"कोलकाता मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगा, इतनी दहशत में भला कोई चीज अच्छी लग सकती है? आगे कभी लगेगी, इसका भी भरोसा नहीं कर सका। कहां गया हमारा वह नदी का किनारा, बांसों के झुरमुट, बेल की झाड़ी, मित्र-परिवार के बगीचे के कोने का वह अमरुद का पेड़, कुछ भी तो नहीं है ! यहां तो सिर्फ बड़े-बड़े ऊंचे मकान, गाड़ी-घोड़े, आदमियों का भीड़-भड़क्का, लंबी-चौड़ी सड़कें ही दिखाई देती हैं। मकान के पीछे ऐसा एक बाग़-बगीचा भी तो नहीं, जहां छिपकर एक चिलम तंबाकू पी सकूं।" (शरतचन्द्र की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ-शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय)
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