"सूर्य जब गिरि-शिखर के अन्तराल में अवतीर्ण हो गए तब दिन की नाट्यशाला पर एक दीर्घ छाया-यवनिका पड़ गई; पर्वत का व्यवधान होने के कारण यहां सूर्यास्त के समय प्रकाश और अन्धकार का सम्मिलन बहुत देर तक स्थायी नहीं रहता। घोड़े पर बैठकर जरा घूम-फिर आऊं, यह सोचकर अब उठूं, तब उठूं कर रहा था कि सीढ़ी पर पैरों की आहट सुनाई पड़ी। पीछे फिरकर देखा, कोई नहीं था।" (अतिथि-रवीन्द्रनाथ टैगोर)
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