शुक्रवार, 30 नवंबर 2018

बूढ़ा गाँव


      दस दिन की गर्मियों की छुट्टियों में विनय नानी के गाँव, बुआ के गाँव और ससुराल भी हो आया था बीवी-बच्चे वहीँ ससुराल में ही रुक गए थे. फिर भी दो दिन की छुट्टियाँ और बच रही थी उसकी.  अचानक ही उसके मन में ख्याल आया कि क्यों न पास के ही गाँव चला जाए जहाँ पर उसके स्कूल के दिनों के कुछ अच्छे दोस्तों का घर है. विनय घर में माँ को बताकर निकल पड़ा. रास्ते में कई लोगों से दुआ-सलाम और हालचाल करते-पूछते 3 किलोमीटर दूर दोस्तों के गाँव पहुंचा. इधर 7-8 सालों में गाँव काफी बदल चुका था. झुके हुए कच्चे मिटटी के खपरैल वाले घरों की जगह अब पक्के मकान सीना ताने खड़े थे जिनकी छतों पर अलग-अलग निजी कंपनियों की छतरियां लहलहा रही थीं. मकानों की सजावट बता रही थी कि लोगों में घर सजाने की होड़ लगती होगी इस गाँव में. गाँव के कच्चे और उबड़-खाबड़ रास्ते अब पक्की कांक्रीट की सड़कों में तब्दील हो चुके थे. चाहे गांववालों की जागरूकता का असर हो या फिर शासन की ओर से ग्राम पंचायत में विकास के लिए आ रहे करोड़ों रुपयों का, जो भी हो मगर इस बदले हुए रूप में अपने दोस्तों के घर पहचानना थोडा मुश्किल हो रहा था विनय के लिए. सारी सुविधाएँ घरों के भीतर हो जाने से बाहर या नीम के पेड़ के नीचे बने चबूतरों पर भी कोई नजर नहीं आ रहा था.
विनय ने असमंजस की स्थिति में एक घर की कुण्डी खड़काई जिसके बाद एक बूढ़े से चेहरे ने दरवाजे के बाहर झांकते हुए पूछा
“कौन हो भाई! किससे मिलना है?”
विनय ने उस बूढ़े चेहरे को पहचान लिया था, उसने नमस्ते करते हुए कहा
“चाचाजी मैं आनंद का दोस्त हूँ, छुट्टियों में गाँव आया था तो सोचा कि मिलता चलूँ”
बूढ़ी आँखों में जैसे चमक आ गयी हो.
“अन्दर आओ बेटा” कहकर उन्होंने पूरा दरवाजा खोल दिया. अन्दर पहुंचकर विनय ने देखा कि घर में दैनिक जीवन को आसान बनाने वाली वस्तुएं मसलन कूलर, पंखा, टीवी, फ्रिज और रसोई गैस इत्यादि लगभग सब कुछ उपलब्ध है. अब विनय को समझ आया कि घरों के बाहर लोग क्यों नहीं दिख रहे थे.
“अरे सुनती हो आनंद की अम्मा! देखो आनंद का दोस्त आया है. कुछ नास्ता और चाय लेकर आना”.
“अरे नहीं चाचाजी मैं घर से नाश्ता करके निकला हूँ, आप परेशान मत होइए!”.
“ठीक है बेटा, हमें भी पता है घर से भूखे पेट नहीं निकले होगे मगर हमारा भी तो कुछ अधिकार है कि नहीं!”
“अरे नहीं चाचाजी ऐसी बात नहीं है मैं तो बस ये सोचकर कह रहा था कि आप नाहक ही परेशान होंगे”
आनंद नहीं दिख रहा है! कहीं बाहर रहता है क्या?”
“आनंद तो अब शहर में रहता है बेटा”.
“आनंद क्या काम करता है चाचाजी!”
“बेटा पहले तो वह नौकरी करने शहर गया जहाँ पर कुछ महीने काम करने के बाद उसे फैक्ट्रियों में मजदूर सप्लाई करने का ठेका मिल गया. अब तो उसने वहीँ पर घर भी बना लिया है”.
“शादी हो गई है क्या उसकी?”
“हाँ बेटा. पांच साल हुए वहीँ शहर की एक लड़की से शादी कर ली उसने. बाद में हमें बताया कि उसने कोर्ट में शादी कर ली है मगर आप लोग चाहें तो गाँव आकर रीति-रिवाज से शादी करने को तैयार हूँ”.
