नोरती बाई
10 साल की उम्र में पढ़ाई से छोड़ने वाली नोरती बाई ने 45 साल बाद कंप्यूटर सीखने का फैसला किया। कंप्यूटर सीखने के लिए कम ज्ञान और शिक्षा को कभी हावी नहीं होने दिया। शुरू में कंप्यूटर की बेसिक जानकारी लेने के बाद नोरती देवी जल्द ही कंप्यूटर चलाने में माहिर हो गईं। फिर उनकों समाज के लिए कंप्यूटर और इंटरनेट की उपयोगिता के बारे में एहसास हुआ।पहली बार, नोरती बाई ने स्थानीय पंचायत योजनाओं से जुड़कर आसपास के गांवों में जलसंसाधनों की जानकारी सरकार को मुहैया कराई। इस प्रक्रिया में पानी, नलकूप और तालाब के स्थानों के लिए नक्शे शामिल थे, जो स्थानीय समुदाय के लिए काफी सहायक साबित हुआ। इसी के साथ नोरती ने कॉलेज में स्थानीय महिलाओं को कंप्यूटर सिखाना भी शुरू कर दिया। इस बात की खबर पूरे गांव में फैल गई और लोग नोरती से पढ़ने के लिए आने लगे। यहां तक कि गांव की 5 वीं, 6ठी पास लड़कियां भी कंप्यूटर सीखने के लिए नोरती के पास पहुंचने लगीं।
हालांकि, नोरती बाई को गाववालों के पूरा समर्थन मिला, जिससे वो स्थानीय चुनाव जीतकर हरमारा गांव की पहली दलित महिला सरपंच भी बन गई। आज गांव की दूसरी महिलाएं नोरती बाई को अपना आदर्श मानती हैं।
नोरती बाई देशभर की गिनी चुनी उन महिलाओं में से हैं जिन्होंने सीआईआई-भारती वुमेन एक्जेंमपलरी अवॉर्ड प्राप्त किया है। ये अवॉर्ड उन्हें 2007 में समाज में विकास के लिए सराहनीय योगदान के लिए दिया गया।
कृष्णा पुनिया
11 अक्टूबर 2010 को दिल्ली कॉमनवेल्थ गेम्स में डिस्कस थ्रो के लिए स्वर्ण पदक जीतने वाली पहली महिला एथलीट बन गईं। हरियाणा के अग्रोहा गांव में एक जाट परिवार में जन्मी कृष्णा के सर से मां का साया बचपन में उठ गया। उसके दूसरे रिश्तेदारों ने उन्हें पाल पोष का बड़ा किया।सीमित साधन और तंगहाली की वजह से कृष्णा ने बड़ी मुश्किल से हालात का मुकाबला किया। इन सबके बावजूद उसने कभी हिम्मत नहीं हारी औऱ एक सफल एथलीट बनने के लिए दिन-रात कड़ी मेहनत करती रही।
अपने बांह की मांसपेशियों को मजबूत करने के लिए अपने पिता के डेयरी में भैंसों से दूध निकालती थी, यहीं उसके व्यायाम के लिए नया औजार था। परिवार का पूरा साथ मिलने पर अपनी पढ़ाई के साथ साथ कृष्णा ने खेल पर भी समय देना शुरू कर दिया। जल्द ही कृष्णा की शादी गगरवास गांव में विरेंदर सिंह पुनिया से हो गई, जहां पर्दा प्रथा का चलन था। हालांकि, अपने पति की वजह से कृष्णा को ज्यादा परेशानी नहीं आई। पूर्व एथलीट होने की वजह से पति ने अपनी पत्नी कृष्णा का भरपूर सहयोग दिया। 2012 में लंदन ओलंपिक्स में डिस्कस थ्रो कैटगरी में कृष्णा सातवीं पायदान पर रहीं।
राजकला देवी
राजस्थान, अलवर जिले के हिंगवाहेरा गांव में राजकला देवी सबसे पहली महिला सरपंच हैं। बिना किसी शिक्षा के एक साधारण परिवार में पली बढ़ी राजकला ने अबतक एक लंबा सफर तय कर लिया है। पहले पंचायत की बैठक में महिलाओं के शामिल होने पर अजीब नजर से देखते और हतोत्साहित करते थे। लेकिन जबसे राजकला सरपंच बनी, तब से उन्होंने समाज की रूढ़ीवादी सोच में सफलतापूर्वक बदलाव लाया है। इस भरोसे के साथ कि लड़कियों के लिए शिक्षा एक समाज को नई दिशा दे सकती है, उन्होंने इस दिशा में काम करना शुरू कर दिया। राजकला के नेतृत्व में गांव की गरीब महिलाओं को बीपीएल कार्ड मिला और हर गांववाले को साफ पीने का पानी, सड़क, शौचालय मुहैया हो सका। दूसरी बार संरपंच चुनीं जाने पर राजकला ने गांव की कई महिलाओं को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वो भी पुरानी रुढ़ीवादी प्रथा का मुकाबला करें और जोरदार तरीके से अपनी बात पुरुषों के सामने भी रखें। इसके अलावा राजकला ने महिलाओं को स्थानीय राजनीति में भाग लेने के लिए प्रेरित किया। ताकि समाज की कई समस्याओं का हल खुद ढूंढ़ सकें। आज राजकला समाज के लिए आदर्श के साथ-साथ प्रेरक भी बन गईं हैं।फिलहाल, राजकला यूएन वुमेन और हंगर प्रोजेक्ट के साथ जुड़ीं हैं और वो महिला जागरुक मंच के साथ काम कर रही हैं।
सुषमा भादो
बचपन में ही स्कूल छोड़ चुकी 32 साल की सुषमा भादू हरियाणा में धानी मियां गांव के विश्नोई समुदाय से हैं। समुदाय में सदियों से प्रचलित घूंघट की प्रथा के जरिए महिलाएं बड़े-बुजुर्गों का सम्मान करती हैं। लेकिन, सुषमा को ये कतई पसंद नहीं था। सदियों पुरानी इस प्रथा से वो छुटकारा पाना चाहती थी। इसलिए वो गांव की राजनीति में हिस्सा लेना चाहती थी और फिर जून 2010 में गांव की सरपंच चुन ली गई। महिलाओं का आत्मविश्वास बढ़ाने के लिए सुषमा ने गांव में ही उनके लिए इंडियन बैंक की मदद से एक टेलरिंग ट्रेनिंग सेंटर की स्थापना की। ये गांव के लिए सुषमा का क्रांतिकारी कदम साबित हुआ । इसके अलावा सुषमा ने गांव के हर बच्चे को स्कूल भेजने पर दिया और साथ ही राज्य सरकार से गांव में पीने का पानी के लिए फंड मंगाए। इस तरह सुषमा के आत्मविश्वास के साथ उसकी शख्सियत भी मशहूर होती गई। एक दिन आम बैठक में खुलेआम पर्दे का विरोध कर दिया और लोगों से भी ऐसा करने को कहा था। लेकिन, आज धानी मियां गांव की महिलाएं सुषमा को आदर्श मान चुकीं हैं। इस तरह सुषमा ने गांव में खुद को आइरन लेडी की तरह साबित किया है।बिमला देवी
