गुरुवार, 28 जुलाई 2011
नेताजी का भाषण
बासी खाने का पुण्य
कल खन्ना जी के यहां शानदार पार्टी थी, जिसमें शहर के जाने-माने लोग शामिल हुये. पार्टी में देशी-विदेशी व्यंजनों की भरमार थी जिसका पार्टी में आये हुये मेहमानों ने जमकर आनंद उठाया. पार्टी के दूसरे दिन सुबह नौकर ने आकर मिसेज खन्ना से पूछा 'मैडम कल की पार्टी का बहुत सारा खाना बचा हुआ है, उसका क्या करें'? वहीं पर खन्नाजी भी खड़े थे वह नौकर से बोले 'अरे कल का बासी खाना किस काम का ! अब तक तो पूरी तरह खराब हो चुका होगा, उसे नगर निगम के कूड़ादान में डलवा दो '. तभी मिसेज खन्ना ने टोकते हुये कहा 'रूको मेरे दिमाग में एक आइडिया आया है, खाना अभी पूरी तरह से खराब नहीं हुआ होगा ऐसा करते हैं, पास में ही एक मंदिर है जहां पर भिखारियों की भारी भीड़ लगती है वहीं पर ले जाकर सारा खाना हमारे नाम से बंटवा देते हैं. इस तरह से खाना भी बर्बाद नहीं होगा और हमारा नाम भी हो जायेगा और एक बात और है भिखारियों को खिलाने से हमें पुण्य भी मिलेगा. है ना कमाल का आइडिया मेरा! यह सुनकर खन्नाजी और नौकर भी मिसेज खन्ना की बुद्धिमत्ता पर चकित रह गये कि मिसेज खन्ना ने कैसे एक तीर से कई निशाने लगा लिये थे! ....(कृष्ण धर शर्मा,2005)
मंगलवार, 26 जुलाई 2011
माउंट आबू
समुद्र तल से 1220मीटर की ऊंचाई पर स्थित माउंट आबू राजस्थान का एकमात्र हिल स्टेशन है। नीलगिरी की पहाड़ियों पर बसे माउंट आबू की भौगोलिक स्थित और वातावरण राजस्थान के अन्य शहरों से भिन्न व मनोरम है। यह स्थान राज्य के अन्य हिस्सों की तरह गर्म नहीं है। माउंट आबू हिन्दु और जैन धर्म का प्रमुख तीर्थस्थल है। यहां का ऐतिहासिक मंदिर और प्राकृतिक खूबसूरती सैलानियों को अपनी ओर खींचती है।
माउंट आबू प्राचीन काल से ही साधु संतों का निवास स्थान रहा है। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिन्दु धर्म के तैंतीस करोड़ देवी देवता इस पवित्र पर्वत पर भ्रमण करते हैं। कहा जाता है कि महान संत वशिष्ठ ने पृथ्वी से असुरों के विनाश के लिए यहां यज्ञ का आयोजन किया था। जैन धर्म के चौबीसवें र्तीथकर भगवान महावीर भी यहां आए थे। उसके बाद से माउंट आबू जैन अनुयायियों के लिए एक पवित्र और पूज्यनीय तीर्थस्थल बना हुआ है।
दिलवाड़ा जैन मंदिर-इन मंदिरों का निर्माण ग्यारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के बीच हुआ था। यह शानदार मंदिर जैन धर्म के र्तीथकरों को समर्पित हैं। दिलवाड़ा के मंदिरों में विमल वासाही मंदिर प्रथम र्तीथकर को समर्पित
सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई.में बना था। बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित लुन वासाही मंदिर भी काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर 1231ई.में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा बनवाया गया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में पांच मंदिर संगमरमर का हैं। मंदिरों के लगभग 48स्तम्भों में नृत्यांगनाओं की आकृतियां बनी हुई हैं। दिलवाड़ा के मंदिर और मूर्तियां मंदिर निर्माण कला का उत्तम उदाहरण हैं।
सर्वाधिक प्राचीन है जो 1031 ई.में बना था। बाईसवें र्तीथकर नेमीनाथ को समर्पित लुन वासाही मंदिर भी काफी लोकप्रिय है। यह मंदिर 1231ई.में वास्तुपाल और तेजपाल नामक दो भाईयों द्वारा बनवाया गया था। दिलवाड़ा जैन मंदिर परिसर में पांच मंदिर संगमरमर का हैं। मंदिरों के लगभग 48स्तम्भों में नृत्यांगनाओं की आकृतियां बनी हुई हैं। दिलवाड़ा के मंदिर और मूर्तियां मंदिर निर्माण कला का उत्तम उदाहरण हैं।
नक्की झील-नक्की झील माउंट आबू का एक बेहतरीन पिकनीक स्थल है। कहा जाता है कि एक हिन्दु देवता ने अपने नाखूनों से खोदकर यह झील बनाई थी। इसीलिए इसे नक्की (नख या नाखून)नाम से जाना जाता है। झील से चारों ओर के पहाड़ियों का नजारा बेहद सुंदर दिखता है। इस झील में नौकायन का भी आनंद लिया जा सकता है।
सनसेट प्वाइंट-नक्की झील के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सनसेट प्वांइट से डूबते हुए सूरज की खूबसूरती को देखा जा सकता है। यहां से दूर तक फैले हरे भरे मैदानों के दृश्य आंखों को सुकून पहुंचाते हैं। सूर्यास्त के समय आसमान के बदलते रंगों की छटा देखने सैकड़ों पर्यटक यहां आते हैं।
माउंट आबू वन्यजीव अभ्यारण्य-यह अभ्यारण्य मांउट आबू का प्रसिद्ध पर्यटक स्थल है। यहां मुख्य रूप से तेंदुए, स्लोथबियर,वाइल्ड बोर,सांभर,चिंकारा और लंगूर पाए जाते हैं। 288वर्ग किमी.में फैले इस अभ्यारण्य की स्थापना 1960में की गई थी। यहां पक्षियों की लगभग 250और पौधों की 110से ज्यादा प्रजातियां देखी जा सकती हैं। पक्षियों में रुचि रखने वालों के लिए उपयुक्त जगह है।
अचलगढ़ किला व मंदिर-दिलवाड़ा के मंदिरों से 8किमी.उत्तर पूर्व में यह किला और मंदिर स्थित हैं। अचलगढ़ किला मेवाड़ के राजा राणा कुंभ ने एक पहाड़ी के ऊपर बनवाया था। पहाड़ी के तल पर 15वीं शताब्दी में बना अचलेश्वर मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। कहा जाता है कि यहां भगवान शिव के पैरों के निशान हैं। नजदीक ही 16वीं शताब्दी में बने काशीनाथ जैन मंदिर भी हैं।
गुरु शिखर-माउंट आबू से 15किमी.दूर गुरु शिखर अरावली पर्वत श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी है। पर्वत की चोटी पर बने इस मंदिर की शांति दिल को छू लेती है। मंदिर की इमारत सफेद रंग की है। यह मंदिर भगवान विष्णु के अवतार दत्तात्रेय को समर्पित है। मंदिर से कुछ ही दूरी पर पीतल की घंटी है जो माउंट आबू को देख रहे संतरी का आभास कराती है। गुरु शिखर से नीचे का दृश्य बहुत की सुंदर दिखाई पड़ता है।
राज्य-राजस्थान
जिला-सिरोही क्षेत्रफल-25वर्ग किमी.
समुद्र तल से ऊंचाई-1220मी.
वर्षा- 153से 177सेंमी.
भाषा-गुजराती,हिंदी और अंग्रेजी
कब जाएं-फरवरी से जून और सितंबर से दिसंबर
पर्यटक कार्यालय
राजस्थान पर्यटन
टूरिस्ट रिसेप्शन सेंटर
बस स्टैंड के सामने,माउंट आबू
दूरभाष-02974-235151एसटीडी कोड-02974
शुक्रवार, 22 जुलाई 2011
विज्ञान कथाएं
विज्ञान कथा क्या है?
विज्ञान कथा लेखक आइजक आसिमोव ने अपनी पुस्तक ´आरिमोस ऑन साइंस फिक्शन` में विज्ञान कथा की परिभाषा करते हुए लिखा है, ´विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सम्भावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है।` आसिमोव ने हर राजनेता, व्यवसायी और नागरिक को ´विज्ञान कथा की दृष्टि` से सोचने की सलाह दी है।
विज्ञान लेखक डा. शिवगोपाल मिश्र, विज्ञान मासिक के विज्ञान कथा विशेषांक (नवम्बर 1984-जनवरी १९८५) में लिखते हैं, ´विज्ञान कथा इतना व्यापक शब्द है कि उसमें उपन्यास कथा कहानी दोनों का समावेश हो सकता है। विज्ञान गल्प तो साइंस फिक्शन का पर्याय हो सकता है, किन्तु जब हम विज्ञान कथा का प्रयोग करते हैं, तो उसमें छोटी कहानी बड़ी कहानी, गल्प, उपन्यास सभी आते हैं। आज विज्ञान लेखन में कहानी का प्रयोग एक तो वस्तुत: कथा के लिए होता है तथा दूसरा धातु की कहानी, आविष्कारों की कहानी, आदि के लिए होता है। नि:संदेह यहां पर कहानी का प्रयोग धातु, आविष्कार, आदि के विषय में जानकारी प्रस्तुत करने के लिए है, कथा तत्वों से युक्त कहानी के लिए नहीं`।
विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में छोटी कहानियों केलिए आमतौर पर कथा तथा लम्बी कहानी के लिए उपन्यास का प्रयोग किया जाता है। नॉवेल के लिए उपन्यास का प्रयोग बंगला में 1858 से होने लगा था, सम्भवत: वहीं से इसे हिन्दी में लिया गया। प्रेमचन्द युग (1918) से पहले हिन्दी में दो तरहह के उपन्यास लिखे जाते थे, एक तो सामाजिक जागरण और दूसरे, तिलिस्म, रहस्य, रोमांच, साहस और मनोरंजन सम्बंधी होते थे। समझा जाता है कि तिलिस्म उपन्यासों से ही हिन्दी में वैज्ञानिक उपन्यासों की विधा का जन्म हुआ।
हिन्दी में प्रमुख विज्ञान कथाएं और उपन्यास
हिन्दी विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में विज्ञान कथा एक प्रभावशाली तथा रोचक विधा है, लेकिन आज भी वह उतनी विकसित नहीं हो पाई है, जितनी कि आज बीसवीं शताब्दी के अंतिम एक दशक तक हो जानी चाहिए थी। वस्तुत: यदि माना जाए तो 1888 में ही हिन्दी वैज्ञानिक उपन्यासों की शुरूआत हो गई थी, जब देवकी नन्दन खत्री ने ´चन्द्रकांता` लिखा था। इसके बाद उन्होंने तिलिस्म विषयक चंद्रकांता संतति, 24 भाग (1896, नरेन्द्र मोहिनी (1892), वीरेन्द्र वीर (1895), कुसुम कुमारी (1899), काजर की कोठरी (1902), अनूठी बेगम (1905) तथा भूतनाथ (अधूरा 1906), आदि लिखे।
तत्पश्चात् हरेकृष्ण जौहर ने भी तिलिस्मी लेखन में अपना नाम जोड़ा। किशोरी लाल गोस्वामी का तिलिस्मी शीशमहल (1905) इसी परम्परा का उपन्यास है। आगे देवकीनन्दन खत्री के पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने वैज्ञानिक आविष्कारों के आधार पर रहस्य की सृष्टि करते हुए प्रतिशोध (1925), लालपंजा (1925), रक्त मंडल (1926), आदि उपन्यास लिखे। उनके अन्य वैज्ञानिक उपन्यास हैं- सुफेद शैतान, सुवर्ण रेखा, स्वर्गपरी, सागर सम्राट, साकेत, काला चोर, बलिदान, कलंक कालिमा, संसार चक्र, माया तथा आकृति विज्ञान। इन सभी में विज्ञान सम्बंधी विभिन्न बातों का रोचक समावेश मिलता है।
आधुनिक विज्ञान उपन्यास की शुरूआत 1953 से हुई जब डा. सम्पूर्णानन्द ने ´पृथ्वी से सप्तिर्ष मण्डल` नामक लघु उपन्यास लिखा। उन्होंने लिखा है, ´हिन्दी में वैज्ञानिक कहानी लिखने का चलन अभी नहीं है और हिन्दी वांड़मय में यह बड़ी कमी है`। 1956 में एक बड़ा वैज्ञानिक उपन्यास, डा. ओम प्रकाश शर्मा ने प्रस्तुत किया, नाम था मंगल यात्रा। समीक्षकों ने लिखा है कि नि:संदेह यह हिन्दी में पहला वैज्ञानिक उपन्यास है, जो विदेशी लेखकों की टक्करी का है। उन्होंने जीवन और मानव, पांच यमदूत और समय के स्वामी, आदि उपन्यास लिखे हैं। यहां आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ´खग्रास` तथा राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास विस्मृति के गर्भ में उल्लेखनीय हैं। आरम्भ में विज्ञान कथा लेखन में जगपति चतुर्वेदी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सरस्वती के जुलाई 1900 अंक में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ´चन्द्र लोक की यात्रा` तथा 1908 के एक अंक में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ´आश्चर्यजनक घंटी` प्रकाशित होने का उल्लेख है। विशाल भारत में श्रीराम शर्मा और बनारसीदास चतुर्वेदी की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुइ। 1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की फाइव वीक्स इन ए बैलून का ´बैलून विहार` नामक अनुवाद किया। 1991 में जूल्स वर्न की ए जर्नी टु द इंटीरियन ऑव अर्थ का हिन्दी रूपांतर भूगर्भ की सैर छपा। 1930 के आसपास सरस्वती और विशाल भारत में डा. नवल बिहारी मिश्र, डा. ब्रजमोहन गुप्त और यमुनादत्त वैष्णव ´अशोक` की विथान कथाएं प्रकाशित हुइ।
सन् 1949 में अशोक जी ने विशाल भारत में आंख प्रतिरोपण पर चक्षुदान उपन्यास धारावाहिक लिखा। 1947 में उनका संग्रह अस्थिपिंजर छपा, जिसमें वैज्ञानिक की पत्नी, दो रेखाएं तथा अस्थिपिंजर नामक तीन कथाएं शामिल थीं। उनका दूसरा संग्रह है अप्सरा का सम्मोहन। इसमें वैज्ञिनिक का निमंत्रण, अप्सरा का सम्मोहन, न्यूटनिया का यात्री, अपना प्रतिरूप, आदि कहानियां हैं। उनके वैज्ञानिक उपन्यास हैं- अन्न का आविष्कार (1956), अपराधी वैज्ञानिक (1968), हिम सुन्दरी (1971)।
हिन्दी विज्ञान कथाओं में चिकित्सक डा. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा। उन्होंने सरस्वती और विशाल भारत में विज्ञान कथा लिखीं। 1960 के दशक में उन्होंने विज्ञान लोक तथा विज्ञान जगत में नियमित कथाएं लिखीं। उनका उपन्यास अपराध का पुरस्कार 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ। उनके प्रमुख कथा संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य (1970)। उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु, आदि।
सन् 1950 में विष्णु दत्त शर्मा ने प्रतिध्वनि तथा आकर्षण, आदि कथाएं लिखीं। रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं। 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युजयी प्रकाशित हुआ। इसमें 9 कहानियां हैं- पूर्वजों की खोज, मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया, मशीनों का मसीहा, असफल विश्वामित्र, आदि। उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिन्दी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया।
डा. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय कथाएं लिखी हैं। प्रमुख हैं- प्रयोगशाला में उगते प्राण (ज्ञानोदया 1967), हरा मानव (1981), हंसोड़ जीन (विज्ञान प्रगति, 1984), आदि। पिछले दिनों उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, मनीला (फीजी) में रहकर, धान के बारे में रोचक जानकारी देने वाली एक यथार्थपरक विज्ञान कथा लिखी है, नाम है- धान की कहानी। जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। प्रेमानंद चंदोला की विज्ञान कथाएं, चीखती टप-टप और खामोश आहट में संग्रहीत हैं। उनकी कहानियां वनस्पति मानव और घर का जासूस विज्ञान प्रगति में तथा सच्चाई का पेंडुलम, विज्ञान में छपीं। राजेश्वर गंगवार ने शीशियों में बंद दिमाग, केसर ग्रह, साढ़े सैंतीस वर्ष, सप्तबाहु आदि कथाएं लिखीं।
श्री देवेन्द्र मेवाड़ी की वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी। उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ´भविष्य` नामक कथा लिखी। उनकी अन्य कहानियां हैं- गुड बाय मिस्टर खन्ना (1985) तथा एक और युद्ध। अरविन्द मिश्र की कहानियां, गुरु दक्षिणा (अमृत प्रभात, 1985), मिस रोबिनो, एक और क्रौंच वध (धर्मयुग 1989), देहदान (जनसत्ता, अगस्त 1989) छपीं। चांद का मुन्ना (आनन्द प्रकाश जैन), हरे जीवों के चंगुल में (राममूर्ति), काल भैरव का कोप (मनोहर लाल वर्मा), रोबो मेरा दोस्त (शुकदेव प्रसाद), आदि कथाएं भी उल्लेखनीय हैं। लेखक ने भी ज्ञान का तबादला (वैज्ञानिक, जुलाई-सितम्बर 1986), वैज्ञानिक पत्नी की मुसीबत (जिज्ञासा, जुलाई-दिसम्बर 1988), डाल-डाल : पात-पात, रोबोटों की दुनियां, प्रदूषण महात्म्य (वैज्ञानिक, जनवरी-मार्च 1982), वरदान (विज्ञान, नवम्बर 84-85), आदि विज्ञान कथाएं लिखीं।
समयानुसार अनेक विज्ञान कथाओं और उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए। प्रमुख कहानी पत्रिका सारिका ने सितम्बर 1985 अंक में अनेक हिन्दी कथाओं के साथ ही अरुण साधु लिखित ´विस्फोटक` (मराठी) और मोहन संजीवन लिखित ´मैं मरना चाहता हूं (तमिल) के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे। रासेल कासेन के उपन्यास द साइलेंट स्प्रिंग का प्रेमानन्द चंदोला द्वारा किया गया अनुवाद, नवनीत में छपा। गुणाकार मुले ने आसिमोव का ´शिशु का रोबोट` तथा विक्टोर कोमारोव का ´दूसरी धरती` तथा रमेश दत्त शर्मा ने गोर विडाल के ´क्षुद्रग्रह` उपन्यासों का हिन्दी रूपांतर किया।
बंगला से सत्यजित राय की 13 विज्ञान कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया गया है। समीर गांगुली का बाल वैज्ञानिक उपन्यास जेड जुइंग की डायरी मेला पत्रिका में, समरजित कर की कहानी एक यंत्र की खातिर (धर्मयुग 1984), डा. जयंत विष्णु नार्लीकर की अक्स, धूमकेतु (धर्मयुग), अरुण साधु की एक आदमी के उड़ने की कहानी (धर्मयुग 1988) में प्रकाशित हुइ। डा. बाल फोंडके की कहानियां, तख्ती टूट गई और अनोखा खून पराग में तथा अन्य कहानियां विज्ञान प्रगति में छपी हैं। दिलीप साल्वी की अंग्रेजी कहानियों के हिन्दी अनुवाद भी पराग मं रोबोट चालाक होते जा रहे हैं, रोबोट डींगमार होते हैं, नामक शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुई हैं। प्रख्यात विज्ञान कथाकार डा. जयंतु विष्णु नार्लीकर की बहुत ही रोचक और रोमांचक विज्ञान कथा अंतरिक्षमें विस्फोट धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुई।
क्रमश: हिन्दी विज्ञान कथा व उपन्यास लेखन में छुटपुट स्वैच्छिक प्रयास होते रहे। फलस्वरूप प्रो. दिवाकर के उड़न तश्तरी, नक्षत्रों का युद्ध, अंतरिक्ष के पार, आदिऋ डा. हरिकृष्ण देवसरे का लावेनी, सत्येन्द्र शरद का प्रोफेसर सारंग, आदि उपन्यास सामने आए। कुछ विदेशी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद भी किया गया।
इसके बाद ऐसा नहीं हुआ कि विज्ञान कथाओं की बाढ़ आ गई हो, उसी पूर्वगति से यह सिलसिला जारी रहा। अनेक सामान्य पत्रिकाओं ने भी विज्ञान कथाएं निकालनी शुरू कीं। कुछ पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा विशेषांक भी निकाले, इनमें प्रमुख हैं, नन्दन (1969), पराग (दिसम्बर 1975), विज्ञान प्रगति (जनवरी 1978), धर्मयुग (6 अप्रैल 1980), मेला (25 फरवरी 1981), विज्ञान (नवम्बर 84-जनवरी 1985)। बाल पत्रिका सुमन सौरभ ने फरवरी 1993 में आविष्कार कथा विशेषांक निकाला। माना जाता है कि वस्तुत: भारत में प्राचीन काल में विज्ञान का ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था, लेकिन अनेक संस्कृतियों में उतार चढ़ाव और सामाजिक उथल पुथल के कारण उसके कुछ अवशेष ही रह गए। पुराणों, उपनिषदों, आदि ग्रंथों में विज्ञान के ऐसे पहलुओं पर कथाएं उपलब्ध हैं, जिनको आज आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है। इन ग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का तो वर्णन है, पर चमत्कार की तकनीकों के बारे में वे प्राय: मौन हैं। शायद इसीलिए इन गं्रथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सीधे स्वीकार नहीं की जा सकी।
इनमें इन्द्र के वज्र, शिव के पाशुपत, विष्णु के नारायणशास्त्र, ब्रह्मा के ब्रह्मास्त्र, आदि विनाशकारी अस्त्रों का वर्णन है। ब्रह्मास्त्र के बारे में महाभारत में जो वर्णन किया गया है वह परमाणु अस्त्रों से काफी समानता रखता है। ब्रह्मास्त्र के बारे में लिखा है, ´इसे चलाने पर हजारों सूर्यों की भांति बिजलियां चमकने लगती थीं, इसके प्रभाव से धूल भरी आंधियां चलती थीं, और यह धूल लम्बे समय तक छाई रहती थी, ब्रह्मास्त्र गिरने वाले स्थान पर अनेक वर्षों तक खेती नहीं होती थी।` एक अन्य कथा में भगवान शंकर के पुत्र गणेश का सिर कट जाने के बाद उनके शरीर में नवजात हाथी का सिर प्रत्यारोपित का वर्णन है। कौरवों के जन्म की कथा भी विचित्र है, ये 100 पुत्र माता गंधारी के गर्भ से भ्रूण निकाल कर उसे विभक्त करके 100 अलग अलग घड़ों में विकसित किए जाने का वर्णन है, जिसे आज परखनली शिशु तकनीक ने सम्भव कर दिया है। इसी प्रकार रक्तबीज से पूर्ण शरीर बनने की कहानी की तुलना क्योलिंग से की जा सकती है।
