रविवार, 5 नवंबर 2017

डॉ आईदान सिंह भाटी की कुछ कवितायें


क्रांति
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वह आएगी
पर आएगी किसी की पीठ पर चढ़कर
क्यों कि वह है लंगड़ी
सब इन्तज़ार कर रहे हैं उसका ;
आकाश से नहीं
दिलों में उठ रहे हैं बवंडर
उथल-पुथल मची हुई है
लोग उठाने लगे हैं
राज्य, धर्म पर अँगुली ।


कभी तो
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कभी तो भूलो
बच्चों को भूगोल पढ़ाना
हँसो गड़गड़ हँसी ।
हँसो !
जिससे बज उठें हिय के तार ।
पहली बारिश से जैसे पनपते हैं
वर्षों से सूखे-थार में पुष्प पल्लव ।
तुम्हारे हँसते ही
हँसने लगेगा
चूल्हे पर तपता तवा
और तवे पर सिकती हुई रोटी ।
तुम्हारे हँसते ही
खिल उठेंगे
बेलों पर फूल ।
खेजड़ों पर मिमंझर
और बच्चों की आँखों में भूगोल
(ज़रूरत नहीं रहेगी फिर तुम्हें भूगोल रटाने की)
कभी तो बनाओ
मन को चिड़िया
जंगल का विहाग
घर आँगन की गौरैया ।
उड़ो आकाश में
ऊँचे और ऊँचे
बताओ बच्चों को आकाश और
ऊँचाई का अर्थ ।
कभी ‘फ्लैट’ की पाँचवीं मंज़िल में
बच्चों के सामने बन जाओ ऐसे
जैसे हुड़दंग करते थे बचपन में
फससों और चौपालों पर ।
भूलो कभी तो कुछ ज़रूरी बातें
बदलो पुरानी पुस्तकों के पन्ने
पढ़ो वह आखर माल
जिसके नीचे कभी खींची थी लकीरें ।
(लकीरें जिनमें छुपे हैं उस समय के अर्थ)
आँखें खोलो और देखो
अभी तक आते हैं
रोहिड़ों पर लाल फूल
वर्षा ऋतु में हरियल होता है
धरती का आँगन
हरे होते हैं सूखे ठूँठ
आज तक ।
आकाश में अभी तक उगता है वह तारा
जिसे तुम बचपन में निहारा करते थे
बाल कथाओं के बीच ।
(अपने बच्चों की आँखों में उगाओ वह तारा)
उछलो बछड़ो की भाँति
सुनहरे धोरों पर जा कर
कभी तो
कभी तो वे काम भी करो
जिनको करने से डरने लगे हो
आजकल ।

                    (राजस्थानी से अनुवाद : मोहन आलोक)

निर्मला पुतुल की एक कविता

उतनी दूर मत ब्याहना बाबा ! 
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बाबा!
मुझे उतनी दूर मत ब्याहना
जहाँ मुझसे मिलने जाने ख़ातिर
घर की बकरियाँ बेचनी पड़े तुम्हे

