"जिंदगी ख़ूबसूरत है, बस जीना आना चाहिए" *कृष्णधर शर्मा*
शनिवार, 27 जून 2015
कैच मी इफ़ यू कैन: सुब्रमण्यम स्वामी
25 जून, 1975 को रामलीला मैदान में जेपी की ऐतिहासिक सभा से लौटने के बाद सुब्रमण्यम स्वामी गहरी नींद में थे कि अचानक चार बजे सुबह उनके फ़ोन की घंटी बजी. दूसरे छोर पर ग्रेटर कैलाश पुलिस स्टेशन का एक सब इंस्पेक्टर था. उसने कहा, "क्या आप घर पर हैं? क्या मैं आपसे मिलने आ सकता हूँ?" स्वामी ने उसे आने के लिए हाँ कर दिया. लेकिन उनका माथा ठनका कि पुलिस किसी के यहाँ जाने से पहले ये नहीं बताती कि वो उससे मिलने आ रही है. ज़ाहिर था कोई उन्हें टिप ऑफ़ कर रहा था कि समय रहते आप अपने घर से निकल कर ग़ायब हो जाइए. स्वामी ने वही किया. तड़के साढ़े चार बजे वो गोल मार्केट में रह रहे अपने दोस्त सुमन आनंद के घर चले गए. सिख का वेश बनायालंदन में बीके नेहरू से मुलाक़ातकिसिंजर से सिफ़ारिशपुलिस का क़हरटिकट बैंकॉक का, उतरे दिल्ली में'प्वाएंट ऑफ ऑर्डर''बुक पब्लिश्ड'नेपाल के महाराजा ने की मददशानदार घर वापसी पुलिस ने स्वामी को हर जगह ढूंढ़ा, लेकिन वो उसके हाथ नहीं आये. एक दिन जहाँ वो रह रहे थे, दरवाज़े की घंटी बजी. उनके दोस्त ने बताया कि आरएसएस के कोई साहब आपसे मिलने आए हैं. उन्होंने स्वामी को संदेश दिया कि अंडरग्राउंड चल रहे जनसंघ के बड़े नेता नानाजी देशमुख उनसे मिलना चाहते हैं. वो उसी आरएसएस कार्यकर्ता के स्कूटर पर बैठकर राजेंद्र नगर के एक घर पहुंचे जहाँ नानाजी देशमुख उनका इंतज़ार कर रहे थे. नानाजी ने उनसे मज़ाक किया, "डॉक्टर क्या अब तुम अमरीका भाग जाना नहीं चाहते?" डॉक्टर स्वामी भारत आने से पहले हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हुआ करते थे और उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री पॉल सैमुअलसन के साथ एक शोध पत्र पर काम किया था. इसके बाद स्वामी और नानाजी अक्सर मिलने लगे. इस बीच स्वामी ने पगड़ी और कड़ा पहन कर एक सिख का वेश धारण कर लिया ताकि पुलिस उन्हें पहचान न सके. उनका अधिकतर समय गुजरात और तमिलनाडु में बीता, क्योंकि वहाँ कांग्रेस का शासन नहीं था. गुजरात में स्वामी वहाँ के मंत्री मकरंद देसाई के घर रुका करते थे. उन दिनों आरएसएस की तरफ़ से एक व्यक्ति उन्हें देसाई के घर छोड़ने आया करता था. उस शख़्स का नाम था नरेंद्र मोदी, जो चार दशक बाद भारत के प्रधानमंत्री बने. इस बीच आरएसएस ने ये तय किया कि स्वामी को आपातकाल के ख़िलाफ़ प्रचार करने के लिए विदेश भेजा जाए. अमरीका और ब्रिटेन में स्वामी के बहुत संपर्क थे, क्योंकि वो पहले वहाँ रह चुके थे. स्वामी ने मद्रास से कोलंबो की फ़्लाइट पकड़ी और फिर वहाँ से दूसरा जहाज़ पकड़कर लंदन पहुंचे. लंदन