प्राचीन भारतीय साहित्य इस तरह के आधुनिक विज्ञान से काफी कुछ समान्ता रखने वाले प्रकरणों से भरा पड़ा है। इसीलिए प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सागान ने लिखा है, कि मिथक में विज्ञान ढूंढ़ना हो तो भारत के पुराणों को पढ़ना चाहिए। यह प्राय: निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि हिन्दी में आधुनिक विज्ञान कथाएं, पश्चिमी अंग्रेजी विज्ञान कथाओं से प्रभावित रहीं, तथापि भारतीय पुराणों में विर्णत कथाओं का भी हिन्दी विज्ञान कथाओं पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता।
विश्व विज्ञान कथाएं
उन्नीसवीं सदी के आरंभ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के मध्यकाल में दुनिया भर में अनेक विज्ञान कथाएं लिखीं गइ±, जिन्होंने न केवल भविष्य केविज्ञान को परिलक्षित किया बल्कि समाज के वैज्ञानिक विकास को नियोजित दिशा भी दी। एडगर एलन पो (1809-1849) ने अमेरिका में विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत की। जासूसी उपन्यासों के प्रणेता अंग्रेजी लेखक सर आर्थर कानन डायल (1859-1930) के उपन्यासों का प्रभाव आधुनिक विज्ञान कथाओं पर पड़ा। ऐसे प्रमाण मिलते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल में यूरोपीय देशों में विज्ञान कथाएं चरमोत्कर्ष पर थीं।
सन् 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान कथा लेखन आरंभ हुआ। आगे 1898 में प्रसि( विज्ञान कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसि( विज्ञान उपन्यास ´द वार ऑव द वल्र्डस` छपा, वेल्स ने ही ´द टाइम मशीन` और ´द इनविजिविल मैन` लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचाई। जार्ज आरबेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ´1984` सन् 1949 में प्रकाशित हुआ। इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी रूपांतर हिन्दी पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, अनुवादक हैं, राधानाथ चतुर्वेदी। जूल्स वर्न (1829-1905) के ´20,000 लीग्स अण्डर सी`, ´जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ` उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसि( हुए। विज्ञान कथाओं में व्यंग्य उपन्यास में आदर्श विश्व समाज की कल्पना की गई है।
जर्मन खगोलविद् केपलर (1571-1630) ने चांद की स्वप्न यात्रा का रोचक वर्णन किया था। वैसे आधुनिक विज्ञान फैंटसी (कल्पना) का जन्म 1705 में डेनियल डेफी के ´द कंसोलिडेटर` के रूप में हुआ। इसमें अंतरिक्ष यात्रा का कथानक लिया गया था। तत्पश्चात् वेल्स के नवआयामी प्रस्तुतीकरण के बाद आर. एल. स्टीवेंसन (1850-1894) के ´द स्टोरी ऑव डा. जेकिल एंड मि. हाइड` की सराहना हुई। 19वीं सदी के आरंभ में कृत्रिम जीवोत्पत्ति के कथानक पर ´फ्रेंकेस्टीन` लिखा गया, लेखिका थीं- मैरी शेली। एल्डूस हक्सले ने 1932 में परखनली शिशु पर उपन्यास लिखा। आणुविक जीव विज्ञान पर डेविड शेरविक के ´वार्न इन हिज ओन इमेज`, ´क्लोनिंग ऑव द मैन` प्रसि( हैं। kaarsen की कृति ´द साइलेंट स्प्रिंग तथा डेविड शील्तजर की ´द प्रोफेसी` प्रदूषण पर लिखी गई हैं।
सांपों के जीवन पर ´द स्नेक` 1978 में जौन गोडी ने लिखी। आधुनिक युग के प्रसि( विज्ञान कथाकार हैं- रे ब्रैडवरी, पाल एण्डरसन, यूरी लीन्स्टर, राबर्ट हीनलेन, जॉन क्रिस्टोफर, आदि। प्रगति प्रकाशन रूप से 1979 में अंग्रेजी में एक विज्ञान कथा संग्रह निकाला है, शीर्षक है ´साइंस फिक्शन- इंग्लिश एंड अमेरिकन जोत हालडमैन, फ्रेड्रिक पोल, श्रीलंका के आर्थर सी क्लार्क, आयर लैंड के हैरी हैरिसन, आदि शामिल हैं, जिन्होंने अधिकतर अंतरिक्ष, समय यात्रा और ऐसी ही विधाओं पर कथाएं लिखीं।
सोवियत रूप में भी विज्ञान कथा लेखन काफी विकसित है। रूसी विज्ञान लेखन में एक समर्पित नाम है- एलेक्जेंडर वेलियेव, जिन्होंने पूरा जीवन इसी कार्य में लगाया। वेलियेव की अंतरिक्ष कथाएं- ´द एयरशिप स्टार केट` एवं ´स्काई गेस्ट` प्रसिद्ध हुइ। 1935 मं उन्होंने आणुविक ऊर्जाघर- ´द मिरैकुलस आई` नामक उपन्यास लिखा। रूरी पत्रिका सोवियत लिट्रेचर ने 1984 में विज्ञान कथा विशेषांक प्रकाशित किया। इसकी प्रमुख कहानियां हैं, द डिज़ायर मशीन ( अकार्दि और स्त्रुगात्स्की), ए टोटल मिस्ट्री (ब्लादीमिर शेफनर) बार्न टु फ्लाई (दमित्री बाइलेंकिन), फ्लावर्स ऑव द अर्थ (मिखाइल पुरबोव), आदि। रूसी से अंग्रेजी अनुवादित विज्ञान कथा संकलनों, ´जनी। एक्रास थ्री वल्र्डस` ´एव्रीथिंग बट लव` ´मॉलीकुलर कैफे`, आदि हैं। येरेमेई पार्नोव का ´बिग बैंग लव` और अनाटोली दुनींनीप्राव का ´क्रेब्स वाक ऑन आइलैंड` प्रकाशित हुए। परमाणु विध्वंस विषय को लेकर रूप में अनेक वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गए, जिनकी अमेरिका आलोचकों ने आलोचना की है।
विश्व में विज्ञान कथाओं का काफी भंडार बढ़ता जा रहा है। हिन्दी में भी ऐसे नए नए प्रयोग होते रहने चाहिए। ह्यमगो गन्र्सबैक द्वारा सम्पादित विश्व की प्रथम विज्ञान कथा पत्रिका है ´अमेज़िंग स्टोरीज़।` ह्यूगो गन्र्सबैक विद्युत इंजीनियर थे। उन्होंने 1928 में अमेजिंग स्टोरीज पत्रिका शुरू की थी।
हिन्दी में विज्ञान कथा लेखन
कथा कहानी के जरिये कोई बात आसानी से समझ में आ जाती है और जब बात बच्चों को समझाने की हो तो यह विधा और भी सरल और सहज लगती है। शायद इसीलिए हमारे यहां नीति की बातों को भी कहानी द्वारा समझाने की परम्परा रही है। पंचतंत्र की कथाओं का भी यही उद्देश्य था। इनमें दिए गए उद्धहरण के अनुसार महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अज्ञानी पुत्रों को समझदार बनाने के लिए श्री विष्णु शर्मा ने संस्कृत साहित्य में अमर पंचतंत्र की कथाएं रचीं। आज विज्ञान के दौर में बच्चों को विज्ञान की बातें आसानी से समझाने के लिए विज्ञान कथाओं का सहारा लिया जाने लगा है। विज्ञान कथाएं समाज में न केवल विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों और भविष्य की तस्वीर उभरने में भी उपयोगी हैं। इसलिए यदि हमें समय के साथ चलना है तो अधुनातन विषयों पर सुबोध और रोचक विज्ञान कथाएं लिखनी होंगीं। रूसी विज्ञान कथा लेखक दिमित्री बाइलेंकिन लिखते हैं, ´इसका महत्व नहीं है कि विज्ञान कथाएं मनोरंजन करती हैं या नहीं, महत्व तो इस बात का है कि वे लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है।` दरअसल विज्ञान कथाएं विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस विशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमात निहित है। अत: इसे सीखने सिखाने की तकनीक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने में प्राय: दो खास कठिनाइयां आती हैं, पहली है पृष्ठभूमि सामान्य कहानी में कथानक में प्रयुक्त शब्दों की पृष्ठभूमि नहीं बनानी पड़ती, जैसे, यदि वह रिवाल्वर लिखता है, तो पाठकों के सामने तत्काल रिवाल्वर का दृश्य घूम जाता है, परंतु विज्ञान कथा में ऐसा नहीं है, विज्ञान कथाकार यदि कथा में पातालवाहन नामक काल्पनिक शब्द का प्रयोग करे तो उसे बताना होगा कि पातालवाहन उनकी कल्पना में क्या है, कैसा बना है तथा काम कैसे करता है, तभी पाठक उस कथा को सही अर्थों में हृदयंगम कर सकेगा, अन्यथा नहीं। दूसरी कठिनाई की ओर संकेत करते हुए ऑसिमोव लिखते हैं कि विज्ञान कथा का अधिकांश भाग तो अपरिचित परिवेश से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में ही खर्च हो जाता है, जिसके कारण विज्ञान कथा में पात्रों का चारित्रिक विकास प्राय: सम्भव नहीं हो पाता है। हिन्दी विज्ञान कथा लेखन में इस पर ध्यान दिया जाना नि:संदेह महत्वपूर्ण होगा।
विज्ञान कथाएं प्राय: तीन तरह से लिखी जाती हैं: (1) ऐसी कहानियां जिनमें लेखक की कल्पना, वैज्ञानिक प्रगति का सहारा लेकर आगे बढ़ती है, ऐसे वांगमय में विज्ञान के केवल एक दो तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता हैं (2) ऐसी कहानियां जो वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोचक गाथा मात्र होती हैं, इनमें कहानी बहाना मात्र होती है, असल उद्देश्य विज्ञान का प्रचार होता है। इनमें लेखक उन्हीं बातों की चर्चा करता है जिनको विज्ञान सम्भव मानने लगता हैं (3) ऐसी विज्ञान कथाओं में प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि के कारण सांस्कृतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन की झांकी होती है, आज की समस्याओं के हल के साथ ही जीवन के मूल्य और आदर्श बनाए रखने का आग्रह होता है।
विज्ञान कथाओं में सत्य कथाओं और आत्म कथाओं का लगभग अभाव सा है। हिन्दी में कुछ वैज्ञानिक सत्यकथाएं अप्रैल 1980 के धर्मयुग में छपीं हैं। जिनमें से ´वैज्ञानिकों ने सुलझाई पहेली` प्रमुख है। इसमें एक लड़की को लेकर विवाद था, कि उसके असली माता पिता वे हैं, जिनके पास वह थी, या वे जिन्होंने अपनी पुत्री के अपहरण का दावा किया था। इसका समाधान सीरम वैज्ञानिक परीक्षणों से किया गया। हिन्दी में ऐसी सत्य विज्ञान कथाओं को लोग अधिक पसंद करते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सालिम अली ने अंग्रेजी में ´द फॉल ऑव ए स्पैरो` नामक अपनी आत्मकथा लिखी है, पर हिन्दी में शायद ही किसी वैज्ञानिक ने आत्मकथा लिखने में पहलें की हों।
विज्ञान शिक्षक श्री शचीन्द्र नाथ चक्रवर्ती अपने विद्यार्थियों को विज्ञान, बोलचाल के रूप में समझाते थे, और गृहकार्य के रूप में प्राय: दर्पण और लेंस के बीच एक संवाद जैसी बातें लिखने को देते थे। स्वाभाविक है बच्चों में इस विधा से विज्ञान पढ़ने का शौक चौगुना हो गया था। इसी प्रकार उन्होंने ´धातुओं की सभा` लिखा, जिसका मंचल इलाहाबाद में किया गया। विज्ञान और लेखन की उर्वरा शक्ति को विकसित करने के लिए इस परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने के लिए कोई बना बनाया सटीक फार्मूला तो नहीं है, पर यह उतना कठिन भी नहीं है, जितना कि आम लेखक समझ लेते हैं। वस्तुत: हिन्दी विज्ञान कथा लेखन के आवश्यक तत्व हैं, भाषा पर अधिकार, विज्ञान का ज्ञान, सार्थक कल्पना शक्ति, और उसे रोचकतापूर्वक अभिव्यक्त करने की क्षमता। इन सभी तत्वों की मिली जुली रचना का नाम विज्ञान कथा है।
देश में विज्ञान कथा लेखन प्रकाशन के उन्नयन हेतु ´भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति` का गठन फैजाबाद (उ.प्र.) में किया गया है। समिति ने डा. राजीव रंजन उपाध्याय और डा. अरविन्द मिश्र के सम्पादन में देश की विज्ञान कथाओं को समर्पित पहली पत्रिका ´विज्ञान कथा` आरम्भ की है। इसी प्रकार वेल्लोर में ´इंडियन एसोसिएशन फॉर साइंस फिक्शन स्टडीज` की स्थापना की गई है। हाल ही में ´विज्ञान कथा : पहले, अब और आगे` विषय पर प्रथम राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन राविप्रौसंप द्वारा उक्त संस्थाओं के साथ मिलकर वाराणसी में किया गया। इस अवसर पर एक ´बनारस दस्तावेज` भी जारी किया गया, जो विज्ञान कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद के सम्पादन में विज्ञान कथाओं के इतिहास और विकास का लेखा जोखा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है। इंटरनेट माध्यम का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान कथाओं पर ब्लॉग्स और एक ई-ग्रुप भी चलाया जा रहा है, जिसकी पहल विज्ञान कथा लेखक डा. अरविन्द मिश्र ने की है। हाल ही में एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी के सम्पादन में ´कल्किआन` नामक देश की पहली ई-विज्ञान कथा पत्रिका kalkion.com भी हिन्दी और अंग्रेजी में आरम्भ की गयी है। ये सभी गतिविधियां देश में विज्ञान कथा विधा के उन्नयन के अच्छे संकेत प्रतीत होते हैं।
-- डा. मनोज पटैरिया
निदेशक (वैज्ञानिक ´एफ`)
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, टैक्नॉलोजी भवन, नया महरौली मार्ग, नई दिल्ली-110016
विज्ञान कथा लेखक आइजक आसिमोव ने अपनी पुस्तक ´आरिमोस ऑन साइंस फिक्शन` में विज्ञान कथा की परिभाषा करते हुए लिखा है, ´विज्ञान कथा साहित्य की वह विधा है, जो विज्ञान और प्रौद्योगिकी में सम्भावित परिवर्तनों के प्रति मानवीय प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देती है।` आसिमोव ने हर राजनेता, व्यवसायी और नागरिक को ´विज्ञान कथा की दृष्टि` से सोचने की सलाह दी है।
विज्ञान लेखक डा. शिवगोपाल मिश्र, विज्ञान मासिक के विज्ञान कथा विशेषांक (नवम्बर 1984-जनवरी १९८५) में लिखते हैं, ´विज्ञान कथा इतना व्यापक शब्द है कि उसमें उपन्यास कथा कहानी दोनों का समावेश हो सकता है। विज्ञान गल्प तो साइंस फिक्शन का पर्याय हो सकता है, किन्तु जब हम विज्ञान कथा का प्रयोग करते हैं, तो उसमें छोटी कहानी बड़ी कहानी, गल्प, उपन्यास सभी आते हैं। आज विज्ञान लेखन में कहानी का प्रयोग एक तो वस्तुत: कथा के लिए होता है तथा दूसरा धातु की कहानी, आविष्कारों की कहानी, आदि के लिए होता है। नि:संदेह यहां पर कहानी का प्रयोग धातु, आविष्कार, आदि के विषय में जानकारी प्रस्तुत करने के लिए है, कथा तत्वों से युक्त कहानी के लिए नहीं`।
विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में छोटी कहानियों केलिए आमतौर पर कथा तथा लम्बी कहानी के लिए उपन्यास का प्रयोग किया जाता है। नॉवेल के लिए उपन्यास का प्रयोग बंगला में 1858 से होने लगा था, सम्भवत: वहीं से इसे हिन्दी में लिया गया। प्रेमचन्द युग (1918) से पहले हिन्दी में दो तरहह के उपन्यास लिखे जाते थे, एक तो सामाजिक जागरण और दूसरे, तिलिस्म, रहस्य, रोमांच, साहस और मनोरंजन सम्बंधी होते थे। समझा जाता है कि तिलिस्म उपन्यासों से ही हिन्दी में वैज्ञानिक उपन्यासों की विधा का जन्म हुआ।
हिन्दी में प्रमुख विज्ञान कथाएं और उपन्यास
हिन्दी विज्ञान साहित्य के क्षेत्र में विज्ञान कथा एक प्रभावशाली तथा रोचक विधा है, लेकिन आज भी वह उतनी विकसित नहीं हो पाई है, जितनी कि आज बीसवीं शताब्दी के अंतिम एक दशक तक हो जानी चाहिए थी। वस्तुत: यदि माना जाए तो 1888 में ही हिन्दी वैज्ञानिक उपन्यासों की शुरूआत हो गई थी, जब देवकी नन्दन खत्री ने ´चन्द्रकांता` लिखा था। इसके बाद उन्होंने तिलिस्म विषयक चंद्रकांता संतति, 24 भाग (1896, नरेन्द्र मोहिनी (1892), वीरेन्द्र वीर (1895), कुसुम कुमारी (1899), काजर की कोठरी (1902), अनूठी बेगम (1905) तथा भूतनाथ (अधूरा 1906), आदि लिखे।
तत्पश्चात् हरेकृष्ण जौहर ने भी तिलिस्मी लेखन में अपना नाम जोड़ा। किशोरी लाल गोस्वामी का तिलिस्मी शीशमहल (1905) इसी परम्परा का उपन्यास है। आगे देवकीनन्दन खत्री के पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने वैज्ञानिक आविष्कारों के आधार पर रहस्य की सृष्टि करते हुए प्रतिशोध (1925), लालपंजा (1925), रक्त मंडल (1926), आदि उपन्यास लिखे। उनके अन्य वैज्ञानिक उपन्यास हैं- सुफेद शैतान, सुवर्ण रेखा, स्वर्गपरी, सागर सम्राट, साकेत, काला चोर, बलिदान, कलंक कालिमा, संसार चक्र, माया तथा आकृति विज्ञान। इन सभी में विज्ञान सम्बंधी विभिन्न बातों का रोचक समावेश मिलता है।
आधुनिक विज्ञान उपन्यास की शुरूआत 1953 से हुई जब डा. सम्पूर्णानन्द ने ´पृथ्वी से सप्तिर्ष मण्डल` नामक लघु उपन्यास लिखा। उन्होंने लिखा है, ´हिन्दी में वैज्ञानिक कहानी लिखने का चलन अभी नहीं है और हिन्दी वांड़मय में यह बड़ी कमी है`। 1956 में एक बड़ा वैज्ञानिक उपन्यास, डा. ओम प्रकाश शर्मा ने प्रस्तुत किया, नाम था मंगल यात्रा। समीक्षकों ने लिखा है कि नि:संदेह यह हिन्दी में पहला वैज्ञानिक उपन्यास है, जो विदेशी लेखकों की टक्करी का है। उन्होंने जीवन और मानव, पांच यमदूत और समय के स्वामी, आदि उपन्यास लिखे हैं। यहां आचार्य चतुरसेन का उपन्यास ´खग्रास` तथा राहुल सांकृत्यायन का उपन्यास विस्मृति के गर्भ में उल्लेखनीय हैं। आरम्भ में विज्ञान कथा लेखन में जगपति चतुर्वेदी का नाम विशेष उल्लेखनीय है।
सरस्वती के जुलाई 1900 अंक में केवल प्रसाद सिंह की विज्ञान कथा ´चन्द्र लोक की यात्रा` तथा 1908 के एक अंक में स्वामी सत्यदेव परिव्राजक की कहानी ´आश्चर्यजनक घंटी` प्रकाशित होने का उल्लेख है। विशाल भारत में श्रीराम शर्मा और बनारसीदास चतुर्वेदी की विज्ञान कथाएं प्रकाशित हुइ। 1918 में शिव सहाय चतुर्वेदी ने जूल्स वर्न की फाइव वीक्स इन ए बैलून का ´बैलून विहार` नामक अनुवाद किया। 1991 में जूल्स वर्न की ए जर्नी टु द इंटीरियन ऑव अर्थ का हिन्दी रूपांतर भूगर्भ की सैर छपा। 1930 के आसपास सरस्वती और विशाल भारत में डा. नवल बिहारी मिश्र, डा. ब्रजमोहन गुप्त और यमुनादत्त वैष्णव ´अशोक` की विथान कथाएं प्रकाशित हुइ।
सन् 1949 में अशोक जी ने विशाल भारत में आंख प्रतिरोपण पर चक्षुदान उपन्यास धारावाहिक लिखा। 1947 में उनका संग्रह अस्थिपिंजर छपा, जिसमें वैज्ञानिक की पत्नी, दो रेखाएं तथा अस्थिपिंजर नामक तीन कथाएं शामिल थीं। उनका दूसरा संग्रह है अप्सरा का सम्मोहन। इसमें वैज्ञिनिक का निमंत्रण, अप्सरा का सम्मोहन, न्यूटनिया का यात्री, अपना प्रतिरूप, आदि कहानियां हैं। उनके वैज्ञानिक उपन्यास हैं- अन्न का आविष्कार (1956), अपराधी वैज्ञानिक (1968), हिम सुन्दरी (1971)।
हिन्दी विज्ञान कथाओं में चिकित्सक डा. नवल बिहारी मिश्र का विशेष योगदान रहा। उन्होंने सरस्वती और विशाल भारत में विज्ञान कथा लिखीं। 1960 के दशक में उन्होंने विज्ञान लोक तथा विज्ञान जगत में नियमित कथाएं लिखीं। उनका उपन्यास अपराध का पुरस्कार 1962-63 में विज्ञान जगत में धारावाहिक प्रकाशित हुआ। उनके प्रमुख कथा संग्रह हैं- अधूरा आविष्कार, आकाश का राक्षस, हत्या का उद्देश्य (1970)। उनकी प्रमुख कहानियां हैं- शुक्र ग्रह ही यात्रा, पाताल लोक की यात्रा, उड़ती मोटरों का रहस्य, सितारों के आगे और भी है जहां, अदृश्य शत्रु, आदि।
सन् 1950 में विष्णु दत्त शर्मा ने प्रतिध्वनि तथा आकर्षण, आदि कथाएं लिखीं। रमेश वर्मा ने अंतरिक्ष स्पर्श (1963), सिंदूरी ग्रह की यात्रा, अंतरिक्ष के कीड़े (1969) लिखीं। 1976 में कैलाश शाह का कथा संग्रह मृत्युजयी प्रकाशित हुआ। इसमें 9 कहानियां हैं- पूर्वजों की खोज, मैंने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया, मशीनों का मसीहा, असफल विश्वामित्र, आदि। उन्होंने दानवों का देश, अंतरिक्ष के पास, मकड़ी का जाल उपन्यास भी लिखे और हिन्दी विज्ञान लेखन में अपना उल्लेखनीय स्थान बनाया।
