"आवेग का ज्वर जब उतरता है तब पश्चाताप के पंक के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह जाता है। और ऐसे ही क्षणों में मनुष्य आत्म-विश्लेषण करता है। वह स्वयं को उधेड़ता है, परत-दर-परत खोलता चलता है। ये पल होते हैं अंतर्मंथन के। यह समय होता है अपनी अस्मिता से साक्षात्कार का इस समय उसकी मानसिकता सुरत्व को असुरत्व से अलग करके देखती है, सत्य को तर्क से हटाकर परखती है, प्रकाश को अंधकार से छानकर पीती है। संध्या होते-होते आचार्य इसी मानसिकता में आ गए थे।" (अभिशप्त कथा- मनु शर्मा)
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