बिमला देवी का जन्म हरियाणा के रेवाड़ी में एक दलित परिवार में हआ था। भेदभाव से घिरा बिमला का बचपन काफी दिक्कतों में गुजरा, जहां उन्हें आम जगहों पर पाबंदी और सरेआम बेइज्जती भी झेलनी पड़ी। इस दर्द को लिए बिमला ने एक ऐसे समाज की कल्पना की जहां किसी तरह का भेदभाव न हो और सभी जाति के लोग एक साथ रहें। बड़ी होकर बिमला ने अपने गांव की महिलाओं को इकट्ठा कर स्वास्थ्य के कई मुद्दों पर शिक्षित करना शुरू किया। साथ ही उन्होंने चुनाव के दौरान वोट की अहमियत, आर्थिक विकास और समाज में समानता के बारे में बताया। इसके अलावा गांववालों को सभी प्रकार की स्वास्थ्य समस्याओं को बारे में खुलकर बताने के लिए प्रोत्साहित किया। धीरे-धीरे बिमला ने समाज में छूआछूत और भेदभाव जैसे मुद्दों को भी उठाना शुरू किया। इसी कोशिश के चलते आज गांव में उंची जाति और निचली जाति के लोग समाज में एक साथ एक ही नल का पानी पीते है।सिर्फ आठवीं क्लास तक पढ़ी बिमला का आत्मविश्वास इतना बढ़ चुका है कि समाज में महिला के हक के लिए हमेशा खड़ी दिखती हैं। आजकल बिमला स्थांनीय एनजीओ के साथ मिलकर गांव की लड़कियों को स्वास्थ और जाति जैसे विषयों पर शिक्षा देती हैं। भविष्य में बिमला अपने किताब के जरिए अपनी जिंदगी की पहलूओं से अवगत कराते हुए महिलाओं के स्वास्थ्य की बातों से अवगत कराएंगी।
क्वोट- “समाज में महिलाओं को बराबर का अधिकार है। हमें भी समाज में पुरुषों की तरह आजाद और सुरक्षित महसूस करने का हक है। मुझे गर्व है कि मैने महिला के रूप में जन्म लिया और दूसरों की भलाई के लिए काम कर रही हूं।”
गीतांजलि बब्बर
पत्रकारिता में स्नातक और डेवलपमेंट कम्युनिकेशन में स्नाकोत्तर गीतांजलि बब्बर ने वेश्याओं की जिंदगी बेहतर बनाने के लिए कई बड़ी-बड़ी नौकरियों को ठुकरा कर एक सेंटर की स्थापना की। गीतांजलि के दिल में वेश्याओं के लिए हमदर्दी तब पैदा हुई जब उन्हें नेशनल एड्स कंट्रोल सोसायटी के साथ एक छात्र के रूप में दिल्ली के जी बी रोड में किन्नरों के साथ काम करने का मौका मिला। इस दौरान गीतांजलि इलाके की कई वेश्याओं से रूबरू हुईं। वेश्याओं की जिंदगी को करीब से देखने के बाद गीतांजलि को कड़वी सच्चाई का पता चला,जिसमें उन्होंने पाया कि प्रत्येक वेश्या दिन भर में 20 से 40 ग्राहकों की सेवा करती हैं। गुमनामी की जिंदगी गुजार रही वेश्याओं को जरूरत थी कि कोई उनसे उनका दर्द बांटे, न कि सुरक्षित यौन संबंध की बात करे। और इसी कमी को पूरा करने के लिए गीतांजलि बब्बर ने कट-कथा नाम की संस्था की शुरुआत की। कट-कथा गीतांजलि द्रारा एक ऐसा प्रयास है जिससे वेश्याओं की जिंदगी में बदलाव और उन्हें रोजगार का दूसरा विकल्प मिल सके। इसमें एक बड़ी खासियत ये है कि ये संस्था वेश्यवृति के खिलाफ प्रचलित अभियानों के बजाय समुदाय की भागीदारी पर जोर देती है। गीतांजलि जी बी रोड की वेश्याओं को कई तरह के प्रशिक्षण के साथ-साथ जिंदगी की मुख्याधारा से जुड़ने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। आज कट-कथा के जरिए गीतांजलि करीब 3500 से 4000 वेश्याओं के साथ मिलकर समाज में बदलाव के लिए प्रेरक बन चुकी हैं।सुनिता चौधरी
यूपी के बहादुरगढ़ में सुनिता चौधरी ऐसे रुढ़ीवादी समाज में पली बढ़ीं जहां महिलाओं, लड़कियों को पर्दे में रहना पड़ता है। स्कूल, कॉलेज में महिलाओं का जाना मुश्किल होता है, जिसकी वजह से उस गांव की महिलाएं कम पढ़ी लिखी हैं। दूसरी महिलाओं की तरह सुनिता भी पूरी जिंदगी भर की चार दिवारी के भीतर गुजार दिया और आज वो सिर्फ पढ़ना और गिनना जानती है। 14 साल की उम्र में एक ऐसे पुरुष से शादी हो गई थी जो हमेशा गाली-गलौच और झगड़ा करता, जिससे वो काफी दुखी रहती थी। इससे तंग आकर एक दिन भागकर दिल्ली चली गई।एक अंजान शहर में अपनी जिंदगी चलाने के लिए सुनिता ने काफी दिक्कतें झेली। ऐसे ही एक दिन बस में सफर के दौरान उनकी नजर ड्राइवर पर गई और फिर फैसला किया कि वो भी एक दिन ड्राइविंग सीखकर ऑटो चलाएगी, ताकि उसकी कुछ कमाई हो सके। महिला होने के नाते पुरुष प्रधान समाज में ऑटो चलाना एक अजीबोगरीब फैसला था। लेकिन, सुनिता ने कभी हिम्मत नहीं हारी। सुनिता ने हर चुनौतियों का सामना किया और ठीक तीन साल बाद उसे ऑटो लाइसेंस केसाथ-साथ ऑटो खरीदने के लिए लोन भी मिल गए।
लोन चुकाने के लिए सुनिता दिल्ली और एनसीआर में रोजाना 2 शिफ्ट में ऑटो चलाने लगी। शांत स्वभाव और दृढ़ निश्चय वाली सुनिता आज दूसरी महिलाओं के आदर्श बन चुकी है। अब सुनिता अपनी ही तरह दूसरी महिलाओं की मदद करती है। आगे चलकर लड़कियों की शिक्षा पर काम करना चाहती है, जिसकी कमी से उसे जिंदगी में कई मुश्किलों का समना करना पड़ा।
क्वोट- “मुझे अपने महिला होने पर गर्व है क्योंकि महिला ही किसी को भी एक नई जिंदगी देती है। अगर महिला चाहे तो वो शक्तिशाली बन सकती है, उसके कई रूप होते हैं। वो अगर भगवान हो सकती है तो विध्वंसक भी बन सकती है।”
चांदरो तोमर
करीब 10 साल पहले, चांदरो तोमर अपनी पोती के साथ स्थानीय फायरिंग रेंज घूमने गईं। वहां पहुंचकर, अचानक उनको लगा उनमें भी शूटिंग करने की काबलियत है। यूपी के बागपत जिले की चांदरो तोमर ने 65 साल की उम्र में पहली बार राइफल को उठाया। उसी वक्त उनके कोच को भी तोमर की काबलियत का पता चला। इसे देखकर कोच इतना प्रभावित हुए कि उन्होंने तोमर को प्रशिक्षण और प्रोत्साहन देने का फैसला किया।हालांकि शूटिंग करियर के शुरूआत में, तोमर को काफी दिक्कते आईं। अपने रिश्तेदारों के अलावा समाज का पुरुष वर्ग भी तोमर के फैसले के खिलाफ था। लेकिन, तोमर ने इसका बिना कोई परवाह किए प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेना शुरू कर दिया। तोमर की काबलियत को देखकर दूसरे प्रतियोगी भी उनसे हारने में भी बेइज्जती महसूस नहीं करते थे।
आज 78 साल की चांदरो तोमर दुनिया का सबसे बुजुर्ग शार्पशूटर बन गईं हैं जिन्होंने 25 से ज्यादा राष्ट्रीय शूटिंग चैंपियनशिप जीत चुकी हैं। इसके अलावा, परिवार में 6 बच्चों और 15 नाती-पोतों की देखभाल करती हैं। अपने हौसले और काबलियत की बदौलत चांदरो तोमर आज की नई पीढ़ी के लिए एक आदर्श बन चुकी हैं।
चांदरों तोमर गांवों की दूसरी लड़कियों के लिए शूटिंग कैंप आयोजित करने से लेकर अबतक 27 से ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय शूटर्स को भी प्रशिक्षित कर चुकीं हैं।
थिनलास कारोल
