मंगलवार, 11 अक्टूबर 2016

ड्रग मार्केट में प्रतिस्पर्धा बढ़ाइए

यूपीए सरकार द्वारा लगभग 400 दवाओं के दाम तय कर दिये गये थे। वर्तमान एनडीए सरकार 450 और दवाओं के दाम निर्धारित कर दिये हैं। 350 और दवाओं के दाम निर्धारित करने की प्रक्रिया चल रही है। सरकार का यह कदम सही दिशा में है।
 

दवाओं के बाजार के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा जेनेरिक दवाओं का है। अकसर दवाओं में एक केमिकल होता है।
दवा को इस केमिकल के नाम से बेचा जा सकता है।  लेकिन कई कम्पनियां उस दवा को विशेष नाम से बेचती हैं। जैसे बुखार उतरने की दवा का मूल नाम पैरासिटामोल है। यह बाजार में पैरासिटामोल के नाम से भी उपलब्ध है। लेकिन दूसरी कम्पनियां इसी दवा को क्रोसिन अथवा सैरीडान के नाम से बेचती हैं।
जब किसी दवा को विशेष कंपनी द्वारा दिये गये नाम से बेचा जाता है तो उसे ‘‘ब्रैंडेड’’ कहा जाता है। इन दवाओं को बनाने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होता है। किसी भी कम्पनी द्वारा इसे बनाया और बेचा जा सकता है।
दवा कम्पनियां अकसर इन दवाओं को अत्यधिक उंचे दाम पर बेचती हैं। इनके द्वारा एडवरटाइजमेंट किये जाते हैं। सेल्स रिप्रेजेन्टेटिव की बड़ी फौज तैनात की जाती है। डाक्टरों को गिफ्ट एवं कमीशन दिये जाते हैं। जैसे किसी दवा को एक कम्पनी 10 रु. में बेच रही है। उसी दवा को दूसरी कम्पनी अपना ब्राण्ड लगाकर 50 रु. में बेचती है। इस 50 रु. में से वह 10 रु. का कमीशन डाक्टरों को दे देती है। डक्टर मरीजों को 50 रु. की महंगी दवा लिख देते हैं। मरीजों को इस बात का भान ही नहीं होता कि यही दवा कम दाम में उपलब्ध है।
इन दवा के दाम पर नियंत्रण करने का अधिकार सरकार के पास ड्रग प्राइस कंट्रोल आर्डर के अंतर्गत है। सरकार की मंशा है कि अधिक मात्रा में दवाओं को मरीजों को उचित दाम पर उपलब्ध कराया जाये। लेकिन प्रशासनिक स्तर पर मूल्य निर्धारण में कई समस्याएं हैं। पहली समस्या भ्रष्टाचार की है। ड्रग इन्सपेक्टर को घूस खाने के अवसर खुल जाते हैं। दूसरी समस्या है कि मूल्य को लेकर विवाद बना रहता है।