“फिर क्या हुआ चाचाजी!”
“लड़की हमसे नीची जाति की थी मगर अब तो ना करने का सवाल ही नहीं था बेटा, सो बेइज्जती से और गाँव वालों की बातों से बचने के लिए हमने लड़की की जाति छुपाकर दुबारा से विधि-विधान से आनंद की शादी की, क्योंकि गाँववालों को पता चलने से हमारा यहाँ जीना मुश्किल हो जाता”.

तब तक आनंद की माँ बिस्कुट और नमकीन लेकर आ गईं. आनंद को देखकर वह भी खुश लग रही थीं. आनंद ने उठकर उन्हें नमस्ते करते हुए पूछा 
“कैसी हैं चाचीजी! तबियत वगैरह ठीक रहती है आपकी!”
“मैं तो ठीक ही हूँ बेटा मगर तुम तो बहुत दिन बाद आये. कहाँ रहते हो! क्या काम करते हो? शादी-ब्याह हो गया होगा न! कितने बच्चे हैं! तुम्हारा परिवार गाँव में ही रहता है कि शहर में अपने साथ रखे हो!”
आनंद को इतने सारे सवालों के एकसाथ पूछे जाने का अंदाजा नहीं था इसलिए वह थोडा हडबडा गया मगर फिर मुस्कुराते हुए बोला “हां चाचीजी, मेरी शादी हो गई है दो बेटे हैं और मैं पूना में रहता हूँ. वहां पर एक कंप्यूटर कम्पनी में काम करता हूँ और बच्चे वहीँ मेरे साथ ही रहते हैं. अभी छुट्टियों में घर आया हुआ था तो सोचा आनंद से भी मिलता चलूँ”.
“आनंद के भी तो बच्चे होंगे!”
“हाँ बेटा उसके भी एक बेटा है. आनंद तो 2-3 महीने में मजदूरों को पहुँचाने और लेजाने के लिए आता-जाता रहता है मगर उसकी बीवी थोड़ा ज्यादा ही पढ़ी-लिखी है तो उसको यहाँ गाँव में रहना पसंद नहीं आता इसलिए वह यहाँ कम ही आती है, हाँ मगर हमारा बेटा हमारा काफी ख्याल रखता है और किसी चीज कि कोई कमी नहीं होने देता”.
वह तो घर में उपलब्ध सुविधाएँ देखकर ही पता चल रहा था.
विनय ने घडी में समय देखते हुए कहा “अब मैं चलता हूँ चाचीजी, कुछ और लोगों से मिलना है”
“रुको न बेटा! खाना खाकर जाना”
“अभी तो नाश्ता कर ही लिया हूँ, खाना फिर कभी खा लूँगा चाचीजी. अच्छा ये महेंद्र और राकेश का कौन सा घर है?”.
“हमारे घर से चौथा घर राकेश का है जिसके बाहर पुराना ट्रैक्टर खड़ा है और उसके आगे वाला घर महेंद्र का है. मगर बेटा दोनों ही शहर में किसी फैक्टरी में काम करते हैं और साल में एक या दो  बार होली-दिवाली या किसी के शादी-ब्याह में घर आते हैं. उन्होंने भी अपने बीवी-बच्चे अपने साथ ही शहर में रखे हैं. इस गाँव में तो अब हमारे जैसे बूढ़ा और बूढ़ी ही मिलेंगे”.
विनय को अचानक से झटका सा लगा. नानी के गाँव में, बुआ के गाँव में और उसके खुद के गाँव में भी तो यही हाल है, जहाँ भी गया हूँ हर जगह बूढ़े ही तो मिले हैं. कमाने-खाने के चक्कर में अधिकतर लड़के सपरिवार शहरों की तरफ कूच कर गए और अभी आगे भविष्य में भी यही होता दिख रहा है क्योंकि शहरों में रहकर पढाई-लिखाई करने वाले बच्चों को गांव में तो नौकरी मिलने से रही सो मजबूरी में उन्हें भी शहरों में ही रहना होगा और धीरे-धीरे गाँव वापस लौटने कि संभावनाएं ख़त्म होती जायेंगी. बची-खुची खेती और मकानों की चौकीदारी करते हुए गाँवों में अब सिर्फ बूढ़े ही मिलेंगे क्योंकि सीमित कमाई, घटती जिम्मेदारी और ख़त्म होती नैतिकता के चलते बच्चों के लिए बूढ़ों को शहर में अपने साथ रख पाना असंभव प्रतीत होता है.
