"बाप का दिल फिर डगमगाने लगा। पुजारी ने अपने को साधा। घड़े पर ढके हुए मिट्टी के सकोरे में कनेर का काढ़ा भरकर, अपनी गोद में बैठे हुए बच्चे को उसने अपने हाथ से ज़हर पिलाना शुरू किया। बच्चा बड़े संतोष से ज़हर पी रहा था। बाप की आँखों में आंसू छलछला आए। पेट भर चारों बच्चों ने ज़हर पिया। काढ़ा खत्म होने लगा। वह खुद अपने लिए भी तो चाहता था। उसका अपना भी स्वार्थ तो था। उसने जबरदस्ती बच्चों को पीने से रोक दिया। इतने में छोटा बच्चा पेट पकड़कर रोने लगा। ज़हर धीरे-धीरे सब बच्चों पर असर कर रहा था। बाप चुपचाप देखता रहा। बेटे उसकी आंखों के आगे मर रहे थे। वे सदा के लिए सो गए। पुजारी भी सदा के लिए सो जाना चाहता था। पुजारी ने घड़े का मुंह तोड़ा, जिससे पीने में आसानी हो। टूटा घड़ा हाथ में उठ आया। भगवान के चरणों में प्रणाम कर पीना ही चाहता था कि गाय का बछड़ा कांपती हुई आवाज में रंभा उठा।" "भूख" (अमृतलाल नागर)
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