डा. रमेश दत्त शर्मा ने उच्च स्तरीय कथाएं लिखी हैं। प्रमुख हैं- प्रयोगशाला में उगते प्राण (ज्ञानोदया 1967), हरा मानव (1981), हंसोड़ जीन (विज्ञान प्रगति, 1984), आदि। पिछले दिनों उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान, मनीला (फीजी) में रहकर, धान के बारे में रोचक जानकारी देने वाली एक यथार्थपरक विज्ञान कथा लिखी है, नाम है- धान की कहानी। जिसे नेशनल बुक ट्रस्ट ने प्रकाशित किया है। प्रेमानंद चंदोला की विज्ञान कथाएं, चीखती टप-टप और खामोश आहट में संग्रहीत हैं। उनकी कहानियां वनस्पति मानव और घर का जासूस विज्ञान प्रगति में तथा सच्चाई का पेंडुलम, विज्ञान में छपीं। राजेश्वर गंगवार ने शीशियों में बंद दिमाग, केसर ग्रह, साढ़े सैंतीस वर्ष, सप्तबाहु आदि कथाएं लिखीं।
श्री देवेन्द्र मेवाड़ी की वैज्ञानिक उपन्यासिका 1979 में साप्ताहिक हिन्दुस्तान में छपी। उन्होंने क्रायोबायलोजी पर ´भविष्य` नामक कथा लिखी। उनकी अन्य कहानियां हैं- गुड बाय मिस्टर खन्ना (1985) तथा एक और युद्ध। अरविन्द मिश्र की कहानियां, गुरु दक्षिणा (अमृत प्रभात, 1985), मिस रोबिनो, एक और क्रौंच वध (धर्मयुग 1989), देहदान (जनसत्ता, अगस्त 1989) छपीं। चांद का मुन्ना (आनन्द प्रकाश जैन), हरे जीवों के चंगुल में (राममूर्ति), काल भैरव का कोप (मनोहर लाल वर्मा), रोबो मेरा दोस्त (शुकदेव प्रसाद), आदि कथाएं भी उल्लेखनीय हैं। लेखक ने भी ज्ञान का तबादला (वैज्ञानिक, जुलाई-सितम्बर 1986), वैज्ञानिक पत्नी की मुसीबत (जिज्ञासा, जुलाई-दिसम्बर 1988), डाल-डाल : पात-पात, रोबोटों की दुनियां, प्रदूषण महात्म्य (वैज्ञानिक, जनवरी-मार्च 1982), वरदान (विज्ञान, नवम्बर 84-85), आदि विज्ञान कथाएं लिखीं।
समयानुसार अनेक विज्ञान कथाओं और उपन्यासों के हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए। प्रमुख कहानी पत्रिका सारिका ने सितम्बर 1985 अंक में अनेक हिन्दी कथाओं के साथ ही अरुण साधु लिखित ´विस्फोटक` (मराठी) और मोहन संजीवन लिखित ´मैं मरना चाहता हूं (तमिल) के हिन्दी अनुवाद प्रकाशित किए थे। रासेल कासेन के उपन्यास द साइलेंट स्प्रिंग का प्रेमानन्द चंदोला द्वारा किया गया अनुवाद, नवनीत में छपा। गुणाकार मुले ने आसिमोव का ´शिशु का रोबोट` तथा विक्टोर कोमारोव का ´दूसरी धरती` तथा रमेश दत्त शर्मा ने गोर विडाल के ´क्षुद्रग्रह` उपन्यासों का हिन्दी रूपांतर किया।
बंगला से सत्यजित राय की 13 विज्ञान कहानियों का हिन्दी अनुवाद किया गया है। समीर गांगुली का बाल वैज्ञानिक उपन्यास जेड जुइंग की डायरी मेला पत्रिका में, समरजित कर की कहानी एक यंत्र की खातिर (धर्मयुग 1984), डा. जयंत विष्णु नार्लीकर की अक्स, धूमकेतु (धर्मयुग), अरुण साधु की एक आदमी के उड़ने की कहानी (धर्मयुग 1988) में प्रकाशित हुइ। डा. बाल फोंडके की कहानियां, तख्ती टूट गई और अनोखा खून पराग में तथा अन्य कहानियां विज्ञान प्रगति में छपी हैं। दिलीप साल्वी की अंग्रेजी कहानियों के हिन्दी अनुवाद भी पराग मं रोबोट चालाक होते जा रहे हैं, रोबोट डींगमार होते हैं, नामक शीर्षकों के साथ प्रकाशित हुई हैं। प्रख्यात विज्ञान कथाकार डा. जयंतु विष्णु नार्लीकर की बहुत ही रोचक और रोमांचक विज्ञान कथा अंतरिक्षमें विस्फोट धारावाहिक रूप से धर्मयुग में प्रकाशित हुई।
क्रमश: हिन्दी विज्ञान कथा व उपन्यास लेखन में छुटपुट स्वैच्छिक प्रयास होते रहे। फलस्वरूप प्रो. दिवाकर के उड़न तश्तरी, नक्षत्रों का युद्ध, अंतरिक्ष के पार, आदिऋ डा. हरिकृष्ण देवसरे का लावेनी, सत्येन्द्र शरद का प्रोफेसर सारंग, आदि उपन्यास सामने आए। कुछ विदेशी उपन्यासों का हिन्दी अनुवाद भी किया गया।
इसके बाद ऐसा नहीं हुआ कि विज्ञान कथाओं की बाढ़ आ गई हो, उसी पूर्वगति से यह सिलसिला जारी रहा। अनेक सामान्य पत्रिकाओं ने भी विज्ञान कथाएं निकालनी शुरू कीं। कुछ पत्रिकाओं ने विज्ञान कथा विशेषांक भी निकाले, इनमें प्रमुख हैं, नन्दन (1969), पराग (दिसम्बर 1975), विज्ञान प्रगति (जनवरी 1978), धर्मयुग (6 अप्रैल 1980), मेला (25 फरवरी 1981), विज्ञान (नवम्बर 84-जनवरी 1985)। बाल पत्रिका सुमन सौरभ ने फरवरी 1993 में आविष्कार कथा विशेषांक निकाला। माना जाता है कि वस्तुत: भारत में प्राचीन काल में विज्ञान का ज्ञान बहुत बढ़ा चढ़ा था, लेकिन अनेक संस्कृतियों में उतार चढ़ाव और सामाजिक उथल पुथल के कारण उसके कुछ अवशेष ही रह गए। पुराणों, उपनिषदों, आदि ग्रंथों में विज्ञान के ऐसे पहलुओं पर कथाएं उपलब्ध हैं, जिनको आज आधुनिक विज्ञान का समर्थन प्राप्त है। इन ग्रंथों में वैज्ञानिक चमत्कारों का तो वर्णन है, पर चमत्कार की तकनीकों के बारे में वे प्राय: मौन हैं। शायद इसीलिए इन गं्रथों की वैज्ञानिक प्रामाणिकता सीधे स्वीकार नहीं की जा सकी।
इनमें इन्द्र के वज्र, शिव के पाशुपत, विष्णु के नारायणशास्त्र, ब्रह्मा के ब्रह्मास्त्र, आदि विनाशकारी अस्त्रों का वर्णन है। ब्रह्मास्त्र के बारे में महाभारत में जो वर्णन किया गया है वह परमाणु अस्त्रों से काफी समानता रखता है। ब्रह्मास्त्र के बारे में लिखा है, ´इसे चलाने पर हजारों सूर्यों की भांति बिजलियां चमकने लगती थीं, इसके प्रभाव से धूल भरी आंधियां चलती थीं, और यह धूल लम्बे समय तक छाई रहती थी, ब्रह्मास्त्र गिरने वाले स्थान पर अनेक वर्षों तक खेती नहीं होती थी।` एक अन्य कथा में भगवान शंकर के पुत्र गणेश का सिर कट जाने के बाद उनके शरीर में नवजात हाथी का सिर प्रत्यारोपित का वर्णन है। कौरवों के जन्म की कथा भी विचित्र है, ये 100 पुत्र माता गंधारी के गर्भ से भ्रूण निकाल कर उसे विभक्त करके 100 अलग अलग घड़ों में विकसित किए जाने का वर्णन है, जिसे आज परखनली शिशु तकनीक ने सम्भव कर दिया है। इसी प्रकार रक्तबीज से पूर्ण शरीर बनने की कहानी की तुलना क्योलिंग से की जा सकती है।
प्राचीन भारतीय साहित्य इस तरह के आधुनिक विज्ञान से काफी कुछ समान्ता रखने वाले प्रकरणों से भरा पड़ा है। इसीलिए प्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक कार्ल सागान ने लिखा है, कि मिथक में विज्ञान ढूंढ़ना हो तो भारत के पुराणों को पढ़ना चाहिए। यह प्राय: निर्विवाद रूप से स्वीकार किया जाता है कि हिन्दी में आधुनिक विज्ञान कथाएं, पश्चिमी अंग्रेजी विज्ञान कथाओं से प्रभावित रहीं, तथापि भारतीय पुराणों में विर्णत कथाओं का भी हिन्दी विज्ञान कथाओं पर प्रभाव नकारा नहीं जा सकता।
विश्व विज्ञान कथाएं
उन्नीसवीं सदी के आरंभ और बीसवीं सदी के पूर्वार्ध के मध्यकाल में दुनिया भर में अनेक विज्ञान कथाएं लिखीं गइ±, जिन्होंने न केवल भविष्य केविज्ञान को परिलक्षित किया बल्कि समाज के वैज्ञानिक विकास को नियोजित दिशा भी दी। एडगर एलन पो (1809-1849) ने अमेरिका में विज्ञान कथा लेखन की शुरूआत की। जासूसी उपन्यासों के प्रणेता अंग्रेजी लेखक सर आर्थर कानन डायल (1859-1930) के उपन्यासों का प्रभाव आधुनिक विज्ञान कथाओं पर पड़ा। ऐसे प्रमाण मिलते हैं, कि उन्नीसवीं सदी के मध्यकाल में यूरोपीय देशों में विज्ञान कथाएं चरमोत्कर्ष पर थीं।
सन् 1820 में पश्चिमी देशों में प्रभावी विज्ञान कथा लेखन आरंभ हुआ। आगे 1898 में प्रसि( विज्ञान कथा लेखक एच.जी. वेल्स का विश्व प्रसि( विज्ञान उपन्यास ´द वार ऑव द वल्र्डस` छपा, वेल्स ने ही ´द टाइम मशीन` और ´द इनविजिविल मैन` लिखकर इस क्षेत्र में धूम मचाई। जार्ज आरबेल का प्रख्यात विज्ञान उपन्यास ´1984` सन् 1949 में प्रकाशित हुआ। इसका विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। हिन्दी रूपांतर हिन्दी पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने प्रकाशित किया है, अनुवादक हैं, राधानाथ चतुर्वेदी। जूल्स वर्न (1829-1905) के ´20,000 लीग्स अण्डर सी`, ´जर्नी टू द सेंटर ऑव अर्थ` उपन्यास प्रौद्योगिकी के विकास की सटीक भविष्यवाणी के रूप में प्रसि( हुए। विज्ञान कथाओं में व्यंग्य उपन्यास में आदर्श विश्व समाज की कल्पना की गई है।
जर्मन खगोलविद् केपलर (1571-1630) ने चांद की स्वप्न यात्रा का रोचक वर्णन किया था। वैसे आधुनिक विज्ञान फैंटसी (कल्पना) का जन्म 1705 में डेनियल डेफी के ´द कंसोलिडेटर` के रूप में हुआ। इसमें अंतरिक्ष यात्रा का कथानक लिया गया था। तत्पश्चात् वेल्स के नवआयामी प्रस्तुतीकरण के बाद आर. एल. स्टीवेंसन (1850-1894) के ´द स्टोरी ऑव डा. जेकिल एंड मि. हाइड` की सराहना हुई। 19वीं सदी के आरंभ में कृत्रिम जीवोत्पत्ति के कथानक पर ´फ्रेंकेस्टीन` लिखा गया, लेखिका थीं- मैरी शेली। एल्डूस हक्सले ने 1932 में परखनली शिशु पर उपन्यास लिखा। आणुविक जीव विज्ञान पर डेविड शेरविक के ´वार्न इन हिज ओन इमेज`, ´क्लोनिंग ऑव द मैन` प्रसि( हैं। kaarsen की कृति ´द साइलेंट स्प्रिंग तथा डेविड शील्तजर की ´द प्रोफेसी` प्रदूषण पर लिखी गई हैं।
सांपों के जीवन पर ´द स्नेक` 1978 में जौन गोडी ने लिखी। आधुनिक युग के प्रसि( विज्ञान कथाकार हैं- रे ब्रैडवरी, पाल एण्डरसन, यूरी लीन्स्टर, राबर्ट हीनलेन, जॉन क्रिस्टोफर, आदि। प्रगति प्रकाशन रूप से 1979 में अंग्रेजी में एक विज्ञान कथा संग्रह निकाला है, शीर्षक है ´साइंस फिक्शन- इंग्लिश एंड अमेरिकन जोत हालडमैन, फ्रेड्रिक पोल, श्रीलंका के आर्थर सी क्लार्क, आयर लैंड के हैरी हैरिसन, आदि शामिल हैं, जिन्होंने अधिकतर अंतरिक्ष, समय यात्रा और ऐसी ही विधाओं पर कथाएं लिखीं।
सोवियत रूप में भी विज्ञान कथा लेखन काफी विकसित है। रूसी विज्ञान लेखन में एक समर्पित नाम है- एलेक्जेंडर वेलियेव, जिन्होंने पूरा जीवन इसी कार्य में लगाया। वेलियेव की अंतरिक्ष कथाएं- ´द एयरशिप स्टार केट` एवं ´स्काई गेस्ट` प्रसिद्ध हुइ। 1935 मं उन्होंने आणुविक ऊर्जाघर- ´द मिरैकुलस आई` नामक उपन्यास लिखा। रूरी पत्रिका सोवियत लिट्रेचर ने 1984 में विज्ञान कथा विशेषांक प्रकाशित किया। इसकी प्रमुख कहानियां हैं, द डिज़ायर मशीन ( अकार्दि और स्त्रुगात्स्की), ए टोटल मिस्ट्री (ब्लादीमिर शेफनर) बार्न टु फ्लाई (दमित्री बाइलेंकिन), फ्लावर्स ऑव द अर्थ (मिखाइल पुरबोव), आदि। रूसी से अंग्रेजी अनुवादित विज्ञान कथा संकलनों, ´जनी। एक्रास थ्री वल्र्डस` ´एव्रीथिंग बट लव` ´मॉलीकुलर कैफे`, आदि हैं। येरेमेई पार्नोव का ´बिग बैंग लव` और अनाटोली दुनींनीप्राव का ´क्रेब्स वाक ऑन आइलैंड` प्रकाशित हुए। परमाणु विध्वंस विषय को लेकर रूप में अनेक वैज्ञानिक उपन्यास लिखे गए, जिनकी अमेरिका आलोचकों ने आलोचना की है।
विश्व में विज्ञान कथाओं का काफी भंडार बढ़ता जा रहा है। हिन्दी में भी ऐसे नए नए प्रयोग होते रहने चाहिए। ह्यमगो गन्र्सबैक द्वारा सम्पादित विश्व की प्रथम विज्ञान कथा पत्रिका है ´अमेज़िंग स्टोरीज़।` ह्यूगो गन्र्सबैक विद्युत इंजीनियर थे। उन्होंने 1928 में अमेजिंग स्टोरीज पत्रिका शुरू की थी।
हिन्दी में विज्ञान कथा लेखन
कथा कहानी के जरिये कोई बात आसानी से समझ में आ जाती है और जब बात बच्चों को समझाने की हो तो यह विधा और भी सरल और सहज लगती है। शायद इसीलिए हमारे यहां नीति की बातों को भी कहानी द्वारा समझाने की परम्परा रही है। पंचतंत्र की कथाओं का भी यही उद्देश्य था। इनमें दिए गए उद्धहरण के अनुसार महिलारोप्य नगर के राजा अमरशक्ति के अज्ञानी पुत्रों को समझदार बनाने के लिए श्री विष्णु शर्मा ने संस्कृत साहित्य में अमर पंचतंत्र की कथाएं रचीं। आज विज्ञान के दौर में बच्चों को विज्ञान की बातें आसानी से समझाने के लिए विज्ञान कथाओं का सहारा लिया जाने लगा है। विज्ञान कथाएं समाज में न केवल विज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए, बल्कि सामाजिक परिवर्तनों और भविष्य की तस्वीर उभरने में भी उपयोगी हैं। इसलिए यदि हमें समय के साथ चलना है तो अधुनातन विषयों पर सुबोध और रोचक विज्ञान कथाएं लिखनी होंगीं। रूसी विज्ञान कथा लेखक दिमित्री बाइलेंकिन लिखते हैं, ´इसका महत्व नहीं है कि विज्ञान कथाएं मनोरंजन करती हैं या नहीं, महत्व तो इस बात का है कि वे लोगों को युग की जटिलता से आगाह करा सकती हैं, और उनकी प्रवृत्ति को मोड़ भी सकती हैं, विज्ञान कथाओं का सामाजिक उद्देश्य व्यापक एवं उत्तरदायित्व है, क्योंकि इनमें भविष्य का दर्शन किया जा सकता है।` दरअसल विज्ञान कथाएं विज्ञान के पाठकों के साथ ही विज्ञान न जानने वालों को भी अपनी ओर आकिर्षत करती हैं, इसलिए विज्ञान साहित्य की इस विशा में विज्ञान के प्रचार की अद्वितीय क्षमात निहित है। अत: इसे सीखने सिखाने की तकनीक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने में प्राय: दो खास कठिनाइयां आती हैं, पहली है पृष्ठभूमि सामान्य कहानी में कथानक में प्रयुक्त शब्दों की पृष्ठभूमि नहीं बनानी पड़ती, जैसे, यदि वह रिवाल्वर लिखता है, तो पाठकों के सामने तत्काल रिवाल्वर का दृश्य घूम जाता है, परंतु विज्ञान कथा में ऐसा नहीं है, विज्ञान कथाकार यदि कथा में पातालवाहन नामक काल्पनिक शब्द का प्रयोग करे तो उसे बताना होगा कि पातालवाहन उनकी कल्पना में क्या है, कैसा बना है तथा काम कैसे करता है, तभी पाठक उस कथा को सही अर्थों में हृदयंगम कर सकेगा, अन्यथा नहीं। दूसरी कठिनाई की ओर संकेत करते हुए ऑसिमोव लिखते हैं कि विज्ञान कथा का अधिकांश भाग तो अपरिचित परिवेश से पाठकों का तादात्म्य स्थापित करने में ही खर्च हो जाता है, जिसके कारण विज्ञान कथा में पात्रों का चारित्रिक विकास प्राय: सम्भव नहीं हो पाता है। हिन्दी विज्ञान कथा लेखन में इस पर ध्यान दिया जाना नि:संदेह महत्वपूर्ण होगा।
विज्ञान कथाएं प्राय: तीन तरह से लिखी जाती हैं: (1) ऐसी कहानियां जिनमें लेखक की कल्पना, वैज्ञानिक प्रगति का सहारा लेकर आगे बढ़ती है, ऐसे वांगमय में विज्ञान के केवल एक दो तथ्यों पर प्रकाश डाला जाता हैं (2) ऐसी कहानियां जो वैज्ञानिक उपलब्धियों की रोचक गाथा मात्र होती हैं, इनमें कहानी बहाना मात्र होती है, असल उद्देश्य विज्ञान का प्रचार होता है। इनमें लेखक उन्हीं बातों की चर्चा करता है जिनको विज्ञान सम्भव मानने लगता हैं (3) ऐसी विज्ञान कथाओं में प्रौद्योगिक पृष्ठभूमि के कारण सांस्कृतिक मूल्यों में हुए परिवर्तन की झांकी होती है, आज की समस्याओं के हल के साथ ही जीवन के मूल्य और आदर्श बनाए रखने का आग्रह होता है।
विज्ञान कथाओं में सत्य कथाओं और आत्म कथाओं का लगभग अभाव सा है। हिन्दी में कुछ वैज्ञानिक सत्यकथाएं अप्रैल 1980 के धर्मयुग में छपीं हैं। जिनमें से ´वैज्ञानिकों ने सुलझाई पहेली` प्रमुख है। इसमें एक लड़की को लेकर विवाद था, कि उसके असली माता पिता वे हैं, जिनके पास वह थी, या वे जिन्होंने अपनी पुत्री के अपहरण का दावा किया था। इसका समाधान सीरम वैज्ञानिक परीक्षणों से किया गया। हिन्दी में ऐसी सत्य विज्ञान कथाओं को लोग अधिक पसंद करते हैं। भारतीय वैज्ञानिक सालिम अली ने अंग्रेजी में ´द फॉल ऑव ए स्पैरो` नामक अपनी आत्मकथा लिखी है, पर हिन्दी में शायद ही किसी वैज्ञानिक ने आत्मकथा लिखने में पहलें की हों।
विज्ञान शिक्षक श्री शचीन्द्र नाथ चक्रवर्ती अपने विद्यार्थियों को विज्ञान, बोलचाल के रूप में समझाते थे, और गृहकार्य के रूप में प्राय: दर्पण और लेंस के बीच एक संवाद जैसी बातें लिखने को देते थे। स्वाभाविक है बच्चों में इस विधा से विज्ञान पढ़ने का शौक चौगुना हो गया था। इसी प्रकार उन्होंने ´धातुओं की सभा` लिखा, जिसका मंचल इलाहाबाद में किया गया। विज्ञान और लेखन की उर्वरा शक्ति को विकसित करने के लिए इस परम्परा को आगे बढ़ाया जा सकता है।
विज्ञान कथा लिखने के लिए कोई बना बनाया सटीक फार्मूला तो नहीं है, पर यह उतना कठिन भी नहीं है, जितना कि आम लेखक समझ लेते हैं। वस्तुत: हिन्दी विज्ञान कथा लेखन के आवश्यक तत्व हैं, भाषा पर अधिकार, विज्ञान का ज्ञान, सार्थक कल्पना शक्ति, और उसे रोचकतापूर्वक अभिव्यक्त करने की क्षमता। इन सभी तत्वों की मिली जुली रचना का नाम विज्ञान कथा है।
देश में विज्ञान कथा लेखन प्रकाशन के उन्नयन हेतु ´भारतीय विज्ञान कथा लेखक समिति` का गठन फैजाबाद (उ.प्र.) में किया गया है। समिति ने डा. राजीव रंजन उपाध्याय और डा. अरविन्द मिश्र के सम्पादन में देश की विज्ञान कथाओं को समर्पित पहली पत्रिका ´विज्ञान कथा` आरम्भ की है। इसी प्रकार वेल्लोर में ´इंडियन एसोसिएशन फॉर साइंस फिक्शन स्टडीज` की स्थापना की गई है। हाल ही में ´विज्ञान कथा : पहले, अब और आगे` विषय पर प्रथम राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन राविप्रौसंप द्वारा उक्त संस्थाओं के साथ मिलकर वाराणसी में किया गया। इस अवसर पर एक ´बनारस दस्तावेज` भी जारी किया गया, जो विज्ञान कथाओं के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकेगा। विज्ञान लेखक शुकदेव प्रसाद के सम्पादन में विज्ञान कथाओं के इतिहास और विकास का लेखा जोखा दो खंडों में प्रकाशित किया गया है। इंटरनेट माध्यम का इस्तेमाल करते हुए विज्ञान कथाओं पर ब्लॉग्स और एक ई-ग्रुप भी चलाया जा रहा है, जिसकी पहल विज्ञान कथा लेखक डा. अरविन्द मिश्र ने की है। हाल ही में एयर वाइस मार्शल विश्व मोहन तिवारी के सम्पादन में ´कल्किआन` नामक देश की पहली ई-विज्ञान कथा पत्रिका kalkion.com भी हिन्दी और अंग्रेजी में आरम्भ की गयी है। ये सभी गतिविधियां देश में विज्ञान कथा विधा के उन्नयन के अच्छे संकेत प्रतीत होते हैं।
-- डा. मनोज पटैरिया
निदेशक (वैज्ञानिक ´एफ`)
राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, टैक्नॉलोजी भवन, नया महरौली मार्ग, नई दिल्ली-110016
विकीलीक्स खुलासों के बाद- भारत की छबि
भारत संबंधी विकीलीक्स केबल्स के हिंदू में प्रकाशित सार-संक्षेप ने तूफान बरपा कर दिया है।
इनमें सबसे सनसनीखेज खुलासा 2008 की जुलाई के 'वोट दो-नकद लो' की बदनामी को लेकर है। उस समय भारत-अमरीकी न्यूक्लीयर सहयोग समझौते को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया था। जिन बामपंथियों के समर्थन पर चल रही थी वो अल्पमत सरकार उन्होंने समर्थन वापस ले लिया था। कांग्रेस ने अन्य पार्टियों को घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया।
2008 में अपने स्ंटिग ऑपरेशनों से टीवी चैनलों ने इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया था। इन खुलासों में मुख्य निशाना समाजवादी पार्टी को बनाया गया। अब पता चल रहा है कि राष्ट्रीय लोक दल के अजीत सिंह को भी घूस दी गई थी कि यह काम गांधी परिवार के नादीकी केप्टन सतीश शर्मा के एक सहायक नचिकेता कपूर के जरिए हुआ था। नचिकेता ने एक अमरीकी दूतावास के अधिकारी को वो दो पेटियां दिखाई थीं जिनमें रालोद के सांसदों को दिए गए 50-60 करोड़ रुपयों का एक हिस्सा था।