मत ब्याहना उस देश में
जहाँ आदमी से ज़्यादा
ईश्वर बसते हों
जंगल नदी पहाड़ नहीं हों जहाँ
वहाँ मत कर आना मेरा लगन
वहाँ तो कतई नही
जहाँ की सड़कों पर
मान से भी ज़्यादा तेज़ दौड़ती हों मोटर-गाडियाँ
ऊँचे-ऊँचे मकान
और दुकानें हों बड़ी-बड़ी
उस घर से मत जोड़ना मेरा रिश्ता
जिस घर में बड़ा-सा खुला आँगन न हो
मुर्गे की बाँग पर जहाँ होती ना हो सुबह
और शाम पिछवाडे से जहाँ
पहाडी पर डूबता सूरज ना दिखे ।
मत चुनना ऐसा वर
जो पोचाई और हंडिया में
डूबा रहता हो अक्सर
काहिल निकम्मा हो
माहिर हो मेले से लड़कियाँ उड़ा ले जाने में
ऐसा वर मत चुनना मेरी ख़ातिर
कोई थारी लोटा तो नहीं
कि बाद में जब चाहूँगी बदल लूँगी
अच्छा-ख़राब होने पर
जो बात-बात में
बात करे लाठी-डंडे की
निकाले तीर-धनुष कुल्हाडी
जब चाहे चला जाए बंगाल, आसाम, कश्मीर
ऐसा वर नहीं चाहिए मुझे
और उसके हाथ में मत देना मेरा हाथ
जिसके हाथों ने कभी कोई पेड़ नहीं लगाया
फसलें नहीं उगाई जिन हाथों ने
जिन हाथों ने नहीं दिया कभी किसी का साथ
किसी का बोझ नही उठाया
और तो और
जो हाथ लिखना नहीं जानता हो "ह" से हाथ
उसके हाथ में मत देना कभी मेरा हाथ
ब्याहना तो वहाँ ब्याहना
जहाँ सुबह जाकर
शाम को लौट सको पैदल
मैं कभी दुःख में रोऊँ इस घाट
तो उस घाट नदी में स्नान करते तुम
सुनकर आ सको मेरा करुण विलाप.....
महुआ का लट और
खजूर का गुड़ बनाकर भेज सकूँ सन्देश
तुम्हारी ख़ातिर
उधर से आते-जाते किसी के हाथ
भेज सकूँ कद्दू-कोहडा, खेखसा, बरबट्टी,
समय-समय पर गोगो के लिए भी
मेला हाट जाते-जाते
मिल सके कोई अपना जो
बता सके घर-गाँव का हाल-चाल
चितकबरी गैया के ब्याने की ख़बर
दे सके जो कोई उधर से गुजरते
ऐसी जगह में ब्याहना मुझे
उस देश ब्याहना
जहाँ ईश्वर कम आदमी ज़्यादा रहते हों
बकरी और शेर
एक घाट पर पानी पीते हों जहाँ
वहीं ब्याहना मुझे !
उसी के संग ब्याहना जो
कबूतर के जोड़ और पंडुक पक्षी की तरह
रहे हरदम साथ
घर-बाहर खेतों में काम करने से लेकर
रात सुख-दुःख बाँटने तक
चुनना वर ऐसा
जो बजाता हों बाँसुरी सुरीली
और ढोल-मांदर बजाने में हो पारंगत
बसंत के दिनों में ला सके जो रोज़
मेरे जूड़े की ख़ातिर पलाश के फूल
जिससे खाया नहीं जाए
मेरे भूखे रहने पर
उसी से ब्याहना मुझे ।
                                 (निर्मला पुतुल)

मैथिलीशरण गुप्त की कुछ कवितायें

आर्य
हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगे अभी
आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

भू लोक का गौरव, प्रकृति का पुण्य लीला स्थल कहां
फैला मनोहर गिरि हिमालय, और गंगाजल कहां
संपूर्ण देशों से अधिक, किस देश का उत्कर्ष है
उसका कि जो ऋषि भूमि है, वह कौन, भारतवर्ष है
यह पुण्य भूमि प्रसिद्घ है, इसके निवासी आर्य हैं
विद्या कला कौशल्य सबके, जो प्रथम आचार्य हैं
संतान उनकी आज यद्यपि, हम अधोगति में पड़े
पर चिन्ह उनकी उच्चता के, आज भी कुछ हैं खड़े
वे आर्य ही थे जो कभी, अपने लिये जीते न थे
वे स्वार्थ रत हो मोह की, मदिरा कभी पीते न थे
वे मंदिनी तल में, सुकृति के बीज बोते थे सदा
परदुःख देख दयालुता से, द्रवित होते थे सदा
संसार के उपकार हित, जब जन्म लेते थे सभी
निश्चेष्ट हो कर किस तरह से, बैठ सकते थे कभी
फैला यहीं से ज्ञान का, आलोक सब संसार में
जागी यहीं थी, जग रही जो ज्योति अब संसार मेंI
वे मोह बंधन मुक्त थे, स्वच्छंद थे स्वाधीन थे
सम्पूर्ण सुख संयुक्त थे, वे शांति शिखरासीन थे
मन से, वचन से, कर्म से, वे प्रभु भजन में लीन थे
विख्यात ब्रह्मानंद नद के, वे मनोहर मीन थे

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सखि, वे मुझसे कहकर जाते
कह, तो क्या मुझको वे अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
फिर भी क्या पूरा पहचाना?
मैंने मुख्य उसी को जाना
जो वे मन में लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
स्वयं सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती हैं रण में -
क्षात्र-धर्म के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
हु‌आ न यह भी भाग्य अभागा,
किसपर विफल गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो आँसू बहते,
सदय हृदय वे कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम लावेंगे,
रोते प्राण उन्हें पावेंगे,
पर क्या गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
                                        मैथिलीशरण गुप्त

नीलाभ की कुछ कवितायें

नाराज आदमी का बयान- १
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मुझे अब किसी भी चीज़ में
दिलचस्पी नहीं रह गई है
न दुनिया में
न उसके मूर्खतापूर्ण कारोबार में
मैं सिर्फ़ एक सीधी, सरल ज़िन्दगी
जीना चाहता हूँ
पसीने की गन्ध को
ताज़ा पानी से मिटाते हुए
दिन भर की थकान को
गा-बजा कर दूर करते हुए
भात की महक में
माँ के दूध का सोंधापन
और दाल में पड़ी खटाई की फाँक में
बचपन की साथिन के होंटों की सनसनी
महसूस करते हुए
सीधी, सरल ज़िन्दगी
जो बीसवीं सदी के
इन आख़िरी वर्षों में
सबसे कठिन चीज़ है
रहे शब्द
तो शैतान ले जाए उन्हें
वे मुझसे नहीं थके
पर मैं
उनसे ऊब गया हूँ