में स्वामी के पास ब्रिटेन में उस समय भारत के उच्चायुक्त बीके नेहरू का फ़ोन आया. उन्होंने स्वामी को मिलने अपने दफ़्तर बुलाया. स्वामी वहाँ जाने में झिझक रहे थे क्योंकि उन्हें डर था कि नेहरू उन्हें गिरफ़्तार करवा देंगे. बहरहाल उनकी नेहरू से मुलाकात हुई और उन्होंने सलाह दी कि वो भारत वापस जाकर आत्मसमर्पण कर दें. दो दिन बाद ही स्वामी के पास फ़ोन आया कि उनका पासपोर्ट रद्द कर दिया गया है. जब स्वामी अमरीका पहुंचे तो भारतीय अधिकारियों ने अमरीका पर दबाव बनाया कि स्वामी को उन्हें सौंप दिया जाए क्योंकि वो भारत से भागे हुए हैं और उनका पासपोर्ट रद्द किया जा चुका है. लेकिन इस बीच स्वामी के हार्वर्ड के कुछ प्रोफ़ेसर दोस्त अमरीका के विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर से उनकी सिफ़ारिश कर चुके थे. अमरीका ने भारतीय अधिकारियों से कहा कि भारत ये दावा ज़रूर कर रहा है कि स्वामी का पोसपोर्ट रद्द कर दिया गया है. लेकिन उनके पासपोर्ट पर इसकी मोहर कहीं नहीं लगी है और अमरीकी सरकार भारत के लिए पुलिस की भूमिका नहीं निभा सकती. स्वामी अमरीका में कई महीनों तक रहे और वहाँ के 24 राज्यों में जाकर उन्होंने आपातकाल के ख़िलाफ़ प्रचार किया. इस बीच प्रवर्तन निदेशालय के लोगों ने स्वामी के दिल्ली के ग्रेटर कैलाश स्थित निवास और उनके ससुर जमशेद कापड़िया के मुंबई के नेपियन सी रोड वाले मकान पर दबिश दी. रिटायर्ड आईसीएस ऑफ़िसर कापड़िया के लिए ये बहुत बड़ा धक्का था कि छोटे मोटे अफ़सर न सिर्फ़ उनसे अनाप-शनाप सवाल पूछकर उन्हें तंग कर रहे थे बल्कि बहुत बेअदबी से भी पेश आ रहे थे. स्वामी की पत्नी रौक्शना बताती हैं कि उनके घर की एक-एक चीज़ ज़ब्त कर ली गई. कार, एयरकंडीशनर, फर्नीचर सभी पुलिस ले गई. वो मकान पर भी ताला लगाना चाहते थे, लेकिन घर रौक्शना के नाम था. उनके दोस्त अहबाबों ने उनसे मिलना छोड़ दिया. जो भी उनसे मिलने आता, उसके घर रेड हो जाती और जिनसे ये लोग मिलने जाते, उनके पीछे भी पुलिस वाले लग जाते. इस बीच स्वामी के मन में आ रहा था कि वो ऐसा कुछ करें जिससे पूरे देश में तहलका मच जाए. संसद का कानून है कि अगर कोई सांसद बिना अनुमति के लगातार 60 दिनों तक अनुपस्थित रहता है तो उसकी सदस्यता अपने आप निरस्त हो जाती है. स्वामी ने तय किया कि वो भारत वापस लौटेंगे और राज्यसभा की उपस्थिति रजिस्टर पर दस्तख़त करेंगे. उन्होंने पैन-एम की फ़्लाइट से लंदन-बैंकॉक का हॉपिंग टिकट ख़रीदा. चूंकि वो बैंकॉक जा रहे थे, इसलिए दिल्ली उतरने वाले लोगों की सूची में उनका नाम नहीं था. फ़्लाइट सुबह तीन बजे दिल्ली पहुंची. स्वामी के पास एक बैग के सिवा कोई सामान नहीं था. उस ज़माने में हवाई अड्डों पर इतनी कड़ी