थिनलास कारोल का जन्म लद्दाख के ताकमाचिक इलाके में हुआ था। बचपन में ही मां के साए से महरूम हो चुकी थिनलास, पिता की छत्रछाया में बड़ी हुई। कहीं पिता का भी साया सर से न उठ जाए, इस डर से थिनलास अपने पिता को अपनी नजरों से दूर नहीं होने देती थी। यहां तक कि पिता के साथ ही पहाड़ों में भेड़ बकरियां चराने जाती थी। पहाड़ों के बीच रहकर धीरे-धीरे थिलनास को बाहर घूमना, पहाड़ों पर चढ़ना अच्छा लगने लगा। अचानक एक दिन, एक दिन उसे बाहर से आए ट्रैक्रस के साथ जाने का मौका मिला। उसे ये काम इतना अच्छा लगा कि उसने फैसला कर लिया कि भविष्य में हो माउंटेन गाइड का करेंगी। और फिर, थिनलास ने पर्वतारोहण का कोर्स के साथ साथ पूरी तरह से प्रशिक्षण लेकर लद्दाख में ट्रेकिंग गाइड की भूमिका में उतरीं। इस क्षेत्र में थिलनास ने न सिर्फ खुद को स्थापित किया बल्कि और लड़कियों को भी इसमें नए आयाम दिए ।हालांकि, 2004 से लेकर अब तक थिनलास को बहुत सी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा। इन चुनौतियों के सीख लेकर थिलनास ने दूसरों को प्रशिक्षण देने के लिए महिलाओं द्वारा संचालित गाइड कंपनी खोलने का फैसला किया। इस प्रकार 2009 में लद्दाख वुमेंस ट्रेवल्स कंपनी की स्थापना कर दूसरी महिलाओं को भी आगे बढ़ने को प्रेरित कर रही हैं।
इसके लिए 2008 में उन्हें लद्दाख वुमेंस राइटर अवॉर्ड्स से भी नवाजा जा चुका है। फिलहाल, थिनलास एक स्वतंत्र गाइड के रूप में लद्दाख की दूसरी महिलाओं का मार्गदर्शन कर रही हैं।
क्वोट- मुझे खुशी है कि मैंने सिर्फ खुद को नहीं, बल्कि दूसरी लड़कियों को भी इस क्षेत्र में अपनी एक जगह बनाने के लिए प्रेरित किया। मैं खुश हूं कि पर्वतारोहण और ट्रैकिंग के सिक्लड वर्क में सफलता हासिल की और लोग मुझे जानते हैं, मुझे सराहते हैं।
रानी बेगम
मुजफ्फरपुर में चतुर्भुज स्थान की पार्षद रानी बेगम का बचपन काफी परेशानियों में बीता। 12 साल की उम्र से ही उनपर जुल्म होते रहे। उत्तरी बिहार का एक छोटा सा शहर यानी रेड लाइट एरिया जहां एक हजार से ज्यादा वेश्याएं रहती है। इस इलाके में रानी बेगम को अपनी बहनों के खिलाफ हो रहे अत्याचार ना काबिले बर्दाश्त थे। और फिर एक दिन, इन वेश्यायों के हमक औऱ जुल्म के खिलाफ लड़ने का फैसला कर लिया। हालांकि, रानी बेगम के लिए ये आसान नहीं था औऱ यहां तक कि इस कदम के लिए कई नेता, अपराधी औऱ पुलिस का विरोध झेलना पड़ा। बिना डरे और रुके, अपनी मांग पर ध्यान आकर्षित कराने के लिए रानी ने कई बार विरोध प्रदर्शन और भूख हड़ताल किए। इनकी कोशिशों के चलते स्थानीय प्रशासन ने रेड लाइट इलाके में 6 राशन की दुकान के साथ शिविर भी लगवाए जहां महिलाओं और बेरोजगार युवाओं के लिए प्राथमिक चिकित्सा सुविधा उपल्ब्ध थी। धीरे-धीरे रानी बेगम को इलाके के लोगों का समर्थन मिलता गया और उनके काम ने समाज में एक पहचान दिलाई। और फिर एक दिन रानी बेगम ने राजनीति का हिस्सा बनने का फैसला कर मुजफ्फपुर स्थानीय निकाय चुनाव में कूद पड़ी और लोगों ने उन्हें अपना वॉर्ड काउंसिलर चुन लिया। रानी बेगम ने इलाके में अपने प्रति न सिर्फ लोगों की सोच को बदला, बल्कि समाज में हर तबके का ख्याल रखकर उनका विकास किया। आज वो एक गर्वान्वित दादी अपने 2 नाती-पोतों के साथ खुशहाल हैं।क्वोट- “मुझे गर्व है कि मैंने इमानदारी और लगन से कई लोगों की जिंदगी में खुशी ला पाई हूं। दुनिया में आज जहां वेश्या और वेश्यालयों को हेय नजर से देखते हैं, मुझे खुशी है कि मेरी कोशिशों ने उनकी जिंदगी को आसान औऱ खुशहाल बनाया है। अगर मुझे मौका मिला तो पूरे शहर को और खूबसूरत बनाउंगी।“
फ़ाल्गुनी निवेतिया
गुजरात में जन्मीं और कलकत्ता के एक बड़े व्यवसायी की बेटी- फ़ाल्गुनी को काफी विरोध का सामना करना पड़ा जब उसने अरुण से शादी का फैसला किया। 10 साल की उम्र से कैंसर रोग से ग्रसित अरुण को कई और बिमारियों ने जकड़ रखा था। लेकिन, फिर भी परिवार के लाख विरोध के बावजूद फ़ाल्गुनी ने अपने प्यार अरुण से ही शादी रचाई। शादी के बाद अरुण की इलाज के लिए फ़ाल्गुनी उसे लेकर अकसर मुंबई आना जाना करती थी। इससे जाहिर होता है कि कलकत्ता में स्वास्थ्य चिकित्सा की बेहतर सुविधा न होने की वजह से लोगों को इलाज के लिए दूसरे शहर जाना पड़ता था। इस परेशानी से दो-चार होकर एक दिन दोनों ने फैसला किया कि कलकत्ता में चिक्तिसा सुविधा बेहतर करने के लिए वो हर संभव कोशिश करेंगे। इस प्रकार, 2009 में फ़ाल्गुनी ने अपने 20 साल पुरानी नौकरी छोड़ नादिया जिले में एक प्राइमरी हेल्थ केयर फाउंडेशन की स्थापना की हालांकि, फ़ाल्गुनी को हेल्थ केयर फाउंडेशन और परिवार की देखरेख करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। परिवार और अपने बीमार पति की देखरेख के अलावा हेल्थ केयर फाउंडेशन के प्रबंधन बखूबी करती हैं। अपनी लगन और समाज के प्रति समर्पण से आज फ़ाल्गुनी सभी औरतों के लिए आदर्श बन चुकी हैं।नादिया जिले के मायापुर में एक सेंटर के रूप में शुरू हुई प्राइमरी हेल्थ केयर फाउंडेशन की आज बंगाल के 4 जिलों में 5 सेंटर हैं। यहां गरीबों के लिए सस्ते इलाज के साथ साथ एक हफ्ते की फ्री दवाई भी मिलती है।2012 में इस सामाजिक सेवा के लिए प्राइमरी हेल्थ केयर फाउंडेशन को सोशल इटरप्राइज ऑफ द ईयर अवॉर्ड से भी नवाजा जा चुका है। गरीबों की सेवा में समर्पित फ़ाल्गुनी और अरुण 2015 तक बंगाल के हर जिले में प्राइमरी हेल्थ केयर फाउंडेशन की इकाई खोलना चाहते हैं।
क्वोट-” मैं उस समुदाय से आती हूं जहां हमेशा से पुरुषों का बोलबाला रहा है, किसी भी फैसले में महिला की भागीदारी नहीं होती। लेकिन, मैंने कुछ अलग करने का फैसला किया। और आज मुझे अपने सभी फैसले पर गर्व है, चाहे वो एक कैंसर रोगी से शादी का मामला हो या शिक्षिका की नौकरी छोड़ समाज की सेवा का फैसला हो। ये सब किसी भी महिला के लिए तभी संभव हो सकता है जब वो खुद की क्षमताओं को पहचान कर अपने डर पर काबू पाए, जिससे उसे समाज में सही मुकाम मिल सकता है।”
