गुरुवार, 25 जून 2015

श्रीमती गांधी और आपातकाल

चालीस साल काफी लम्बा समय मालूम देता है। लेकिन इतना लम्बा भी नहीं है कि उस जंगल-राज की याद भुला दें जो 1975 में आपातकाल लगने के बाद शुरु हो गया था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया  गांधी की सास इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस निर्णय के बाद पद से हट जाना चाहिए था, जिसमें चुनाव में सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल करने के लिए उन्हें अयोग्य घोषित कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के अवकाशकालीन न्यायाधीश ने हाईकोर्ट के निर्णय पर रोक लगाकर उन्हें राहत दी थी। फिर भी वह अंतिम नतीजे के बारे में निश्चिंत नहीं थीं। बताया जाता है कि कोर्ट के निर्णय के बाद एक समय उन्होंने अंतिम फैसला आने तक पद से हटने और जगजीवन राम या उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री कमलापति त्रिपाठी को प्रधानमंत्री बनाने की बात सोची थी। लेकिन उनके बेटे संजय गंाधी जो बाद में संविधान से बाहर की ताकत बन गए थे और जिन्होंने सरकार चलाई, अपनी मां की कमजोरी जानते थे। उन्होंने हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री बंसीलाल की मदद से भाड़े पर भीड़ जमा की और श्रीमती गंाधी के समर्थक के रूप में प्रधानमंत्री निवास के सामने परेड करा दी। इसके बाद श्रीमती गांधी ने सच में यह मान लिया कि जनता उन्हें चाहती है और सिर्फ राजनीति के कुछ असंतुष्ट तत्व ही उनके विरोध में हैं। इसके बाद वह पूरी तरह संजय पर निर्भर हो गईं। उनके घर के सूत्र बताते हैं कि वह संजय से ही राजनीति की बातें करती थीं और राजीव गंाधी को नजरअंदाज करती थीं, क्योंकि वह उन्हें अराजनीतिक समझती थीं। यह भी उतना ही सच है कि राजीव राजनीति में बहुत कम रुचि लेते थे और हवाई जहाज उड़ाने में काफी माहिर थे। वह इंडियन एयर लाईंस में एक बढिय़ा पायलट माने जाते थे जो देश के भीतर हवाई यात्रा के लिए एकमात्र एयरलाईंस थी। यह अलग बात है कि श्रीमती गंाधी ने उन पर राजनीति थोप दी और उन्होंने देश पर अपना प्रधानमंत्रित्व थोप दिया। यह आश्चर्य की बात लगे, लेकिन प्रतिरोध संकीर्णतावादी ताकतों -जनसंघ जो आज भाजपा है और अकाली दल जिसमें सिक्ख थे- ने किया। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी समेत सेकुलर ताकतों ने बिना किसी एतराज के श्रीमती गंाधी के तानाशाही वाले शासन को स्वीकार किया। माक्र्सवादी नाखुश थे, लेकिन सामने नहीं आए। प्रेस की भूमिका अत्यंत दयनीय थी। (उस समय कोई इलेक्ट्रॉनिक मीडिया नहीं था) यह बहादुुरी और नैतिकता के उपदेश देता था, लेकिन बहुत कम लोगों और अखबारों ने विरोध किया। श्रीमती गांधी का यह कहना कि एक भी कुत्ता नहीं भौंका, अपने अर्थ और लहजे में सही था। फिर भी, यह वास्तविकता है कि प्रेस एकदम ढह गया था। श्रीमती गंाधी की टिप्पणी से चिढक़र, मैंने 103 पत्रकारों (आज भी उनकी सूची मेरे पास है) को प्रेस क्लब में जमा किया। खुद ही अखबारों और न्यूज एजेंसियों में गया था। जमा होने वालों में टाइम्स ऑफ इंडिया के स्थानीय संपादक गिरिलाल जैन शामिल थे। मैंने आपातकाल और सेंसरशिप लगाने की निंदा के लिए तैयार किया हुआ अपना प्रस्ताव पढ़ा। एक पत्रकार ने जानकारी दी कि कुछ संपादकों को हिरासत में लिया गया है। मैंने उपस्थित पत्रकारों से प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा। मैंने