"उसके समक्ष मृत्यु का सहर्ष वरण करने जो खड़े थे उनमें अधिकांश उसके अपने ही थे। रक्त-सम्बन्धी। रिश्ते में पिता थे, पितृव्य थे, पितामह थे, श्याला थे श्वसुर थे। इनके अतिरिक्त गुरुजन थे- द्रोण थे, कृपाचार्य थे। गुरु-पुत्र अश्वत्थामा थे। इन सभी का वह वध करे? क्यों? राज-सुख के लिए? रक्त-सिक्त इस सुख से तो भिक्षान्न पर पलना अधिक उचित था। और योद्धाओं के हत् होने से कितनी नारियाँ माथे का सिंदूर गँवा देंगी! वैधव्य-वरण को विवश होंगी। इससे परिवार-समाज में कदाचार बढ़ेगा। कुल धर्म नष्ट हो जायेगा। वर्ण-संकर उत्पन्न होंगे। पितरों को उनका तीलोदक, पींड स्वीकार्य नहीं होगा। ऐसे में पितरों का पतन होगा, उन्हें अधोगति प्राप्त होगी। उसका तर्क अकाट्य एवं मर्मभेदी था" "मैं भीष्म बोल रहा हूँ" (भगवतीशरण मिश्र)
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