अर्चना राजेंदर हेगड़े
उत्तर कन्नड़ जिले में अर्चना हेगड़े का गांव सुपारी के व्यवसाय के लिए जाना जात है। यहां ज्यादातर लोग गरीब हैं, जो साल के 6 महीने सुपारी के फॉर्म में मजदूरी कर अपना परिवार चलाते है। सुपारी फॉर्मिंग सीजन खत्म होने के बाद गांव के लोग अपना घर, परिवार छोड़ रोजगार की तलाश में दूसरे शहरों में पलायन करते हैं। अर्चना ने इसी गरीबी और पलायन की समस्या से निजात दिलाने और गांव को लोगों की तकदीर बदलने की ठानी। एक बार मंदिर में दर्शन के दौरान अर्चना ने लोगों को सुपारी के पेड़ के पत्तों में खाना खाते देखा। इसी से प्रभावित होकर अर्चना को लगा कि गांव में बेकार पड़े कृषि के कचड़े को रिसाइकिल कर प्लास्टिक प्लेट्स, कप की जगह इस्तेमाल कर सकते हैं। काफी शोध के बाद अर्चना को लगा वो गांववालों के साथ मिलकर सुपारी के पत्तों से प्लेट्स, कप तैयार कर सकती हैं जिससे गांव में एक रोजगार का नया साधन पैदा हो सकता है। अपने नए आइडिया से उत्साहित अर्चना ने आखिरकार इसके लिए पैसा इकट्ठा करना शुरू किया। लेकिन, उसके लिए लोन लेना आसान नहीं था। कई कोशिशों के बाद आईआईएम बैंगलोर की ग्रामीण विकास शाखा ‘बी फंड!’ ने अर्चना की आइडिया पर पैसा लगाने का फैसला किया। अर्चना की इन कोशिशों की बदौलत राशिदा ऑर्गेनिक प्रोडक्ट्स मैन्यूफैक्चरिंग की स्थापना हुई। राशिदा ऑर्गेनिक की स्थापना के सिर्फ 2 महीने बाद ने जहां गांव की 85 महिलाओं को रोजगार दिया, वहीं 50 किसानों को आमदनी बढ़ाने में मददगार साबित हुई।इस तरह सुपारी के पत्तों से रोजगार पैदा करने का अर्चना का आइडिया ने पूरे गांव की सूरत बदल दी। इससे पहले पूरे कर्नाटक में प्लास्टिक के प्लेट्स, कप काफी इस्तेमाल किए जाते थे। लेकिन, प्रदूषण के चलते प्लास्टिक की चीजों पर सरकारी पाबंदी अर्चना के लिए वरदान साबित हुई। प्लास्टिक पर पाबंदी के बाद अर्चना के लिए एक बड़ा और आसान बाजार मिल गया। राशिदा ऑर्गेनिक द्वारा निर्मित अब तक करीब 2 लाख प्लेट्स और कप ने कई घरों और दूकानों में जगह बना ली है। राशिदा ऑर्गेनिक में काम करने वालों में मजदूरों के अलावा, छात्र, महिलाएं भी शामिल हैं जो 500 रु. से 800 रु. प्रति माह कमा लेते हैं।
क्वोट- “महिला होने के नाते मुझे खुद पर गर्व है कि मैं आज अपने घर के साथ साथ एक सफल व्यवसायी भी हूं। साथ ही मुझे गर्व है कि बतौर सफल उद्यमी मैं दूसरी महिलाओं और बच्चों को भी प्रेरित करती हूं, जो मुझे रोल मॉडल के रूप में देखते हैं।“
बिरो बाला राभा
भारत के नॉर्थ-ईस्ट इलाके में जनजातीय समाज के बीच जादू-टोना एक सामाजिक अभिशाप बन चुका है। इस इलाके में अगर किसी बच्चे की तबीयत भी खराब होती है, तो लोग किसी अन्य महिला पर जादू-टोना का इल्जाम लगाकर उसे सरेआम बेइज्जत करते हैं। ऐसे अंधविश्वास, कुरीतियों के खिलाफ आवाज उठाने की किसी की हिम्मत नहीं होती। इस प्रकार, हर साल अंधविश्वास की शिकार करीब 150 से 200 महिलाओं की मौत हो जाती है।लेकिन, असम के एक छोटे से गांव गोलपारा में जन्मी बिरो बाला राभा की कहानी इन महिलाओं से अलग है। बिरो ने अपने समाज में फैले अंधविश्वास, कुरीतियों को जड़ से मिटाने का बीड़ा उठाया है। कई साल पहले, बिरो बाला के मानसिक रोगी बेटे को गांव के ही एक डॉक्टर ने जादू-टोना का शिकार बताया और फिर उसे डायन करार दिया गया था। अपने बच्चे के इलाज को लेकर परेशान बिरो बाला अंग्रेजी दवा कराना चाहती थी, लेकिन गांव वालों ने ऐसा करने से भी रोक दिया। इस हद तक गांव वालों ने प्रताड़ित किया कि उसे गांव छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। अंधविश्वास की शिकार बिरो बाला, अब अपने दृढ़ निश्चय के साथ समाज में फैले अंधविश्वास और कुरीतियों और शिक्षा के जरिए लोगों की सोच बदलने के लिए लगातार सक्रीय है। समाज के लिए बिरो का समर्पण और त्याग उसके लिए एक बड़ा हथियार है, जिससे गांव की दूसरी औरतों को भी एक सामान्य जिंदगी जीने की उम्मीद जगी है।
राशीदा बी
ठीक 28 साल पहले 2-3 दिसंबर 1984 की दरमियानी रात भोपाल में मौत का कहर बरसाने वाली रात थी। ये रात भोपालवासियों के लिए काल की रात बनकर सामने आई, जिसने हजारों लोगों को मौत का नींद सुला दी और सैंकड़ों को जानलेवा बीमारी के आगोश में छोड़ गई । दरअसल, इस दिन एक भयानक औद्योगिक दुर्घटना हुई थी, जिसे हम भोपाल गैस कांड, या भोपाल गैस त्रासदी के नाम से जानते हैं। राशिदा बी भी उन बदनसीबों में शामिल थीं जिन्होंने इस गैस त्रासदी में अपनों को खोया था। 13 साल की उम्र में सुहागिन बनी राशिदा, अपने जख्मी पति और पिता को छोड़ परिवार को 6 लोगों को खोने का गम, आज भी नहीं भुला पाई हैं। ऐसे में उस वक्त राशिदा को मदद औऱ न्याय की सख्त दरकार थी, लेकिन उसे कहीं से कुछ नहीं मिला। फिर भी, अकेले पति और पिता की जिम्मेदारी का बोझ लिए राशिदा ने कभी हिम्मत नहीं हारी।तब, राशिदा ने फैसला किया कि वो गैस त्रासदी से प्रभावित बच्चों की मदद करेंगी। अपनी ही तरह पति और बेटे को खोने वाली एक अन्य पीड़िता चम्पा देवी के साथ मिलकर राशिदा बी ने चिंगारी ट्रस्ट की स्थापना कर डाली। आज इस ट्रस्ट की अंतर्राष्ट्रीय पहचान है, जिसके लिए उन्हें गोल्डमैन पर्यावरण अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। फिलहाल, चिंगारी ट्रस्ट के अंतर्गत आज भी डाउ केमिकल और उसके सहयोगी यूनियन कार्बाइड के खिलाफ अभियान जारी है।
क्वोटः “जब तक मैं घर से बाहर नहीं निकली थी, मैं दुनिया से अनभिज्ञ थी। लेकिन, अब जबकि मैंनें लाखों लोगों के लिये आवाज उठाई है, महसूस करती हूँ कि एक नारी कितनी शक्तिशाली होती है।”
डॉ. पी भानुमति
