कच्चे
खपरैल वाले घरों में
रहती
थी इतनी जगह
कि
छुप सकें तेज बारिश में
गाय,
बैलों के साथ-साथ
कुत्ते,
बिल्ली, चूहे जैसे
और
भी जीव, जंतु
जो
नहीं कर सकते अपनी
व्यवस्था
स्वयं के लिए
रहती
थी इतनी जगह
घर
के एक कोने में
कि
रुक सके और बना सके
अपने
हाथ से अपना भोजन
भिक्षा
मांगने वाला गरीब ब्राह्मण
रहती
थी इतनी कि
आ
जाएं 5-10 मेहमान भी अगर
एक
साथ, तो भी नहीं पड़ती थी
माथे
पर कोई शिकन
उलटे
बढ़ जाता था उत्साह
उन्हें
खिलने-पिलाने का
उनकी
आवभगत करने का
मगर
टीवी और मोबाइल के
इस
आधुनिक दौर में
नहीं
बची है वह जगह
न
घर में और न लोगों के दिलों में
नहीं
बचा है वह उत्साह
न
वह अपनापन
जो
अपने लोगों के लिए होता था
न
जाने किसकी नजर लगी है
कि
रहना चाहते हैं सब अकेले ही
एक
ही घर में अजनबी जैसे...
(कृष्णधर शर्मा 20.7.2021)