सोमवार, 6 जून 2016

लड़ाई का विकल्प


क्या लड़ना ही बचा है
आखिरी विकल्प !
जैसा कि होता आया है
आदिकाल अनादिकाल से
जैसे रामायण में महाभारत में
जैसे सुरासुर संग्राम में
जैसे भारत और पाकिस्तान में
जैसे हिन्दू और मुसलमान में
क्या दोनों पक्ष एक नहीं हो सकते
अपने-अपने अहंकार छोड़कर
मतभेदों की दीवार तोड़कर
क्यों इस अहं की लड़ाई में
शामिल होते जा रहे हैं समझदार भी
क्या समझदारी के मायने बदल चुके हैं!
क्या कुछ हारकर भी
बहुत कुछ जीत लेने की समझदारी
नहीं बची है इन समझदारों में
या नहीं बचा है धैर्य!
इस अंतहीन लड़ाई का मकसद क्या है?
दुश्मन को जीत लेने पर
क्या बंद हो जाती हैं लड़ाइयाँ!
                        (कृष्ण धर शर्मा, २०१६)

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