केरल के त्रिसुर में जीवविज्ञान की प्रोफेसर, डॉ. पी भानुमति का बचपन अपने तीन मानसिक रूप से कमजोर भाई-बहनों के साथ बीता।अचानक एक दिन, उन्होंने गले में बीमारी से ग्रसित अपने भाई को खो दिया। इस दुखद घटना से भानुमति को लगा कि मानसिक बीमारी की वजह से डॉक्टरों ने उसके भाई पर कोई तवज्जू नहीं दी, जिससे उसकी मौत हो गई। साथ ही भानुमति को ये भी लगा कि शायद मानसिक रोगियों के लिए चिक्त्सा सुविधा दूसरे मरीजों के मुकाबले कम होती है।जबकि ऐसे मरीजों की देखभाल के लिए विशेष सुविधाओं से लैस प्रशिक्षित डॉक्टरों की टीम की जरूरत होती है। इस सौतेला व्यवहार से आहत डॉ. पी भानुमति ने मानसिक रोगियों के लिए कुछ करने का फैसला किया। और इसप्रकार डॉ. भानुमति ने एशोसिएशन फॉर मेंटली हैंडीकैप्ड एडल्टस् (एएमएचए) इंस्टिच्यूच की स्थापना की। हालांकि भानुमति के लिये ये रास्ता आसान नहीं था जहां लोगों को सीखाना था कि कैसे मानसिक रोगियों की विशेष देखरेख की जाती है।
एक छोटे से गांव में सरकारी स्कूल के एक छोटे से कमरे में 3 विद्यार्थियों के साथ शुरू की गई, एएमएचए यानी एशोसिएशन फॉर मेंटली हैंडीकैप्ड एडल्टस् के पास आज कई सुविधाएँ हैं, जहां करीब 60 गरीब मानसिक रूप से बीमार लोगों की सेवा की जा रही है। अपने पति के सहयोग से स्कूल उन्होंने अपना सारा जीवन इस कार्य में लगा दिया है और उनकी देखभाल के लिए अब वो उन रोगियों के साथ स्कूल परिसर में ही रहते हैं।
अच्छे काम शायद ही कभी बिना विरोध के सम्पन्न होते हैं और भानुमति ने भी अपने ही अंदाज में कई बाधाओं को पार किया है। लंबे समय तक मतभेद और विरोध के बाद, भानुमति को आखिरकार स्थानीय प्रशासन के साथ साथ समुदाय का भी सहयोग मिला।
क्वोटः“ मैं अपने तीन मानसिक रूप से कमजोर भाई-बहनों के साथ बड़ी हुई हूँ औऱ एक को इलाज के अभाव में खो भी चुकी हूँ। मैं इन मरीजों का दर्द व तकलीफ जानती हूँ, जिनका अपना परिवार उनसे मुँह मोड़ लेता है। मुझे गर्व है कि मेरी छोटी सी कोशिश से इन चेहरों पर मुस्कुराहट आई है और उनमें सम्मान के साथ जीने की आस जगी है।”
सिंधुताई सपकाल
माई के रूप में पुकारे जाने वाली सिंधुताई का परिवार बहुत बड़ा है जिसमें उनके 200 से ज्यादा दामाद हैं, 40 से ज्यादा बहुएं हैं तो 1000 से भी ज्यादा नाती-नातिनें और पोते-पोतियां हैं। सिंधुताई के इस परिवार में हजार से भी ज्यादा ऐसे और भी बच्चें हैं जिन्हें समाज में ठुकरा दिया गया और सिंधुमाई के आंचल की छाया में पल रहे हैं। माई ने इन लोगों को हदपसर, पुणे में छत दी सनमति बाल निकेतन के नाम से। इतना ही नहीं माई ने इन अनाथों के लिए कुंभार्वलन, सस्वाद में ममता बाल सदन बनाया है तो अमरावती के चिखालदार में माई का आश्रम है। वहीं वर्धा में अभिमान बाल भवन है तो गुहा में गंधारबाबा छात्रालय है। पुणे में भी सिंधु माई ने महिलाओं और बच्चों के लिए सप्तसिंधु महिला आधारा के नाम से आश्रम बनाया है तो बच्चों के लिए बालसंग गोपन नाम से अपनी शिक्षा संस्था भी दी है।माई को गर्व है कि उनके बहुत से बच्चे आज अनाथों का जीवन नहीं बल्कि सम्मान के साथ जी रहे हैं। कोई डाक्टर है तो कोई जाना माना वकील बन चुका है। इतना ही नहीं सिंधु माई के खुद की अपनी बेटी भी सिंधु माई की तरह अनाथ लोगों के जीवन को सेध देने की ओर अग्रसर हैं।
जिंदगी की शाम में भी माई के चेहरे पर सुबह की लाली और जुनून की रौशनी दमकती है। 80 सालों से अधिक उम्र की सिंधु माई कहती हैं मेरे पास बहुत से काम हैं जिन्हें पूरा करना है।
क्वोटः
“मैं भगवान का शुक्र मनाती हूं कि उसने मुझे औरत का जीवन दिया। क्योंकि एकमात्र मां का आंचल ही है जो हर बच्चे को छाया देने में सक्षम है। मां ही है जो खुद भूखी रहकर भी अपने कई बच्चों का एक साथ पेट भरने का माद्दा रखती है। दुनिया में सिर्फ भारत ही एक ऐसा देश है जिसे माता (भारतमाता) कहकर पुकारा जाता है। मुझे गर्व है कि मैं भी कई बच्चों की मां हूं। जब मैं घर से चली थी तो मैं भूखी थी और मेरी नन्ही सी बेटी भी। आज मुझे गर्व होता है कि मैंने अपनी भूख को जीता और हजारों बच्चों का पेट भरना सीखा। मुझे मान है, अभिमान है कि मैं मां हूं।
चंद्रलेखा
चंद्रलेखा उस गांव की हैं जहां बेटियों के जन्म पर कोई मायूस नहीं होता बल्कि खूब जश्न मनाया जाता है। बस दुख इस बात का है क यह जश्न बहुत ही गलत कारणों से मनाया जाता है। नटपुर्वा गांव जहां 300 सालों से आज भी एक निहायती बदनाम परंपरा जारी है, और ये है वेश्यावृति। इसलिए इस गांव में बेटी के जन्म पर परिवार में खुशी की छटा सी बिखर जाती है, क्योंकि इस घटिया परंपरा को आगे बढ़ाने वाली जो आ जाती है। इस कुप्रथा की बेड़ियों की पीड़ा झेल चुकी चंद्रलेखा जद्दोजहद कर रही है गांव की बेटियों को इस दलदल से निकालने के लिए। मात्र 15 साल की उम्र से इस पीड़ा का दंश झेलने वाली चंद्रलेखा को किसी और ने नहीं बल्कि उसकी अपनी दादी और मां ने ही उसे इस नर्क में धकेला था, चूंकि वो खुद भी इसी परंपरा की पैरोकार थीं।हर रोज की यह पीड़ा, संघर्ष 20 सालों तक बदस्तूर जारी रहा। हद तो उस दिन हो गई जब एक शराबी ने नशे में धुत्त बंदूक के बल पर उससे शारीरिक संबंध बनाए। इस हैवानियत ने चंद्रलेखा को झिंझोड़ कर रख दिया और उसने फैसला कर लिया कि अब बस, बहुत हुआ इस कुप्रथा की जंजीरों को तोड़ना ही होगा। चाहे इसके लिए कोई भी कीमत चुकानी पड़ी और उसने चुकाई भी। लोगों की गालियां, तिरस्कार, अपमान, मार और पत्थर भी खाए, मगर उसने हिम्मत नहीं हारी। इस दलदल में छह दशक बिता चुकी चंद्रलेखा चार बच्चों की मां ही नहीं बल्कि नट्पुर्वा गांव के लगभग 100 बच्चों की टीचर भी है। जो न सिर्फ उन्हें शिक्षा की रौशनी दे रही है बल्कि हर रोज उन्हें जीवन की मुख्यधारा से जुड़ने के लिए भी प्रेरित करती है। बिजली, पानी, सड़क जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में भी वो बच्चों में अच्छे जीवन की ललक को जगाए रखने और इस दलदल से निकलने के लिए उनका मार्गदर्शन कर रही है। उसके इस साहसिक कदम में कुछ महिलाएं, कुछ युवतियां तो कुछ बच्चे जागृत हो रहे हैं, जो बेहतर भविष्य की तमन्ना लिए इस कुप्रथा को त्याग भी रहे हैं।