सुरक्षा नहीं होती थी. उन्होंने ऊंघते हुए सुरक्षा गार्ड को अपना राज्यसभा का परिचय पत्र फ़्लैश किया. उसने उन्हें सेल्यूट किया और वो बाहर आ गए. वहाँ से उन्होंने टैक्सी पकड़ी और सीधे राजदूत होटल पहुंचे. वहाँ से उन्होंने अपनी पत्नी को एक अंग्रेज़ की आवाज़ बनाते हुए फ़ोन किया कि आपकी मौसी ने इंग्लैंड से आपके लिए एक तोहफ़ा भेजा है. इसलिए उसे लेने के लिए एक बड़ा बैग ले कर आइए. पहले से तय इस कोड का मतलब था कि वो उनके लिए सरदार की एक पगड़ी, नकली दाढ़ी और एक शर्ट पैंट लेकर पहुंच जाएं. उनकी पत्नी रौक्शना ने ऐसा ही किया. उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि वो शाम को एक टेलीविज़न मकैनिक का वेश बना कर घर पर आएंगे. शाम को स्वामी ने अपने ही घर का दरवाज़ा खटखटा कर कहा कि मैं आपका टेलीविज़न ठीक करने आया हूँ. वो अपने घर में घुसे और फिर पांच दिनों तक वहाँ से बाहर ही नहीं निकले. बाहर तैनात पुलिस को पता ही नहीं चला कि स्वामी अपने घर पहुंच चुके हैं. इस बीच रौक्शना ये पता लगाने कई बार संसद भवन गईं कि मुख्य भवन से बाहरी गेट तक आने में कितने कदम और कितना समय लगता है. 10 अगस्त, 1976 को रौक्शना ने स्वामी को अपनी फ़िएट कार से संसद के गेट नंबर चार पर छोड़ा और चर्च ऑफ़ रेडेंप्शन के पास अपनी गाड़ी पार्क की. स्वामी बिना किसा रोकटोक के संसद में घुसे. उपस्थिति रजिस्टर पर दस्तख़त किए. तभी कम्युनिस्ट सांसद इंद्रजीत गुप्त उनसे टकरा गए. उन्होंने पूछा तुम यहाँ क्या कर रहे हो? स्वामी ज़ोर से हंसे और उनका हाथ पकड़े हुए राज्यसभा में घुसे. इससे पहले रौक्शना ने आस्ट्रेलिया ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन के संवाददाता को पहले से बता दिया था कि वो संसद में एक दिलचस्प घटना देखने के लिए मौजूद रहें. स्वामी की टाइमिंग परफ़ेक्ट थी. उस समय राज्यसभा में दिवंगत हुए सांसदों के शोक प्रस्ताव पढ़े जा रहे थे. जैसे ही सभापति बासप्पा दानप्पा जत्ती ने अंतिम शोक प्रस्ताव पढ़ा, स्वामी तमक कर उठ खड़े हुए. उन्होंने चिल्लाकर कहा, "प्वाएंट ऑफ़ ऑर्डर सर.... आपने दिवंगत लोगों में भारत के जनतंत्र को शामिल नहीं किया है.." पूरे कक्ष में सन्नाटा छा गया. गृहराज्य मंत्री घबरा कर मेज़ के नीचे छिपने की कोशिश करने लगे. उन्हें डर था कि स्वामी के हाथ में बम तो नहीं है. हतप्रभ जत्ती ने स्वामी को गिरफ़्तार करने का आदेश देने की बजाए सांसदों को दिवंगत सांसदों के सम्मान में खड़े होकर दो मिनट का मौन रखने के लिए कहा. इस अफ़रातफ़री का फ़ायदा उठाते हुए स्वामी चिल्लाए कि वो वॉक आउट कर रहे हैं. वो तेज़ कदमों से संसद भवन के बाहर आए और चर्च के पास पहुंचे जहाँ रौक्शना ने पहले से कार पार्क