बताया कि इसे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और सूचना मंत्री को अपने हस्ताक्षर से भेजूंगा। प्रेस क्लब छोडऩे के पहले मैंने प्रस्ताव की कापी अपने पास रख ली थी कि यह पुलिस के हाथों न पड़ जाए। मैं अपने घर पहुंचा ही था कि सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ला, जो उस समय तक एक मित्र थे, का फोन आया और उन्होंने पूछा कि क्या मैं उनके कार्यालय आ सकता हूं। मैं एक दूसरे ही शुक्ला को देखकर दंग रह गया जिनकी आवाज में रौब था और जिनका अंदाज धमकाने वाला था। उन्होंने मुझसे वह कागज देने के लिए कहा, जिस पर पत्रकारों ने हस्ताक्षर किए थे। जब मैंने ‘‘ना’’ कहा तो उन्होंने चेतावनी दी कि मुझे गिरफ्तार किया जा सकता है। ‘‘तुम्हें समझना चाहिए कि यह अलग सरकार है, जिसे इंदिरा गंाधी नहीं, संजय गंाधी चला रहे हैं,’’ उन्होंने कहा। फिर भी मैंने पत्र को श्रीमती गांधी तक पहुंचाया, जिसमें कहा गया था: मैडम, एक अखबार वाले के लिए यह तय करना सदैव मुश्किल होता है कि उसे कब कौन सी जानकारी बाहर लानी चाहिए...एक मुक्त समाज में -और आपने आपातकाल के बाद बार-बार कहा है कि ऐसे विचार में आपकी आस्था है- प्रेस का कर्तव्य है कि वह जनता को सूचित करे। यह कई बार अप्रिय काम होता है, फिर भी उसे करना होता है क्योंकि मुक्त समाज मुक्त सूचना पर आधारित होता है। अगर प्रेस को सिर्फ  सरकारी पर्चे और सरकारी बयान छापने हों, आज जैसी स्थिति में यह आ गया है, तो गड़बड़ी, खामियों और गल्तियों की ओर कौन ध्यान दिलाएगा?’’ लेकिन तीन महीने की हिरासत काटने के बाद मैंने जेल से बाहर आकर धागा जोडऩे की कोशिश की, तो यह देखकर आश्चर्य हुआ कि पत्रकार मुझे खुले रूप से समर्थन करने में डरते थे। तात्कालीन जनसंघ के नेता एलके आडवानी ने एकदम सही टिप्पणी की: आप (पत्रकारों) को झुकने के लिए कहा गया था, लेकिन आप तो रेंगने लगे।’’ अगर मुझे आज की पीढ़ी को आपातकाल के बारे में समझाना हो तो मैं इस कहावत को दोहराना चाहूंगा कि प्रेस की आकाादी की रक्षा के लिए लगातार सजग रहने की जरूरत है। यह बात आज भी उतनी ही सच है जितनी आकाादी पाने के समय 70 साल पहले थी। किसी ने यह उम्मीद नहीं की थी कि हाईकोर्ट के दोषी ठहराए जाने के बाद प्रधानमंत्री संविधान को ही स्थगित कर देंगी जबकि उन्हें खुद ही पद छोड़ देना चाहिए था। पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री अपने मित्रों को सलाह दिया करते थे कि ढीला होकर बैठिए, चुस्त होकर नहीं।’’ यही वजह है कि तमिलनाडु के अरियालुर में एक बड़ी दुर्घटना के बाद उन्होंने रेलमंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी ली थी। यह कल्पना करना कठिन है कि आज कोई इस मिसाल पर चलेगा। लेकिन भारत आज भी एक ऐसा मुल्क समझा जाता है जहां नैतिकता मौजूद है, संकीर्णतावाद और शान-शौकत से रहना कोई जवाब नहीं है। देश को महात्मा गांधी के कहे इस कथन की ओर लौटना होगा: ‘‘विषमता लोगों को कुछ भी करने की ओर धकेल देती है।’’ स्वतंत्रता आंदोलन के दिनों को याद करने की जरूरत है। अंग्रेजों को बाहर करने के लिए सभी एकजुट हो गए थे। गरीबी दूर करने के लिए इसी भावना को फिर से याद करने की जरूरत है। नहीं तो, आकाादी का अर्थ सिर्फ  यही रह जाएगा कि धनी लोगों का जीवन बेहतर हो।
कुलदीप नैय्यर
(साभार देशबंधु)

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