  विनय अनमना सा कुछ सोचते हुए वापस अपने घर पहुंचा जहाँ पर माँ ने पूछा 
“कहां-कहां घूमकर आये बेटा!”
“बूढ़ा गाँव”
“ये कौन सा गाँव है बेटा! पहले तो कभी नहीं सुना!”
अब विनय को माँ के इस सवाल का कुछ भी जवाब न सूझ रहा था......
                                     (कृष्ण धर शर्मा -2015)

बुढ़ऊ पंडित


“स्कूल जाते-जाते आज पंडित को जरूर बोल देना कि कल सवेरे कथा सुनाने आ जायेंगे”.
“ठीक है माँ, बोलते हुए जाऊंगा”. “वैसे बुढ़ऊ पंडित को ही बोलना है कि बच्चू पंडित को बोल दूंगा”!
“तू फ़ालतू की बकवास मत कर. बुढ़ऊ पंडित जब तक जिन्दा हैं हम लोग उन्हीं से ही कथा सुनेंगे.”
“ठीक है माँ”. कहकर विपुल स्कूल जाने की तैयारी में लग गया मगर उसके मन में कुछ उलझन जरूर थी कि माँ कथा सुनने के लिए बुढ़ऊ पंडित को ही क्यों बुलाती हैं जबकि बच्चू पंडित भी अच्छी कथा सुनाते हैं! बुढ़ऊ पंडित को तो साईकिल से लेने भी जाना पड़ता है क्योंकि ज्यादा बूढ़े होने कि वजह से वह ठीक से चल-फिर भी नहीं पाते हैं और फिर एक बार उन्हें और दूसरी बार उनकी दक्षिणा का सामान (गेहूं, चावल आदि) पहुँचाने जाना पड़ता है जबकि बच्चू पंडित अपनी मोटरसाइकिल से खुद आ जाते हैं और अपनी दक्षिणा का सामान भी साथ लेकर जाते हैं”.
विपुल पंडित जी के घर पहुंचा तो सामने ही बच्चू पंडित मिल गए. विपुल ने उन्हें  प्रणाम किया तो हाल-चाल पूछने लगे. विपुल ने कहा "सब आप लोगों का आशीर्वाद है पंडितजी. सब ठीक-ठाक है. माँ कल सुबह कथा सुनना चाहती हैं तो उन्होंने आज ही सूचित करने के लिए भेजा है, मैं पंडितजी से मिल लेता हूँ!."  "ठीक है भाई, जाओ मिल लो बुढ़ऊ पंडित से, कांखते-पादते पड़े होंगे. वैसे भी तुम्हारे घर के अलावा कोई और तो पूछता नहीं है उन्हें." विपुल थोडा नर्वस होते हुए बोला “मैंने तो माँ से कहा था कि बच्चू पंडित को बुला लाता हूँ मगर उन्होंने ही कहा कि मैं बुढ़ऊ पंडित से ही कथा सुनूंगी." बच्चू पंडित ने हँसते हुए कहा “अरे कोई बात नहीं है विपुल! वैसे भी बुढ़ऊ पंडित अब जियेंगे भी कितने दिन और! बाद में तो मुझे ही बुलाना पड़ेगा न!."
 विपुल को बच्चू पंडित की हंसी में कुटिलता का आभास हुआ मगर वह कुछ न बोल आगे आँगन की तरफ बढ़ गया जहाँ पर गोरसी (अंगीठी) में आग जलाये बुढ़ऊ पंडित आग ताप रहे थे. हालांकि ठण्ड इतनी ज्यादा भी नहीं थी मगर कहते हैं न कि बुढ़ापे की हड्डियों को ठण्ड कुछ ज्यादा ही लगती है शायद, या फिर समय काटने का जरिया भी बन जाती है गोरसी में जलती हुई आग. विपुल के पैर छूने पर बुढ़ऊ पंडित ने आशीर्वाद देते हुए पूछा “घर में सब कुशल-मंगल है!”. “हाँ पंडितजी सब ठीक है. माँ ने कहा है कि कल सुबह सत्यनारायण कि कथा सुनना है तो आप को आज बताने आया हूँ." “मेरी तो तबियत भी अब ठीक नहीं रहती है, बच्चू को ही बोल देते वह जाकर सुना देता!”. “नहीं पंडितजी! माँ ने कहा है कि वह सिर्फ आपसे ही कथा सुनेंगी”. “आप सुबह तैयार रहना मैं आपको साईकल में बिठा कर ले चलूँगा”.