डॉ. सिंह ने अपनी सरकार का जोरदार और जुझारू बचाव करते हुए कहा कि भारत में अमरीकी दूतावास द्वारा भेजे गए केबिलों की 'सच्चाई, विषय-वस्तु और उनके अस्तित्व' तक की पुष्टि नहीं की जा सकती है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ''मैने किसी को भी कोई वोट खरीदने का अधिकार नहीं दिया। मुझे वोटों की खरीद के बारे में...कोई जानकारी नहीं है...।'' इस कहानी को सतीश शर्मा ने भी मानने से इंकार किया और कहा कि कपूर उनका सहायक नहीं था।
इससे दाग साफ नहीं होता। विकीलीक्स पर आधारित साक्ष्य पहली दृष्टि में यह मामला तैयार करते हैं कि कि सांसद खरीदे गए थे। इसने यह पक्का कर दिया था कि 256 'ना' वोटों के खिलाफ 275 'हां' वोटों के साथ संप्रग सरकार जीत जाएगी। भारत की धरती पर वोट दो-नकद लो एक गंभीर अपराध हुआ है। इसके सहभागी विदेशी राजनयिक थे। अब सरकार कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि पूरे मामले की जांच सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दे, और अमरीकी दूतावास से उस कर्मचारी की पहचान करने को कहे जिसने इस करतूत को अपने केबिलों के जरिए भेजा था। ऐसा न करने पर सिंह सरकार की छबि पर और बट्टा लगेगा जो पहले से ही बहुत से घोटालों में बदनाम हुई बैठी है।
इस खुलासे से भारतीय जनता पार्टी अधिकतम फायदा उठाने में जी जान से लगी है। लेकिन टेपों से इसका चेहरा और भी गंदा होकर उभरता है। सार्वजनिक रूप से इसने न्यूक्लीयर समझौते का विरोध किया था। लेकिन विरोध को लेकर यह गंभीर नहीं थी। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्री चारी और प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने अमरीकियों से कहा था, 'विदेश नीति प्रस्तावों पर अधिक ध्यान न दें।' जबकि स्वयं लौह पुरूष एलके अडवानी ने उनको आश्वस्त किया था कि सत्ता में आने पर भाजपा, 'अपने विरोधपक्ष के दिनों से बहुत अलग व्यवहार करेगी।'
भाजपा अक्सर ही शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करती है और दौड़ती खरगोश के साथ है। इसलिए इसकी न्यूक्लीयर नीति को निर्धारित करने का भारत के 'परम अधिकार' के मामले में इसको भारत -अमरीकी समझौते का विरोध करना फायदेमंद लगा था। परंतु सैध्दांतिक तौर पर पार्टी दक्षिणपंथी विदेश और सुरक्षा नीति पर चलती है, और शीतयुध्द के दिनों से ही यह घोर अमरीका समर्थक रही है। इसको भारत का भविष्य अमरीकी आधिपत्य वाली पूंजीवादी विश्व व्यव्स्था को मज़बूत बनाने में नार आता है। इससे भाजपा के व्यवहार में दोहरापन आ जाता है और इसकी विश्वनीयता को भारी नुकसान पहुंचाता है।
परंतु विकीलीक्स के खुलासों का उतना महत्व भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधों की पुष्टि के लिए नहीं है जितना कि उस दिशा को दिखाने के लिए जिसमें भारत की विदेशनीति हाल ही में चलने लग पड़ी है, और यह भी कि दुनिया, खासतौर पर अमरीका की नजर में भारत की घरेलू स्थिति, और क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति दृष्टिकोण क्या है।
इन खुलासों में आमतौर पर तरह-तरह के मामलों पर उपयोगी और कभी-कभी बहुमूल्य जानकारी होती है जैसे कि: देश की पार्टियों के आपसी और उनके भीतरी संबंध (कश्मीर) न्यूक्लीयर सौदा आम लोगों की समझ (भारत पाक तनाव) ईरान की न्यूक्लीयर दौड़ और तेहरान को घेरने की अपनी योजना में भारत का समर्थन लेने के लिए भारत को धमकाने की अमरीकी कोशिशें; और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों की भारत की मांग को महज 'शोरगुल' कहना।
राजनयिकों द्वारा केबिलों का इस्तेमाल संचार के एक रूप के तौर पर मोबान देश की सूचनाओं, विश्लेषणों और आकलनों को अपनी सरकारों तक पहुंचाने के लिए किया जाता है, और वे संप्रग के आपसी मतभेदों को काफी हद तक सामने लाते हैं। अफंजल गुरू की फांसी की साा को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति ऐपीजे अब्दुल कलाम और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच के मतभेद को सुखिर्यों में लाते हैं। इनमें जे के लिबरेशन फ्रंट के नेता यासिन मलिक को यह कहते उध्दृत किया गया है कि गुरू को फांसी देने से घाटी में प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि सजा संसद पर हमले के लिए यातायात का प्रबंध करने में मदद देने के आरोप से किसी भी तरह से मेल नहीं खाती है।
'दि हिंदू' के खुलासे डॉ. सिंह और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायण के बीच के मतभेदों पर रोशनी डालते हैं जो पाकिस्तान के साथ 'साझा नियति' के आधार पर बातचीत दोबारा शुरू करने को लेकर थे। नारायण ने प्रधानमंत्री से रूखाई के साथ बोल दिया था: 'आपकी नियति साझा होगी, हमारी नहीं है।' नारायण के लिए अपने प्रधानमंत्री से ऐसा बोलना बेहद अनुचित था। लेकिन इससे भी यादा निंदनीय तो यह बात अमरीकी राजनयिक को बताना थी।
विकीलीक्स केबिल प्रदर्शित करते हैं कि अप्रैल 2008 में ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की भारत यात्रा पर नई दिल्ली अमरीका की नाराजी से इतना डरा हुआ था कि इसकी सूचना 'भारत सरकार की अन्य ऐजेंसियों' को देने से 'पहले' अमरीकी दूतावास को दे दी थी। विदेश मंत्रालय ने इस पर जोर दिया था कि डॉ. सिंह ने तेहरान की यात्रा अथवा अहमदीनेजाद की भारत यात्रा के पहले के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया था।
न्यूक्लीयर समझौते जैसे प्रलोभनों में फंसाकर अमरीका ने भारत को इसकी स्वतंत्र नीति के लंगर से सफलतापूर्वक छुड़ा लिया है। लेकिन वाशिंगटन के लिए इतना काफी नहीं है। यह भारत को और आगे वहां तक धकेलना चाहता है जहां पहुंच कर यह एक विनम्र और आज्ञाकारी सहयोगी जैसा बन जाता है। भारत यह आसानी से नहीं होने देगा। विकीलीक्स के खुलासों से जनता को इसके बारे में जागरूक हो जाना चाहिए और एक जुझारू स्वतंत्र विदेश नीति के पक्ष में मजबूती से जवाब देना चाहिए। साभार-प्रफुल्ल बिदवई
2008 में अपने स्ंटिग ऑपरेशनों से टीवी चैनलों ने इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया था। इन खुलासों में मुख्य निशाना समाजवादी पार्टी को बनाया गया। अब पता चल रहा है कि राष्ट्रीय लोक दल के अजीत सिंह को भी घूस दी गई थी कि यह काम गांधी परिवार के नादीकी केप्टन सतीश शर्मा के एक सहायक नचिकेता कपूर के जरिए हुआ था। नचिकेता ने एक अमरीकी दूतावास के अधिकारी को वो दो पेटियां दिखाई थीं जिनमें रालोद के सांसदों को दिए गए 50-60 करोड़ रुपयों का एक हिस्सा था।
डॉ. सिंह ने अपनी सरकार का जोरदार और जुझारू बचाव करते हुए कहा कि भारत में अमरीकी दूतावास द्वारा भेजे गए केबिलों की 'सच्चाई, विषय-वस्तु और उनके अस्तित्व' तक की पुष्टि नहीं की जा सकती है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ''मैने किसी को भी कोई वोट खरीदने का अधिकार नहीं दिया। मुझे वोटों की खरीद के बारे में...कोई जानकारी नहीं है...।'' इस कहानी को सतीश शर्मा ने भी मानने से इंकार किया और कहा कि कपूर उनका सहायक नहीं था।
इससे दाग साफ नहीं होता। विकीलीक्स पर आधारित साक्ष्य पहली दृष्टि में यह मामला तैयार करते हैं कि कि सांसद खरीदे गए थे। इसने यह पक्का कर दिया था कि 256 'ना' वोटों के खिलाफ 275 'हां' वोटों के साथ संप्रग सरकार जीत जाएगी। भारत की धरती पर वोट दो-नकद लो एक गंभीर अपराध हुआ है। इसके सहभागी विदेशी राजनयिक थे। अब सरकार कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि पूरे मामले की जांच सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दे, और अमरीकी दूतावास से उस कर्मचारी की पहचान करने को कहे जिसने इस करतूत को अपने केबिलों के जरिए भेजा था। ऐसा न करने पर सिंह सरकार की छबि पर और बट्टा लगेगा जो पहले से ही बहुत से घोटालों में बदनाम हुई बैठी है।
इस खुलासे से भारतीय जनता पार्टी अधिकतम फायदा उठाने में जी जान से लगी है। लेकिन टेपों से इसका चेहरा और भी गंदा होकर उभरता है। सार्वजनिक रूप से इसने न्यूक्लीयर समझौते का विरोध किया था। लेकिन विरोध को लेकर यह गंभीर नहीं थी। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्री चारी और प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने अमरीकियों से कहा था, 'विदेश नीति प्रस्तावों पर अधिक ध्यान न दें।' जबकि स्वयं लौह पुरूष एलके अडवानी ने उनको आश्वस्त किया था कि सत्ता में आने पर भाजपा, 'अपने विरोधपक्ष के दिनों से बहुत अलग व्यवहार करेगी।'
भाजपा अक्सर ही शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करती है और दौड़ती खरगोश के साथ है। इसलिए इसकी न्यूक्लीयर नीति को निर्धारित करने का भारत के 'परम अधिकार' के मामले में इसको भारत -अमरीकी समझौते का विरोध करना फायदेमंद लगा था। परंतु सैध्दांतिक तौर पर पार्टी दक्षिणपंथी विदेश और सुरक्षा नीति पर चलती है, और शीतयुध्द के दिनों से ही यह घोर अमरीका समर्थक रही है। इसको भारत का भविष्य अमरीकी आधिपत्य वाली पूंजीवादी विश्व व्यव्स्था को मज़बूत बनाने में नार आता है। इससे भाजपा के व्यवहार में दोहरापन आ जाता है और इसकी विश्वनीयता को भारी नुकसान पहुंचाता है।
परंतु विकीलीक्स के खुलासों का उतना महत्व भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधों की पुष्टि के लिए नहीं है जितना कि उस दिशा को दिखाने के लिए जिसमें भारत की विदेशनीति हाल ही में चलने लग पड़ी है, और यह भी कि दुनिया, खासतौर पर अमरीका की नजर में भारत की घरेलू स्थिति, और क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति दृष्टिकोण क्या है।
इन खुलासों में आमतौर पर तरह-तरह के मामलों पर उपयोगी और कभी-कभी बहुमूल्य जानकारी होती है जैसे कि: देश की पार्टियों के आपसी और उनके भीतरी संबंध (कश्मीर) न्यूक्लीयर सौदा आम लोगों की समझ (भारत पाक तनाव) ईरान की न्यूक्लीयर दौड़ और तेहरान को घेरने की अपनी योजना में भारत का समर्थन लेने के लिए भारत को धमकाने की अमरीकी कोशिशें; और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों की भारत की मांग को महज 'शोरगुल' कहना।
राजनयिकों द्वारा केबिलों का इस्तेमाल संचार के एक रूप के तौर पर मोबान देश की सूचनाओं, विश्लेषणों और आकलनों को अपनी सरकारों तक पहुंचाने के लिए किया जाता है, और वे संप्रग के आपसी मतभेदों को काफी हद तक सामने लाते हैं। अफंजल गुरू की फांसी की साा को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति ऐपीजे अब्दुल कलाम और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच के मतभेद को सुखिर्यों में लाते हैं। इनमें जे के लिबरेशन फ्रंट के नेता यासिन मलिक को यह कहते उध्दृत किया गया है कि गुरू को फांसी देने से घाटी में प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि सजा संसद पर हमले के लिए यातायात का प्रबंध करने में मदद देने के आरोप से किसी भी तरह से मेल नहीं खाती है।
'दि हिंदू' के खुलासे डॉ. सिंह और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायण के बीच के मतभेदों पर रोशनी डालते हैं जो पाकिस्तान के साथ 'साझा नियति' के आधार पर बातचीत दोबारा शुरू करने को लेकर थे। नारायण ने प्रधानमंत्री से रूखाई के साथ बोल दिया था: 'आपकी नियति साझा होगी, हमारी नहीं है।' नारायण के लिए अपने प्रधानमंत्री से ऐसा बोलना बेहद अनुचित था। लेकिन इससे भी यादा निंदनीय तो यह बात अमरीकी राजनयिक को बताना थी।
विकीलीक्स केबिल प्रदर्शित करते हैं कि अप्रैल 2008 में ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की भारत यात्रा पर नई दिल्ली अमरीका की नाराजी से इतना डरा हुआ था कि इसकी सूचना 'भारत सरकार की अन्य ऐजेंसियों' को देने से 'पहले' अमरीकी दूतावास को दे दी थी। विदेश मंत्रालय ने इस पर जोर दिया था कि डॉ. सिंह ने तेहरान की यात्रा अथवा अहमदीनेजाद की भारत यात्रा के पहले के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया था।
न्यूक्लीयर समझौते जैसे प्रलोभनों में फंसाकर अमरीका ने भारत को इसकी स्वतंत्र नीति के लंगर से सफलतापूर्वक छुड़ा लिया है। लेकिन वाशिंगटन के लिए इतना काफी नहीं है। यह भारत को और आगे वहां तक धकेलना चाहता है जहां पहुंच कर यह एक विनम्र और आज्ञाकारी सहयोगी जैसा बन जाता है। भारत यह आसानी से नहीं होने देगा। विकीलीक्स के खुलासों से जनता को इसके बारे में जागरूक हो जाना चाहिए और एक जुझारू स्वतंत्र विदेश नीति के पक्ष में मजबूती से जवाब देना चाहिए। साभार-प्रफुल्ल बिदवई
भ्रष्टाचार पर अनोखी स्थापनाएं
1988-89 में भ्रष्टाचार राष्ट्रीय राजनीति में सबसे अहम् मुद्दा बनकर उभरा था। कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वी.पी. सिंह एक बहुत बड़े प्रभावशाली औद्योगिक घराने के मालिक को गिरफ्तार करने वाले थे और तब उस उद्योगपति ने ग्लैमर की दुनिया के एक बड़े सितारे का सहारा लेकर वी.पी. सिंह को वित्तमंत्री पद से हटवा दिया था।
इस किस्से में सत्य का कितना अंश है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा, लेकिन आहत वी.पी. सिंह ने उस समय जो व्यूह रचना की उससे प्रधानमंत्री राजीव गांधी बाहर नहीं निकल सके। उनका कार्यकाल दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के साए में ले-देकर समाप्त हुआ तथा विश्वनाथ प्रतापसिंह नए प्रधानमंत्री बने। जनता को उम्मीद थी कि श्री सिंह के नेतृत्व में देश को स्वच्छ प्रशासन व स्वस्थ राजनीतिक वातावरण देखने मिलेगा, लेकिन यह आशा जल्दी ही धूमिल हो गई। मुहावरा इस्तेमाल किया जाए तो बोतल भले ही नई थी, शराब तो वही पुरानी थी।
आज दो दशक बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग उसी अंदाज में मुहिम छेड़ी जा रही है। जंतर-मंतर से लेकर देश में जगह-जगह सभाएं हो रही हैं, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर नई-नई संस्थाएं बन रही हैं, वक्तव्यों की बाढ़ आ गई है, पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख लिखे जा रहे हैं और शाम के समय सज-धजकर सुखी मध्यमवर्गीय क्रांतिकारी मोमबत्ती जलाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं ताकि अगले दिन अखबार में अपना चेहरा देखकर वे आत्मगौरव महसूस कर सके। अन्ना हजारे के खिलाफ दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस के अनेक नेता टिप्पणियां कर रहे हैं। कहीं भूषण पिता-पुत्र को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं, तो कहीं उनका बचाव भी किया जा रहा है। भारतीय राजनीति के रहस्यमय व्यक्तित्व सुब्रमण्यम स्वामी को जैसे नवजीवन मिल गया है तथा कभी टी.एन. शेषन के साथ मिलकर ट्रस्ट बनाने वाले विनीत नारायण फिर प्रकाश में आ गए हैं।
ऐसे बार-बार दोहराए जाने वाले दृश्यबंधों के बीच दो नई स्थापनाएं जानने में आईं। एकाधिक टिप्पणीकारों ने कहा कि भ्रष्टाचार से चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इनका मानना है कि अठारहवीं -उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में जो हुआ था वही आज के भारत में हो रहा है। आज से दो सौ साल पहले अमेरिका में सारी नैतिकता और तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर मुट्ठी पर लोगों ने अकूत संपदा जोड़ ली थी। इन लोगों को ''रॉबर बैरन'' की संज्ञा दी गई। याने कल के डाकू आज के साहूकार के रूप में समाज द्वारा स्वीकार कर लिए गए। इन डाकूओं के वंशवृक्ष आज भी फल-फूल रहे हैं। अमेरिका की राजनीति में इनका जितना दखल उस समय था उतना ही आज भी है। अमेरिकी अर्थनीति में जो ''ट्रिकल डाउन थ्यौरी'' है अर्थात जो रिस-रिस कर नीचे पहुंचे, उस बूंद को चाटकर गरीब संतुष्ट हो ले, वह इनकी ही देन है। जाहिर है कि हमारे टिप्पणीकार इस अमेरिकी सिध्दांत को भारत में लागू करना चाहते हैं। छल-कपट, बाहुबल या अन्य किसी भी अनैतिक तरीके से जो जितना कमा सकता है कमा ले। सारे उपभोग का उपयोग तो वह अकेला तो करेगा नहीं, वह जब टुकड़े फेंकेगा तो उन्हें उठाकर गरीब अपना पेट भर लेंगे। मैं उस दृश्य की कल्पना करता हूं कि मुकेश अंबानी अपने महल की सत्तासवीं मंजिल पर खड़े हैं। नीचे भूखे, गरीबों की लंबी कतार है जो स्वाति बूंद पाने के लिए चातक की तरह प्रतीक्षा कर रही है। अभी अंबानी जी ऊपर से जूठन फेंकेंगे और उसे बटोरने के लिए लोग उस पर टूट पड़ेंगे! अपने शहर रायपुर में आए दिन देखता हूं कि कहीं हवन चल रहा है, कहीं अखण्ड रामायण, कहीं हनुमान चालीसा का पाठ या कोई और धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक उत्सव, जिसमें लंगर होता है और दो रुपए किलो चावल के बावजूद लोग एक लंगर से दूसरे लंगर की ओर भागते नजर आते हैं।
हमारे उपरोक्त टिप्पणीकारों का मानना है कि देश इस समय आर्थिक प्रगति के एक नए दौर से गुजर रहा है। जब किस्मत वाले लोग खूब कमा लेंगे तो फिर एक मोड़ पर आकर स्थितियां सामान्य होने लगेंगी, फिर न कोई पैसे देगा और न कोई पैसे लेगा, याने भ्रष्टाचार अगले सौ पचास साल में अपने-आप समाप्त हो जाएगा। धन्य हैं ऐसे विद्वान! ऐसा लगता है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में ही हुई है और शायद उन्हें अपने देश के बारे में पूरा इल्म नहीं है।
एक ऐसी स्थापना की है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर कौशिक बसु ने। हमारे प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी अमेरिका से बहुत कुछ सीखा है। श्री बसु ने सुझाव दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए रिश्वत को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए। वे चूंकि प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं इसलिए निश्चित रूप से बहुत बड़े विद्वान होंगे, लेकिन उनकी यह बहुमूल्य सलाह हमारे जैसे नासमझ लोगों के पल्ले नहीं पड़ी। मेरी पहली और आखिरी प्रतिक्रिया तो यही है कि अन्य किसी देश में इस तरह सलाह देने वाले को प्रधानमंत्री ने तुरंत बर्खास्त कर वापिस अमेरिका भिजवा दिया होता कि जाओ वहीं बैंक में या मल्टीनेशनल कंपनी में काम करो, यहां तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं है; लेकिन ऐसा कुछ चूंकि अभी तक नहीं हुआ है इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि संसद के अगले सत्र में कहीं रिश्वत को वैधानिक रूप देने का विधेयक न पेश हो जाए! अगर कौशिक बसु की सलाह पर अमल हुआ तो उसके बाद क्या होगा, कल्पना ही की जा सकती है। हर दफ्तर में, हर सरकारी टेबल पर, हर सरकारी जेब में रिश्वत की रसीद बुक रहेगी। तत्काल आरक्षण जैसी इस व्यवस्था के बाद ऊपर का लेनदेन तो फिर चलता ही रहेगा।
