दुनिया के किसी भी आदिवासी
इलाके की तरह बस्तर के आदिम समाज में भी काल्पनिक देवी-देवताओं का मानसिक
साम्राज्य पूरी दृढ़ता से अपनी जड़ें जमाये हुये है। यह और बात है कि यहाँ के
आदिवासी अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में स्वंय उन देवी देवताओं से भी अधिक
शक्तिशाली हैं, जिन्हें वे स्वयं से भी अधिक शक्तिशाली मानते आ रहे हैं।
दरअसल दिल को दहला देने वाली घोर गरीबी में जैसे-तैसे, गुजर-बसर कर रहे
बस्तर के आदिम समाज को अपनी शक्ति का अहसास नहीं है।
धर्म थके हारे मनुष्यों की
लाचारी का ही दूसरा नाम है। बस्तर का आदिम लोक जीवन अपनी ऐतिहासिक शक्ति को भूलकर
इस वैज्ञानिक युग में भी अगर अदृश्य देवी-देवताओं के सम्मोहन में बंधा हुआ है तो, उसके पीछे भी उसकी
यह लाचारी ही है। धर्म पर आधारित यह सम्मोहन ही उसे भरोसा दिलाता है कि अगला जन्म
इससे भी बेहतर होगा।
उसे न तो अतीत की स्मृतियाँ
कुरेदती है और न ही भविष्य की चिंता सताती है। किसी भी अंचल या धरती के लिये किसी
टुकड़े की लोक संस्कृति तत्कालिन लोक मानस और परिस्थितियों पर निर्भर करती है। युग
की बदली हुई परिस्थितियों से अन्र्तक्रिया करते हुये जब लोक मानस और लोक बदलता है
तब, लोक संस्कृति का परिवर्तन सहज स्वाभाविक है, यह बात अलग है कि यह परिवर्तन लोक की प्रकृति के
अनुसार होने से उतना प्रभावी न प्रतीत होता हो जितना कि उच्चवर्गीय संस्कृति में
संभव होता है। यही है आदिवासियों के उल्लासमय, सादगीपूर्ण नृत्य संगीत से पूर्ण जीवन का रहस्य।
प्राकृतिक और पारिवारिक सुख को दैवीय प्रकोप मानकर पूरी भक्ति और श्रद्धा के साथ
अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हुये अराधना के स्वर में झूम उठता है, यहीं से प्रारंभ
होती है आदिवासियों के त्योहारों और मेलों की श्रंृखला, जो कि उनके
संघर्षशील और श्रमसाध्य जीवन में वर्ष भर उल्लास और मधुरता घोले रहती है।
बस्तर के आदिवासियों की
अभूतपूर्व भागीदारी का ही प्रतिफल है कि बस्तर दशहरा की राष्ट्रीय पहचान स्थापित
हुई है। छ.ग. के जगदलपुर नगर में दशहरा अत्यन्त गरिमा और सांस्कृतिक वैभव के साथ
मनाया जाता रहा है। भूतपूर्व बस्तर रियासत में टेम्पल व्यवस्था के तहत पूर्णतः
सार्वजनिक दशहरा पर्व मनाया जाता था। समय बदला, व्यवस्था, परिस्थितियाँ बदली, समाज बदला और इसके
साथ मनुष्य का जीवन भी बदला। शासन ने जन भावनाओं का सम्मान करते हुए इसमें अपनी
रचनात्मक भूमिका निर्धारित की। ऐसी भूमिका कि यह परम्परा लगातार विकसित होती रहे।
यहाँ रावण नहीं मारा जाता
बस्तर दशहरा की अपनी
विशिष्ट पहचान है। दशहरे का वैभव ही कुछ ऐसा है कि सबको आकर्षित करता है। असत्य पर
सत्य के विजय के प्रतीक, महापर्व दशहरे को पूरे देश में राम का रावण से युद्ध में
विजय के रूप में विजयादशमी के दिन मनाया जाता है, किन्तु बस्तर दशहरा देश का ही नहीं, वरन् पूरे विश्व का
अनूठा महापर्व है, जो असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक तो है, मगर बस्तर दशहरा में
रावण नहीं मारा जाता, रामायण से इसका कोई संबंध नहीं, अपितु बस्तर की आराध्या देवी माँ दन्तेश्वरी सहित अनेक
देवी-देवताओं की 75 दिनों तक पूजा-अर्चना होती है।
बस्तर का अद्धितीय दशहरा
चालुक्य वंशीय राजपरिवार की इष्ट देवी तथा बस्तर अंचल के समस्त लोक जीवन की ईष्ट व
राज्य की आराध्या देवी दंतेश्वरी के प्रति श्रद्धा-भक्ति की सामूहिक अभिव्यक्ति का
पर्व है। बस्तरांचल में धार्मिक दृष्टि से सर्वत्र शिव और शक्ति का वर्चस्व है।
बस्तर में देवी पूजा सर्वोपरि है। यहांँ के लोकजीवन में वामाचारी शक्ति परंपरा
का प्रभाव है, लोगों में पंच मकार का प्रचलन पाया जाता है इसलिए यहाँ
शांति, अहिंसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण वध नहीं किया जाता।
विजयादशमी के अवसर पर रावण वध की परंपरा को न मानते हुए देवी पूजा पर आधारित है।
किसी भी राष्ट्र की सैन्य ,शक्ति का पर्व है, दशहरा। बस्तर अंचल
में आदिवासी वैष्णव नहीं वरन् शाक्त हैं, इसलिए मांई दन्तेश्वरी जी जो शक्ति की देवी मानी जाती हैं, इस महापर्व में
विशेष महत्व पाती हैं।
इतिहास
बस्तर के दशहरा पर्व की, रथयात्रा की शुरूआत
सन् 1408 ई. के बाद चालुक्य वंशानुक्रम के चैथे शासक राजा पुरूषोत्तम
देव ने की थी। अंचल के आदिवासियों में धार्मिक भावना को सही दिशा प्रदान करने का
उद्वेश्य लिये राजा पुरूषोत्तमदेव ने जगन्नाथपुरी की यात्रा और अपनी प्रजा को साथ
ले जाने का निश्चय किया। राजा के इस प्रस्ताव से व्यापक प्रभाव पड़ा। लोगों के मन