“ठीक है भई जैसी तुम्हारी इच्छा”.
विपुल वहां से निकल कर अपने स्कूल पहुंचा मगर उसके मन में उथल-पुथल चल रही थी. शाम ४ बजे स्कूल की छुट्टी होने पर वह घर पहुंचा तो चाचाजी दिख गए. उसने पूछा “आप कालेज से जल्दी आगये चाचाजी!”. “हाँ विपुल, खेत के लिए खाद लाना था और तुम्हें तो पता ही है कि सोसायटी जल्दी बंद हो जाती है इसलिए कालेज में २ पीरियड ही लिया और छुट्टी लेकर निकल आया”.
विपुल और उसके चाचा की उम्र में 5 साल का ही फर्क था इसलिए उसके चाचा उससे मित्रवत व्यवहार करते थे. विपुल के चाचा ने कहा “मैं तो खाद डलवाने खेत तरफ जा रहा हूँ, शाम को मिलते हैं”. “मैं भी चलता हूँ चाचा, बस कपडे बदलकर और बैग रखकर आता हूँ”. विपुल ने फटाफट बैग रखा, कपडे बदले, एक गिलास पानी पिया और माँ को बोला “माँ मैं चाचाजी के साथ खेत तरफ जा रहा हूँ खेतों में खाद डलवाना है”. माँ ने हँसते हुए कहा “तू खेतों में खाद डालेगा क्या! उसके लिए तो रमलू को बोला हुआ है. ठीक है जा मगर जल्दी आना”. “चलिए चाचाजी मैं आ गया”. दोनों साथ चलने लगे तो चाचा ने कहा “कुछ ख़ास बात है क्या! जो मेरे साथ चल रहे हो?”. “नहीं चाचाजी ऐसी तो कोई बात नहीं है मगर एक बात पूछनी थी आपसे!”. “हाँ कहो न, क्या बात है!”. “माँ कल सत्यनारायण जी की कथा सुनना चाहती है तो आज उन्होंने मुझे बुढ़ऊ पंडित को बताने के लिए भेजा था, मगर एक बात समझ में नहीं आती कि माँ बुढ़ऊ पंडित से ही क्यों कथा सुनना चाहती हैं! बच्चू पंडित से क्यों नहीं? वह बच्चू पंडित के नाम से चिढती क्यों हैं जबकि बच्चू पंडित भी बढिया कथा सुनाते हैं. उनकी आवाज भी दमदार है!”. “भाभी अपनी जगह पर सही हैं विपुल. बच्चू पंडित है ही ऐसा”. “मैं समझा नहीं चाचाजी! आप क्या कहना चाह रहे हैं? बच्चू पंडित का व्यवहार तो सबसे अच्छा ही है”. “तुम्हें पता नहीं है विपुल, इसलिए तुम ऐसा कह रहे हो”. “किसी से कहना मत मगर बच्चू पंडित में कई बुराइयाँ हैं, वह गांजा तो पीता ही था मगर अब शराब भी पीने लगा है और सुनने में आया है कि उसके खेतों में काम करनेवाली एक मजदूर औरत से भी अवैध सम्बन्ध हैं शायद इसलिए ही तुम्हारी माँ उनसे चिढती हैं!”. “बुढ़ऊ पंडित ने जो इज्जत और दौलत अपने व्यवहार से कमायी थी वह सब मिटटी में मिलाने में लगा है बच्चू पंडित." "30-35 साल पहले जब गाँव वालों ने बुढ़ऊ पंडित को पूजा-पाठ करने के लिए गाँव में बसाया था, घर बनाने के लिए थोड़ी सी जमीन और खेती के लिए 2 बीघे जमीन दान में दी थी. बुढ़ऊ पंडित बहुत ही मेहनती और सज्जन इंसान थे. उन्होंने पंडिताई करते हुए खेत में भी मेहनत की और 2 बीघे जमीन को बढ़ाकर आज 11-12 बीघे जमीन बना ली है. पान, तम्बाकू तक नहीं खाते हैं. लोगों में बड़ी श्रद्धा और विश्वास है उनके प्रति. बड़ा बेटा एक्सीडेंट में मर गया था अब बच्चू पंडित की ही चलती है घर में. सुनने में आया है कि बुढ़ऊ पंडित के पास कुछ सोना-चांदी पड़ा हुआ था जिसे बच्चू पंडित ने चुरा लिया और उसी को बेचकर उसने अपने लिए एक पक्का कमरा बनवाया और मोटरसाइकिल भी खरीद ली. इसके बाद बच्चू पंडित ने हिस्सा-बाँट कर लिया है इसलिए बुढ़ऊ पंडित अब पंडिताईन, बड़ी बहु और उसके दो बच्चों के साथ रहते हैं. अभी भी कोई बुढ़ऊ पंडित को कथा सुनने के लिए बुला लेता है जिससे किसी तरह उनकी गुजर-बसर चल रही है. तुम्हारी माँ को शायद यह सब पता है, इसीलिये वह बच्चू पंडित से चिढ़ती हैं और बुढ़ऊ पंडित से ही कथा सुनना चाहती हैं”.
