गुरुवार, 8 फ़रवरी 2018

अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर

 "सूर्य जब गिरि-शिखर के अन्तराल में अवतीर्ण हो गए तब दिन की नाट्यशाला पर एक दीर्घ छाया-यवनिका पड़ गई; पर्वत का व्यवधान होने के कारण यहां सूर्यास्त के समय प्रकाश और अन्धकार का सम्मिलन बहुत देर तक स्थायी नहीं रहता। घोड़े पर बैठकर जरा घूम-फिर आऊं, यह सोचकर अब उठूं, तब उठूं कर रहा था कि सीढ़ी पर पैरों की आहट सुनाई पड़ी। पीछे फिरकर देखा, कोई नहीं था।" (अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर)



#साहित्य_की_सोहबत

#पढ़ेंगे_तो_सीखेंगे

#हिंदीसाहित्य

#साहित्य

#कृष्णधरशर्मा


मंगलवार, 6 फ़रवरी 2018

दत्ता-शरतचंद्र

 "सारा कमरा निस्तब्ध हो उठा और इस प्रकार की नीरवता के बीच इतनी देर में मानो एक साथ ही सब कार्यों की कदर्य श्रीहीनता सबकी दृष्टि में आ गई। मानो बाजार में क्रय-विक्रय की वस्तु के संबंध में दो पक्षों में तीव्र कठोर मोल-भाव हो रहा था। जिसमें लज्जा, शर्म, श्री-शोभा की रत्तीभर गुंजाइश न थी। केवल दो व्यक्ति नग्न स्वार्थ को मजबूत मुट्ठी में पकड़कर छीन लेने के लिए खींचा-तानी कर रहे थे।" (दत्ता-शरतचंद्र)



#साहित्य_की_सोहबत

#पढ़ेंगे_तो_सीखेंगे

#हिंदीसाहित्य

#साहित्य

#कृष्णधरशर्मा