में मुफ्त यात्रा, वह भी राजा के साथ जाने का उमंग के भाव के साथ अंचल के मुरिया, भतरा, गोंड, धाकड़़, माहरा तथा अन्य
जातियों के मुखियाओं ने राजा के साथ जाने की मनः स्थिति बनाई। एक शुभ मुहुर्त देख कर राजा, यह ऐतिहासिक यात्रा
के लिये रवाना हुए। इस कष्ट-साध्य यात्रा में पैदल ही जाना था, राजा स्वयं सवारियों
का प्रयोग नहीं किया।
एक जनश्रुति के अनुसार राजा
पुरूषोत्तमदेव ने अपनी प्रजा एवं सैन्यदल के साथ जगन्नाथपुरी पहुंचे। पुरी के राजा
को जगन्नाथ स्वामी नें स्वप्न में यह आदेश दिया कि बस्तर नरेश की अगवानी व उनका सम्मान करें, वे भक्ति, मित्रता के भाव से
पुरी पहुंच रहे है। पुरी के नरेश ने बस्तर नरेश का राज्योचित स्वागत किया। बस्तर के राजा ने पुरी
के मंदिरों में एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ, बहुमूल्य रत्न आभूषण और बेशकीमती हीरे-जवाहरात
जगन्नाथ स्वामी के श्रीचरणों में अर्पित किया। जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह
चक्कों का रथ राजा को प्रदान करने का आदेश प्रमुख पुजारी को दिया। इसी रथ पर चढ़कर
बस्तर नरेश और उनके वंशज दशहरा पर्व मनायें साथ ही ‘लहुरी रथपति’ की उपाधि देने का निर्देश दिया। राजा पुरूषोत्तमदेव को लहुरी रथपति की
उपाधि से विभूषित किया गया।
पुरी नरेश से स्थायी मैत्री
संधि कर बस्तर नरेश वापस लौटे, साथ में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र सुभद्रा की काष्ठ प्रतिमा अपने साथ लाए
और भगवान की पूजा अर्चना के लिए कुछ आरण्यक ब्राह्मण परिवारों को भी अपने साथ लेकर आये, जो आगे चलकर बस्तर
राज्य में ही बस गए। राजा पुरूषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से वरदान स्वरूप मिले सोलह
चक्कों के रथ का विभाजन करते हुए रथ के चार चक्कों को भगवान जगन्नाथ को समर्पित कर
दिया और शेष 12 पहियों का विशाल काष्ठ रथ माँ दन्तेश्वरी को अर्पित कर दिया, तब से दशहरा में
दन्तेश्वरी के छत्र के साथ राजा स्वयं भी रथारूढ़ होने लगे। मधोता ग्राम
में पहली बार दशहरा रथ यात्रा संवत् 1468-69
(1411-12 ई.) के लगभग प्रारंभ हुई।
कई वर्षों के बाद 12 चक्कों के रथ संचालन में असुविधा होने के कारण आठवें क्रम के शासक राजा वीरसिंह ने
संवत् 1610 के पश्चात् आठ पहियों का विजय रथ और चार पहियों का फूल रथ प्रयोग में लाया। तब
से लेकर यह परम्परा आज भी निर्बाध रूप से जारी है।
रियासत काल में राजा मांई
दन्तेश्वरी का छत्र लेकर स्वयं रथों पर विराजमान होते थे, इन रथों पर राजपिवार
की कुल देवी, मांँ दुर्गा के एक रूप, मां दन्तेश्वरी के छत्र को रथयात्रा के दौरान रथ पर आरूढ़ किया
जाता है। इसलिए बस्तर दशहरा में फूल रथ चार चक्कों वाला रथ होता है तथा भीतर रैनी और बाहर रैनी
के लिए आठ चक्कों के रथ परिक्रमा का विधान है। प्रतिवर्ष एक नया रथ निर्माण किया
जाता है। एक वर्ष चार चक्कों का होता है, वहीं दूसरे वर्ष आठ चक्कों का रथ निर्माण किया
जाता है। प्रतिवर्ष आयोजन होने वाले दशहरा पर्व में मूल रूप से दो विशालकाय रथ
परिक्रमा के लिए उपयोग में लाए जाते है। प्रत्येक रथ निर्माण के लिए लगभग 55 से 60 घनमीटर विशेष प्रजाति की लकड़ियों की आवश्यकता होती है जिसका
मूल्य समय के अनुसार लाखों रूपये का आंका गया है। कोई भी रथ दो वर्षों के परिक्रमा
बाद चलन से बाहर कर दिया जाता है।
बस्तर के जनजातीय समाज में
पशु-पक्षियों की बलिप्रथा बहुतायत में पाई जाती है। कई मामलों में देवी-देवताओं के
पसंद के अनुरूप तथा रंग के आधार बलि दी जाती है। कई बार संबंधित देवी-देवताओं को खुश
करने के उद्धेश्य से रंग विशेष का बकरा अर्पित करने का मन्नत मांगता है जो पूर्ण हो जाने के बाद उसे
पूरा करता है, अपने आप में महत्व रखता है।
पाठ जात्रा
विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा
का विधिवत् शुभारंभ श्रावण मास के अमावस्या से अर्थात् हरियाली अमावस्या से
प्रारंभ होता है। दशहरा पर्व विधान के तहत प्रतिवर्ष रथ यात्रा के लिए रथ निर्माण किया
जाता है। अमावस्या के दिन नवीन रथ निर्माण के लिए लकड़ी का एक बड़ा टुकड़ा लाया जाता
है जिसे ‘टुरलु खोटला’ कहा जाता है। इस लकड़ी के टुकड़े को स्थानीय दन्तेश्वरी मांई
मंदिर के सामने रखा जाता है और रथ निर्माण में लगने वाले औजारों के साथ पूजा अर्चना
की जाती है। जिसे ‘पाठ जात्रा’ कहा जाता है। मांझी, मुखिया, चालकी, मेम्बरिन, जनप्रतिनिधियों, विधायक, और गणमान्य नागरिकों के समक्ष पुजारी के द्वारा विधिवत् टुरलु खोटला
पूजा का उद्धेश्य यह होता है कि जिस निमित्त लकड़ी का तना लाया गया है, उसकी तथा अन्य स्थानीय
देवी-देवताओं के साथ-साथ राज्य की देवी अर्थात् दन्तेश्वरी देवी की आराधना की जाती
