शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

विकीलीक्स खुलासों के बाद- भारत की छबि

भारत संबंधी विकीलीक्स केबल्स के हिंदू में प्रकाशित सार-संक्षेप ने तूफान बरपा कर दिया है।
 इनमें सबसे सनसनीखेज खुलासा 2008 की जुलाई के 'वोट दो-नकद लो' की बदनामी को लेकर है। उस समय भारत-अमरीकी न्यूक्लीयर सहयोग समझौते को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के अस्तित्व को दांव पर लगा दिया था। जिन बामपंथियों के समर्थन पर चल रही थी वो अल्पमत सरकार उन्होंने समर्थन वापस ले लिया था। कांग्रेस ने अन्य पार्टियों को घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया।
2008 में अपने स्ंटिग ऑपरेशनों से टीवी चैनलों ने इसका व्यापक स्तर पर प्रचार किया था। इन खुलासों में मुख्य निशाना समाजवादी पार्टी को बनाया गया। अब पता चल रहा है कि राष्ट्रीय लोक दल के अजीत सिंह को भी घूस दी गई थी कि यह काम गांधी परिवार के नादीकी केप्टन सतीश शर्मा के एक सहायक नचिकेता कपूर के जरिए हुआ था। नचिकेता ने एक अमरीकी दूतावास के अधिकारी को वो दो पेटियां दिखाई थीं जिनमें रालोद के सांसदों को दिए गए 50-60 करोड़ रुपयों का एक हिस्सा था।
डॉ. सिंह ने अपनी सरकार का जोरदार और जुझारू बचाव करते हुए कहा कि भारत में अमरीकी दूतावास द्वारा भेजे गए केबिलों की  'सच्चाई, विषय-वस्तु और उनके अस्तित्व' तक की पुष्टि नहीं की जा सकती है। उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा, ''मैने किसी को भी कोई वोट खरीदने का अधिकार नहीं दिया। मुझे वोटों की खरीद के बारे में...कोई जानकारी नहीं है...।'' इस कहानी को सतीश शर्मा ने भी मानने से इंकार किया और कहा कि कपूर उनका सहायक नहीं था।
इससे दाग साफ नहीं होता। विकीलीक्स पर आधारित साक्ष्य पहली दृष्टि में यह मामला तैयार करते हैं कि कि सांसद खरीदे गए थे। इसने यह पक्का कर दिया था कि 256 'ना' वोटों के खिलाफ 275 'हां' वोटों के साथ संप्रग सरकार जीत जाएगी। भारत की धरती पर वोट दो-नकद लो एक गंभीर अपराध हुआ है। इसके सहभागी विदेशी राजनयिक थे। अब सरकार कम से कम इतना तो कर ही सकती है कि पूरे मामले की जांच सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में केंद्रीय जांच ब्यूरो को सौंप दे, और अमरीकी दूतावास से उस कर्मचारी की पहचान करने को कहे जिसने इस करतूत को अपने केबिलों के जरिए भेजा था। ऐसा न करने पर सिंह सरकार की छबि पर और बट्टा लगेगा जो पहले से ही बहुत से घोटालों में बदनाम हुई बैठी है।
इस खुलासे से भारतीय जनता पार्टी अधिकतम फायदा उठाने में जी जान से लगी है। लेकिन टेपों से इसका चेहरा और भी गंदा होकर उभरता है। सार्वजनिक रूप से इसने न्यूक्लीयर समझौते का विरोध किया था। लेकिन विरोध को लेकर यह गंभीर नहीं थी। भाजपा के राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य शेषाद्री चारी और प्रवक्ता प्रकाश जावड़ेकर ने अमरीकियों से कहा था, 'विदेश नीति प्रस्तावों पर अधिक ध्यान न दें।' जबकि स्वयं लौह पुरूष एलके अडवानी ने उनको आश्वस्त किया था कि सत्ता में आने पर भाजपा, 'अपने विरोधपक्ष के दिनों से बहुत अलग व्यवहार करेगी।'
भाजपा अक्सर ही शिकारी कुत्तों के साथ शिकार करती है और दौड़ती खरगोश के साथ है। इसलिए इसकी न्यूक्लीयर नीति को निर्धारित करने का भारत के 'परम अधिकार' के मामले में इसको भारत -अमरीकी समझौते का विरोध करना फायदेमंद लगा था। परंतु सैध्दांतिक तौर पर पार्टी दक्षिणपंथी विदेश और सुरक्षा नीति पर चलती है, और शीतयुध्द के दिनों से ही यह घोर अमरीका समर्थक रही है। इसको भारत का भविष्य अमरीकी आधिपत्य वाली पूंजीवादी विश्व व्यव्स्था को मज़बूत बनाने में नार आता है। इससे भाजपा के व्यवहार में दोहरापन आ जाता है और इसकी विश्वनीयता को भारी नुकसान पहुंचाता है।
