थक
तो बहुत जाता हूँ
इस
12 घंटे की
ईमानदारी
कि नौकरी में मैं
मगर
यह सोचकर
तसल्ली
भी मिलती है मुझे
कि
अब अच्छी और गहरी
नींद
तो आएगी मुझको
जो
लाखों बेईमानों की
किस्मत
में नहीं है
कभी-कभी
अपनी
ईमानदारी पर
पछतावा
भी होता है मुझे
कि
देखो तो जरा
कितने
आगे निकल गए हैं
मेरे
ही साथ चलने वाले
मगर
तसल्ली भी होती है
जब
कुछ दूर चलने पर
मिलते
हैं वही लोग
थके-हारे
से जीवन के
पथरीले
पहाड़ों पर
यही
सोचते हुए से
कि
रास्ते में छोड़ आये हैं
जो
जीवन के सुनहरे पल
कि
अब वापस लौटने की
नहीं
बची है गुंजाईश
रत्ती
भर भी!
(कृष्ण धर शर्मा, 9.2016)
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