"मैं कबीर, जाति-पांति का पता नहीं, धर्म-संप्रदाय में आस्था नहीं, जिह्वा पर लगाम नहीं, सीधे को उलटा और उलटे को सीधा कहने का आदी, उलटवांसियों के लिए ख्यात-कुख्यात, आज चला हूं लिखने अपनी आत्मकथा-अपनी राम-कहानी। आप पूछियेगा यह आत्मकथा है कि भूतगाथा? सच पूछिए तो मैंने कभी लिखा नहीं-अपने जीवनकाल में भी। 'मसि कागद छुओ नहीं' इस मेरी प्रसिद्ध उक्ति से आप भी अनभिज्ञ नहीं। जब पढ़ा ही नहीं तो लिखता क्या? जो स्याही कागज से भी दूर रहा वह क्या खाक पढ़ता व लिखता? ऐसे भी पढाई के प्रति मेरी धारणा से बच्चा-बच्चा परिचित है, भले ही इस उक्ति का बहुतों ने अर्थ का अनर्थ कर दिया हो- 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।" (देख कबीरा रोया-भगवतीशरण मिश्र)
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