ड्रग कम्पनियों की शिकायत रहती है कि मूल्य नीचे निर्धारित किये गये हैं जबकि जनता की शिकायत रहती है कि ये ऊंचे हैं। तीसरी बड़ी समस्या यह है कि लगभग 900 दवाओं को बनाने वाली सैकड़ों कम्पनियों पर निगरानी रख पाना दुष्कर कार्य है। चौथी समस्या है कि दवा की गुणवत्ता की जांच करना कठिन होता है। सरकार द्वारा दाम कम निर्धारित करने पर कम्पनी द्वारा दवा की गुणवत्ता को गिराया जा सकता है। इसलिये मूल्य निर्धारण को जरूरी परन्तु अल्प कालिक उपाय मानना चाहिये। दवाओं के मूल्य न्यून बने रहें इसके लिये दूसरे कदम भी सरकार को उठाने चाहिये।
पहला कदम है कि सामान्य दवाओं पर ब्राण्ड लगाने पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये। साथ-साथ डाक्टरों पर प्रतिबन्ध लगाया जाये कि वे जेनेरिक दवाओं के पर्चे लिखें व निर्माता कम्पनी का नाम पर्चे पर न लिखें। जैसे डाक्टर को बुखार कम करने के लिये पैरासिटामाल दवा लिखनी है। मरीज के प्रिस्कृप्शन पर पैरासिटामोल ही लिख दिया जाये न कि क्रोसिन अथवा सैरीडान। किसी कम्पनी का नाम भी न लिखा जाये। ऐसा करने से मरीज पर अपने विवेक से दुकान से किसी भी कम्पनी द्वारा निर्मित पैरासिटामाल दवा खरीदी जा सकती है। ड्रग कम्पनियों एवं डाक्टरों के अपवित्र गठबन्धन द्वारा मरीज को अनायास महंगी दवा खरीदने की मजबूरी नहीं रहेगी।
साथ-साथ सरकार को दवाओं का परीक्षण कराना चाहिये। तमाम अध्ययन बताते हैं कि अकसर गोलियों में बताई गई मात्रा से कम दवा होती है। सरकार को चाहिये कि तमाम कम्पनियों द्वारा बनाई गयी दवाओं का परीक्षण कराये। फिर परीक्षण के परिणामों को सरकारी बेबसाइट पर डाले। दुकानदारों को निर्देश दिया जाये कि परीक्षण रिपोर्ट को दुकान में टांगे। तब खरीदार देख सकेगा कि किस कम्पनी बनाई गयी दवा कितनी कारगर है और उसका क्या दाम है। वह अपने विवेक के अनुसार दवा खरीद सकेगा। इन कदमों का प्रभाव दीर्घ कालिक होगा। भ्रष्टाचार के अवसर भी नहीं खुलेंगे।
दवाओं का दूसरा हिस्सा पेटेंटीकृत दवाओं का है। ड्रग कम्पनियों द्वारा नई दवाओं का आविष्कार किया जाता है। इन दवाओं पर कम्पनी द्वारा पेटेंट हासिल किया जाता है। पेटेंट कानून के तहत इन दवाओं को बनाने एवं बेचने का एकाधिकार पेटेंट धारक कम्पनी के पास रहता है। पेटेंट  धारक कम्पनी द्वारा 20 वर्षों तक दवाओं को मनचाही कीमतों पर बेचा जाता है। ड्रग कम्पनियों का तर्क है कि दवा के अविष्कार में उनके द्वारा भारी निवेश किया गया है।

इस निवेश को वसूल करने के लिये उन्हें दवा के ऊंचे दाम रखना अनिवार्य है। यह छूट उन्हें मिलनी ही चाहिये चूंकि ऊंचे मूल्य पर बेचकर कमाये गये लाभान्श से ही वे आगे रिसर्च में निवेश कर सकेंगे और नई दवा का आविष्कार कर सकेंगे। ड्रग कम्पनियों की यह दलील सही भी है। दरअसल नई दवाओं की खोज ने मरीज को अपनी बीमारी के साथ जीने का तरीका दिया है। वे कई दशक तक दवाओं का सेवन करते हुये जी लेते हैं। तात्पर्य यह कि यदि नई दवाओं की खोज न हुयी होती तो यह उपचार सम्भव न हो पाता।
बावजूद इसके, पेटेंटीकृत दवाओं के दाम पर भी कुछ नियंत्रण जरूरी है। कारण कि ड्रग कम्पनियों द्वारा कमाये गये लाभ का एक अंश ही भविष्य की रिसर्च में निवेश किया जाता है। शेष लाभ मालिकों अथवा शेयर धारकों को वितरण किया जाता है। इन दवाओं के उंचे मूल्य से मरीज भी सीधे प्रभावित होते है। यहां प्रश्न संतुलन का है। एक ओर पूर्व में किये गये निवेश की वसूली तथा भविष्य में किया जाने वाला निवेश है। दूसरी ओर मरीज का हित है। दोनों तर्क मजबूत हैं और किसी वैज्ञानिक कसौटी पर दाम तय कर पाना कठिन है।

यह निर्णय राजनैतिक है। सरकार को अपने विवेक से इस संतुलन को स्थापित करना चाहिये। केन्द्र सरकार ने पेटेंटीकृत दवा के दाम निर्धारित करने को एक कमेटी सन् 2007 में बनाई थी। इस कमेटी ने पांच वर्षों के बाद अपनी रपट प्रस्तुत की। इस रपट पर निर्णय लेने के लिये दूसरी कमेटी वर्तमान में विचार कर रही है। सरकार को चाहिये कि इस प्रकार की ढिलाई पर सख्त कदम उठाये और पेटेंटीकृत दवाओं के मूल्य निर्धारण की पालिसी शीघ्र बनाकर देश की जनता को राहत दे।

डॉ. भरत झुनझुनवाला

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