है। लोक-विश्वास है कि जिन देवी-देवताओं को पर्व विशेष के लिए आव्हान किया है, वे देवी-देवता पर्व
समाप्ति तक कहीं अन्यत्र न जायें और पर्व निर्विघ्न सम्पन्न हो, लकड़ी के मोटे कुंदे
पर कीलों को गाड़कर अपने विश्वास को दृढ़ करते आज भी देखा जा सकता है।
डेरी गड़ाई पूजा विधान
पाठ-जात्रा से प्रारंभ हुई पर्व की दूसरी रस्म को ‘डेरी गड़ाई’ कहा जाता है। साल
प्रजाति की दो शाखा युक्त डेरी, (स्तम्भनुमा लकड़ी का लगभग 10 फुट का ऊँचा लकड़ी) होता है, जिसे परम्परा के अनुसार दशहरा पर्व के
प्रारंभ होने के पूर्व स्थानीय सिरहासार भवन में स्थापित की जाती है। 15 से 20 फीट की दूरियों पर दो
गढ्ढे किए जाते हैं, इन गढ्ढों में जनप्रतिनिधियों और दशहरा समिति के सदस्यों की उपस्थिति में
पुजारी के द्वारा डेरी में हल्दी, कुमकुम, चंदन का लेप
लगाकर दो सफेद कपड़े बाँधकर पूजा सम्पन्न करता है। इन गढ्ढों पर डेरी स्थापित करने
के पूर्व जीवित मोंगरी मछली और अण्डा छोड़ी जाती है तथा फूला लाई डालकर डेरी स्थापित की जाती है। इस
शाखा-युक्त डेरी के गड़ाई को एक तरह से मण्डापाच्छादन का स्वरूप माना जाता है। इस डेरी
की पूजा-पाठ के साथ स्थापना करके दशहरा पर्व निर्विघ्न सम्पन्न करने की कामना की
जाती है। इस डेरी गड़ाई के पश्चात् रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। यह रस्म भादों शुक्लपक्ष द्वादश
अथवा तेरस के दिन पूर्ण कर ली जाती है, डेरी गड़ाई के साथ ही जंगलों से लकड़ी और निर्धारित
गाँवों से कारीगरों का आना प्रारंभ हो जाता है। डेरी गड़ाई अर्थात् स्तम्भारोहण के
पश्चात् रथ निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी जाती है।
व्यवस्था के तहत रथ निर्माण हेतु जंगल से लकड़ी लाने से रथ खींचने तक का
कार्य विभाजित है। रथ की विभिन्न भागों की लकड़ियां उन्ही गाँवों के लोग प्रतिवर्ष लाते हैं, जिन्हें पूर्व में
जिम्मेदारी सौंपी गई थी और तब से लेकर आज तक अपनी परम्परा का निर्वहन करते आ रहे
हैं। लकड़ी लाने का कार्य भी एक उत्सव की तरह होता था। ग्रामीणों का जत्था जंगलों से लकड़ी लेकर सिरहासार
तक आता था तो उनका जोश और उत्साह देखते ही बनता था। रथ निर्माण के लिए लकड़ी की
आपूर्ति बस्तर अंचल के जंगलों से होती है। रथ निर्माण के लिए वन-विभाग के स्वीकृति
से ही जंगल की साल और तिनसा
जाति के लकड़ियों का चयन करके काटा जाता है। परम्पराओं के अनुसार अलग-अलग हिस्सों
के लिए अलग-अलग गाँव के ग्रामीण जहाँ अपनी जिम्मेदारी निभाते हैं। बदलते परिवेश तथा मूल्यों के बाद भी दशहरा
जन-जन को जोड़े हुए है। रथ निर्माण में साल और तिनसा प्रजाति की लकड़ी का इस्तेमाल
किया जाता है। तिनसा प्रजाति की लकड़ी से एक्सल (अचाँड या अच्छांड) बनता है तथा शेष
रथ निर्माण के लिये अन्य सारे काम साल व धामन प्रजाति की लकड़ियों से पूरी की जाती है।
आज के इस आधुनिक युग में जहाँ चंद मिनटों में लकड़ी के बड़े-बड़े लठ्ठों को
टुकड़े-टुकड़े करने की बड़ी से बड़ी मशीनें बाजार में सहज उपलब्ध हैं वहीं इस मशीनी युग के बावजूद
शताब्दियों से चली आ रही पारम्परिक औजारों से विशालकाय 40 फीट ऊंचा काष्ठ रथों का
निर्माण अनूठा नज़रआता है। शायद इस अनूठेपन की कारीगरी भी आम जनता के लिए कौतुहल का
विषय हो सकता है, जब सैकड़ों कारीगर शहर के हदय स्थल ऐतिहासिक सिरहासार के सामने हाथों में
बसूला, कुल्हाड़ी, बिंधना लिए तन और मन से
जुट जाते हैं। रथ बनाने वाले ग्रामीण रथ निर्माण में देशी अस्त्रों का प्रयोग करते हैं।
मुख्यतः बिधंना, मुटला, बसूला, टंगिया, कुढ़ार और बढ़ई के द्वारा
उपयोग हथियार ही प्रयोग में लातें हैं।
काछिनगादी पूजा विधान
बस्तर अंचल में काछिन देवी, रण की देवी कहलातीं हैं। बस्तर दशहरा का शुभारंभ इतना सहृदय, इतना प्रेरक, भाव, मर्मस्पर्शी और
श्लांघनीय लगता है कि चिंतक उसमें खो जाता है। ‘काछिन गादी’ का अर्थ होता
है, काछिन की देवी को गादी
अर्थात् गद्दी या आसन प्रदान करना, जो काँटों की होती है। काले रंग के कपड़े पहनकर काँटेदार झूले की गद्दी पर आसीन होकर जीवन
में कंटकजयी होने का सीने में हाथ रखकर सांकेतिक संदेश देती हैं। काछिन देवी
बस्तर दशहरा में प्रतिवर्ष निर्विघ्न आयोजन हेतु स्वीकृति और आशीर्वाद प्रदान किया
करतीं हैं। मान्यता के अनुसार ‘काछिन देवी’ पशुधन और
अन्न-धन की रक्षा करती है। प्रतिवर्ष माहरा जाति की एक नाबालिक बालिका पर काछिन
देवी आरूढ़ होती हैं। राजपरिवार के सदस्य, बस्तर दशहरा समिति के सदस्य, मांझी, चालकी, नाईक, पाईक के साथ मांई