कुछेक टीकाकारों ने यह भी कहा है कि बेईमानी, घूसखोरी, मिलावट ये सब तो हमारे खून में ही है। भारत की जनता का इससे बढ़कर अपमान भला क्या हो सकता है? एक अरब बीस करोड़ की आबादी को अन्न देने वाला किसान क्या बेईमान है या किसान से मजदूर बनने से अभिशप्त वह जो शहर में रिक्शा चला रहा है, बोझा ढो रहा है या फेरी लगा रहा है? जाहिर है कि ऐसे वक्तव्य सुखविलासी लोगों द्वारा ही दिए जाते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर एक सौ नब्बे साल राज ऐसी ही लोगों की मदद से किया। अंग्रेजों के आने के पहले भारत में आला दर्जे की उद्यमशीलता थी जिसे उन्होंने धीरे-धीरे खत्म किया। उन्होंने एक तरफ भारतीय उद्योगों को ठप्प किया, दूसरी ओर किसानों पर अकथ अत्याचार किए। उन्होंने ही भारत में एक ऐसे श्रेष्ठि वर्ग को जन्म दिया जो श्रमशीलता और उद्यमशीलता के बल पर नहीं, बल्कि एजेंसी प्रथा, सरकारी सप्लाई, सरकारी ठेके, अफीम की बिक्री तथा कपास और जूट के सट्टे आदि के सहारे पनपा। आज यही लोग देश के नैतिक पतन पर मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं। साभार-ललित सुरजन जी
आज दो दशक बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग उसी अंदाज में मुहिम छेड़ी जा रही है। जंतर-मंतर से लेकर देश में जगह-जगह सभाएं हो रही हैं, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर नई-नई संस्थाएं बन रही हैं, वक्तव्यों की बाढ़ आ गई है, पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख लिखे जा रहे हैं और शाम के समय सज-धजकर सुखी मध्यमवर्गीय क्रांतिकारी मोमबत्ती जलाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं ताकि अगले दिन अखबार में अपना चेहरा देखकर वे आत्मगौरव महसूस कर सके। अन्ना हजारे के खिलाफ दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस के अनेक नेता टिप्पणियां कर रहे हैं। कहीं भूषण पिता-पुत्र को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं, तो कहीं उनका बचाव भी किया जा रहा है। भारतीय राजनीति के रहस्यमय व्यक्तित्व सुब्रमण्यम स्वामी को जैसे नवजीवन मिल गया है तथा कभी टी.एन. शेषन के साथ मिलकर ट्रस्ट बनाने वाले विनीत नारायण फिर प्रकाश में आ गए हैं।
ऐसे बार-बार दोहराए जाने वाले दृश्यबंधों के बीच दो नई स्थापनाएं जानने में आईं। एकाधिक टिप्पणीकारों ने कहा कि भ्रष्टाचार से चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इनका मानना है कि अठारहवीं -उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में जो हुआ था वही आज के भारत में हो रहा है। आज से दो सौ साल पहले अमेरिका में सारी नैतिकता और तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर मुट्ठी पर लोगों ने अकूत संपदा जोड़ ली थी। इन लोगों को ''रॉबर बैरन'' की संज्ञा दी गई। याने कल के डाकू आज के साहूकार के रूप में समाज द्वारा स्वीकार कर लिए गए। इन डाकूओं के वंशवृक्ष आज भी फल-फूल रहे हैं। अमेरिका की राजनीति में इनका जितना दखल उस समय था उतना ही आज भी है। अमेरिकी अर्थनीति में जो ''ट्रिकल डाउन थ्यौरी'' है अर्थात जो रिस-रिस कर नीचे पहुंचे, उस बूंद को चाटकर गरीब संतुष्ट हो ले, वह इनकी ही देन है। जाहिर है कि हमारे टिप्पणीकार इस अमेरिकी सिध्दांत को भारत में लागू करना चाहते हैं। छल-कपट, बाहुबल या अन्य किसी भी अनैतिक तरीके से जो जितना कमा सकता है कमा ले। सारे उपभोग का उपयोग तो वह अकेला तो करेगा नहीं, वह जब टुकड़े फेंकेगा तो उन्हें उठाकर गरीब अपना पेट भर लेंगे। मैं उस दृश्य की कल्पना करता हूं कि मुकेश अंबानी अपने महल की सत्तासवीं मंजिल पर खड़े हैं। नीचे भूखे, गरीबों की लंबी कतार है जो स्वाति बूंद पाने के लिए चातक की तरह प्रतीक्षा कर रही है। अभी अंबानी जी ऊपर से जूठन फेंकेंगे और उसे बटोरने के लिए लोग उस पर टूट पड़ेंगे! अपने शहर रायपुर में आए दिन देखता हूं कि कहीं हवन चल रहा है, कहीं अखण्ड रामायण, कहीं हनुमान चालीसा का पाठ या कोई और धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक उत्सव, जिसमें लंगर होता है और दो रुपए किलो चावल के बावजूद लोग एक लंगर से दूसरे लंगर की ओर भागते नजर आते हैं।
हमारे उपरोक्त टिप्पणीकारों का मानना है कि देश इस समय आर्थिक प्रगति के एक नए दौर से गुजर रहा है। जब किस्मत वाले लोग खूब कमा लेंगे तो फिर एक मोड़ पर आकर स्थितियां सामान्य होने लगेंगी, फिर न कोई पैसे देगा और न कोई पैसे लेगा, याने भ्रष्टाचार अगले सौ पचास साल में अपने-आप समाप्त हो जाएगा। धन्य हैं ऐसे विद्वान! ऐसा लगता है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में ही हुई है और शायद उन्हें अपने देश के बारे में पूरा इल्म नहीं है।
एक ऐसी स्थापना की है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर कौशिक बसु ने। हमारे प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी अमेरिका से बहुत कुछ सीखा है। श्री बसु ने सुझाव दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए रिश्वत को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए। वे चूंकि प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं इसलिए निश्चित रूप से बहुत बड़े विद्वान होंगे, लेकिन उनकी यह बहुमूल्य सलाह हमारे जैसे नासमझ लोगों के पल्ले नहीं पड़ी। मेरी पहली और आखिरी प्रतिक्रिया तो यही है कि अन्य किसी देश में इस तरह सलाह देने वाले को प्रधानमंत्री ने तुरंत बर्खास्त कर वापिस अमेरिका भिजवा दिया होता कि जाओ वहीं बैंक में या मल्टीनेशनल कंपनी में काम करो, यहां तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं है; लेकिन ऐसा कुछ चूंकि अभी तक नहीं हुआ है इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि संसद के अगले सत्र में कहीं रिश्वत को वैधानिक रूप देने का विधेयक न पेश हो जाए! अगर कौशिक बसु की सलाह पर अमल हुआ तो उसके बाद क्या होगा, कल्पना ही की जा सकती है। हर दफ्तर में, हर सरकारी टेबल पर, हर सरकारी जेब में रिश्वत की रसीद बुक रहेगी। तत्काल आरक्षण जैसी इस व्यवस्था के बाद ऊपर का लेनदेन तो फिर चलता ही रहेगा।
कुछेक टीकाकारों ने यह भी कहा है कि बेईमानी, घूसखोरी, मिलावट ये सब तो हमारे खून में ही है। भारत की जनता का इससे बढ़कर अपमान भला क्या हो सकता है? एक अरब बीस करोड़ की आबादी को अन्न देने वाला किसान क्या बेईमान है या किसान से मजदूर बनने से अभिशप्त वह जो शहर में रिक्शा चला रहा है, बोझा ढो रहा है या फेरी लगा रहा है? जाहिर है कि ऐसे वक्तव्य सुखविलासी लोगों द्वारा ही दिए जाते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर एक सौ नब्बे साल राज ऐसी ही लोगों की मदद से किया। अंग्रेजों के आने के पहले भारत में आला दर्जे की उद्यमशीलता थी जिसे उन्होंने धीरे-धीरे खत्म किया। उन्होंने एक तरफ भारतीय उद्योगों को ठप्प किया, दूसरी ओर किसानों पर अकथ अत्याचार किए। उन्होंने ही भारत में एक ऐसे श्रेष्ठि वर्ग को जन्म दिया जो श्रमशीलता और उद्यमशीलता के बल पर नहीं, बल्कि एजेंसी प्रथा, सरकारी सप्लाई, सरकारी ठेके, अफीम की बिक्री तथा कपास और जूट के सट्टे आदि के सहारे पनपा। आज यही लोग देश के नैतिक पतन पर मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं। साभार-ललित सुरजन जी
''हिन्द स्वराज'' : सौ साल बाद
महात्मा गांधी की वैचारिक दृष्टि को प्रस्तुत करने वाली पुस्तक ''हिन्द स्वराज'' के प्रकाशन के सौ साल हो गए हैं। कुछ महीनों से कतिपय स्वयंभू गांधीवादी चिन्तक यह दावा करते दिख रहे हैं कि ''हिन्द स्वराज'' आज भी भारत के लिए शत-प्रतिशत प्रासंगिक है और पंडित जवाहर लाल नेहरू ने आजादी के बाद उसे कार्यान्वित न कर उनकी सैध्दान्तिक विरासत को नकारा है। आइए, देखें कि यह प्रचार कहां तक सही है।
''हिन्द स्वराज'' मूलत: गुजराती में लिखी गई थी। इसका हिन्दी अनुवाद 1921 में आया जिसकी प्रस्तावना में गांधी जी ने लिखा: ''यह पुस्तक मैंने 1909 में लिखी थी। 12 वर्षों के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज हैं।'' इसके ठीक लगभग एक चौथाई सदी बाद 5 अक्टूबर 1945 को उन्होंने नेहरू को लिखा कि वे पुस्तक में प्रस्तुत मूल विचारो पर अब भी कायम हैं। कहना न होगा कि साम्प्रदायिकता, साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता, आदि मुद्दों पर उनके विचार नही बदले परन्तु आजाद भारत आर्थिक निर्माण का कौन सा मार्ग अपनाए इस प्रश्न पर उनका दृष्टिकोण पहले जैसा लोचहीन नहीं रहा।
जिस समय इस पुस्तक की रचना हुई थी उस समय वे दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे। मगर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से उनका लगाव बना हुआ था। वे जब भी स्वदेश आते भारतीय नेताओं से मिलकर विचार विमर्श करते थे। एक बार लंदन होकर दक्षिण अफ्रीका जाते हुए उन्होंने ''हिन्द स्वराज'' की रचना संवाद के रूप में की और अपने द्वारा सम्पादित पत्र 'इंडियन ओपनियन' में प्रकाशित किया। काका कालेलकर ने पुस्तक के 1959 के संस्करण में लिखा है ''दक्षिण अफ्रीका के भारतीय लोगों के अधिकारों के लिए सतत् लडते हुए गांधी जी 1909 में लंदन गए थे। वहां कई क्रांतिकारी स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उनसे गांधी जी की जो बातचीत हुई उसकी का सार गाधंी जी ने एक काल्पनिक संवाद में ग्रथित किया है।''
गांधी जी ने रेखांकित किया कि अंग्रेजी शासन का खात्मा ही भारत का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। वस्तुत: अंग्रेजों द्वारा कायम की गई व्यवस्था का विकल्प विकसित किया जाए। काका कालेलकर के शब्दों में ''गांधी जी का कहना था कि भारत से केवल अंग्रेजों को उनके राज्य से हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज्य नही मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उध्दार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे पढे चन्द लोग पश्चिम के मोह में फंस गए हैं।''
गांधी जी ने अहिंसा, साम्प्रदायिक एकता, सविनय अवज्ञा द्वारा अन्याय के प्रतिरोधक, अपरिग्रह, हिन्दी, सामाजिक समरसता और साध्य के साथ साधन की पवित्रता पर जोर दिया। वे ऐसी अर्थव्यवस्था चाहते थे जिससे रोजगार के अवसर अधिकतम बढें अौर संवृध्दि का लाभ बहुसंख्य लोगों को मिले और उनका आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवनस्तर ऊंचा उठे।
पुस्तक को लेकर मतवैमिन्य आरंभ से ही रहा। श्री गोपालकृष्ण गोखले उसकी स्थापनाओं से सहमत न थे। काका कालेलकर के अनुसार ''स्व. गोखले जी ने इस किताब के विवेचन को कच्चा कहकर उसे नापसंद किया था और आशा की थी कि भारत लौटने के बाद गांधी जी स्वयं इस किताब को रद्द कर देंगे।''
नेहरू जी और गांधी जी के बीच ''हिन्द स्वराज''को लेकर वर्षों तक बहस के बाद भी कोई सहमति नहीं बन सकी। नेहरू ने जनवरी 1928 में गांधी जी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने रेखांकित किया कि वे उनके प्रति अपार श्रध्दा रखते हैं और मानते हैं कि वे ही ऐसे नेता हैं जो देश को स्वतंत्र करा सकते हैं। इसके बावजूद ''हिन्द स्वराज'' में व्यक्त उनके विचारों से उनकी कोई सहमति नहीं है। गांधी जी ने उत्तर में कहा कि नेहरू को पूरी स्वतंत्रता है कि वे उनसे सहमत या असहमत हों चाहें तो खुला वैचारिक युध्द भी छेड सकते हैं।
वर्ष 1945 में नेहरू ने ''हिन्द स्वराज'' को यथार्थ से परे बतलाया और गांव एवं ग्रामीण जीवन के महिमामंडल पर आपत्ति की। उन्हीं के शब्दों में ''संक्षेप में कहें तो, हमारे सामने सवाल सत्य बनाम असत्य या अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है। यह मानकर चलना चाहिए कि सच्चा सहयोग और शांतिपूर्ण तरीके हमारे लक्ष्य बनें और जो समाज इसमें मददगार हो उसकी स्थापना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। गांव आमतौर से बौध्दिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से पिछडा होता है और इस पिछडे पर्यावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती। संभवत: सर्ंकीणमना व्यक्ति अधिक मिथ्यावादी और हिंसक होंगे।''
खाद्य पदार्थ, कपडा, आवास, शिक्षा और सफाई के मामले में आत्मनिर्भरता देश और हर निवासी के लिए होनी चाहिए और इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पाने की कोशिश हो। परिवहन के आधुनिक साधनों तथा अन्य आधुनिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिक उपलब्धियों को प्राप्त किए बिना हम आगे नहीं बढ सकते। भारी उद्योगों के बिना हम प्रगति नही कर सकते। देश की परिस्थितियों को देखते हुए भारी एवं हल्के उद्योगों के बीच तालमेल बैठाना जरूरी है। इसके लिए बिजली अपरिहार्य है।
नेहरू मानते थे कि देश की स्वतंत्रता और उसकी सुरक्षा आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास के बिना असंभव है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में कोई भी देश वैज्ञानिक अनुसंधान के सुदृढ़ आधार के बिना आगे नहीं बढ़ सकता।
हमारे यहां करोडो लोगों के लिए महलों की व्यवस्था नहीं हो सकती। उन्हें सादे मगर आरामदेह आवास मिलें। शहरों में भी भीड-भाड बढ रही है और दुर्गुण पनप रहे हैं। हमें इसे रोकना होगा। ग्रामीण जीवन को सुविधा सम्पन्न और रोजगार के प्रचुर अवसरों से युक्त करे। जिससे शहरों की ओर पलायन रुके।
नेहरू का दृष्टिकोण ''हिन्द स्वराज'' की तुलना में वर्तमानकाल के लिए अधिक उपयुक्त है। सूचना, संचार और परिवहन के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों को देखते हुए हम चाहकर भी शेष विश्व से अलग नहीं रह सकते। हम शेष विश्व में पनपने वाले विचारों, आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों और जीवनशैली में होने वाले बदलावों से चाहे अनचाहे प्रभावित होंगे। हममें उनको अपनाने की ललक बढेग़ी जिसे दबाना असंभव होगा। रेलवे, हवाई यात्रा, इंटरनेट आदि के साथ कुछ दुर्गुण भी पनपते हैं जिनके कारण हम उनका परित्याग नहीं कर सकते बल्कि उनसे बचाव का इंतजाम करते हुए आगे बढ सकते हैं।
पुराने जमाने के ग्रामीण जीवन का कितना भी महिमामंडन क्यों न किया जाए वह प्रगति का वाहक नहीं बन सकता। अगर हम गांधी जी की कल्पना की अर्थव्यवस्था आज बनाते हैं तो उसे अमेद्य बाडे से बाकी दुनिया से अलग रखना होगा जो सर्वथा असंभव है। विदेशी वस्तुओं और विचारों का प्रवेश किसी न किसी तरह होगा और उनके संभावित प्रभावों से बचा नहीं जा सकेगा।
''हिन्द स्वराज'' अपने बहुमूल्य विचारों और उच्च भावनाओं के बावजूद वर्तमान समय में प्रासंगिक नहीं है। ऐसा कहना किसी भी प्रकार से गांधी जी का अनादर नहीं है। उदाहरण के लिए हम गीता को ले सकते हैं जिसमें कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि विजयी होने पर राज्य और मारे जाने पर स्वर्ग मिलेगा। इस प्रकार युद्ध कतई घाटे का सौदा नहीं हो सकता। यह बात तब ठीक थी जब युध्दबंदी की अवधारणा न की। अर्थव्यवस्था की तत्कालीन स्थिति में युध्दबंदी को दास बनाकर काम पर नहीं लगाया जा सकता था। यह तीसरा विकल्प आज मौजूद है। अत: कृष्ण की हम जितनी भी पूजा क्यों न करें, उनका उपर्युक्त कथन न्यायशास्त्र की दृष्टि से हेत्वाभास से ग्रस्त है क्योंकि वह द्विपाश के फंदे में फंसा है।
अंत में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर कह सकते हैं कि गांधी जी तर्क को काफी अहमियत देते थे। सब खींचतान के बावजूद नेहरू ने गांधी जी से अपनी बात मनवाने में सफलता प्राप्त कर ली। उपलब्ध दस्तावेजों से स्पष्ट है कि अप्रैल 1940 में कभी नेहरू, गांधी जी और अर्थशास्त्री डा. वी.के.आर.वी. राव के बीच स्वतंत्रता के बाद भारत में अर्थव्यवस्था के संभावित स्वरूप को लेकर गहन चर्चा हुई। राजकुमारी अमृत कौर ने पूरी बहस को रिकार्ड किया। उनके अनुसार नेहरू ने स्वतंत्र भारत में औद्योगिक अर्थव्यवस्था की स्थापना का विशेष रूप से समर्थन किया जिसके जरिए उत्पादन बढा कर जनता का जीवन स्तर ऊंचा होगा और देश शक्तिशाली बनेगा। इससे देश की सुरक्षा पुख्ता होगी और स्वतंत्रता बनी रहेगी। नेहरू ने गांधी जी से कहा: मैं कुटीर उद्योगों को उस हद तक आगे ले जाना चाहता हूं जहां तक हम लोग ले जा सकते हैं। परन्तु मैं औद्योगिकी कारण के बिना भारत की कल्पना नहीं कर सकता। ये उद्योग ही कुटीर उद्योगों की सहायता करेंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर आप अपने बड़े़ उद्योगों को दबाकर बैठे रहेंगे तो दूसरे देश आपके ऊपर चढ़ बैठेंगे।
अंतत: गांधी जी ने यह वक्तव्य दिया कि औद्योगिकीकरण को लेकर उनके और नेहरू के बीच कोई मतभेद नही है। उन्हें ''भारत के औद्योगीकरण और बड़े उद्योगों को लेकर कोई समस्या नहीं है। करांची प्रस्ताव का अनुमोदन करता है, जिसे तैयार करने में मेरा भी योगदान था।'' कहना न होगा कि जो नेहरू द्वारा गांधी जी के साथ वैचारिक धोखे की बात कर रहे हैं वे देश की जनता को धोखे में रखना चाहते हैं। साभार-गिरीश मिश्र [देशबंधु]
''हिन्द स्वराज'' मूलत: गुजराती में लिखी गई थी। इसका हिन्दी अनुवाद 1921 में आया जिसकी प्रस्तावना में गांधी जी ने लिखा: ''यह पुस्तक मैंने 1909 में लिखी थी। 12 वर्षों के अनुभव के बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज हैं।'' इसके ठीक लगभग एक चौथाई सदी बाद 5 अक्टूबर 1945 को उन्होंने नेहरू को लिखा कि वे पुस्तक में प्रस्तुत मूल विचारो पर अब भी कायम हैं। कहना न होगा कि साम्प्रदायिकता, साध्य एवं साधन दोनों की पवित्रता, आदि मुद्दों पर उनके विचार नही बदले परन्तु आजाद भारत आर्थिक निर्माण का कौन सा मार्ग अपनाए इस प्रश्न पर उनका दृष्टिकोण पहले जैसा लोचहीन नहीं रहा।
जिस समय इस पुस्तक की रचना हुई थी उस समय वे दक्षिण अफ्रीका में सक्रिय थे। मगर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से उनका लगाव बना हुआ था। वे जब भी स्वदेश आते भारतीय नेताओं से मिलकर विचार विमर्श करते थे। एक बार लंदन होकर दक्षिण अफ्रीका जाते हुए उन्होंने ''हिन्द स्वराज'' की रचना संवाद के रूप में की और अपने द्वारा सम्पादित पत्र 'इंडियन ओपनियन' में प्रकाशित किया। काका कालेलकर ने पुस्तक के 1959 के संस्करण में लिखा है ''दक्षिण अफ्रीका के भारतीय लोगों के अधिकारों के लिए सतत् लडते हुए गांधी जी 1909 में लंदन गए थे। वहां कई क्रांतिकारी स्वराज्य प्रेमी भारतीय नवयुवक उन्हें मिले। उनसे गांधी जी की जो बातचीत हुई उसकी का सार गाधंी जी ने एक काल्पनिक संवाद में ग्रथित किया है।''