क्वोटः
“ मेरा बीता हुआ कल आज भी मुझे कचोटता है। मगर मुझे खुशी है कि मैं अपने गांव की बच्चियों को, औरतों को इस नरक भरी जिंदगी से निकलने के लिए जागृत कर पाई हूं। इस गांव में लड़कियां बिन ब्याही मां नहीं बल्कि उनके हाथों पर शगुन की मेहंदी भी सजदी है और उनके आंगन में शादी की शहनाई भी गूंजती है। मुझे सुकून है कि मेरी कोशिश रंग ला रही है। मगर हां उस दिन मेरा जीवन और सफल हो जाएगा जिस दिन इस गांव की हर बच्ची स्कूल फिर कालेज भी जाएगी। मेरी जीवन यात्रा ने आज मुझे मजबूत बना दिया है, मुझे गर्व होता है अपने औरत होने पर जब देखती हूं, मेरे गांव की बेटियां अब अपने हक के लिए आवाज उठाती हैं। मैं इनके लिए संघर्ष करती रहूंगी।”
सोनाली मुखर्जी
सोनाली मुखर्जी, ठीक अपने नाम की तरह चमकने और उसे साकार करती 17 साल की होनहार छात्रा थी। धनबाद की रहने वाली सोनाली समाजशास्त्र में ऑनर्स कर रही थी। सिर्फ पढ़ाई ही नहीं विद्यालय में होने वाली तमाम गतिविधियों के साथ एनसीसी की बेहतरीन कैडेट भी थी। मगर एक शाम उसके जीवन की चमक को स्याह अंधेरे में बदल दिया गया। उसके पड़ोस में रहने वाले एक शख्स ने एकतरफा प्यार के चलते सोनाली के साथ अपने दोस्तों के साथ मिलकर यह हैवानियत का नंगा नाच खेला, घर में सो रही सोनाली के चेहरे पर तेजाब फेंका गया। चेहरे पर तेजाब फेंके जाने से सोनाली न सिर्फ जल गई, बल्कि खूबसूरत सोनाली का चेहरा विकृत हो गया, सोनाली आंशिक रूप से दृष्टिहीन हो गई, सुनने की ताकत भी जाती रही। यहाँ तक कि उसे खाना खाने के लिए भी असहनीय दर्द से जूझना पड़ता है। एनसीसी की उमदा कैटेड आज भले शारीरिक रूप से कमजोर हो गई हो, एक वक्त पर मानसिक रूप से भी टूट चुकी सोनाली फिर से हिम्मत बटोर खड़ी है।दर्द भरे 22 ऑपेरेशन झेल चुकी सोनाली आज अपने सम्मान और नामात्र सजा पाए उन चार शख्सों के खिलाफ खड़ी है जिन्होंने उसके जीवन के साथ खिलवाड़ किया। जबकि ऐसी स्थिति में लोग घर बैठ जाते हैं, टूट जाते हैं लेकिन सोनाली ने अलग रास्ता चुना। वो भारत के लोकप्रिय क्विज कार्यक्रम कौन बनेगा करोड़पति में गई और 25 लाख रूपये जीते, जिसे सोनाली अपने होने वाले अगले ऑपरेशनों पर खर्च करेगी।
सहयोगः परिवार का पूरा समर्थन सोनाली को जिन्दगी में लड़ने की प्रेरणा देता रहा। उस घटना के बाद का जीवन मुश्किलों का पर्याय है। सोनाली के इलाज के लिए परिवार की पुश्तैनी जमीन, मां के गहने तक बेचने पड़े। इलाज के लिए धनबाद से दिल्ली आना, शारीरिक, मानसिक पीड़ा के साथ-साथ आर्थिक तंगी की गर्त में भी धंसना था।
सोनाली चाहती है कि तेजाब से हमला करने वालों के खिलाफ कानून सख्त हो। वो चाहती है लोग उन लोगों की लड़कियों की मदद के लिए आगे आएं जो ऐसे हमलों की शिकार हुई हैं। उसके साथ न्याय नहीं हुआ है, वो कहती है मुझे इंतजार है उस दिन का जब ऐसे अमानवीय व्यवहार करने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई होगी, क्योंकि आज भी उसके हमावर बेबाक होकर घूमते हैं।
क्वोटः मेरे जैसी अमानवीय व्यहार की शिकार लड़कियों के लिए टूट जाना जाहिर है। मैंने खुद को मजबूत बनाया, भले शारीरिक रूप से मैं कमजोर हो चुकी हूं, मगर मैं उन लोगों को बता देना चाहती हूं कि मेरी हिम्मत आज भी ऐसे लोगों को चुनौती देती है। मैं आज भी खड़ी इस हिंसा के खिलाफ, बुलंद है मेरी आवाज इस हैवानियत के खिलाफ, जारी रखुंगी मैं अपना संघर्ष। मुझे गर्व है कि मैं हिम्मती नारी हूं।
जया देवी
बिहार के मुंगेर जिले में ग्रीन लेडी के नाम से मशहूर जया देवी की परवरिश ऐसे हालात में हुई जहां गरीबी, उत्पीड़न, भूख और बदहाली के सिवाय कुछ नहीं था। यहां तक कि इलाके के नक्सलियों की धमकी के बाद चौथी क्लास में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी और 12 साल की उम्र में ही सुहागिन बनने को मजबूर होना पड़ा।ऐसे में उनका बचपन संघर्ष और सामंतवादियों के रहमो-करम पर बीता। इन्हीं हालात ने जया को समाज में परिवर्तन के लिए प्रेरित किया। जिसके बाद करैली गांव में उपेक्षिक समुदाय के लिए स्वयं-सहायता समूह की नींव रखी, ताकि वहां के लोगों खासकर महिलाओं को सूद,ब्याज से मुक्ति मिले और उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो सके। 9 पंचायतों में सक्रीय ग्रीन लेडी की महिम ने कई मुद्दों पर स्थानीय लोगों का ध्यान आकर्षित किया, जिसमें पर्यावरण की देखभाल, जल संरक्षण, वृक्षारोपण शामिल है।लेकिन, इन सब के बावजूद ग्रीन लेडी ‘जया’ अपना मुख्य उद्देश्य नहीं भूलीं। अपनों की हिफाजत और नक्सली दमन से ग्रामीणों को आजादी, आज भी उनकी पहली प्राथमिकता है। हालांकि, वो बखूबी वाकिफ हैं कि नक्सलियों से मुकाबला और सामंतवादियों के खिलाफ परिवर्तन का बिगुल जीवन पर भारी पड़ सकता है, जया ने कभी हिम्मत नहीं हारी और संघर्ष जारी रखा। इतिहास से सबक लेकर, जया परिवर्तन के चक्र को घुमाने के लिये वचनबद्ध है। हम उनकी हिम्मत को सलाम करते हैं।
अगर, उनकी उपलब्धियों की बात करें तो, उन्होंने अब तक करीब 2000 निरक्षर लोगों को हस्ताक्षर करना सिखाया है और महत्वपूर्ण दस्तावेजों जैसे राशन कार्ड, मतदाता परिचय पत्र, व पेंशन में भी मदद की है। वो अभी भी जनजातियो के यौन-उत्पीड़न के खिलाफ, अपने क्षेत्र को प्रदूषण रहित बनाने और आधारभूत सुविधाओं, शिक्षा व बच्चों के लिये पोषक तत्वों की व्यवस्था के लिये संषर्ष कर रही हैं।
