भगवान
बुद्ध के निर्वाण के मात्र 100 वर्ष बाद ही बौद्धों में मतभेद उभरकर सामने
आने लगे थे। वैशाली में सम्पन्न द्वितीय बौद्ध संगीति में थेर भिक्षुओं ने
मतभेद रखने वाले भिक्षुओं को संघ से बाहर निकाल दिया। अलग हुए इन भिक्षुओं
ने उसी समय अपना अलग संघ बनाकर स्वयं को 'महासांघिक' और जिन्होंने निकाला
था उन्हें 'हीनसांघिक' नाम दिया जिसने कालांतर में महायान और हीनयान का रूप
धारण कर किया।
सम्राट
अशोक ने 249 ई.पू. में पाटलिपुत्र में तृतीय बौद्ध संगीति का आयोजन कराया
जिसमें भगवान बुद्ध के वचनों को संकलित किया गया। इस बौद्ध संगीति में
पालि तिपिटक (त्रिपिटक) का संकलन हुआ। श्रीलंका में प्रथम शती ई.पू. में
पालि तिपिटक को सर्वप्रथम लिपिबद्ध किया गया था। यही पालि तिपिटक अब
सर्वाधिक प्राचीन तिपिटक के रूप में उपलब्ध है।
महायान
के भिक्षु मानते थे हीनयान के दोषों और अंतर्विरोधों को दूर करने के लिए
बुद्ध द्वारा उपदेशित अद्वैतवाद की पुन: स्थापना की जानी चाहिए। अद्वैतवाद
का संबंध वेद और उपनिषदों से है। महायान के सर्वाधिक प्रचीन उपलब्ध ग्रंथ
'महायान वैपुल्य सूत्र' है जिसमें प्रज्ञापारमिताएँ और सद्धर्मपुण्डरीक आदि
अत्यंत प्राचीन हैं। इसमें 'शून्यवाद' का विस्तृत प्रतिपादन है।
हीनयान
को थेरवाद, स्थिरवाद भी कहते हैं। तृतीय संगीति के बाद से ही भारत में इस
सम्प्रदाय का लोप होने लगा था। थेरवाद की जगह सर्वास्तित्ववाद या वैभाषिक
सम्प्रदाय ने जोर पकड़ा जिसके ग्रंथ मूल संस्कृत में थे लेकिन वे अब लुप्त
हो चुके हैं फिर भी चीनी भाषा में उक्त दर्शन के ग्रंथ सुरक्षित हैं।
वैभाषिकों में कुछ मतभेद चले तो एक नई शाखा फूट पड़ी जिसे सौत्रान्तिक मत
कहा जाने लगा।
हीनयान का दर्शन : हीनयान
का आधार मार्ग आष्टांगिक है। वे जीवन को कष्टमय और क्षणभंगूर मानते हैं।
इन कष्टों से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को स्वयं ही प्रयास करना होगा
क्योंकि आपकी सहायता करने के लिए न कोई ईश्वर है, न देवी और न ही कोई
देवता। बुद्ध की उपासना करना भी हीनयान विरुद्ध कर्म है।
खुद
मरे बगैर स्वर्ग नहीं मिलेगा इसीलिए जंगल में तपस्या करो। जीवन के हर
मोर्चे पर पराक्रम करो। पूजा, पाठ, ज्योतिष और प्रार्थना सब व्यर्थ है, यह
सिर्फ सुख का भ्रम पैदा करते हैं और दिमाग को दुविधा में डालते हैं। शाश्वत
सुख की प्राप्ति के लिए स्वयं को ही प्रयास करना होगा।
हीनयान
कई मतों में विभाजित था। माना जाता है कि इसके कुल अट्ठारह मत थे जिनमें
से प्रमुख तीन हैं- थेरवाद (स्थविरवाद), सर्वास्तित्ववाद (वैभाषिक) और
सौतांत्रिक।
अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'
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