गांधी जी ने रेखांकित किया कि अंग्रेजी शासन का खात्मा ही भारत का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। वस्तुत: अंग्रेजों द्वारा कायम की गई व्यवस्था का विकल्प विकसित किया जाए। काका कालेलकर के शब्दों में ''गांधी जी का कहना था कि भारत से केवल अंग्रेजों को उनके राज्य से हटाने से भारत को अपनी सच्ची सभ्यता का स्वराज्य नही मिलेगा। हम अंग्रेजों को हटा दें और उन्हीं की सभ्यता और उन्हीं के आदर्श को स्वीकार करें तो हमारा उध्दार नहीं होगा। हमें अपनी आत्मा को बचाना चाहिए। भारत के लिखे पढे चन्द लोग पश्चिम के मोह में फंस गए हैं।''
गांधी जी ने अहिंसा, साम्प्रदायिक एकता, सविनय अवज्ञा द्वारा अन्याय के प्रतिरोधक, अपरिग्रह, हिन्दी, सामाजिक समरसता और साध्य के साथ साधन की पवित्रता पर जोर दिया। वे ऐसी अर्थव्यवस्था चाहते थे जिससे रोजगार के अवसर अधिकतम बढें अौर संवृध्दि का लाभ बहुसंख्य लोगों को मिले और उनका आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवनस्तर ऊंचा उठे।
पुस्तक को लेकर मतवैमिन्य आरंभ से ही रहा। श्री गोपालकृष्ण गोखले उसकी स्थापनाओं से सहमत न थे। काका कालेलकर के अनुसार ''स्व. गोखले जी ने इस किताब के विवेचन को कच्चा कहकर उसे नापसंद किया था और आशा की थी कि भारत लौटने के बाद गांधी जी स्वयं इस किताब को रद्द कर देंगे।''
नेहरू जी और गांधी जी के बीच ''हिन्द स्वराज''को लेकर वर्षों तक बहस के बाद भी कोई सहमति नहीं बन सकी। नेहरू ने जनवरी 1928 में गांधी जी को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने रेखांकित किया कि वे उनके प्रति अपार श्रध्दा रखते हैं और मानते हैं कि वे ही ऐसे नेता हैं जो देश को स्वतंत्र करा सकते हैं। इसके बावजूद ''हिन्द स्वराज'' में व्यक्त उनके विचारों से उनकी कोई सहमति नहीं है। गांधी जी ने उत्तर में कहा कि नेहरू को पूरी स्वतंत्रता है कि वे उनसे सहमत या असहमत हों चाहें तो खुला वैचारिक युध्द भी छेड सकते हैं।
वर्ष 1945 में नेहरू ने ''हिन्द स्वराज'' को यथार्थ से परे बतलाया और गांव एवं ग्रामीण जीवन के महिमामंडल पर आपत्ति की। उन्हीं के शब्दों में ''संक्षेप में कहें तो, हमारे सामने सवाल सत्य बनाम असत्य या अहिंसा बनाम हिंसा का नहीं है। यह मानकर चलना चाहिए कि सच्चा सहयोग और शांतिपूर्ण तरीके हमारे लक्ष्य बनें और जो समाज इसमें मददगार हो उसकी स्थापना ही हमारा लक्ष्य होना चाहिए। गांव आमतौर से बौध्दिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से पिछडा होता है और इस पिछडे पर्यावरण में कोई प्रगति नहीं हो सकती। संभवत: सर्ंकीणमना व्यक्ति अधिक मिथ्यावादी और हिंसक होंगे।''
खाद्य पदार्थ, कपडा, आवास, शिक्षा और सफाई के मामले में आत्मनिर्भरता देश और हर निवासी के लिए होनी चाहिए और इस लक्ष्य को जल्द से जल्द पाने की कोशिश हो। परिवहन के आधुनिक साधनों तथा अन्य आधुनिक तकनीकी एवं प्रौद्योगिक उपलब्धियों को प्राप्त किए बिना हम आगे नहीं बढ सकते। भारी उद्योगों के बिना हम प्रगति नही कर सकते। देश की परिस्थितियों को देखते हुए भारी एवं हल्के उद्योगों के बीच तालमेल बैठाना जरूरी है। इसके लिए बिजली अपरिहार्य है।
नेहरू मानते थे कि देश की स्वतंत्रता और उसकी सुरक्षा आधुनिक प्रौद्योगिकी पर आधारित अर्थव्यवस्था के विकास के बिना असंभव है। वर्तमान वैश्विक संदर्भ में कोई भी देश वैज्ञानिक अनुसंधान के सुदृढ़ आधार के बिना आगे नहीं बढ़ सकता।
हमारे यहां करोडो लोगों के लिए महलों की व्यवस्था नहीं हो सकती। उन्हें सादे मगर आरामदेह आवास मिलें। शहरों में भी भीड-भाड बढ रही है और दुर्गुण पनप रहे हैं। हमें इसे रोकना होगा। ग्रामीण जीवन को सुविधा सम्पन्न और रोजगार के प्रचुर अवसरों से युक्त करे। जिससे शहरों की ओर पलायन रुके।
नेहरू का दृष्टिकोण ''हिन्द स्वराज'' की तुलना में वर्तमानकाल के लिए अधिक उपयुक्त है। सूचना, संचार और परिवहन के क्षेत्र में हुए परिवर्तनों को देखते हुए हम चाहकर भी शेष विश्व से अलग नहीं रह सकते। हम शेष विश्व में पनपने वाले विचारों, आर्थिक, सामाजिक परिवर्तनों और जीवनशैली में होने वाले बदलावों से चाहे अनचाहे प्रभावित होंगे। हममें उनको अपनाने की ललक बढेग़ी जिसे दबाना असंभव होगा। रेलवे, हवाई यात्रा, इंटरनेट आदि के साथ कुछ दुर्गुण भी पनपते हैं जिनके कारण हम उनका परित्याग नहीं कर सकते बल्कि उनसे बचाव का इंतजाम करते हुए आगे बढ सकते हैं।
पुराने जमाने के ग्रामीण जीवन का कितना भी महिमामंडन क्यों न किया जाए वह प्रगति का वाहक नहीं बन सकता। अगर हम गांधी जी की कल्पना की अर्थव्यवस्था आज बनाते हैं तो उसे अमेद्य बाडे से बाकी दुनिया से अलग रखना होगा जो सर्वथा असंभव है। विदेशी वस्तुओं और विचारों का प्रवेश किसी न किसी तरह होगा और उनके संभावित प्रभावों से बचा नहीं जा सकेगा।
''हिन्द स्वराज'' अपने बहुमूल्य विचारों और उच्च भावनाओं के बावजूद वर्तमान समय में प्रासंगिक नहीं है। ऐसा कहना किसी भी प्रकार से गांधी जी का अनादर नहीं है। उदाहरण के लिए हम गीता को ले सकते हैं जिसमें कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि विजयी होने पर राज्य और मारे जाने पर स्वर्ग मिलेगा। इस प्रकार युद्ध कतई घाटे का सौदा नहीं हो सकता। यह बात तब ठीक थी जब युध्दबंदी की अवधारणा न की। अर्थव्यवस्था की तत्कालीन स्थिति में युध्दबंदी को दास बनाकर काम पर नहीं लगाया जा सकता था। यह तीसरा विकल्प आज मौजूद है। अत: कृष्ण की हम जितनी भी पूजा क्यों न करें, उनका उपर्युक्त कथन न्यायशास्त्र की दृष्टि से हेत्वाभास से ग्रस्त है क्योंकि वह द्विपाश के फंदे में फंसा है।
अंत में उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर कह सकते हैं कि गांधी जी तर्क को काफी अहमियत देते थे। सब खींचतान के बावजूद नेहरू ने गांधी जी से अपनी बात मनवाने में सफलता प्राप्त कर ली। उपलब्ध दस्तावेजों से स्पष्ट है कि अप्रैल 1940 में कभी नेहरू, गांधी जी और अर्थशास्त्री डा. वी.के.आर.वी. राव के बीच स्वतंत्रता के बाद भारत में अर्थव्यवस्था के संभावित स्वरूप को लेकर गहन चर्चा हुई। राजकुमारी अमृत कौर ने पूरी बहस को रिकार्ड किया। उनके अनुसार नेहरू ने स्वतंत्र भारत में औद्योगिक अर्थव्यवस्था की स्थापना का विशेष रूप से समर्थन किया जिसके जरिए उत्पादन बढा कर जनता का जीवन स्तर ऊंचा होगा और देश शक्तिशाली बनेगा। इससे देश की सुरक्षा पुख्ता होगी और स्वतंत्रता बनी रहेगी। नेहरू ने गांधी जी से कहा: मैं कुटीर उद्योगों को उस हद तक आगे ले जाना चाहता हूं जहां तक हम लोग ले जा सकते हैं। परन्तु मैं औद्योगिकी कारण के बिना भारत की कल्पना नहीं कर सकता। ये उद्योग ही कुटीर उद्योगों की सहायता करेंगे। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर आप अपने बड़े़ उद्योगों को दबाकर बैठे रहेंगे तो दूसरे देश आपके ऊपर चढ़ बैठेंगे।
अंतत: गांधी जी ने यह वक्तव्य दिया कि औद्योगिकीकरण को लेकर उनके और नेहरू के बीच कोई मतभेद नही है। उन्हें ''भारत के औद्योगीकरण और बड़े उद्योगों को लेकर कोई समस्या नहीं है। करांची प्रस्ताव का अनुमोदन करता है, जिसे तैयार करने में मेरा भी योगदान था।'' कहना न होगा कि जो नेहरू द्वारा गांधी जी के साथ वैचारिक धोखे की बात कर रहे हैं वे देश की जनता को धोखे में रखना चाहते हैं। साभार-गिरीश मिश्र [देशबंधु]
गुरुवार, 21 जुलाई 2011
टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला
पौने दो लाख करोड़ का टू जी स्पैक्ट्रम घोटाला कोई एक दिन में नहीं हो
गया। हाई प्रोफाइल दलालों ने ए. राजा को दो बार संचार मंत्री बनाने के
लिए पूरी लॉबिंग की। ताकि वे मिल जुलकर अरबों बना सकें। मामला साफ होता
है नीरा राडिया की अलग-अलग लोगों से फोन पर हुई बातचीत से। यह फोन
इनकमटैक्स विभाग ने टेप किया। किसने नीरा से क्या कहा, पढ़िए सीधी बातचीत
का हिंदी अनुवाद।
किसने नीरा से क्या कहा, पढ़िए सीधी बातचीत का हिंदी अनुवाद
मैं पीएम के घर से निकलते ही आजाद से बात करूंगी : बरखा दत्त
बरखा दत्त - ग्रुप एडिटर, एनडीटीवी चैनल (अंग्रेजी)
नीरा- हाय, क्या मैंने तुम्हें जगा दिया?
बरखा- नहीं नहीं, मैं उठ गई थी, पूरी रात ही हो गई। मामला वैसे ही अटका हुआ है।
नीरा- हां, सुनो, वो उनसे सीधी बात करना चाहते हैं। अब यही समस्या है।
बरखा- हां तो, पीएम उसके (दयानिधि मारन के) मीडिया में चले जाने से खफा हैं।
नीरा- लेकिन बालू ने ऐसा ही किया ना.. करुणानिधि ने उसे ऐसा करने को नहीं कहा था।
बरखा- अच्छा, ऐसा क्या।
नीरा- उससे कहा गया था कि वह आ जाए और कांग्रेस से बात करे।
बरखा- और उसने सब खुलासा कर दिया।
नीरा- हां, मीडिया बाहर ही मौजूद था।
बरखा- हे भगवान, तो अब क्या? मुझे उन्हें क्या बताना है? बताओ, मैं वो
बात कर लूंगी?
नीरा- मैंने उनकी (करुणानिधि की) पत्नी और बेटी से लंबी बात की। उनकी
समस्या यह है कि वे (कांग्रेस नेता) सीधे करुणानिधि से बात करना चाहते
हैं। लेकिन वे ऐसा मारन और बालू के सामने नहीं कर सकते। उन्हें करुणानिधि
से सीधी बात करने की जरूरत है।
कांग्रेस के पास तमिलनाडु में बहुत से नेता हैं, जो करुणानिधि से सीधी
बात कर सकते हैं। सबसे बड़ी समस्या अझागिरी के समर्थक हैं, जो मारन को
कैबिनेट में लिए जाने के खिलाफ हैं और अझागिरी को राज्य मंत्री का दर्जा
देने से असंतुष्ट हैं।
बरखा- मुझे पता है।
नीरा- कांग्रेस को करुणानिधि को यह बताने की जरूरत है कि हमने मारन के
बारे में कुछ नहीं कहा।
बरखा- ओके, मुझे उनसे फिर बात करने दो।
--------------
बरखा- हाय नीरा
नीरा- बरखा, हाय, मैंने उनसे फिर बात की और वे यह मान रही हैं कि उन्हें
इस तरह सूची नहीं भेजनी चाहिए, .. लेकिन मुद्दा यह है कि विभागों के
बंटवारे पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई।
बरखा- क्या वाकई?
नीरा- बरखा, मुझे पता चला है कि कांग्रेस किसी से बात कर रही है लेकिन
भगवान जाने डीएमके में वह कौन है।
बरखा- हां, मारन ही होना चाहिए।
नीरा- हां, अब उन्हें यह करने की जरूरत है कि उन्हें कनीमोझी से बात करनी
होगी ताकि वह अपने पिता से चर्चा कर सकें।
यहां तक कि प्रधानमंत्री के साथ चर्चा में वही दुभाषिए की भूमिका में थी,
लेकिन वह सिर्फ दो मिनट की ही बातचीत थी।
बरखा- ओके
नीरा- वो कह रही है कि कोई वरिष्ठ नेता जैसे गुलामनबी आजाद.. क्योंकि
उनके पास बातचीत का अधिकार है।
बरखा- ठीक है। मैं आरसीआर (प्रधानमंत्री निवास) से निकलते ही आजाद से बात करूंगी।
बरखा- देखो, क्या हुआ कि कांग्रेस में सभी शपथ ग्रहण समारोह में व्यस्त
थे। तो मैं किसी से बात नहीं कर पाई। अब सब खत्म हुआ है तो मैं फोन करती
हूं।
नीरा- कनीमोझी अभी चेन्नई पहुंची हंै। मेरी अभी बात हुई है।
बरखा- दया कहां है? कहां है मारन?
नीरा- दया शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आया क्योंकि उसे वापस बुला लिया
गया। वह करुणानिधि को बताने गया है कि उसे अहमद पटेल ने शपथ के लिए
बुलाया था। लेकिन नेता (करुणानिधि ) कह रहे हैं कि इसके लिए उसे कांग्रेस
में शामिल होना पड़ेगा।
बरखा- (हंसते हुए) तो अब?
नीरा- तो राजा ही बचा है जिसे शामिल होना चाहिए। और वो 8.40 बजे की
फ्लाइट से आ रहा है..
बरखा- ओके
मैंने दोनों भाइयों के बीच बातचीत की कोशिश की थी :प्रभु चावला
प्रभु चावला : संपादक, भाषाई प्रकाशन, इंडिया टुडे
नीरा- हाय प्रभु!
प्रभु- हां बताओ
नीरा- कुछ नहीं, मैं सिर्फ आपसे स्थितियां समझना चाहती थीं। प्रभु- किस
बारे में? नीरा- इस महान ऐतिहासिक फैसले के बारे में क्या विचार है।
प्रभु- कौन-सा, बॉम्बे वाला?
नीरा- जिसने परिवार को देश हित के ऊपर खड़ा कर दिया।
प्रभु- देखिए जहां दोनों भाई (मुकेश और अनिल अंबानी) शामिल होंगे, वहां
देश को भी शामिल होना पड़ेगा?
नीरा- शायद यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा।
प्रभु- लेकिन दोनों भाई एक-दूसरे से बात नहीं करते। ऐसा कोई है भी नहीं
जो दोनों को बात करने के लिए मजबूर कर दे।
नीरा- वो तो होगा नहीं, प्रभु तुम भी जानते हो।
प्रभु- मैंने कोशिश की थी, नहीं हुआ। वो (मुकेश अंबानी) कभी जवाब नहीं
देता। इसलिए मैंने उसे फोन करना बंद कर दिया है। उसको मैंने 15-20 दिन
पहले मैसेज भेजा था।
उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके बाद मैंने मैसेज
नहीं भेजा। फैसला आने से पहले मैं उसके बारे में मालूम करना चाहता था।
नीरा- क्या फैसला उसके खिलाफ आ रहा है।
प्रभु- हां, लेकिन इतना घमंडी है ना, उसके साथ क्या करें? दोनों भाइयों
को मैं समझ नहीं पाता।
नीरा- प्रभु मुझे एक बात बताओ। फैसला फिक्स है ना?
प्रभु- देखो इस देश में, दोनों के पास फिक्स करने की क्षमता है। छोटा भाई
पैसे कम खर्च करता है, कंजूस है सबसे ज्यादा। लेकिन वो बड़े भाई के
मुकाबले ज्यादा मोबाइल है। बड़ा भाई तो धीरूभाई की तय की हुई सीमा से आगे
जाना ही नहीं चाहता। वो उन्हीं लोगों पर निर्भर है जिन्हें धीरूभाई ने
बनाया। अब वे किसी काम के नहीं। अनिल ने नए सूत्र बनाए हैं, नए संपर्क,
नई सोच विकसित की है। यदि उसको कुछ.. क्योंकि आज-कल सब फिक्स हो जाता है।
यदि सुप्रीम कोर्ट में उलट-फेर हो गया तो वह सालों के लिए बर्बाद हो
जाएगा। यदि उसके पक्ष में फैसला नहीं आया तो? तब तो वह खत्म ना?
नीरा- कोर्ट के आर्डर में, 328 पन्नों में, मैं आपको दे सकती हूं। मैं
बताऊं डुअल टेक्नोलॉजी मामले में जो वाहनवती ने करवाया, राजा ने डॉ.
शर्मा को ट्राई चेअरमैन बनाया। मैं गारंटी देती हूं उसमें वही पैन ड्राइव
इस्तेमाल की गई होगी।
्र
प्रभु- जिस तरह वह (मुकेश) सुप्रीम कोर्ट जा रहा है, इससे ज्यादा मैं
तुमको कुछ नहीं बता सकता। जिन लोगों को वह इस काम के लिए इस्तेमाल कर रहा
है, वे भरोसे के काबिल नहीं हैं। तो इन कमजोर कड़ियों को मजबूत करना है
ना?
नीरा- अनिल अपना लगा होगा, अपने लोगों के जरिए, डीएमके के जरिए, अपने चीफ
जस्टिस के साथ।
प्रभु- नहीं, चीफ जस्टिस केरल का है। मुकेश जिस तरीके से चल रहा है, मैं
कहना चाहता हूं कि वह सही नहीं है।
नीरा- मैं बात करूंगी थोड़ी देर में, मैं बोलूंगी कि वो (मुकेश अंबानी)
आपसे बात करे।
प्रभु- मैंने उसे मैसेज भेजा था। दस बार मैसेज भेजा, उसने जवाब नहीं
दिया। मैं इस मामले में पड़ना नहीं चाहता.. क्योंकि मेरा बेटा अनिल के
लिए काम करता है। मैं उससे कुछ भी बात नहीं करना चाहता। लेकिन सुन तो
लेता हूं, इधर-उधर पोलिटिकल लोगों से। लेकिन वह उसके लिए नहीं खड़ा हो
रहा है। मेरा बेटा इस केस में शामिल नहीं है। वह इस केस में मेरे बेटे पर
भरोसा नहीं करता है। अनिल को मेरे बेटे पर भरोसा नहीं है।
नीरा- आपका बेटा किसके साथ है?
प्रभु- वह अनिल के लिए काम करता है। उसकी अपनी वकालत कंपनी है। वह कई
लोगों के लिए काम करता है। अनिल की मोबाइल कंपनी ने उसे काम दिया था। इस
केस में वह उसके साथ नहीं है। लेकिन इधर-उधर से चीजें तो पकड़ ही लेते
हैं सब। मेरे पास जो जानकारी है, वह कानूनी क्षेत्र के सूत्रों से मिली
है। एक बार जब तुम बताओगी कि प्रभु, लंदन के लोगों से मिली जानकारी के
आधार पर तुम्हारे बारे में कुछ कह रहे थे तो वो समझ जाएगा।
नीरा- उन्हें बताऊंगी। प्रभु-छोटा भाई बड़ा हरामी है।
नीरा-हरामी तो है लेकिन हर वक्त हरामीपना नहीं चलता ना?
************
एनडीटीवी पर बरखा दत्त का बयान
दिलीप पडगांवकर (टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक) ने पूछा : जब द्रमुक
और कांग्रेस मंत्रिमंडल गठन पर पहले ही बातचीत कर रहे थे, तो आपको
संदेशवाहक बनने की क्या जरूरत थी?
बरखा : एक पत्रकार की हैसियत से मैं तो केवल और जानकारी हासिल करने के
लिए राडिया से बात कर रही थी।
संजय बारू (बिजनेस स्टैंडर्ड के संपादक)- आपनेखुद कहा कि आप राडिया का
संदेश अहमद पटेल तक पहुंचा देंगी?
बरखा : वह तो मैंने उनका विश्वास जीतने के लिए झूठा वादा किया था।
संजय बारू - आपने यह भी कहा कि आपने राजा के बारे में गुलाम नबी आजाद से
बात कर ली है?
बरखा : मैंने झूठ बोला था।
मनु जोसेफ (ओपेन मैगजीन के संपादक) - सरकार के गठन में कॉपरेरेट पीआर का दो
पार्टियों से बातचीत करना क्या दशक की सबसे सनसनीखेज खबर नहीं थी? आपने
इसे रिपोर्ट क्यों नहीं किया?
बरखा - हां, मैं सही फैसला नहीं ले पाई, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता
कि मैं किसी भी तरह सत्ता की दलाली या भ्रष्टाचार में लिप्त थी।
*************************
हेडलाइन्स टुडे पर प्रभु चावला की सफाई
मैं मुकेश अंबानी को वैसे ही सलाह दे रहा था जैसे ‘द हिंदू’ के संपादक
श्रीलंका सरकार को देते हैं
हरतोष सिंह बल (ओपन पत्रिका के राजनीतिक संपादक) : आप मुकेश अंबानी को
गैस के बंटवारे पर फैसले के बारे में चेतावनी क्यों देना चाहते थे?
चावला : नहीं, मैं तो इस बारे में केवल उनसे बात (प्रोब) करके जानकारी
लेना चाहता था।
बल : आपने टेप की स्क्रिप्ट में बदलाव कर दिया है। टेप में चेतावनी
(फोरवार्न) शब्द है जबकि आपने स्क्रिप्ट में उसे बदल कर गहराई से बात
करना (प्रोब) कर दिया?
चावला : नहीं आपका आरोप सरासर निराधार है। मैंने चेतावनी शब्द का प्रयोग
ही नहीं किया।
एम जे अकबर (इंडिया टुडे के संपादकीय निदेशक): लेकिन आप मुकेश अंबानी को
बिना मांगे सलाह क्यों देना चाहते थे?
चावला - मेरा मानना है कि मुकेश और अनिल
के झगड़े से पूरा देश प्रभावित हो रहा था। इसीलिए मैं उन दोनों को ही
सलाह देना चाहता था कि उन्हें देश हित में समझौता कर लेने में कोई हर्ज
नहीं है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
वैसे भी मैं अपने विचारों को लेकर अपने दर्शकों और पाठकों के अलावा और
किसी के प्रति उत्तरदाई नहीं हूं। सभी संपादक अपने कॉलम में सलाह देते
हैं। मैं तो वैसे ही सलाह दे रहा था जैसे एन राम श्रीलंका की सरकार को
देते हैं।
एन राम (द हिंदू के संपादक) - मुझे भरोसा है कि प्रभु चावला ने कुछ भी
गलत नहीं किया। बल्कि उन्हें तो सफाई देने के लिए आयोजित इस कार्यक्रम
में बुलाया ही नहीं जाना चाहिए था।
[साभार Dainik bhaskar]
गया। हाई प्रोफाइल दलालों ने ए. राजा को दो बार संचार मंत्री बनाने के
लिए पूरी लॉबिंग की। ताकि वे मिल जुलकर अरबों बना सकें। मामला साफ होता
है नीरा राडिया की अलग-अलग लोगों से फोन पर हुई बातचीत से। यह फोन
इनकमटैक्स विभाग ने टेप किया। किसने नीरा से क्या कहा, पढ़िए सीधी बातचीत
का हिंदी अनुवाद।
किसने नीरा से क्या कहा, पढ़िए सीधी बातचीत का हिंदी अनुवाद
मैं पीएम के घर से निकलते ही आजाद से बात करूंगी : बरखा दत्त
बरखा दत्त - ग्रुप एडिटर, एनडीटीवी चैनल (अंग्रेजी)
नीरा- हाय, क्या मैंने तुम्हें जगा दिया?