“मुझे जो बात नारी होने पर गर्व कराती है कि मुझे अपनी देखभाल के लिये किसी मर्द की आवश्यकता नहीं है – मैं स्वावलंबी हूँ और अन्य महिलाओं को भी यही करने में सहायता की है। आज, हर एक महिला को समाज में अपनी स्थिति सुधारने की दिशा में काम करना चाहिये और इसके लिए उन्हें जानना चाहिये कि समान स्थिति की माँग कर वो सिर्फ अपने अधिकार की ही माँग कर रही हैं।”
बरथा जी डाखर
जन्मजात नेत्र रोग (रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा) से ग्रसित बरथा जी डाखर, की आँखों के सामने तब पूरी तरह अंधेरा छा गया, जब वो बैंगलोर में सोशल वर्क में पीजी कर रही थीं। इसके साथ ही उनका सोशल वर्क में साइकियाट्रिक बनने का भी सपना भी चूर-चूर हो गया।और फिर निराश होकर अपने पैतृक स्थान शिलॉंग वापस जाने का फैसला कर लिया।
हालांकि, घर वापसी के पहले उन्होंने एक शिक्षिका के पद के लिये आवेदन भी किया था, लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी। क्योंकि शिक्षण संस्था को डर था कि एक दृष्टिहीन काम को सफलतापूर्वक नहीं कर सकता।
ऐसे में बरथा को एक सामान्य जिंदगी जीना आसान नहीं था। अपनी जिंदगी को चलाने के लिए उन्होंने जैम और अचार भी बेचना पड़ा। असंवेदनहीन समाज में पली-बढ़ी बरथा ने फिर निश्चय किया कि आगे की जिंदगी वो दृष्टिहीनों के लिये गुजारेंगी। जिसकी वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी, उसी कमी को दूर करने के लिए यानी दृष्टिहीनों के लिए पढ़ाई की सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए संघर्ष शुरू किया। इस प्रकार उन्होंने मेघालय के एक प्रमुख जनजातीय भाषा, खासी, में ब्रेल कोड का आविष्कार कर डाला, जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।
वैसे तो जीवन में कोई सीमा नहीं होती, वो खुद इंसानों द्वारा तय की जाती हैं। जब जिंदगी जीने की उम्मीदों पर काला साया छाने लगा, तब बरथा ने खुद राह बनाने की ठान ली थी। सभी मुश्किलों को पार कर, आज बरथा दृष्टिहीनों के लिये ज्योति श्रोत नाम की फ्री-स्कूल चलाती हैं जो कि लैटुम ख्राह, शिलांग के बेथानी सोसाइटी की एक ईकाई है। इस स्कूल ने अबतक 100 से ऊपर दृष्टिहीनों विद्यार्थियों को एक नया जीवन भी दिया है।
“मुझे नारी होने पर गर्व है क्योंकि मेरे रचयिता का विश्वास है कि जो काम मैं कर रही हूँ वह सबसे अच्छे से एक नारी हृदय के द्वारा ही की जा सकती है और मुझे गर्व है कि मैं उस विश्वास को लिए काम कर रही हूँ।”
जन्मजात नेत्र रोग (रेटिनाइटिस पिगमेंटोसा) से ग्रसित बरथा जी डाखर, की आँखों के सामने तब पूरी तरह अंधेरा छा गया, जब वो बैंगलोर में सोशल वर्क में पीजी कर रही थीं। इसके साथ ही उनका सोशल वर्क में साइकियाट्रिक बनने का भी सपना भी चूर-चूर हो गया।और फिर निराश होकर अपने पैतृक स्थान शिलॉंग वापस जाने का फैसला कर लिया।
हालांकि, घर वापसी के पहले उन्होंने एक शिक्षिका के पद के लिये आवेदन भी किया था, लेकिन उन्हें असफलता ही हाथ लगी। क्योंकि शिक्षण संस्था को डर था कि एक दृष्टिहीन काम को सफलतापूर्वक नहीं कर सकता।
ऐसे में बरथा को एक सामान्य जिंदगी जीना आसान नहीं था। अपनी जिंदगी को चलाने के लिए उन्होंने जैम और अचार भी बेचना पड़ा। असंवेदनहीन समाज में पली-बढ़ी बरथा ने फिर निश्चय किया कि आगे की जिंदगी वो दृष्टिहीनों के लिये गुजारेंगी। जिसकी वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी, उसी कमी को दूर करने के लिए यानी दृष्टिहीनों के लिए पढ़ाई की सुविधाएँ मुहैया कराने के लिए संघर्ष शुरू किया। इस प्रकार उन्होंने मेघालय के एक प्रमुख जनजातीय भाषा, खासी, में ब्रेल कोड का आविष्कार कर डाला, जिसके लिए उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया।
वैसे तो जीवन में कोई सीमा नहीं होती, वो खुद इंसानों द्वारा तय की जाती हैं। जब जिंदगी जीने की उम्मीदों पर काला साया छाने लगा, तब बरथा ने खुद राह बनाने की ठान ली थी। सभी मुश्किलों को पार कर, आज बरथा दृष्टिहीनों के लिये ज्योति श्रोत नाम की फ्री-स्कूल चलाती हैं जो कि लैटुम ख्राह, शिलांग के बेथानी सोसाइटी की एक ईकाई है। इस स्कूल ने अबतक 100 से ऊपर दृष्टिहीनों विद्यार्थियों को एक नया जीवन भी दिया है।
“मुझे नारी होने पर गर्व है क्योंकि मेरे रचयिता का विश्वास है कि जो काम मैं कर रही हूँ वह सबसे अच्छे से एक नारी हृदय के द्वारा ही की जा सकती है और मुझे गर्व है कि मैं उस विश्वास को लिए काम कर रही हूँ।”
सुचेती काडेथंकर
51 दिन, 11 घंटे व 40 मिनट वो समय है जिसमें 33 वर्षीय सुचेती काडेथंकर ने 1000 मील (1623 किमी) लंबे एशिया के सबसे बड़े रेगिस्तान को पार करने में लगाई। 45 डिग्री की तपती गर्मी और जख्मी कंधे ने भी सुचेता को एशिया के सबसे बड़े रेगिस्तान ‘गोबी’ को पार कर अपने सपनों को साकार करने से नहीं रोक पाई।
सुचेता उस 13 सदस्यीय टीम की सदस्य थीं जिसमें विश्व भर के कई देशों से लोग शामिल थे, जिसकी अगुआई रेगिस्तान के अन्वेषक रिपले डेवेनपोर्ट कर रहे थे। पुणे के कस्बापेठ में जन्मी सुचेता अब एक सॉफ्टवेयर कंपनी में बतौर प्रिंसिपल इंफोरमेशन डेवेलपर काम कर रही हैं। इतिहास में स्नातक, सुचेता ट्रेकिंग में कदम के क्षेत्र में रखने से पहले एक मराठी समाचार-पत्र के साथ बतौर पत्रकार जुड़ी थीं।
बिना किसी बाहरी प्रेरणा के, सुचेता ने न केवल चिलचिलाती गर्मी (45 डिग्री सेल्सियस) की गर्मी को सहा, बल्कि उस तपती बंजर भूमि में भी पैदल यात्रा की। उसके दल के अनेक सदस्य हटते रहे, लेकिन छोड़ना उसके लिए विकल्प नहीं था। अपनी परेशानियों को याद करते हुए, सुचेता कहती है, “हमें पानी प्रत्येक 5 दिन पर मिलता था। उसमें से अधिकांश पीने के लिये सुरक्षित रखा जाता था…हम अपने आपको गीले वाइप से पोछते थे।” रिपोर्ट के मुताबिक, उनमें से किसी ने लगभग 2 महीनों तक स्नान नहीं किया था। हालांकि, उसे पता था कि उसकी यात्रा पूरी करने की खुशी उन परेशानियों ज्यादा होगी जो रास्ते में झेलनी पड़ी। और इसी खुशी को पाने के लिए हर परेशानियों का डटकर मुकाबला किया।