कर चाबी कार्पेट के नीचे रख दी थी. वहाँ से वो कार चलाकर बिरला मंदिर गए, जहां उन्होंने कपड़े बदलकर सफेद कमीज़-पैंट पहनी और अपने सिर पर गांधी टोपी लगाई. बिरला मंदिर से वो ऑटो से स्टेशन पहुंचे और आगरा जाने वाली गाड़ी में बैठ गए. वो मथुरा में ही उतर गए और नज़दीक के टेलीग्राफ़ ऑफ़िस से उन्होंने रौक्शना को तार भेजा, 'बुक पब्लिश्ड.' यह पहले से तय कोड था जिसका अर्थ था कि वो सुरक्षित दिल्ली से बाहर निकल गए हैं. मथुरा से उन्होंने जीटी एक्सप्रेस पकड़ी और नागपुर उतरकर गीतांजलि एक्सप्रेस से मुंबई के लिए रवाना हो गए. तब मुंबई में वो आजकल मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री पीयूष गोयल के पिता प्रकाश गोयल के यहाँ ठहरे थे. कुछ दिन भूमिगत रहने के बाद स्वामी ने आरएसएस नेता भाऊराव देवरस के ज़रिए नेपाल के प्रधानमंत्री तुलसी गिरि से संपर्क किया. उन्होंने उनसे कहा कि वो नेपाल के महाराजा वीरेंद्र से मिलना चाहते हैं, जोकि हार्वर्ड के विद्यार्थी रह चुके थे. तुलसी गिरि ने उन्हें बताया कि वो रॉयल नेपाल एयरलाइंस के ज़रिए, उन्हें काठमांडू नहीं ला सकते, क्योंकि अगर इंदिरा गाँधी को इसके बारे में पता चल गया तो वो नाराज़ हो जाएंगी. महाराज वीरेंद्र ने उन्हें गिरि के ज़रिए संदेश भिजवाया कि अगर स्वामी किसी तरह नेपाल पहुंच जाएं तो उन्हें अमरीका भिजवाने की ज़िम्मेदारी उनकी होगी. स्वामी गोरखपुर के रास्ते काठमांडू पहुंचे, जहाँ तुलसी गिरि ने उन्हें रॉयल नेपाल एयरलाइंस के विमान के ज़रिए बैंकॉक भेजने की व्यवस्था कराई. बैंकॉक से स्वामी ने अमरीका के लिए दूसरी फ़्लाइट पकड़ी. दो महीने बाद इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा कर दी. स्वामी ने दोबारा भारत आने का फ़ैसला किया, हालांकि उनके खिलाफ़ गिरफ्तारी का वारंट बरकरार था और करीब एक दर्जन मामलों में उनका नाम था. जब वो मुंबई के साँताक्रूज़ हवाई अड्डे पर पहुंचे तो पुलिस नें उन्हें हवाई अड्डे से बाहर नहीं आने दिया. आधे घंटे बाद दिल्ली से संदेश गया कि स्वामी के गिरफ्तार नहीं किया जाए. दो दिन बाद स्वामी राजधानी एक्सप्रेस से दिल्ली लौटे. प्लेटफॉर्म पर हज़ारों लोग उनके स्वागत में मौजूद थे. नारे लगाती भीड़ ने उन्हें ज़मीन पर पैर नहीं रखने दिया. वो लोगों के कंधों पर बैठकर स्टेशन से बाहर आए. उनकी दो साल की बेटी और आजकल हिंदू अखबार की विदेशी मामलों की संवाददाता सुहासिनी हैदर ज़ोर-ज़ोर से रो रही थीं, क्योंकि उस शोर-शराबे के दौरान उनकी रबर की चप्पल कहीं खो गई थी. स्वामी ने वर्ष 1977 में मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीत कर सदन में पहुंचे.
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