"स्वामि-भक्ति का पाठ पढ़ाकर पुरुष ने नारी को अपने हाथ का खिलौना बना लिया। विराज भी ऐसे ही वातावरण में पली थी। उसने अपने पति को ही सर्वस्व मान लिया था। उसने स्वयं दुःख बर्दाश्त किया, परंतु पति को सुखी रखने की हर तरह से चेष्टा की। लेकिन इस सबके बदले में उसे मिला क्या? लांछना और मार। तीस दिन की भूखी-प्यासी-बुखार से चूर विराज, अपने पति नीलांबर के लिए बरसात की अंधेरी रात में भीगती हुई, चावल की भीख मांगने गई। ...और नीलांबर ने उसके सतीत्व पर संदेह किया, उसे लांछना दी।..." ("विराज बहू" शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय)
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