“मगर अधिकतर लोग तो बच्चू पंडित को ही बुलाते हैं कथा सुनने के लिए! क्या उनको नहीं पता है बच्चू पंडित के बारे में?”.  “अब तो बनावटी लोगों का ही जमाना है विपुल. बच्चू पंडित एक तो मीठी-मीठी बातें करने में माहिर हैं दुसरे उसके पास मोटरसाइकिल भी है जिससे वह खुद ही चला आता है और अपना दक्षिणा का सामान भी ले जाता है, जबकि बुढ़ऊ पंडित को लाने-छोड़ने और उनका सामान भी पहुँचाने जाना पड़ता है इसलिए भी लोग बच्चू पंडित को ज्यादा प्राथमिकता देते हैं”. “वैसे भी कथा-पूजा करवाना चाहिए यह सोचकर लोग करवाते हैं. उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि कथा-पूजा करवाने वाले का आचार-विचार या चरित्र कैसा है”.
 विपुल सोचने लगा “तो क्या बुढ़ऊ पंडित के मरने के बाद माँ कथा सुनना ही बंद कर देंगी!”.
                         (कृष्ण धर शर्मा -2015)


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विद्रोहियों के बीच में


कंपनी के काम से मैं पहले भी बस्तर आ चुका था लेकिन इस बार का अनुभव काफी कड़वा रहा. हालाँकि इससे पहले भी मैंने असंतोष की चिंगारियां देखी थी पर इस बार वह चिंगारियां लपटों का रूप धारण कर चुकी थीं.
लौह अयस्क कि खुदाई हो या ढुलाई, किसी भी तरह के कार्य के लिए मजदूरों को उनका उचित? पारिश्रमिक दिया जाता रहा था फिर भी मजदूर वहीँ के वहीँ रह गए और उनकी झोपड़ी भी झोपड़ी ही रह गई लेकिन देखते ही देखते ठेकेदार और उद्योगपति कब लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनते चले गए यह खेल अब मजदूरों की समझ में आने लगा था. आज जो मजदूर थे वही पहले इन जमीनों के मालिक थे जिनसे आज बहुमूल्य खनिजों का दोहन हो रहा है. सरकारी नुमाइन्दों  और ठेकेदारों, बिचौलियों ने  इन जमीन मालिकों को ऐसे हसीन सपने दिखाए कि अधिकतर भू-स्वामी तो इनके झांसे में आकर अपनी जमीनें इन्हें दे बैठे और जिन्होंने अपनी जमीनें देने में आनाकानी की उन्हें कानूनी तर्कों के हथियार से चुप करा दिया गया और जिन्होंने इस सबका विरोध करने की कोशिश की उन्हें विद्रोही बताकर परेशान किया जाने लगा और मारा जाने लगा. जिन भू-स्वामियों से उनकी जमीनें ली गई थीं उनके मुआवजों का भी कोई हिसाब नहीं हुआ और सारा पैसा बिचौलिए खा गए.