दन्तेश्वरी के मंदिर सेे निकलकर बाजे-गाजे के साथ कार्यक्रम स्थल अर्थात् भंगाराम चैक स्थित
काछिनगुड़ी एक जुलुस की शक्ल में पहुँचते हैं, कार्यक्रम के तहत भैरम-भक्त ‘सिरहा’ देवी का आव्हान करता है
और स्थल पर उपस्थित
कँुवारी बालिका पर काछिन देवी का प्रभाव गहराने लगता है। देवी की पूजा-अर्चना के
पश्चात् बस्तर के ऐतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरा मनाने की एवं निर्विघ्न सम्पन्न कराने
हेतु अनुमति माँगी जाती है। काछिन देवी से स्वीकृति सूचक प्रसाद मिलने के पश्चात्
बस्तर का दशहरा पर्व धूमधाम से प्रारंभ
हो जाता है। हरिजनों की देवी को बस्तर के भूतपूर्व राजाओं द्वारा इस प्रकार
प्राथमिक सम्मान दिया जाना इस बात की पुष्टि करता है कि चालुक्यों की दृष्टि
में हरिजन अश्पृश्य नहीं थे। काछिन देवी, बस्तर में मिरगान, चंडार और तिकड़ा
(अनुसूचित) जातियों की कुल देवी मानी जातीं हैं।
रैला देवी से अनुमति
काछिन गुड़ी में काछिन गादी के रस्म अदायगी के पश्चात् जगदलपुर नगर के गोलबाजार
में संध्या ‘‘रैला पूजा’’ होती है। रैला पूजा मिरगान जाति की पूजा है। रैला पूजा के अन्तर्गत मिरगान
महिलाएँ अपनी मिरगानी बोली में एक गीत-कथा को गा-गाकर कर प्रस्तुत करती हैं, जिसमें ‘रैला देवी’ का बड़ा ही हृदय-स्पर्शी एवं
कारूणिक चित्रण मिलता है। राजकुमारी रैला देवी का वही श्राद्धकर्म बस्तर के दशहरा
पर्व में रैला-पूजा के नाम से जाना जाता है। इस देवी
का अब तक कोई मंदिर नहीं है। गोलबाजार के अंदर एक स्थल पर प्रतिवर्ष काछिन देवी के
पूजा के बाद संध्या के समय चिन्हित स्थल पर रैला देवी के आयोजन के लिए मिरगान जाति का पुजारी तथा इस जाति की
महिलाएँ एकत्रित होती हैं। ग्राम तेलीमारेंगा की अनुसूचित जाति की कुवाँरी कन्या जो कि
रियासत काल से उसी ग्राम से निभाती चली आ रहीं हैं, उन्हें परम्परा के अनुसार प्रतिवर्ष
अवसर दिया जाता है। इस रैला पूजा में भी राज
परिवार तथा पुजारी रैला देवी से पर्व निर्विघ्न सम्पन्न होने की कामना करता है।
कलश स्थापना
भारतीय संस्कृति में कलश को विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों में सर्वोच्च स्थान
दिया गया है। जीवन के हर क्षेत्र में धार्मिक कार्य का शुभारंभ मंगल कलश स्थापित करके ही किया
जाता है। छोटे अनुष्ठानों से लेकर बड़े-बड़े धार्मिक कार्यों में कलश का उपयोग किया
जाता है। इस प्रकार कलश भारतीय संस्कृति का वो प्रतीक है जिसमें समस्त मांगलिक
भावनाएं निहित होती हैं। शारदीय नवरात्र उत्सव पर, शहर में आस्था के ज्योति जगमगाते देखे
जा सकते हैं। मांई दन्तेश्वरी
मंदिर सहित सार्वजनिक दुर्गा पण्डालों में तथा शहर के अन्यान्य मंदिरों में
मनोकामना दीप जलते हैं। बस्तर की आराध्य देवी मां दन्तेश्वरी के मंदिरों में भी आस्था के ज्योति जलती
हैं। हजारों भक्त श्रद्धा भक्ति के साथ मनोकामना ज्योति कलश स्थापित करते हैं।
यहाँ बस्तर नहीं देश भर के अनेक राज्यों के अलावा विदेशों से भी भक्त तेल व घी के
ज्योति जलाते हैं।
जोगी बिठाई
बस्तर के दशहरा के संदर्भ में योगी ही, जोगी की संज्ञा पाता है, जो दशहरा दर्शन में
प्रमुख भूमिका तो निभाता है किन्तु रथ चालन का साक्षी और दशहरा समारोह का दर्शक
नहीं होता बल्कि इसकी आराधना, साधना और संकल्प को सम्मान देते स्थानीय सिरहासार में लोग जोगी का दर्शन करते
हैं।
आश्विन शुक्लपक्ष को स्थानीय सिरहासार में जोगी बिठाई की रस्म अदा की जाती है।
एक गढ्ढे में हल्बा जाति का एक व्यक्ति लगातार 9 दिनों तक योगासन की मुद्रा में
बैठा रहता है, इस बीच जोगी
फलाहार तथा दूध का सेवन करता है। रियासत काल से ही हल्बा जनजाति का जोगी इस
परम्परा का निर्वहन
करता आ रहा है। बड़े आमाबाल निवासी जोगी परिवार का जो व्यक्ति 9 दिनों तक उपवास करता है, वह निर्धारित गढ्ढे में
बैठने के पूर्व अर्थात्
नवरात्र के पहले पितृमोक्ष अमावस्या के दिन ही सिरहासार पहुँच जाता है। निर्धारित
स्थल पर वह अपने परिवार जनों के साथ अमावस्या के दिन पितरों का श्राद्ध करता
है। पितरों के श्राद्ध के बाद से ही वह जोगी के रूप में बैठने के लिए तैयार माना
जाता है। जोगी उपवास प्रारंभ करने के पूर्व श्राद्धकर्म करते हुए पितरों का सम्मान
करता है तथा अपने पितरों के प्रति आस्था प्रदर्शित करते हुए दूसरे दिन से पर्व
निर्विघ्न सम्पन्न हो, इस कामना के साथ 9 दिनों तक उपवास पर बैठता
है।
फूल रथ परिक्रमा
परम्परा के अनुसार आश्विन शुक्लपक्ष द्धितीया से लेकर सप्तमी तिथि तक चलने
वाले फूलरथ की परिक्रमा का चरण प्रारंभ हो जाता है। इन तिथियों में प्रतिदिन रथ परिक्रमा