बरखा- नहीं नहीं, मैं उठ गई थी, पूरी रात ही हो गई। मामला वैसे ही अटका हुआ है।
नीरा- हां, सुनो, वो उनसे सीधी बात करना चाहते हैं। अब यही समस्या है।
बरखा- हां तो, पीएम उसके (दयानिधि मारन के) मीडिया में चले जाने से खफा हैं।
नीरा- लेकिन बालू ने ऐसा ही किया ना.. करुणानिधि ने उसे ऐसा करने को नहीं कहा था।
बरखा- अच्छा, ऐसा क्या।
नीरा- उससे कहा गया था कि वह आ जाए और कांग्रेस से बात करे।
बरखा- और उसने सब खुलासा कर दिया।
नीरा- हां, मीडिया बाहर ही मौजूद था।
बरखा- हे भगवान, तो अब क्या? मुझे उन्हें क्या बताना है? बताओ, मैं वो
बात कर लूंगी?
नीरा- मैंने उनकी (करुणानिधि की) पत्नी और बेटी से लंबी बात की। उनकी
समस्या यह है कि वे (कांग्रेस नेता) सीधे करुणानिधि से बात करना चाहते
हैं। लेकिन वे ऐसा मारन और बालू के सामने नहीं कर सकते। उन्हें करुणानिधि
से सीधी बात करने की जरूरत है।
कांग्रेस के पास तमिलनाडु में बहुत से नेता हैं, जो करुणानिधि से सीधी
बात कर सकते हैं। सबसे बड़ी समस्या अझागिरी के समर्थक हैं, जो मारन को
कैबिनेट में लिए जाने के खिलाफ हैं और अझागिरी को राज्य मंत्री का दर्जा
देने से असंतुष्ट हैं।
बरखा- मुझे पता है।
नीरा- कांग्रेस को करुणानिधि को यह बताने की जरूरत है कि हमने मारन के
बारे में कुछ नहीं कहा।
बरखा- ओके, मुझे उनसे फिर बात करने दो।
--------------
बरखा- हाय नीरा
नीरा- बरखा, हाय, मैंने उनसे फिर बात की और वे यह मान रही हैं कि उन्हें
इस तरह सूची नहीं भेजनी चाहिए, .. लेकिन मुद्दा यह है कि विभागों के
बंटवारे पर कभी कोई चर्चा नहीं हुई।
बरखा- क्या वाकई?
नीरा- बरखा, मुझे पता चला है कि कांग्रेस किसी से बात कर रही है लेकिन
भगवान जाने डीएमके में वह कौन है।
बरखा- हां, मारन ही होना चाहिए।
नीरा- हां, अब उन्हें यह करने की जरूरत है कि उन्हें कनीमोझी से बात करनी
होगी ताकि वह अपने पिता से चर्चा कर सकें।
यहां तक कि प्रधानमंत्री के साथ चर्चा में वही दुभाषिए की भूमिका में थी,
लेकिन वह सिर्फ दो मिनट की ही बातचीत थी।
बरखा- ओके
नीरा- वो कह रही है कि कोई वरिष्ठ नेता जैसे गुलामनबी आजाद.. क्योंकि
उनके पास बातचीत का अधिकार है।
बरखा- ठीक है। मैं आरसीआर (प्रधानमंत्री निवास) से निकलते ही आजाद से बात करूंगी।
बरखा- देखो, क्या हुआ कि कांग्रेस में सभी शपथ ग्रहण समारोह में व्यस्त
थे। तो मैं किसी से बात नहीं कर पाई। अब सब खत्म हुआ है तो मैं फोन करती
हूं।
नीरा- कनीमोझी अभी चेन्नई पहुंची हंै। मेरी अभी बात हुई है।
बरखा- दया कहां है? कहां है मारन?
नीरा- दया शपथ ग्रहण समारोह में नहीं आया क्योंकि उसे वापस बुला लिया
गया। वह करुणानिधि को बताने गया है कि उसे अहमद पटेल ने शपथ के लिए
बुलाया था। लेकिन नेता (करुणानिधि ) कह रहे हैं कि इसके लिए उसे कांग्रेस
में शामिल होना पड़ेगा।
बरखा- (हंसते हुए) तो अब?
नीरा- तो राजा ही बचा है जिसे शामिल होना चाहिए। और वो 8.40 बजे की
फ्लाइट से आ रहा है..
बरखा- ओके
मैंने दोनों भाइयों के बीच बातचीत की कोशिश की थी :प्रभु चावला
प्रभु चावला : संपादक, भाषाई प्रकाशन, इंडिया टुडे
नीरा- हाय प्रभु!
प्रभु- हां बताओ
नीरा- कुछ नहीं, मैं सिर्फ आपसे स्थितियां समझना चाहती थीं। प्रभु- किस
बारे में? नीरा- इस महान ऐतिहासिक फैसले के बारे में क्या विचार है।
प्रभु- कौन-सा, बॉम्बे वाला?
नीरा- जिसने परिवार को देश हित के ऊपर खड़ा कर दिया।
प्रभु- देखिए जहां दोनों भाई (मुकेश और अनिल अंबानी) शामिल होंगे, वहां
देश को भी शामिल होना पड़ेगा?
नीरा- शायद यह देश के लिए अच्छा नहीं होगा।
प्रभु- लेकिन दोनों भाई एक-दूसरे से बात नहीं करते। ऐसा कोई है भी नहीं
जो दोनों को बात करने के लिए मजबूर कर दे।
नीरा- वो तो होगा नहीं, प्रभु तुम भी जानते हो।
प्रभु- मैंने कोशिश की थी, नहीं हुआ। वो (मुकेश अंबानी) कभी जवाब नहीं
देता। इसलिए मैंने उसे फोन करना बंद कर दिया है। उसको मैंने 15-20 दिन
पहले मैसेज भेजा था।
उसने कोई जवाब नहीं दिया। उसके बाद मैंने मैसेज
नहीं भेजा। फैसला आने से पहले मैं उसके बारे में मालूम करना चाहता था।
नीरा- क्या फैसला उसके खिलाफ आ रहा है।
प्रभु- हां, लेकिन इतना घमंडी है ना, उसके साथ क्या करें? दोनों भाइयों
को मैं समझ नहीं पाता।
नीरा- प्रभु मुझे एक बात बताओ। फैसला फिक्स है ना?
प्रभु- देखो इस देश में, दोनों के पास फिक्स करने की क्षमता है। छोटा भाई
पैसे कम खर्च करता है, कंजूस है सबसे ज्यादा। लेकिन वो बड़े भाई के
मुकाबले ज्यादा मोबाइल है। बड़ा भाई तो धीरूभाई की तय की हुई सीमा से आगे
जाना ही नहीं चाहता। वो उन्हीं लोगों पर निर्भर है जिन्हें धीरूभाई ने
बनाया। अब वे किसी काम के नहीं। अनिल ने नए सूत्र बनाए हैं, नए संपर्क,
नई सोच विकसित की है। यदि उसको कुछ.. क्योंकि आज-कल सब फिक्स हो जाता है।
यदि सुप्रीम कोर्ट में उलट-फेर हो गया तो वह सालों के लिए बर्बाद हो
जाएगा। यदि उसके पक्ष में फैसला नहीं आया तो? तब तो वह खत्म ना?
नीरा- कोर्ट के आर्डर में, 328 पन्नों में, मैं आपको दे सकती हूं। मैं
बताऊं डुअल टेक्नोलॉजी मामले में जो वाहनवती ने करवाया, राजा ने डॉ.
शर्मा को ट्राई चेअरमैन बनाया। मैं गारंटी देती हूं उसमें वही पैन ड्राइव
इस्तेमाल की गई होगी।
्र
प्रभु- जिस तरह वह (मुकेश) सुप्रीम कोर्ट जा रहा है, इससे ज्यादा मैं
तुमको कुछ नहीं बता सकता। जिन लोगों को वह इस काम के लिए इस्तेमाल कर रहा
है, वे भरोसे के काबिल नहीं हैं। तो इन कमजोर कड़ियों को मजबूत करना है
ना?
नीरा- अनिल अपना लगा होगा, अपने लोगों के जरिए, डीएमके के जरिए, अपने चीफ
जस्टिस के साथ।
प्रभु- नहीं, चीफ जस्टिस केरल का है। मुकेश जिस तरीके से चल रहा है, मैं
कहना चाहता हूं कि वह सही नहीं है।
नीरा- मैं बात करूंगी थोड़ी देर में, मैं बोलूंगी कि वो (मुकेश अंबानी)
आपसे बात करे।
प्रभु- मैंने उसे मैसेज भेजा था। दस बार मैसेज भेजा, उसने जवाब नहीं
दिया। मैं इस मामले में पड़ना नहीं चाहता.. क्योंकि मेरा बेटा अनिल के
लिए काम करता है। मैं उससे कुछ भी बात नहीं करना चाहता। लेकिन सुन तो
लेता हूं, इधर-उधर पोलिटिकल लोगों से। लेकिन वह उसके लिए नहीं खड़ा हो
रहा है। मेरा बेटा इस केस में शामिल नहीं है। वह इस केस में मेरे बेटे पर
भरोसा नहीं करता है। अनिल को मेरे बेटे पर भरोसा नहीं है।
नीरा- आपका बेटा किसके साथ है?
प्रभु- वह अनिल के लिए काम करता है। उसकी अपनी वकालत कंपनी है। वह कई
लोगों के लिए काम करता है। अनिल की मोबाइल कंपनी ने उसे काम दिया था। इस
केस में वह उसके साथ नहीं है। लेकिन इधर-उधर से चीजें तो पकड़ ही लेते
हैं सब। मेरे पास जो जानकारी है, वह कानूनी क्षेत्र के सूत्रों से मिली
है। एक बार जब तुम बताओगी कि प्रभु, लंदन के लोगों से मिली जानकारी के
आधार पर तुम्हारे बारे में कुछ कह रहे थे तो वो समझ जाएगा।
नीरा- उन्हें बताऊंगी। प्रभु-छोटा भाई बड़ा हरामी है।
नीरा-हरामी तो है लेकिन हर वक्त हरामीपना नहीं चलता ना?
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एनडीटीवी पर बरखा दत्त का बयान
दिलीप पडगांवकर (टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक) ने पूछा : जब द्रमुक
और कांग्रेस मंत्रिमंडल गठन पर पहले ही बातचीत कर रहे थे, तो आपको
संदेशवाहक बनने की क्या जरूरत थी?
बरखा : एक पत्रकार की हैसियत से मैं तो केवल और जानकारी हासिल करने के
लिए राडिया से बात कर रही थी।
संजय बारू (बिजनेस स्टैंडर्ड के संपादक)- आपनेखुद कहा कि आप राडिया का
संदेश अहमद पटेल तक पहुंचा देंगी?
बरखा : वह तो मैंने उनका विश्वास जीतने के लिए झूठा वादा किया था।
संजय बारू - आपने यह भी कहा कि आपने राजा के बारे में गुलाम नबी आजाद से
बात कर ली है?
बरखा : मैंने झूठ बोला था।
मनु जोसेफ (ओपेन मैगजीन के संपादक) - सरकार के गठन में कॉपरेरेट पीआर का दो
पार्टियों से बातचीत करना क्या दशक की सबसे सनसनीखेज खबर नहीं थी? आपने
इसे रिपोर्ट क्यों नहीं किया?
बरखा - हां, मैं सही फैसला नहीं ले पाई, लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता
कि मैं किसी भी तरह सत्ता की दलाली या भ्रष्टाचार में लिप्त थी।
*************************
हेडलाइन्स टुडे पर प्रभु चावला की सफाई
मैं मुकेश अंबानी को वैसे ही सलाह दे रहा था जैसे ‘द हिंदू’ के संपादक
श्रीलंका सरकार को देते हैं
हरतोष सिंह बल (ओपन पत्रिका के राजनीतिक संपादक) : आप मुकेश अंबानी को
गैस के बंटवारे पर फैसले के बारे में चेतावनी क्यों देना चाहते थे?
चावला : नहीं, मैं तो इस बारे में केवल उनसे बात (प्रोब) करके जानकारी
लेना चाहता था।
बल : आपने टेप की स्क्रिप्ट में बदलाव कर दिया है। टेप में चेतावनी
(फोरवार्न) शब्द है जबकि आपने स्क्रिप्ट में उसे बदल कर गहराई से बात
करना (प्रोब) कर दिया?
चावला : नहीं आपका आरोप सरासर निराधार है। मैंने चेतावनी शब्द का प्रयोग
ही नहीं किया।
एम जे अकबर (इंडिया टुडे के संपादकीय निदेशक): लेकिन आप मुकेश अंबानी को
बिना मांगे सलाह क्यों देना चाहते थे?
चावला - मेरा मानना है कि मुकेश और अनिल
के झगड़े से पूरा देश प्रभावित हो रहा था। इसीलिए मैं उन दोनों को ही
सलाह देना चाहता था कि उन्हें देश हित में समझौता कर लेने में कोई हर्ज
नहीं है। इसमें कुछ भी गलत नहीं है।
वैसे भी मैं अपने विचारों को लेकर अपने दर्शकों और पाठकों के अलावा और
किसी के प्रति उत्तरदाई नहीं हूं। सभी संपादक अपने कॉलम में सलाह देते
हैं। मैं तो वैसे ही सलाह दे रहा था जैसे एन राम श्रीलंका की सरकार को
देते हैं।
एन राम (द हिंदू के संपादक) - मुझे भरोसा है कि प्रभु चावला ने कुछ भी
गलत नहीं किया। बल्कि उन्हें तो सफाई देने के लिए आयोजित इस कार्यक्रम
में बुलाया ही नहीं जाना चाहिए था।
[साभार Dainik bhaskar]
विकीलीक्स [सरकारों की नींद उड़ाती साइट]
ऑस्ट्रेलिया वासी जूलियन एस्सेंज को एक दिन सुझा कि क्यों ना एक ऐसी साइट बनाई जाए जहाँ लोग अपने मन की बात धड़ल्ले से लिख सकें, जहाँ लोग भ्रष्टाचार और मानवाधिकार हनन के खिलाफ सबूत पेश कर सकें, जहाँ सरकारों के "कुकर्मो" की पोल खोली जा सके. इस विचार के साथ ही जन्म हुआ विकीलीक्स नामक साइट का जो कि आजकल काफी चर्चा में है.
विकीलीक्स को जनवरी 2007 में लॉंच किया गया है और इसके बाद लगभग 3 साल के भीतर इस साइट ने ना केवल कई देशों की सरकारों की नींद उड़ा दी है बल्कि कई कॉर्पोरेट घरानों और हस्तियों की पोल भी खोली है. विकीलीक्स फिलहाल अमेरिका की अफगान लड़ाई और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की आतंकवादियों के साथ सांठगाठ का पर्दाफाश कर रही है. परंतु ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि विकीलीक्स ने इतने बड़े षड़यंत्र की पोल खोली हो. विकीलीक्स ने पहले भी कई बार ऐसे दस्तावेज लीक किए हैं जो रातोंरात दुनिया भर के समाचारपत्रों के शीर्षक बन गए थे.
विकीलीक्स ने ही अबु गरीब जेल और उसमें अमेरिकी सैन्य अधिकारियों द्वारा कैदियों के ऊपर किए जाने वाले जूल्मों का ब्यौरा प्रकाशित किया था. इससे संबंधित दस्तावेज विकीलीक्स पर छपते ही दुनिया भर में हंगामा मच गया था और इसका असर इतना व्यापक था कि राष्ट्रपति ओबामा को घोषणा करनी पड़ी कि अबु गरीब जेल को बंद कर दिया जाएगा.
इसके अलावा विकीलीक्स ने अमेरिकी जेट पायलटों द्वारा किए गए युद्ध अपराधों की भी पोल खोली थी और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी की प्रत्याशी सारा पालीन के निजी ईमेल भी प्रकाशित कर दिए थे. इससे सारा पालीन की योजनाओं को धक्का लगा था.
और आईएसआई और अमेरिकी सेना के अफगान मिशन से संबंधित भारी भरकम दस्तावेजों के लीक होने के बाद से तो दुनिया भर में ना केवल अमेरिका की किरकिरी हुई है बल्कि पाकिस्तान के लिए भी जवाब देना भारी पड़ रहा है. यह विकीलीक्स का असर है.
विकीलीक्स पर 3 साल के भीतर करीब 12 लाख दस्तावेजों को लीक किया गया है. कहना ना होगा अधिकतर दस्तावेज अमेरिकी सरकार से संबंधित हैं.
तो क्या विकीलीक्स का मुख्य उद्देश्य सरकारों की पोल खोलना ही है? शुरू में ऐसा नहीं था. जब विकीलीक्स की शुरूआत की गई थी तो उद्देश्य यह था कि इंटरनेट जनता को एक ऐसा हथियार उपलब्ध कराया जाए जहाँ उन्हें सही, सटीक और गुप्त जानकारियाँ मिल सके. इस साइट पर कोई भी व्यक्ति लोगिन करने के बाद गुप्त दस्तावेज रख सकता था.
परंतु समय के साथ इस साइट के नियमों को बदला गया और अब कोई भी दस्तावेज बिना जाँच के प्रकाशित नहीं किए जाते. अब कोई भी दस्तावेज प्रकाशित होने से पहले जाँच की प्रक्रिया से गुजरते हैं. इसके लिए विकिलीक्स कुछ समीक्षकों की सहायता लेता है. इसके अलावा जो व्यक्ति जानकारी लीक कर रहा है उसकी भी जाँच की जाती है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लीक करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य क्या है और वह जानकारी कितनी सही है.
अब विकीलीक्स पर मात्र वही दस्तावेज लीक किए जाते हैं जो राजनीतिक, ऐतिहासिक अथवा सांस्कृतिक महत्व के हों. प्रधानता उन दस्तावेजों को दी जाती है जो एशिया और अफ्रीका महाद्विप के तानाशाही देशों के खिलाफ हो. इस वजह से चीन सहित कई अन्य देशों तथा कुछ बैंकों और कोर्पोरेट घरानों ने इस साइट को बंद कराना भी चाहा था परंतु सफलता नहीं मिली. यह साइट एक जटील ओनलाइन वेब होस्टिंग तकनीक पर आधारित है और इससे यह पता लगाना कठीन हो जाता है कि इस साइट से संबंधित सर्वर कहाँ मौजूद हैं.
विकीलीक्स कभी दिवालिया होने की कगार पर थी और चर्चा थी कि यदि इस साइट को सहारा नहीं मिला तो यह बंद हो जाएगी. वैसे यह सरकारों के लिए तो खुशी की ही बात थी. परंतु ऐसा हुआ नहीं. विकीलीक्स को कहाँ से "सहारा' मिला यह तो ज्ञात नहीं परंतु यह साइट अभी भी कई लोगों के रक्तचाप को बढा रही है.
[साभार तरकश.कॉम,पंकज बेगाणी]
विकीलीक्स को जनवरी 2007 में लॉंच किया गया है और इसके बाद लगभग 3 साल के भीतर इस साइट ने ना केवल कई देशों की सरकारों की नींद उड़ा दी है बल्कि कई कॉर्पोरेट घरानों और हस्तियों की पोल भी खोली है. विकीलीक्स फिलहाल अमेरिका की अफगान लड़ाई और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई की आतंकवादियों के साथ सांठगाठ का पर्दाफाश कर रही है. परंतु ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि विकीलीक्स ने इतने बड़े षड़यंत्र की पोल खोली हो. विकीलीक्स ने पहले भी कई बार ऐसे दस्तावेज लीक किए हैं जो रातोंरात दुनिया भर के समाचारपत्रों के शीर्षक बन गए थे.
विकीलीक्स ने ही अबु गरीब जेल और उसमें अमेरिकी सैन्य अधिकारियों द्वारा कैदियों के ऊपर किए जाने वाले जूल्मों का ब्यौरा प्रकाशित किया था. इससे संबंधित दस्तावेज विकीलीक्स पर छपते ही दुनिया भर में हंगामा मच गया था और इसका असर इतना व्यापक था कि राष्ट्रपति ओबामा को घोषणा करनी पड़ी कि अबु गरीब जेल को बंद कर दिया जाएगा.
इसके अलावा विकीलीक्स ने अमेरिकी जेट पायलटों द्वारा किए गए युद्ध अपराधों की भी पोल खोली थी और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों से पहले रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी की प्रत्याशी सारा पालीन के निजी ईमेल भी प्रकाशित कर दिए थे. इससे सारा पालीन की योजनाओं को धक्का लगा था.
और आईएसआई और अमेरिकी सेना के अफगान मिशन से संबंधित भारी भरकम दस्तावेजों के लीक होने के बाद से तो दुनिया भर में ना केवल अमेरिका की किरकिरी हुई है बल्कि पाकिस्तान के लिए भी जवाब देना भारी पड़ रहा है. यह विकीलीक्स का असर है.
विकीलीक्स पर 3 साल के भीतर करीब 12 लाख दस्तावेजों को लीक किया गया है. कहना ना होगा अधिकतर दस्तावेज अमेरिकी सरकार से संबंधित हैं.
तो क्या विकीलीक्स का मुख्य उद्देश्य सरकारों की पोल खोलना ही है? शुरू में ऐसा नहीं था. जब विकीलीक्स की शुरूआत की गई थी तो उद्देश्य यह था कि इंटरनेट जनता को एक ऐसा हथियार उपलब्ध कराया जाए जहाँ उन्हें सही, सटीक और गुप्त जानकारियाँ मिल सके. इस साइट पर कोई भी व्यक्ति लोगिन करने के बाद गुप्त दस्तावेज रख सकता था.
परंतु समय के साथ इस साइट के नियमों को बदला गया और अब कोई भी दस्तावेज बिना जाँच के प्रकाशित नहीं किए जाते. अब कोई भी दस्तावेज प्रकाशित होने से पहले जाँच की प्रक्रिया से गुजरते हैं. इसके लिए विकिलीक्स कुछ समीक्षकों की सहायता लेता है. इसके अलावा जो व्यक्ति जानकारी लीक कर रहा है उसकी भी जाँच की जाती है. इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि लीक करने वाले व्यक्ति का उद्देश्य क्या है और वह जानकारी कितनी सही है.
अब विकीलीक्स पर मात्र वही दस्तावेज लीक किए जाते हैं जो राजनीतिक, ऐतिहासिक अथवा सांस्कृतिक महत्व के हों. प्रधानता उन दस्तावेजों को दी जाती है जो एशिया और अफ्रीका महाद्विप के तानाशाही देशों के खिलाफ हो. इस वजह से चीन सहित कई अन्य देशों तथा कुछ बैंकों और कोर्पोरेट घरानों ने इस साइट को बंद कराना भी चाहा था परंतु सफलता नहीं मिली. यह साइट एक जटील ओनलाइन वेब होस्टिंग तकनीक पर आधारित है और इससे यह पता लगाना कठीन हो जाता है कि इस साइट से संबंधित सर्वर कहाँ मौजूद हैं.
विकीलीक्स कभी दिवालिया होने की कगार पर थी और चर्चा थी कि यदि इस साइट को सहारा नहीं मिला तो यह बंद हो जाएगी. वैसे यह सरकारों के लिए तो खुशी की ही बात थी. परंतु ऐसा हुआ नहीं. विकीलीक्स को कहाँ से "सहारा' मिला यह तो ज्ञात नहीं परंतु यह साइट अभी भी कई लोगों के रक्तचाप को बढा रही है.