परंतु विकीलीक्स के खुलासों का उतना महत्व भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधों की पुष्टि के लिए नहीं है जितना कि उस दिशा को दिखाने के लिए जिसमें भारत की विदेशनीति हाल ही में चलने लग पड़ी है, और यह भी कि दुनिया, खासतौर पर अमरीका की नजर में भारत की घरेलू स्थिति, और क्षेत्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के प्रति दृष्टिकोण क्या है।
इन खुलासों में आमतौर पर तरह-तरह के मामलों पर उपयोगी और कभी-कभी बहुमूल्य जानकारी होती है जैसे कि: देश की पार्टियों के आपसी और उनके भीतरी संबंध (कश्मीर) न्यूक्लीयर सौदा आम लोगों की समझ (भारत पाक तनाव) ईरान की न्यूक्लीयर दौड़ और तेहरान को घेरने की अपनी योजना में भारत का समर्थन लेने के लिए भारत को धमकाने की अमरीकी कोशिशें; और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधारों की भारत की मांग को महज 'शोरगुल' कहना।
राजनयिकों द्वारा केबिलों का इस्तेमाल संचार के एक रूप के तौर पर मोबान देश की सूचनाओं, विश्लेषणों और आकलनों को अपनी सरकारों तक पहुंचाने के लिए किया जाता है, और वे संप्रग के आपसी मतभेदों को काफी हद तक सामने लाते हैं। अफंजल गुरू की फांसी की साा को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति ऐपीजे अब्दुल कलाम और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के बीच के मतभेद को सुखिर्यों में लाते हैं। इनमें जे के लिबरेशन फ्रंट के नेता यासिन मलिक को यह कहते उध्दृत किया गया है कि गुरू को फांसी देने से घाटी में प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि सजा संसद पर हमले के लिए यातायात का प्रबंध करने में मदद देने के आरोप से किसी भी तरह से मेल नहीं खाती है।
'दि हिंदू' के खुलासे डॉ. सिंह और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एमके नारायण के बीच के मतभेदों पर रोशनी डालते हैं जो पाकिस्तान के साथ 'साझा नियति' के आधार पर बातचीत दोबारा शुरू करने को लेकर थे। नारायण ने प्रधानमंत्री से रूखाई के साथ बोल दिया था: 'आपकी नियति साझा होगी, हमारी नहीं है।' नारायण के लिए अपने प्रधानमंत्री से ऐसा बोलना बेहद अनुचित था।  लेकिन इससे भी यादा निंदनीय तो यह बात अमरीकी राजनयिक को बताना थी।
विकीलीक्स केबिल प्रदर्शित करते हैं कि अप्रैल 2008 में ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद की भारत यात्रा पर नई दिल्ली अमरीका की नाराजी से इतना डरा हुआ था कि इसकी सूचना 'भारत सरकार की अन्य ऐजेंसियों' को देने से 'पहले' अमरीकी दूतावास को दे दी थी। विदेश मंत्रालय ने इस पर जोर दिया था कि डॉ. सिंह ने तेहरान की यात्रा अथवा अहमदीनेजाद की भारत यात्रा के पहले के अनुरोधों को अस्वीकार कर दिया था।
न्यूक्लीयर समझौते जैसे प्रलोभनों में फंसाकर अमरीका ने भारत को इसकी स्वतंत्र नीति के लंगर से सफलतापूर्वक छुड़ा लिया है। लेकिन वाशिंगटन के लिए इतना काफी नहीं है। यह भारत को और आगे वहां तक धकेलना चाहता है जहां पहुंच कर यह एक विनम्र और आज्ञाकारी सहयोगी जैसा बन जाता है। भारत यह आसानी से नहीं होने देगा। विकीलीक्स के खुलासों से जनता को इसके बारे में जागरूक हो जाना चाहिए और एक जुझारू स्वतंत्र विदेश नीति के पक्ष में मजबूती से जवाब देना चाहिए। साभार-प्रफुल्ल बिदवई

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