शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

भ्रष्टाचार पर अनोखी स्थापनाएं

1988-89 में भ्रष्टाचार राष्ट्रीय राजनीति में सबसे अहम् मुद्दा बनकर उभरा था। कहा जाता है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वी.पी. सिंह एक बहुत बड़े प्रभावशाली औद्योगिक घराने के मालिक को गिरफ्तार करने वाले थे और तब उस उद्योगपति ने ग्लैमर की दुनिया के एक बड़े सितारे का सहारा लेकर वी.पी. सिंह को वित्तमंत्री पद से हटवा दिया था।
इस किस्से में सत्य का कितना अंश है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा, लेकिन आहत वी.पी. सिंह ने उस समय जो व्यूह रचना की उससे प्रधानमंत्री राजीव गांधी बाहर नहीं निकल सके। उनका कार्यकाल दिनोंदिन बढ़ती अलोकप्रियता के साए में ले-देकर समाप्त हुआ तथा विश्वनाथ प्रतापसिंह नए प्रधानमंत्री बने। जनता को उम्मीद थी कि श्री सिंह के नेतृत्व में देश को स्वच्छ प्रशासन व स्वस्थ राजनीतिक वातावरण देखने मिलेगा, लेकिन यह आशा जल्दी ही धूमिल हो गई। मुहावरा इस्तेमाल किया जाए तो बोतल भले ही नई थी, शराब तो वही पुरानी थी।
आज दो दशक बाद भ्रष्टाचार के खिलाफ लगभग उसी अंदाज में मुहिम छेड़ी जा रही है। जंतर-मंतर से लेकर देश में जगह-जगह सभाएं हो रही हैं, भ्रष्टाचार से लड़ने के नाम पर नई-नई संस्थाएं बन रही हैं, वक्तव्यों की बाढ़ आ गई है, पत्र-पत्रिकाओं में खूब लेख लिखे जा रहे हैं और शाम के समय सज-धजकर सुखी मध्यमवर्गीय क्रांतिकारी मोमबत्ती जलाते हुए फोटो खिंचवा रहे हैं ताकि अगले दिन अखबार में अपना चेहरा देखकर वे आत्मगौरव महसूस कर सके।  अन्ना हजारे के खिलाफ दिग्विजय सिंह सहित कांग्रेस के अनेक नेता टिप्पणियां कर रहे हैं। कहीं भूषण पिता-पुत्र को लेकर आलोचनाएं हो रही हैं, तो कहीं उनका बचाव भी किया जा रहा है। भारतीय राजनीति के रहस्यमय व्यक्तित्व सुब्रमण्यम स्वामी को जैसे नवजीवन मिल गया है तथा कभी टी.एन. शेषन के साथ मिलकर ट्रस्ट बनाने वाले विनीत नारायण फिर प्रकाश में आ गए हैं।
ऐसे बार-बार दोहराए जाने वाले दृश्यबंधों के बीच दो नई स्थापनाएं जानने में आईं। एकाधिक टिप्पणीकारों ने कहा कि भ्रष्टाचार से चिंतित होने की जरूरत नहीं है। इनका मानना है कि अठारहवीं -उन्नीसवीं सदी के अमेरिका में जो हुआ था वही आज के भारत में हो रहा है। आज से दो सौ साल पहले अमेरिका में सारी नैतिकता और तमाम मूल्यों को ताक पर रखकर मुट्ठी पर लोगों ने अकूत संपदा जोड़ ली थी। इन लोगों को ''रॉबर बैरन'' की संज्ञा दी गई। याने कल के डाकू आज के साहूकार के रूप में समाज द्वारा स्वीकार कर लिए गए। इन डाकूओं के वंशवृक्ष आज भी फल-फूल रहे हैं। अमेरिका की राजनीति में इनका जितना दखल उस समय था उतना ही आज भी है। अमेरिकी अर्थनीति में जो ''ट्रिकल डाउन थ्यौरी'' है अर्थात जो रिस-रिस कर नीचे पहुंचे, उस बूंद को चाटकर गरीब संतुष्ट हो ले, वह इनकी ही देन है। जाहिर है कि हमारे टिप्पणीकार इस अमेरिकी सिध्दांत को भारत में लागू करना चाहते हैं। छल-कपट, बाहुबल या अन्य किसी भी अनैतिक तरीके से जो जितना कमा सकता है कमा ले। सारे उपभोग का उपयोग तो वह अकेला तो करेगा नहीं, वह जब टुकड़े फेंकेगा तो उन्हें उठाकर गरीब अपना पेट भर लेंगे। मैं उस दृश्य की कल्पना करता हूं कि मुकेश अंबानी अपने महल की सत्तासवीं मंजिल पर खड़े हैं। नीचे भूखे, गरीबों की लंबी कतार है जो स्वाति बूंद पाने के लिए चातक की तरह प्रतीक्षा कर रही है। अभी अंबानी जी ऊपर से जूठन फेंकेंगे और उसे बटोरने के लिए लोग उस पर टूट पड़ेंगे! अपने शहर रायपुर में आए दिन देखता हूं कि कहीं हवन चल रहा है, कहीं अखण्ड रामायण, कहीं हनुमान चालीसा का पाठ या कोई और धार्मिक, सामाजिक, पारिवारिक उत्सव, जिसमें लंगर होता है और दो रुपए किलो चावल के बावजूद लोग एक लंगर से दूसरे लंगर की ओर भागते नजर आते हैं।