होती है। ग्रामीण क्षेत्रों से आए हुए हजारों ग्रामीणों के द्वारा फूल रथ का खींचा
जाना एक विहंगम दृश्य उत्पन्न करता है, जो यह बताता है कि भक्ति में कितना आनंद और
सुख छिपा हुआ है। शक्ति परम्परा का यह ऐतिहासिक पर्व बस्तर दशहरा अपने शान और
विलक्षणता के लिए न केवल भारत में प्रसिद्ध है वरन् इसका अवलोकन करने के लिए विदेशियों की भी
आमद बस्तर में होती है। 4 पहियों वाले फूलरथ अपने आकर्षण, जिसमें फूलों का
बाहुल्य होता था, पुष्प प्रधान होने के कारण ‘फूलरथ‘ की संज्ञा दी गई। रियासत काल में देवी की डोली, रथ, छत्र से लेकर राजा
का पगड़ी भी पुष्प प्रधान हुआ करता था। यद्वपि अब कागज के फूलों और फुग्गों से सजा
यह रथ परम्परा का पालन भले ही करता हो, किन्तु उन दिनों की शोभा ही कुछ और थी, जो अब परम्परा के
नाम पर दिखाई नहीं देती। रथ परिक्रमा निर्विघ्न सम्पन्न हो इस आशय को लेकर राउरीन तथा पनारा समाज की
महिलाओं के द्वारा नज़र उतारी जाती है। रथ की नज़र उतार कर उसे निर्विघ्न
सिंह-ड्योढ़ी तक पहुँचाने की मन्नत मांगी जाती है। इस रस्म में पनारा समाज
की महिलाओं के द्वारा रथ के उपर भाव-विभोर होकर रथ पर विराजित मांई जी के उपर पुष्प वर्षा करके
नज़र उतारतीं हैं तथा केवटा जिसे समरथ भी कहा जाता है, उस समाज की महिलाओं
के द्वारा चना, लाई, पान-बीड़ा तथा गुड़िया खाजा अर्पित करते हुए इस विधान को सम्पन्न करतीं
हैं। यह परम्परा आज तक निर्बाध रूप से चली आ रही है।
महाष्टमी पूजा विधान
नवरात्र के अष्टमी तिथि के अवसर पर सुबह से ही मंदिरों में भक्तों का तांता लगना शुरू हो
जाता है। हजारों की संख्या में भक्त, सपरिवार मंदिर में देवी दर्शन कर यज्ञ अनुष्ठान पर शामिल होते हैं। नवरात्र के आठवें दिन महागौरी
की पूजा अर्चना की जाती है। अष्टमी के दिन नगर का पूरा माहौल धार्मिक रहता है। देवी
दरबारों में आस्था और भक्ति का संगम दिखाई देता है। बताया जाता है कि दुर्गा जी के
इस रूप की पूजा करने से भक्तों को सभी प्रकार के सुख प्राप्त होते हैं, और इससे भक्तों के मन को शांति मिलती
है। शहर के
दन्तेश्वरी मंदिर के साथ हिंग्लाजीन मंदिर, शीतला मंदिर, काली कंकालिन मंदिर, विभिन्न दुर्गा मंदिर, गायत्री मंदिर तथा शहर
के अन्य देवी मंदिरों में
सुबह से शाम तक भक्तों की भारी भीड़ रहती है। सार्वजनिक दुर्गा मण्डपों में भी
यज्ञ-हवन सम्पन्न किया जाता है।
निशा जात्रा
बस्तर दशहरा के रस्मों में आश्विन माह के अष्टमी तिथि तथा नवमी तिथि को रथ
परिक्रमा नहीं होती। इस दिन आँचलिक देवी-देवताओं के सम्मान में बलि देकर प्रसन्न करने
का दिन होता है। यह कार्य आधी रात को सम्पन्न किया जाता है। आधी रात को
निशा-जात्रा रस्म पर बकरों के अलावा कुम्हड़ा और मछली की बलि
दी जाती है। लोगों का मानना है कि इससे अंचल में देवी की कृपा बनी रहती है। यह
परम्परा रियासत काल से चली आ रही है। रियासत कालीन बलि की परम्परा में परिवर्तन अवश्य हुए हैं किन्तु पशु
बलि आज भी जारी है। इस रहस्यमयी निशा जात्रा में कालान्तर में परिवर्तन करते हुए अब
यहाँ 12 बकरों की बलि देने का रस्म बन कर रह गया है।
अष्टमी की आधी रात दन्तेश्वरी मंदिर में पूजा-अनुष्ठान के बाद मांई जी की डोली को लेकर
बाजे-गाजे के साथ पुजारी, राजगुरू व अन्य भक्त निशा-जात्रा मंदिर पहुँचते हैं, यहाँ पूजा-अनुष्ठान के बाद दोनों देवियों को बकरों की बलि दी जाती है। इस मंदिर में खमेश्वरी
देवी का वास माना जाता है। यह मंदिर वर्ष में एक बार खुलता है। मंदिर के मध्य भाग
में तिरछा एक खंडित मूर्ति आज भी स्थापित है। मंदिर के
भीतर सभी पूजा-पाठ होते हैं किन्तु इस मंदिर में बाह्यबलि की प्रथा है। माना जाता
है कि इस मंदिर में माता दन्तेश्वरी तथा
माता माणिकेश्वरी
देवी का निवास है। जहाँ दन्तेश्वरी और माणिकेश्वरी देवी का वास हो तो फिर राज्य की
सभी देवी-देवताओं का वास होना
लाजिमी है। रस्म के अनुसार देवी-देवताओं
को अर्पित होने वाले 12 काँवड़ अर्थात् 24 मटकियों में बने भोग प्रसाद को बाघनपाल
के राजपुरोहित परिवार के लोग आज भी तैयार
करते आ रहे हैं, जिसे
दन्तेश्वरी मंदिर से लेकर जतरा स्थल अर्थात् बलि देने के स्थान तक काँवड़ से पहुँचाया जाता है। परम्परा के अनुसार
निशा-जात्रा मंदिर के अलावा स्थानीय अन्य मंदिरों में रस्मों के अनुसार बलि दिए
जाने की प्रथा आज भी कायम है। कुछ मंदिरों में सात्विक और प्रतीकात्मक बलि के रूप में कुम्हड़ा बलि देने
की प्रथा है। इस बलि को देखने भक्तगण अनेक मंदिरों में पहुँचते हैं।
कुंवारी पूजा विधान
महानवमी पूजन में कुवांरी पूजा के अन्तर्गत नौ कुवांरी कन्याओं एवं एक बालक की