51 दिन, 11 घंटे व 40 मिनट वो समय है जिसमें 33 वर्षीय सुचेती काडेथंकर ने 1000 मील (1623 किमी) लंबे एशिया के सबसे बड़े रेगिस्तान को पार करने में लगाई। 45 डिग्री की तपती गर्मी और जख्मी कंधे ने भी सुचेता को एशिया के सबसे बड़े रेगिस्तान ‘गोबी’ को पार कर अपने सपनों को साकार करने से नहीं रोक पाई।
सुचेता उस 13 सदस्यीय टीम की सदस्य थीं जिसमें विश्व भर के कई देशों से लोग शामिल थे, जिसकी अगुआई रेगिस्तान के अन्वेषक रिपले डेवेनपोर्ट कर रहे थे। पुणे के कस्बापेठ में जन्मी सुचेता अब एक सॉफ्टवेयर कंपनी में बतौर प्रिंसिपल इंफोरमेशन डेवेलपर काम कर रही हैं। इतिहास में स्नातक, सुचेता ट्रेकिंग में कदम के क्षेत्र में रखने से पहले एक मराठी समाचार-पत्र के साथ बतौर पत्रकार जुड़ी थीं।
बिना किसी बाहरी प्रेरणा के, सुचेता ने न केवल चिलचिलाती गर्मी (45 डिग्री सेल्सियस) की गर्मी को सहा, बल्कि उस तपती बंजर भूमि में भी पैदल यात्रा की। उसके दल के अनेक सदस्य हटते रहे, लेकिन छोड़ना उसके लिए विकल्प नहीं था। अपनी परेशानियों को याद करते हुए, सुचेता कहती है, “हमें पानी प्रत्येक 5 दिन पर मिलता था। उसमें से अधिकांश पीने के लिये सुरक्षित रखा जाता था…हम अपने आपको गीले वाइप से पोछते थे।” रिपोर्ट के मुताबिक, उनमें से किसी ने लगभग 2 महीनों तक स्नान नहीं किया था। हालांकि, उसे पता था कि उसकी यात्रा पूरी करने की खुशी उन परेशानियों ज्यादा होगी जो रास्ते में झेलनी पड़ी। और इसी खुशी को पाने के लिए हर परेशानियों का डटकर मुकाबला किया।
हीराबाई बेन लोबी
हीराबाईबेन वास्तव में एक शक्तिशाली नारी हैं। कम उम्र में सर से मां-बाप का साया उठ जाने के बाद हीराबाईबेन का बचपन बड़ी कठिनाइयों के साथ बीता। लेकिन, उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारा। सीमित साधन के बावजूद लगातार चुनौतियों से मुकाबला करते हुए आजीविका के लिए खेती की नई तरीकों का सहारा लिया। इस प्रकार बैंक से लोन लेकर उन्होंने जैविक कम्पोस्ट फार्म शुरू करने का फैसला किया, जिसके लिए स्थानीय समुदाय ने आपत्ति भी जताई। लेकिन कडी मेहनत व दृढ निश्चय और गुजरात के सिद्दी समुदाय की महिलाओं की मदद से, उनकी कोशिशों ने रंग लाया। खेती की यह नई वैज्ञानिक विधि हीराबाई बेन कि लिये बहुत फायदेमंद साबित हुआ और जिससे एक लंबे समय तक चल सकने वाला उद्योग की स्थापना हुई। आज भी हीराबाई बेन की सफलता की कहानी जारी है और उनका वर्मीकम्पोस्ट उत्पादक समूह बडे-बडे ब्रांडों से टक्कर लेते हुए, सलाना करीब 700,000 रूपये का कम्पोस्ट की बिक्री करता है।
अतिरिक्त
हीराबाई बेन ने वृहद समाज के कई दूसरे मुद्दों को भी छुआ है और साथ ही कई महिलाओं को भी इसमें भागीदार बनने के लिये प्रेरित किया है। उनके काम का मुख्य केंद्र स्वास्थ्य, आर्थिक आजादी व खेतीबाडी में बेहतरी पर रहा है। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी आय व कृषि-व्यापार से मिले एवार्ड व फंड को भी स्थानीय स्कूल के विकास में लगाया है। और अब एक कॉलेज खोलने जा रही हैं।
60 साल की उम्र में हीराबाईबेन अपने तीन बच्चों के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
क्वोटः आपको क्या एक गर्वान्वित नारी बनाता है?
“मुझे गर्व है कि गाँव की एक नारी होने के बावजूद मैंने समुदाय के सदस्यों में आत्म-निर्भरता का भाव भरा है, जहाँ जागरूकता की कमी है व फंड जुटाना आसान काम नहीं है। वे सब मुझे एक प्रेरणास्रोत के रूप में देखते हैं ओर इससे मुझे हिम्मत मिलती है व मैं विनम्र रहती हूँ।”
साभार- रेड रिक्शा रेवलूशन
हीराबाईबेन वास्तव में एक शक्तिशाली नारी हैं। कम उम्र में सर से मां-बाप का साया उठ जाने के बाद हीराबाईबेन का बचपन बड़ी कठिनाइयों के साथ बीता। लेकिन, उन्होंने कभी भी हिम्मत नहीं हारा। सीमित साधन के बावजूद लगातार चुनौतियों से मुकाबला करते हुए आजीविका के लिए खेती की नई तरीकों का सहारा लिया। इस प्रकार बैंक से लोन लेकर उन्होंने जैविक कम्पोस्ट फार्म शुरू करने का फैसला किया, जिसके लिए स्थानीय समुदाय ने आपत्ति भी जताई। लेकिन कडी मेहनत व दृढ निश्चय और गुजरात के सिद्दी समुदाय की महिलाओं की मदद से, उनकी कोशिशों ने रंग लाया। खेती की यह नई वैज्ञानिक विधि हीराबाई बेन कि लिये बहुत फायदेमंद साबित हुआ और जिससे एक लंबे समय तक चल सकने वाला उद्योग की स्थापना हुई। आज भी हीराबाई बेन की सफलता की कहानी जारी है और उनका वर्मीकम्पोस्ट उत्पादक समूह बडे-बडे ब्रांडों से टक्कर लेते हुए, सलाना करीब 700,000 रूपये का कम्पोस्ट की बिक्री करता है।
अतिरिक्त
हीराबाई बेन ने वृहद समाज के कई दूसरे मुद्दों को भी छुआ है और साथ ही कई महिलाओं को भी इसमें भागीदार बनने के लिये प्रेरित किया है। उनके काम का मुख्य केंद्र स्वास्थ्य, आर्थिक आजादी व खेतीबाडी में बेहतरी पर रहा है। यहाँ तक कि उन्होंने अपनी आय व कृषि-व्यापार से मिले एवार्ड व फंड को भी स्थानीय स्कूल के विकास में लगाया है। और अब एक कॉलेज खोलने जा रही हैं।
60 साल की उम्र में हीराबाईबेन अपने तीन बच्चों के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए प्रेरणा स्रोत हैं।
क्वोटः आपको क्या एक गर्वान्वित नारी बनाता है?
“मुझे गर्व है कि गाँव की एक नारी होने के बावजूद मैंने समुदाय के सदस्यों में आत्म-निर्भरता का भाव भरा है, जहाँ जागरूकता की कमी है व फंड जुटाना आसान काम नहीं है। वे सब मुझे एक प्रेरणास्रोत के रूप में देखते हैं ओर इससे मुझे हिम्मत मिलती है व मैं विनम्र रहती हूँ।”
साभार- रेड रिक्शा रेवलूशन
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