[साभार तरकश.कॉम,पंकज बेगाणी]
क्या है विकीलीक्स, कौन है असांजे
विकीलीक्स द्वारा अमेरिकी दूतावासों से जुड़े ढाई लाख गोपनीय संदेश जारी किए गए जाने के बाद अमेरिका सहित पूरी दुनिया में हड़कंप मच गया है। इतिहास में खुफिया जानकारियों का इतना बड़ा खुलासा इससे पहले कभी नहीं हुआ था। विकीलीक्स ने इससे पहले इराक और अफगानिस्तान में अमेरिकी सेना की ज्यादती की पोल खोल कर अमेरिका की नींद उड़ा दी थी।
विकीलीक्स एक वेबसाइट है, जो संवेदनशील दस्तावेज प्रकाशित करती है। यह एक अंतरराष्ट्रीय गैर लाभ मीडिया संगठन है। इसमें दस्तावेज किस सूत्र से प्राप्त हुए हैं, यह गुप्त रखा जाता है। यह दस्तावेज किसी देश की सरकार, कंपनी के, संस्था के या किसी धार्मिक संगठन के भी हो सकते हैं।
2006 में जूलियन असांजे नामक शख्स ने विकीलीक्स वेबसाइट की स्थापना की। असांजे विकीलीक्स. कॉम के एडिटर इन चीफ और प्रवक्ता हैं। असांजे का मानना है कि उनकी पांच लोगों की टीम ने इतने अहम और गुप्त दस्तावेज जारी किए हैं, जितनी पूरी दुनिया की मीडिया में नहीं किए गए हैं। इस वेबसाइट का संचालन ‘द सनशाइन प्रेस’ करती है। अपने लांच के एक साल के अंदर ही वेबसाइट ने दावा किया था कि उसकी वेबसाइट पर 12 लाख से भी अधिक ऐसे दस्तावेज हैं, जिसके बारे में दुनिया नहीं जानती। इसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
2008 में इंग्लैंड की ‘इकोनॉमिस्ट मैगजीन’ ने विकीलीक्स को ‘न्यू मीडिया अवॉर्ड’ दिया था। 2009 में विकीलीक्स और इसके प्रमुख जूलियन असांजे को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने यूके मीडिया अवॉर्ड दिया। मई 2010 में ‘न्यूयॉर्क डेली न्यूज’ ने विकीलीक्स को उन वेबसाइट्स की सूची में सबसे ऊपर रखा, जिनमें समाचार बदल देने की क्षमता है। विकीलीक्स को कोई भी व्यक्ति ऐसी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक ड्रॉप बॉक्स के जरिए दे सकता है, जो सेंसर्ड हो, प्रतिबंधित हो या पहले कभी न प्रकाशित हुई हो। विकीलीक्स की वेबसाइट विकीलीक्सडॉटओआरजी पर खबर देने संबंधित जानकारी जुटाने के लिए ऑन लाइन चैट की भी सुविधा है।
हैकर असांजे1971 में जन्मे जूलियन असांजे 1980 के दशक के आखिर में हैकिंग करने वाले ग्रुप 'इंटरनैशनल सबवर्सिव्स' के सदस्य थे। इस ग्रुप को मेंडेक्स के नाम से भी जाना जाता था। इस दौरान 1991 में मेलबर्न में मौजूद असांजे के घर पर ऑस्ट्रेलियाई पुलिस ने छापेमारी भी की थी। १९९४ में असांजे ने कंप्यूटर प्रोग्रामर की हैसियत से काम करना शुरू किया। 1999 में असांजे ने लीक्स. ओआरजी नाम से एक डोमेन रजिस्टर्ड कराया था। लेकिन असांजे का कहना है तब उन्होंने इस डोमेन पर कोई काम नहीं किया था।
अमेरिका के लिए 'सिरदर्द'
असांजे अमेरिका के लिए लंबे से समय से 'सिरदर्द' बने हुए हैं। उन्होंने इराक युद्ध से जुड़े लगभग चार लाख दस्तावेज अपनी वेबसाइट पर जारी किए थे जिसमें अमेरिका, इंग्लैंड एवं नाटो की सेनाओं के गंभीर युद्ध अपराध करने के सबूत मौजूद होने का दावा किया गया था। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओवामा तक ने उन्हें इसके खिलाफ चेतावनी दी। इसके बाद गिरफ्तारी के डर से उन्हें छिप-छिप कर जीवन बिताना पडा। एक इंटरव्यू में असांजे ने कहा कि वह झूठे नामों से होटलों में रह रहे हैं, अपने बालों को दूसरे रंगों में रंग रहे हैं और क्रेडिट कार्ड की जगह नकद राशि का उपयोग कर रहे हैं। इसके लिए अक्सर उन्हें अपने दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते हैं।
रेप का आरोप
अगस्त, 2010 में असांजे पर एक महिला के साथ बलात्कार करने का आरोप लगा। साथ ही यह आरोप भी लगा कि दो दिनों बाद ही असांजे ने स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में एक महिला के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। असांजे ने अपने बचाव में कहा कि मेरे एक महिला के साथ शारीरिक संबंध बने थे, लेकिन वह दोनों की मर्जी से हुआ था। असांजे ने कहा कि मेरे ऊपर आरोप लगाने वाले दरअसल विकीलीक्स के खुलासों से सहमे हुए हैं।
कैसे लीक हुए दस्तावेज
ताजा मामला दुनियाभर के देशों में अमेरिकी राजदूतों द्वारा विदेश मंत्रालय को भेजे गए गोपनीय संदेशों से जुड़ा है जिसने अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ‘रणनीति’ की पोल खोल दी। आरोप है कि ये गोपनीय संदेश अमेरिकी सैनिक ब्रेडले मैनिंग ने ही चुराए और विकीलीक्स वेबसाइट के संस्थापक जूलियन असांजे को सौंप दिए।
इन गोपनीय दस्तावेजों को समटने वाले टेक्सट फाइल की साइज 1.6 गीगाबाइट है। यह फाइल पहले एक सीडी में थी जिसके कवर पर मशहूर पॉप सिंगर लेडी गागा की तस्वीर थी। इससे ऐसा लगता है कि यह लेडी गागा के किसी एल्बम की सीडी है। बाद में इसे एक मेमोरी स्टिक में ट्रांसफर किया गया। यह स्टिक इतना छोटा था कि इसे चाबी के छल्ले में आसानी से लटका कर चला जा सकता है।
आने वाले दिनों में इस दस्तावेजों के सार्वजनिक होने से और बड़े खुलासे सामने आएंगे। दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका की सहयोगी और दुश्मन देशों के प्रति क्या नीति है, एक-एक कर परतें खुल रही हैं। विकीलीक्स की ओर से दुनियाभर के 250 से अधिक देशों में स्थित अमेरिकी दूतावासों की 251287 फाइलें सार्वजनिक की जा रही हैं जो अमेरिकी प्रशासन को भेजी गई थीं। इन फाइलों पर लिखा था कि इन्हें गैर-अमेरिकी नागरिकों को किसी भी सूरत में नहीं दिखाना है।
अमेरिकी सेना के मुताबिक ब्रेडले मैनिंग (22) नाम के एक सैनिक पर गोपनीय दस्तावेज लीक किए जाने का संदेह है जो पहले बगदाद के पास एक सैन्य शिविर पर तैनात था। इस सैनिक ने न सिर्फ अमेरिकी विदेश मंत्रालय की गोपनीय दस्तावेज लीक किए बल्कि अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी सेना की कार्रवाई की कई तस्वीरें भी उतारी हैं जिसमें स्थानीय लोगों की मौत हुई थी।
संदिग्ध सैनिक को पिछले सात महीने से कैद कर रखा गया है। सैनिक को ५२ साल की कैद की सज़ा सुनाई गई है। इस सैनिक की एक हैकर से हुई बातचीत भी रिकार्ड की गई है। बातचीत के दौरान उसने कहा कि वह ‘लेडी गागा’ जैसी कोई सीडी ला रहा है जिसकी सूचनाएं एक छोटी फाइल में समेटी जाएगी। वह पिछले आठ महीने से रोज 14 घंटे गोपनीय सूचनाओं के नेटवर्क पर नजरें गड़ाए हुए है। अमेरिकी सेना के खुफिया विश्लेषक रह चुके मैनिंग की नजर में विकिलीक्स सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ताओं की आजादी का प्रतीक है।
किए बड़े खुलासे
2006 दिसंबर विकीलीक्स ने पहला डॉक्यूमेंट पोस्ट किया था। इसमें सोमालिया के सरकारी अधिकारी की हत्या के निर्णय पर शेख हसन दाहिर ने हस्ताक्षर किए थे।
2008 सितंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार के दौरान सारा पालिन ने अपने कार्य संबंधी संदेश को भेजने के लिए निजी याहू ई-मेल का प्रयोग किया था। यह पब्लिक रिकॉर्ड लॉ का उल्लंघन था।
2009 जनवरी में यूनाइटेड नेशन्स की 600 आंतरिक रिपोर्ट की सूचनाओं को लीक लिया।
2009 जनवरी में यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एन्जिलिया की क्लाइमेट रिसर्च यूनिट के विवादास्पद डॉक्यूमेंट को छापा गया। इसमें मौसम वैज्ञानिकों के बीच ई-मेल में हुई बातें थीं। यूनिवर्सिटी के अनुसार, ई-मेल और दस्तावेज सर्वर को हैक कर हासिल किए गए थे।
19 मार्च 2009 को विभिन्न देशों की उन गैरकानूनी साइट्स की सूची प्रकाशित की जो प्रतिबंधित थीं। इसमें चाइल्ड पोर्नोग्राफी और आतंकवाद से जुड़ी साइट्स के पते थे।28 जनवरी 2009 को पेरू के राजनेताओं और बिजनेसमैन के बीच 86 टेलीफोन कॉल की रिकॉर्डिग जारी की। इसमें पेट्रोगेट ऑयल स्कैंडल से जुड़ी बातें थीं, जो कि 2008 में हुआ था।
16 जनवरी, 2009 को ईरानी समाचार एजेंसी ने रिपोर्ट दी कि ईरान की एटोमिक एजेंसी ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख घोल्म रेजा ने 12 वर्षो की सेवा के बाद अज्ञात कारणों से तत्काल इस्तीफा दे दिया। बाद में विकीलीक्स ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया कि ईरान में गंभीर परमाणु दुर्घटना हुई थी। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स ने जारी एक रिपोर्ट में कहा कि एनरिच सेंट्रीफ्यूगल ऑपरेशनल्स (संवर्धित परमाणु सामग्री) की संख्या 4700 से रहस्यमयी तरीके से घट कर 3900 हो गई थी।
25 नवंबर, 2009 को विकीलीक्स ने 5.70 लाख पेजर मैसेज को रिलीज किया। ये संदेश 11 सितंबर को हुई आतंकी हमले के दिन पेंटागन अधिकारियों और न्यूयॉर्क सिटी पुलिस विभाग के बीच किए गए थे।
2010 अक्टूबर में इराक युद्ध से संबंधित चार लाख दस्तावेज जारी किए।
22 अक्टूबर 2010 को अल जजीरा ने पहली बार इस रिलीज का विश्लेषण किया।
25 जुलाई, 2010 को अफगान युद्ध में 2004-09 के बीच हुई घटनाओं, नागरिकों की मौतों के बारे में 92 हजार दस्तावेज जारी किए।
15 मार्च, 2010 को अमेरिकी रक्षा विभाग के 32 पेज की खुफिया रिपोर्ट रिलीज की। इसमें 2008 की काउंटरइंटेलीजेंस एनालिसिस रिपोर्ट थी। असांजे ने कहा कि सेना की रिपोर्ट पूरी तरह से सही नहीं है।
[साभार दैनिक भास्कर]
विकीलीक्स एक वेबसाइट है, जो संवेदनशील दस्तावेज प्रकाशित करती है। यह एक अंतरराष्ट्रीय गैर लाभ मीडिया संगठन है। इसमें दस्तावेज किस सूत्र से प्राप्त हुए हैं, यह गुप्त रखा जाता है। यह दस्तावेज किसी देश की सरकार, कंपनी के, संस्था के या किसी धार्मिक संगठन के भी हो सकते हैं।
2006 में जूलियन असांजे नामक शख्स ने विकीलीक्स वेबसाइट की स्थापना की। असांजे विकीलीक्स. कॉम के एडिटर इन चीफ और प्रवक्ता हैं। असांजे का मानना है कि उनकी पांच लोगों की टीम ने इतने अहम और गुप्त दस्तावेज जारी किए हैं, जितनी पूरी दुनिया की मीडिया में नहीं किए गए हैं। इस वेबसाइट का संचालन ‘द सनशाइन प्रेस’ करती है। अपने लांच के एक साल के अंदर ही वेबसाइट ने दावा किया था कि उसकी वेबसाइट पर 12 लाख से भी अधिक ऐसे दस्तावेज हैं, जिसके बारे में दुनिया नहीं जानती। इसे कई पुरस्कार मिल चुके हैं।
2008 में इंग्लैंड की ‘इकोनॉमिस्ट मैगजीन’ ने विकीलीक्स को ‘न्यू मीडिया अवॉर्ड’ दिया था। 2009 में विकीलीक्स और इसके प्रमुख जूलियन असांजे को एमनेस्टी इंटरनेशनल ने यूके मीडिया अवॉर्ड दिया। मई 2010 में ‘न्यूयॉर्क डेली न्यूज’ ने विकीलीक्स को उन वेबसाइट्स की सूची में सबसे ऊपर रखा, जिनमें समाचार बदल देने की क्षमता है। विकीलीक्स को कोई भी व्यक्ति ऐसी जानकारी इलेक्ट्रॉनिक ड्रॉप बॉक्स के जरिए दे सकता है, जो सेंसर्ड हो, प्रतिबंधित हो या पहले कभी न प्रकाशित हुई हो। विकीलीक्स की वेबसाइट विकीलीक्सडॉटओआरजी पर खबर देने संबंधित जानकारी जुटाने के लिए ऑन लाइन चैट की भी सुविधा है।
हैकर असांजे1971 में जन्मे जूलियन असांजे 1980 के दशक के आखिर में हैकिंग करने वाले ग्रुप 'इंटरनैशनल सबवर्सिव्स' के सदस्य थे। इस ग्रुप को मेंडेक्स के नाम से भी जाना जाता था। इस दौरान 1991 में मेलबर्न में मौजूद असांजे के घर पर ऑस्ट्रेलियाई पुलिस ने छापेमारी भी की थी। १९९४ में असांजे ने कंप्यूटर प्रोग्रामर की हैसियत से काम करना शुरू किया। 1999 में असांजे ने लीक्स. ओआरजी नाम से एक डोमेन रजिस्टर्ड कराया था। लेकिन असांजे का कहना है तब उन्होंने इस डोमेन पर कोई काम नहीं किया था।
अमेरिका के लिए 'सिरदर्द'
असांजे अमेरिका के लिए लंबे से समय से 'सिरदर्द' बने हुए हैं। उन्होंने इराक युद्ध से जुड़े लगभग चार लाख दस्तावेज अपनी वेबसाइट पर जारी किए थे जिसमें अमेरिका, इंग्लैंड एवं नाटो की सेनाओं के गंभीर युद्ध अपराध करने के सबूत मौजूद होने का दावा किया गया था। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओवामा तक ने उन्हें इसके खिलाफ चेतावनी दी। इसके बाद गिरफ्तारी के डर से उन्हें छिप-छिप कर जीवन बिताना पडा। एक इंटरव्यू में असांजे ने कहा कि वह झूठे नामों से होटलों में रह रहे हैं, अपने बालों को दूसरे रंगों में रंग रहे हैं और क्रेडिट कार्ड की जगह नकद राशि का उपयोग कर रहे हैं। इसके लिए अक्सर उन्हें अपने दोस्तों से पैसे उधार लेने पड़ते हैं।
रेप का आरोप
अगस्त, 2010 में असांजे पर एक महिला के साथ बलात्कार करने का आरोप लगा। साथ ही यह आरोप भी लगा कि दो दिनों बाद ही असांजे ने स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में एक महिला के यौन उत्पीड़न का आरोप लगा। असांजे ने अपने बचाव में कहा कि मेरे एक महिला के साथ शारीरिक संबंध बने थे, लेकिन वह दोनों की मर्जी से हुआ था। असांजे ने कहा कि मेरे ऊपर आरोप लगाने वाले दरअसल विकीलीक्स के खुलासों से सहमे हुए हैं।
कैसे लीक हुए दस्तावेज
ताजा मामला दुनियाभर के देशों में अमेरिकी राजदूतों द्वारा विदेश मंत्रालय को भेजे गए गोपनीय संदेशों से जुड़ा है जिसने अमेरिकी विदेश मंत्रालय की ‘रणनीति’ की पोल खोल दी। आरोप है कि ये गोपनीय संदेश अमेरिकी सैनिक ब्रेडले मैनिंग ने ही चुराए और विकीलीक्स वेबसाइट के संस्थापक जूलियन असांजे को सौंप दिए।
इन गोपनीय दस्तावेजों को समटने वाले टेक्सट फाइल की साइज 1.6 गीगाबाइट है। यह फाइल पहले एक सीडी में थी जिसके कवर पर मशहूर पॉप सिंगर लेडी गागा की तस्वीर थी। इससे ऐसा लगता है कि यह लेडी गागा के किसी एल्बम की सीडी है। बाद में इसे एक मेमोरी स्टिक में ट्रांसफर किया गया। यह स्टिक इतना छोटा था कि इसे चाबी के छल्ले में आसानी से लटका कर चला जा सकता है।
आने वाले दिनों में इस दस्तावेजों के सार्वजनिक होने से और बड़े खुलासे सामने आएंगे। दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति अमेरिका की सहयोगी और दुश्मन देशों के प्रति क्या नीति है, एक-एक कर परतें खुल रही हैं। विकीलीक्स की ओर से दुनियाभर के 250 से अधिक देशों में स्थित अमेरिकी दूतावासों की 251287 फाइलें सार्वजनिक की जा रही हैं जो अमेरिकी प्रशासन को भेजी गई थीं। इन फाइलों पर लिखा था कि इन्हें गैर-अमेरिकी नागरिकों को किसी भी सूरत में नहीं दिखाना है।
अमेरिकी सेना के मुताबिक ब्रेडले मैनिंग (22) नाम के एक सैनिक पर गोपनीय दस्तावेज लीक किए जाने का संदेह है जो पहले बगदाद के पास एक सैन्य शिविर पर तैनात था। इस सैनिक ने न सिर्फ अमेरिकी विदेश मंत्रालय की गोपनीय दस्तावेज लीक किए बल्कि अफगानिस्तान और इराक में अमेरिकी सेना की कार्रवाई की कई तस्वीरें भी उतारी हैं जिसमें स्थानीय लोगों की मौत हुई थी।
संदिग्ध सैनिक को पिछले सात महीने से कैद कर रखा गया है। सैनिक को ५२ साल की कैद की सज़ा सुनाई गई है। इस सैनिक की एक हैकर से हुई बातचीत भी रिकार्ड की गई है। बातचीत के दौरान उसने कहा कि वह ‘लेडी गागा’ जैसी कोई सीडी ला रहा है जिसकी सूचनाएं एक छोटी फाइल में समेटी जाएगी। वह पिछले आठ महीने से रोज 14 घंटे गोपनीय सूचनाओं के नेटवर्क पर नजरें गड़ाए हुए है। अमेरिकी सेना के खुफिया विश्लेषक रह चुके मैनिंग की नजर में विकिलीक्स सूचना के अधिकार से जुड़े कार्यकर्ताओं की आजादी का प्रतीक है।
किए बड़े खुलासे
2006 दिसंबर विकीलीक्स ने पहला डॉक्यूमेंट पोस्ट किया था। इसमें सोमालिया के सरकारी अधिकारी की हत्या के निर्णय पर शेख हसन दाहिर ने हस्ताक्षर किए थे।
2008 सितंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति पद के चुनाव प्रचार के दौरान सारा पालिन ने अपने कार्य संबंधी संदेश को भेजने के लिए निजी याहू ई-मेल का प्रयोग किया था। यह पब्लिक रिकॉर्ड लॉ का उल्लंघन था।
2009 जनवरी में यूनाइटेड नेशन्स की 600 आंतरिक रिपोर्ट की सूचनाओं को लीक लिया।
2009 जनवरी में यूनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एन्जिलिया की क्लाइमेट रिसर्च यूनिट के विवादास्पद डॉक्यूमेंट को छापा गया। इसमें मौसम वैज्ञानिकों के बीच ई-मेल में हुई बातें थीं। यूनिवर्सिटी के अनुसार, ई-मेल और दस्तावेज सर्वर को हैक कर हासिल किए गए थे।
19 मार्च 2009 को विभिन्न देशों की उन गैरकानूनी साइट्स की सूची प्रकाशित की जो प्रतिबंधित थीं। इसमें चाइल्ड पोर्नोग्राफी और आतंकवाद से जुड़ी साइट्स के पते थे।28 जनवरी 2009 को पेरू के राजनेताओं और बिजनेसमैन के बीच 86 टेलीफोन कॉल की रिकॉर्डिग जारी की। इसमें पेट्रोगेट ऑयल स्कैंडल से जुड़ी बातें थीं, जो कि 2008 में हुआ था।
16 जनवरी, 2009 को ईरानी समाचार एजेंसी ने रिपोर्ट दी कि ईरान की एटोमिक एजेंसी ऑर्गेनाइजेशन के प्रमुख घोल्म रेजा ने 12 वर्षो की सेवा के बाद अज्ञात कारणों से तत्काल इस्तीफा दे दिया। बाद में विकीलीक्स ने एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें कहा गया कि ईरान में गंभीर परमाणु दुर्घटना हुई थी। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्स ने जारी एक रिपोर्ट में कहा कि एनरिच सेंट्रीफ्यूगल ऑपरेशनल्स (संवर्धित परमाणु सामग्री) की संख्या 4700 से रहस्यमयी तरीके से घट कर 3900 हो गई थी।
25 नवंबर, 2009 को विकीलीक्स ने 5.70 लाख पेजर मैसेज को रिलीज किया। ये संदेश 11 सितंबर को हुई आतंकी हमले के दिन पेंटागन अधिकारियों और न्यूयॉर्क सिटी पुलिस विभाग के बीच किए गए थे।
2010 अक्टूबर में इराक युद्ध से संबंधित चार लाख दस्तावेज जारी किए।
22 अक्टूबर 2010 को अल जजीरा ने पहली बार इस रिलीज का विश्लेषण किया।
25 जुलाई, 2010 को अफगान युद्ध में 2004-09 के बीच हुई घटनाओं, नागरिकों की मौतों के बारे में 92 हजार दस्तावेज जारी किए।
15 मार्च, 2010 को अमेरिकी रक्षा विभाग के 32 पेज की खुफिया रिपोर्ट रिलीज की। इसमें 2008 की काउंटरइंटेलीजेंस एनालिसिस रिपोर्ट थी। असांजे ने कहा कि सेना की रिपोर्ट पूरी तरह से सही नहीं है।
[साभार दैनिक भास्कर]