पूजा की जाती है। नवरात्र पूजन से जुड़ी कई परंपराएं हैं। जैसे कन्या पूजन। इसका
धार्मिक कारण यह है कि कुंवारी कन्याएं माता के समान ही पवित्र और पूजनीय होती
हैं। दो वर्ष से लेकर दस वर्ष की कन्याएं साक्षात माता का स्वरूप मानी जाती हैं।
यही कारण है कि इसी उम्र की कन्याओं के विधिवत पूजन कर भोजन कराया जाता है। इसे
कुंवारी पूजा भी कहा जाता है। नवरात्र में सभी तिथियों को एक-एक और अष्टमी या नवमी को नौ कन्याओं की पूजा
होती है।
जोगी उठाई
नवें दिन जोगी के समक्ष इष्ट देवी की पूजा करके जोगी उठाने की रस्म पूरा किया
जाता है। जोगी अपने स्थान से उठकर नौ दिनों के योग अनुष्ठान विधान से मुक्त हो जाता
है। उसके पहले
बिठाई के दिन मावली मंदिर से प्रदाय किए गए खांडा अर्थात् तलवार पूजा-विधान के साथ
मूल मंदिर में पुनः स्थापित
कर दी जाती है। नौ दिनों तक अनवरत बैठे जोगी, नवमी तिथि को संध्या के समय उठकर
स्थानीय काली कंकालिन, राम मंदिर तथा मावली मंदिर में पूजा-अर्चना करता है। 9 दिनों तक योग की अवस्था में बैठा योगी
को पूजा विधान के बाद निर्धारित स्थान से उठाया जाता है। उठाने का कार्य पर्व के पुजारी, चालकी, मांझी, मेम्बरीन, गणमान्य नागरिकों और
दशहरा समिति के सदस्यों की उपस्थिति में सम्पन्न किया जाता है। जोगी बिठाई के दिन जिस क्रम
से मंदिरों के देवी-देवताओं का दर्शन जोगी 9 दिनों के लिए स्थान ग्रहण करता है उसी
क्रम में जोगी उठकर देवी-देवताओं का आभार मानते हुए पूजा करता है। मावली मंदिर के खांडा को पुनः स्थापित करता
है। वहाँ से लौटकर अपने कुलदेवी की आराधना करता है तथा पर्व के निर्विघ्न सम्पन्न
होने के लिए आभार प्रदर्शित करते हुए जोगी उपवास तोड़ता है।
मावली परघाव
दन्तेवाड़ा से मावली देवी
आमंत्रण पाकर दशहरा में शामिल होने जगदलपुर डोली पर सवार होकर आती हैं, जिन्हें इस खूबसूरत
अवसर पर प्रमुख रूप से राज परिवार के सदस्य, कुवंर परिवार, राजगुरू, जनप्रतिनिधि, राजपुरोहित अगुवानी करते हैं। इस स्वागत को ही
लोकभाषा में परघाव कहा जाता है। मावली देवी की अगुवानी या स्वागत को ही मावली
परघाव कहा जाता है। बस्तर अंचल में मावली देवी के कई स्थानों पर मंदिर है। प्रमख रूप से दन्तेवाड़ा, जगदलपुर, नारायणपुर, मधोता, छोटे देवड़ा, कौड़ावंड, नवागाँव, सिवनी आदि गाँवों
में मावली के मंदिर स्थापित हैं। नारायणपुर में मावली के नाम से विशाल
मेला का आयोजन भी होता है। बस्तर में मावली को प्रमुख देवी के रूप में पूजा की
जाती है, और कई नामों से भी पुकारा जाता है, उन रूपों में पूजा भी की जाती है। बस्तर अंचल में मावली के
नाम से कई गाँव भी बसे हैं।
मावली परघाव का दृश्य आज भी उतना ही बड़ा भव्य होता है, जितना पुरातन काल में होता आया है, वह चाहे दन्तेवाड़ा से जगदलपुर पर्व में सम्मिलित होने के अवसर पर, विदाई का अवसर हो या फिर जगदलपुर नगर सीमा में आने के बाद परघाव अर्थात्
स्वागत का हो या, पुनः दशहरा के समापन की अंतिम कड़ी के रूप में मावली देवी की विदाई और मावली देवी का दन्तेवाड़ा पहुँचने पर स्वागत का अवसर
हो। आज भी दशहरा के समस्त कार्यक्रमों में ‘मावली परघाव’ का आकर्षण कुछ ज्यादा ही परिलक्षित होता है।
राजमहल से राजपरिवार देवी की
अगुवानी के लिए राजगुरू, राजपुरोहित, जनप्रतिनिधि, तथा अन्य गणमान्य नागरिकों के साथ बाजे-गाजे के साथ एक जुलुस की शक्ल में आगे बढ़ते हैं। आतिशबाजी ढोल-नगाड़ों के बीच राज्य के
देवी-देवता जुलुस के आगे-आगे होते हैं। कहना होगा की राजपरिवार की कुल देवी तथा राज्य की प्रमुख देवी की अगुवानी में राज्य के अन्य
देवी-देवता भी अपने-अपने सेवादारों के साथ अपने-अपने प्रतीक चिन्हों के साथ पहुँचते हैं। लाट, बैरक, आंगा, तराश, डोली, पालकी, कुर्सी इन सभी प्रतीकों के माध्यम से मांई जी का भव्य स्वागत किया जाता है।
मांई जी की पालकी तथा मांई दन्तेश्वरी जी का छत्र कुटरूबाड़ा के समीप पहुँचते ही
मांई दन्तेश्वरी की पूजा-अर्चना व स्वागत की जाती है। कुटरूबाड़ा से राजपरिवार के सदस्य तथा प्रमुख पुजारी अपने काधों से डोली लेकर राजमहल
पहुँचते हैं। मंदिर में पूजा-आराधना के बाद डोली व छत्र को यथोचित स्थान दिया जाता है।
भीतर रैनी
विजयादशमी को अस्त्र-शस्त्र
की पूजन का विधान सम्पन्न कर विजय रथ पर देवी छत्र और खड़्ग के साथ रथ पर सवार होकर
मुख्य पुजारी पूर्ववत् मावली मंदिर की प्रदक्षिणा करते हुए परिक्रमा करता है। इस
रथ परिक्रमा विधान में चार पहियों के स्थान पर आठ पहियों वाला विशालकाय रथ परिक्रमा के लिए
उपयोग में लाया जाता है। इस रथ के आठ काष्ठ पहिए होते हैं। इसके निर्माण में फूलरथ
