन का उपवास कर रही हैं। इम्फाल में मेरी भेंट इन प्रदर्शनकारी महिलाओं से हुई। वे अपने परिजनों से दूर रहकर शिविरों में जीवन बिताते हुए अपनी नायिका शर्मिला के आंदोलन को जारी रखे हुए हैं। इरोम शर्मिला के अनशन और कारावास के दस वर्ष पूरे होने पर देशभर से सामाजिक कार्यकर्ता और कलाकार इम्फाल में एकजुट हुए। यहां हमने कविता, गीत, नृत्य और चित्रकला की अद्भुत प्रस्तुतियां देखीं, जो मणिपुर के लोगों के आंदोलन की नायिका इरोम शर्मिला के प्रति आदरांजलि थी।

इम्फाल में अपने अस्पताल के वार्ड से इरोम शर्मिला लिखती हैं : मेरे पैरों को मुक्त कर दो उन बंधनों से/जो कांटों की बेड़ियों की तरह हैं/एक तंग कोठरी के भीतर/कैद हैं मेरे तमाम दोष और अवगुण/और मैं/एक पक्षी की तरह..

हर्ष मंदर
लेखक राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य हैं।
[साभार- भास्कर.कॉम]

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