नाराज आदमी का बयान-२
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शब्दों से नाता अटूट है
शब्दों से मेरा नाता अटूट है
मैं उन्हें प्यार करता हूँ
लगातार
लड़ता हूँ झगड़ता हूँ उनसे
अपनी समझ से
उन्हें तरतीब देता रहता हूँ
यहाँ तक कि कई बार
खीझ उठता हूँ उन पर
बहुत बार
मैंने कहा है उनसे
क्यों तंग करते हो मुझे ?
भाई, अब तुम जाओ
कहीं और जा कर डेरा जमाओ
मेरे दिमाग़ को घोंसला मत बनाओ
मगर शब्द हैं कि लगातार
मेरा पीछा करते हैं
मेरे कानों में गूँजते हैं
मेरे दिमाग़ पर दस्तक देते रहते हैं
मैं जानता हूँ
मैं कई बार उन्हें
व्यक्त नहीं कर पाता
उनकी दस्तक के बावजूद
कई बार
मेरे दिमाग़ का कोई दरवाज़ा
नहीं खुल पाता
मैं कुछ और कहना चाहता हूँ
वे कुछ और सुझाते हैं
मैं तराशना चाहता हूँ उन्हें
वे बार-बार
मेरे हाथों को चुभ जाते हैं
कभी मैं आगे बढ़ जाता हूँ
कभी वे पीछे छूट जाते हैं
लेकिन न वे मुझे छोड़ते हैं
न मैं उन से पीछा छुड़ा पाता हूँ
उन्हीं के रिश्ते से मैं ख़ुद को
ज़िन्दगी से जुड़ा पाता हूँ
उन्हीं के रिश्ते से मैं ख़ुद को
ज़िन्दगी से जुड़ा पाता हूँ

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इस दौर में
हत्यारे और भी नफ़ीस होते जाते हैं
मारे जाने वाले और भी दयनीय
वह युग नहीं रहा जब बन्दी कहता था
वैसा ही सुलूक़ करो मेरे साथ
जैसा करता है राजा दूसरे राजा से
अब तो मारा जाने वाला
मनुष्य होने की भी दुहाई नहीं दे सकता
इसीलिए तो वह जा रहा है मारा
अनिश्चय के इस दौर में
सिर्फ़ बुराइयाँ भरोसे योग्य हैं
अच्छाइयाँ या तो अच्छाइयाँ नहीं रहीं
या फिर हो गयी हैं बाहर चलन से
खोटे सिक्कों की तरह
शैतान को अब अपने निष्ठावान पिट्ठुओं को
बुलाना नहीं पड़ता
मौजूद हैं मनुष्य ही अब
यह फ़र्ज़ निभाने को
पहले से बढ़ती हुई तादाद में

                                      (नीलाभ )

चरवाहे का सुख




कौन बनेगा प्रधानमंत्री!
कौन बनेगा मुख्यमंत्री!
या कौन बनेगा राष्ट्रपति!
क्या लेना-देना इन फ़िजूल
बातों से भला एक चरवाहे को
उसके मतलब की बातें तो
होती हैं सिर्फ इतनी सी ही
कि किस तरह से भरा जाए पेट
अपने प्राणों से प्रिय गाय-बैलों का
ताकि जब शाम को लौटना हो
वापस अपने घर के लिए
तो अघाए हुए हों उसके गाय-बैल
उतर सके गायों के थन में दूध
आँखें गड़ाये अपनी माँ का
इन्तजार कर रहे छौनों के लिए

           (कृष्ण धर शर्मा, 10.6.2017)

स्वप्नदीप



कुटिलताओं और आशंकाओं के दौर में
सहजताओं और सरलताओं को बचाए रखना
भले ही इसमें अतिशय धैर्य की होगी आवश्यकता
मगर कुटिलों के कुचक्रों से बचने के लिए
सहनशीलता की पराकाष्ठा के भी पार
सहना होगा तुम्हें उस ताप को उस अग्नि को
जो तुम्हें तपकर अपनी आंच में बना देगी कुंदन 
फिर तुम हो जाओगे इतने खरे
कि तुम्हें खोटा साबित करने के
तमाम प्रयास होंगे असफल
बस, तब तक तुम्हें बचाकर रखने होंगे
अपने हृदय के किसी कोने में
आशाओं के कुछ सुनहरी लौ वाले स्वप्नदीप

                  (कृष्ण धर शर्मा, 22.2.2017)