हमारे उपरोक्त टिप्पणीकारों का मानना है कि देश इस समय आर्थिक प्रगति के एक नए दौर से गुजर रहा है। जब किस्मत वाले लोग खूब कमा लेंगे तो फिर एक मोड़ पर आकर स्थितियां सामान्य होने लगेंगी, फिर न कोई पैसे देगा और न कोई पैसे लेगा, याने भ्रष्टाचार अगले सौ पचास साल में अपने-आप समाप्त हो जाएगा। धन्य हैं ऐसे विद्वान! ऐसा लगता है कि उनकी पढ़ाई-लिखाई अमेरिका में ही हुई है और शायद उन्हें अपने देश के बारे में पूरा इल्म नहीं है।
एक ऐसी स्थापना की है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार प्रोफेसर कौशिक बसु ने। हमारे प्रधानमंत्री की तरह उन्होंने भी अमेरिका से बहुत कुछ सीखा है। श्री बसु ने सुझाव दिया है कि भ्रष्टाचार खत्म करने के लिए रिश्वत को कानूनी जामा पहना दिया जाना चाहिए। वे चूंकि प्रधानमंत्री के सलाहकार हैं इसलिए निश्चित रूप से बहुत बड़े विद्वान होंगे, लेकिन उनकी यह बहुमूल्य सलाह हमारे जैसे नासमझ लोगों के पल्ले नहीं पड़ी। मेरी पहली और आखिरी प्रतिक्रिया तो यही है कि अन्य किसी देश में इस तरह सलाह देने वाले को प्रधानमंत्री ने तुरंत बर्खास्त कर वापिस अमेरिका भिजवा दिया होता कि जाओ वहीं बैंक में या मल्टीनेशनल कंपनी में काम करो, यहां तुम्हारी सलाह की जरूरत नहीं है; लेकिन ऐसा कुछ चूंकि अभी तक नहीं हुआ है इसलिए यह संभावना बनी हुई है कि संसद के अगले सत्र में कहीं रिश्वत को वैधानिक रूप देने का विधेयक न पेश हो जाए! अगर कौशिक बसु की सलाह पर अमल हुआ तो उसके बाद क्या होगा, कल्पना ही की जा सकती है। हर दफ्तर में, हर सरकारी टेबल पर, हर सरकारी जेब में रिश्वत की रसीद बुक रहेगी। तत्काल आरक्षण जैसी इस व्यवस्था के बाद ऊपर का लेनदेन तो फिर चलता ही रहेगा।
कुछेक टीकाकारों ने यह भी कहा है कि बेईमानी, घूसखोरी, मिलावट ये सब तो हमारे खून में ही है। भारत की जनता का इससे बढ़कर अपमान भला क्या हो सकता है? एक अरब बीस करोड़ की आबादी को अन्न देने वाला किसान क्या बेईमान है या किसान  से मजदूर बनने से अभिशप्त वह जो शहर में रिक्शा चला रहा है, बोझा ढो रहा है या फेरी लगा रहा है? जाहिर है कि ऐसे वक्तव्य सुखविलासी लोगों द्वारा ही दिए जाते हैं। अंग्रेजों ने भारत पर एक सौ नब्बे साल राज ऐसी ही लोगों की मदद से किया। अंग्रेजों के आने के पहले भारत में आला दर्जे की उद्यमशीलता थी जिसे उन्होंने धीरे-धीरे खत्म किया। उन्होंने एक तरफ भारतीय उद्योगों को ठप्प किया, दूसरी ओर  किसानों पर अकथ अत्याचार किए। उन्होंने ही भारत में एक ऐसे श्रेष्ठि वर्ग को जन्म दिया जो श्रमशीलता और उद्यमशीलता के बल पर नहीं, बल्कि एजेंसी प्रथा, सरकारी सप्लाई, सरकारी ठेके, अफीम की बिक्री तथा कपास और जूट के सट्टे आदि के सहारे पनपा। आज यही लोग देश के नैतिक पतन पर मगरमच्छ के आंसू बहा रहे हैं। साभार-ललित सुरजन जी

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