की अपेक्षा अधिक लकड़ी उपयोग में लाया जाता है, तथा बनावट में भी अंतर होता है। विजय पर्व में चलायमान होने
के कारण विजय रथ अथवा भीतर रैनी रथ कहा गया है। यह रथ विजयादशमी के दिन अपने पूर्व
निर्धारित मार्ग पर ही परिक्रमा करता है। इसे खींचने के लिए कोड़ेनार-किलेपाल परगना
के आदिवासियों का विशेष अधिकार होता है।
रथ की परिक्रमा पूर्ण हो
जाने के बाद प्रथानुसार इसे देर रात चोरी करके नगर से लगभग 3 किलोमीटर दूर ‘कुमडाकोट’ नामक स्थान पर छुपा दिया जाता है। इस स्थल पर राज्य तथा राज्य के बाहर
ओड़िसा, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र तथा आन्ध्रप्रदेश-तेंलगाना के लगभग तीन हजार से
भी अधिक देवी-देवता जुटते हैं। इन सभी देवी-देवताओं के प्रतीकों को एक जगह पर
स्थापित करके सम्मान दिया जाता है तथा मांईं जी के साथ-साथ सभी देवी-देवताओं की भी
पूजा-आराधना के बाद नए अन्न से बने भोग-प्रसाद अर्पित किया जाता है।
दूसरे दिन राजपरिवार और बस्तर
की जनता अपने-अपने देवी-देवताओं के साथ कुम्डाकोट पहुंचते है और राजा अपनी कुल
देवी को नया अन्न अर्पित करते हुए जनता के साथ नयाखानी पर्व सम्पन्न करता है। बाहर
रैनी के दिन कुम्हड़ाकोट वनक्षेत्र में जहाँ विभिन्न देवी-देवताओं का समारोह स्थल होता है।
नवाखानी सम्पन्न हो जाने के
बाद दन्तेश्वरी मंदिर का प्रमुख पुजारी, मांई जी के छत्र के साथ सवार होकर तथा राजपरिवार
के सदस्य रथ के सामने अपने वाहन पर सवार होकर आगे-आगे चलते हुए विभिन्न
चैक-चैराहों तथा मुख्य मार्गों से होता हुआ राजमहल के सिंहद्धार के समीप पहुंचता
है।
काछिन जात्रा
यह रस्म काछनदेवी को विदाई
देने का रस्म है, जहां विधि-विधान से काछिन देवी को पूजा-अर्चना के बाद
यथाशक्ति बलि देकर कृतज्ञता भेंट की जाती है। भंगाराम चैक स्थित काछिनगुड़ी के अलावा काछिन
जात्रा हेतु गुड़ी से कुछ ही दूरी पर स्थान निर्धारित है। यह स्थान भंगाराम चैक से पथरागुड़ा जाने के
मार्ग पर बाँवस मुण्डा तालाब के समीप ही सड़क के किनारे है। जात्रा स्थल में
बाजे-गाजे के साथ सिराहा, काछिन देवी अपने प्रतीक चिन्हों के साथ पहँुचते हैं और साथ में स्थानीय
देवी-देवता भी अपनी उपस्थिति दर्ज करते हैं।
मुरिया दरबार
मुर का अर्थ, हल्बी में प्रारंभ
या मूल होता है, अर्थात् इस अंचल में प्राचीन समय से बसे हुए आदिवासी
परिवारों के लिए मुर शब्द में साथ इया प्रत्यय लगाने के बाद मुरिया कहलाया। मुरिया
अर्थात् मूल निवासी। रियासत काल में आदिवासी संबोधन प्रचलित नहीं था। इसी मूलिया
शब्द के अतिशय प्रयोग से मुरिया परिवर्तित हो गया।
मुरिया
दरबार का सूत्रपात 8 मार्च 1876 को पहली बार हुआ था। मुरिया दरबार में ग्रामीण और शहरी
जनप्रतिनिधियों के बीच आवश्यक विषयों को लेकर चर्चा होती है। रियासत काल में जनता
और राजा के मध्य वर्ष में एक बार दरबार के माध्यम से विभिन्न मुद्दों को लेकर
विचार-विर्मश हुआ करता था। समस्याओं का समाधान भी त्वरित हुआ करता था। रियासत के
मांझी, मुखिया, कोटवार, चालकी, नाईक, पाईक आदि जनप्रतिनिधि अपने-अपने क्षेत्रों की समस्या दरबार
में प्रस्तुत करते थे। इस दरबार पर जन-समस्याओं पर चर्चा की जाती थी। किसी तरह की
कठिनाई आने पर उसका हल निकाला जाता था। यह शिकायत अपने क्षेत्र के अलावा राज्य के
कर्मचारियों की भी होती थी। कहना होगा कि मुरिया दरबार रियासत काल में एकतंत्रिय
न्याय-प्रणाली के रूप में स्थापित थी जो रियासत की जनता को स्वीकार्य होती थी। यह
परम्परा आज भी निर्बाध रूप से जारी है।
कुटुम जात्रा
दशहरा पर्व के अंतिम कड़ी दन्तेश्वरी मांई जी के छत्र तथा मावली की डोली के
विदाई के पूर्व परम्परा के अनुसार दशहरा में शामिल होने आए विभिन्न स्थानों के देवी-देवताओं
को कुटुम्ब जात्रा पूजा विधान के बाद बिदाई दी जाती है। इस दौरान ग्राम
देवी-देवताओं को बिदाई देते हुए उनके पुजारियों को नवीन वस्त्र व भेंट देकर
सम्मानित किया जाता है।
कुटुम जात्रा
में ग्राम देवी-देवताओं के अलावा प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष, ज्ञात अज्ञात जितने भी
देवी-देवता शामिल हुए, उन्हें इस पावन अवसर पर ससम्मान विधिवत पूजा-अर्चना और शक्ति के अनुसार बलि
दिया जाता है। आमंत्रित देवी-देवताओं को एक जगह कुटुम्ब जात्रा आयोजित करके एकत्र
किया जाता है। पर्व के दौरान जानी-अनजानी गलतियों के लिए क्षमा-याचना भी की जाती
है और राज्य की सुख, समृद्धि की कामना की जाती है। पुनः ग्राम देवी-देवताओं के प्रति आभार ज्ञापित
करते हुए सार्वजनिक रूप से बलि देकर देवी-देवताओं की ससम्मान विदाई दी जाती है।
दन्तेश्वरी एवं मावली जी की विदाई
अत्यन्त महत्वपूर्ण और पवित्र माने जाने वाले दन्तेश्वरी मांई और मावली मांई
की विदाई पूजा विधान के अंतिम रस्म को भी पूरी भव्यता के साथ सम्मानपूर्वक ढंग से
आयोजित किया जाता है। इस पवित्र रस्म में जिस तरह मावली परघाव के दिन मांई जी की
छत्र और डोली की पूरी भव्यता के साथ स्वागत किया जाता है, उसी सम्मान और आदर के
साथ भव्य रूप देकर एक शोभायात्रा के रूप में विदाई की जाती है।
लगभग एक सप्ताह तक जगदलपुर में रहने के पश्चात् दन्तेवाड़ा के लिए सम्मान
पूर्वक विदाई दी जाती है। परम्परा के अनुसार जिस भव्यता के साथ मावली परघाव को
मांई जी की स्वागत की जाती है उसी भव्यता के साथ ही विदाई भी दी जाती है। दशहरा के
समापन की यह रस्म पूरी भव्यता के साथ सम्पन्न होती है। विशाल मंच को फूलों से
सजाकर छत्र और डोली को मंच प्रदान किया जाता है। दन्तेवाड़ा तथा जगदलपुर के
दन्तेश्वरी मंदिर के प्रमुख पुजारी, राजपरिवार, राजपुरोहित, राजगुरू, जनप्रतिनिधि, प्रशानिक अधिकारी, दशहरा समिति के
पदाधिकारी, समाज प्रमुख सहित अन्य बड़ी संख्या में लोग उपस्थित होते हैं। मांई जी के सम्मान में पुलिस बैंड के घ्वनि
के बीच सशस्त्र बल के द्वारा सलामी दी जाती है।
श्रम, सहकार का
दुर्लभ प्रमाण
बस्तर दशहरा रथ निर्माण के संदर्भ में उक्ताशय उल्लेखनीय है। 75 दिनों तक चलने वाले
विश्व के इस विशिष्ट महापर्व बस्तर दशहरा में प्रयुक्त होने वाला विशालकाय काष्ठ
रथ प्रतीक है। आंचलिक श्रम साधकों के कला प्रेम और बस्तर की अराध्या मांँ दन्तेश्वरी
के प्रति उनकी समर्पित शक्ति भावना का दुमंजिले भवन की भांति आँचलिक सौन्दर्य बोध
के अनुरूप माटी पुत्रों की महिमा बखानती यह काष्ठ कृति अपनी रचना वैशिष्ट्य के
कारण शताब्दियों से विश्व के कलाधर्मियों के लिए आश्चर्य का विषय है।
इस विशालकाय रथ की परिकल्पना किसी मानद विश्वविद्यालय से उपाधि प्राप्त, किसी यंत्री विशेष के
द्वारा नहीं की गई है वरन् प्रकृति की गोद में साहचर्य का धर्म जीवन पर्यन्त
निभाने वाले उन धरती पुत्रों के द्वारा की गई है, जिनके अन्तस में कोई कालजयी आकार
आराधना और अनाशक्ति के बल पर रूपायित होता
है।
सहयोग, श्रम सहकार
और सामाजिक सरोकार की अनुभूति से ओतप्रोत बस्तर दशहरा रथ का निर्माण वास्तव में एक
कर्मयज्ञ है, जिसमें 75 दिनों तक श्रम के स्वेद
बिन्दुओं की अहर्निश समिधा पड़ती रहती है, गीता का यह श्लोक वस्तुतः इस हेतु भी
तो है -
‘‘कर्मण्ये
वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन्’’
विश्व में सबसे अधिक 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व अपनी उत्सव
धर्मिता एवं पर्व वैशिष्ट्य के कारण राष्ट्रीय, अन्तर्राष्ट्रीय पर्वों के मध्य अलग से पहचाना जाता
रहा है।
रथ निर्माण से लेकर उसके संचालन तक का प्रत्येक कार्य आदिवासियों में बंटा हुआ
है। अपने-अपने रचना कौशल में पारंगत ग्राम निवासी इस विशालकाय रथ के विभिन्न अंगों
को आकार देते चलते हैं। रथ निर्माण की पूरी प्रक्रिया तकनीक के दृष्टि से भी अपने
आप में संपूर्ण है।
रथ निर्माण पश्चात् सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य होता है, रथ की सुरक्षित
परिक्रमा। यूं तो 6 दिनों तक चलने वाले फूल रथ को सियाड़ी के छाल से बने मोटे
रस्से से बांधकर विभिन्न ग्रामों के मांझियों के निर्देशानुसार ग्रामीण खींचते
हैं। कभी-कभी उन्हें निर्देशित करने के कार्य में पटवारी तथा राजस्व निरीक्षक को
भी अवसर दिया जाता है। भीतर रैनी व बाहर रैनी के दिन विजय रथ जो कि आठ चक्कों का विशालकाय रथ होता है, इसे खींचने की
जिम्मेदारी ग्राम किलेपाल परगना के माड़िया आदिवासी का होता है जिसे अपना परम्परागत
अधिकार मानते आ रहे हैं। वैसे भी भीतर रैनी के दिन विशालकाय रथ को राजमहल के सामने
से नगर परिक्रमा कर लेने के पश्चात् दो किलोमीटर दूर खींचकर कुम्हड़ाकोट ले जाना
होता है, जहाँ से बाहर
रैनी के दिन रथ पुनः वापस खींचकर मूल स्थान में लाया जाता है। इस दरमियान लगने
वाले श्रम शक्ति सहयोग में अनिवार्य एक रूपता, अनुशासन की आवश्यकता होती है, जिसे माड़िया आदिवासी बड़ी
कुशलता से अंजाम देते हैं।
कहना होगा कि दशहरा पर्व के सम्पूर्ण संचालन में ग्रामीणों की सम्मानजनक
भागीदारी होती है। पर्व की सम्पूर्ण अवधि के दौरान बस्तर का एक आम आदिवासी यह
अनुभव करता है कि वह सम्पूर्ण आयोजन का अविभाज्य अंग है। इस दूरदृष्टि का महत्व
कुछ कम नहीं है।
रूद्र नारायण पाणिग्रही
(सहायक पशु चिकित्सा क्षेत्र अधिकारी, जगदलपुर, छत्तीसगढ़ शासन
लेखक, रंगकर्मी एवं कवि)
साभार- sahapedia.org
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