भू-स्वामियों से मुफ्त में या कौड़ियों के भाव ली गई बेशकीमती जमीनों के बन्दर-बाँट का खेल शुरू हुआ जिसमे प्रभावशाली और सत्ता तक पहुँच रखने वाले लोगों ने बाजी मारी और फिर जब खनिजों के उत्खनन का कार्य शुरू हुआ तो वादे के मुताबिक स्थानीय निवासियों को सबसे पहले रोजगार देना था मगर उच्च पदों के लिए बाहरी लोगों को चुना गया और स्थानीय लोगों को कौड़ियों के भाव दिहाड़ी मजदूरी पर रखा गया जो कि बाद में बड़ी-बड़ी मशीनों के आने से उन मजदूरों की जरूरत भी कम होती गई. कहने को तो सरकार ने स्कूल, अस्पताल भी खुलवा दिए लेकिन इस बारे में कभी नहीं सोचा गया कि स्कूल में पढने तो वही आ पायेगा जिसके घर में कोई परेशानी न हो लेकिन जब घर में पर्याप्त मात्रा में खाने-पहनने कि व्यवस्था नहीं होगी तो बच्चे क्या भूखे पेट और नंगे बदन स्कूल जायेंगे. सरकारी अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई थी लेकिन बीमार पड़ने पर दूर-दराज के गांवों से अस्पताल तक पहुँच पाना काफी मुश्किल होता है और अस्पताल तक पहुँच भी गए तो कभी डाक्टर नहीं मिलेंगे तो कभी दवाइयां नहीं मिलेंगी और इन गरीबों के पास इतना पैसा और साधन नहीं होता था कि शहर जाकर निजी अस्पतालों में अपना इलाज करवा सकें और बाजार से दवाइयां खरीद सकें. सड़कें भी आम जनता के लिए नहीं बल्कि उन्हीं जगहों पर बनाई गई थीं जहाँ से खनिजों की ढुलाई, सरकारी अफसरों और ठेकेदारों-उद्योगपतियों को आने-जाने में आसानी हो सके.
इन विद्रोहियों का यह तर्क भी पूरी तरह से ख़ारिज नहीं किया जा सकता कि जिस रत्नगर्भा धरती पर वह जमाने से रहते आये हैं जिस पर उनका प्राकृतिक रूप से अधिकार रहा है आज वह अचानक सरकार या उद्योगपतियों की कैसे हो गई. सरकारी तर्क भी हो सकता है कि देश या राज्यों की प्राकृतिक सम्पदा और संसाधनों पर कानूनन सरकार का हक़ है क्योंकि इस सबके बदले में वह आम जनता के जीवन को सरल और सुखद बनाने के लिए कार्य करती है और सुविधाएँ प्रदान करती है. लेकिन जहाँ की सम्पदा और संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा हो और जनता के अधिकारों और मूलभूत सुविधाओं का कहीं अता-पता ही न हो तो वहां पर जनाक्रोश तो उपजेगा ही न! पिछड़े और अपने मूलभूत अधिकारों से वंचित लोगों में विरोध की आवाज तो उठेगी ही और इनकी समस्याओं को न समझकर अगर इस विरोध को दबाने के लिए बलप्रयोग या दमनकारी नीतियों का सहारा लिया जाएगा तो इसके परिणाम भयावह तो होंगे ही जो कि अब सामने भी आ रहे हैं.
कितनी हास्यास्पद बात है कि स्थानीय निवासी अपनी ही जमीनों से बहुमूल्य खनिज संपदा निकालने के लिए मजदूरों के रूप में अपना सहयोग दे रहे हैं जिससे कि सरकार, ठेकेदार व उद्योगपति मालामाल हो रहे हैं उचित तो यह होता कि इन भू-स्वामियों को इनकी जमीनों से खनिज निकलने के बदले में रॉयल्टी दी जाती मगर रॉयल्टी और मुआवजा तो बहुत दूर की बात थी इनको तो इतनी मजदूरी भी नहीं दी जाती थी कि पेटभर खाने के बाद पहनने के लिए कपड़े और रहने के लिए ठीक-ठाक घर भी बना सकें या अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल भी भेज सकें. और अगर इन्हीं बातों का कोई विरोध करता है तो उसे विद्रोही (राष्ट्रद्रोही) करार दिया जाता है, यातनाएं दी जाती हैं, बिना मुकदमा चलाये कई वर्षों तक कारागार में रखा जाता है.
इन तरीकों से तो यह विद्रोह दबने से रहा. उचित यही होगा कि इन वंचितों, शोषितों के सामाजिक, आर्थिक व मानसिक विकास के लिए ईमानदारी से प्रयास किये जाएँ. इनकी शिक्षा व चिकित्सा की उचित व्यस्था की जाये क्योंकि अनपढ़ रहकर मजदूरी के आलावा और कुछ न कर पाना इनकी विवशता है. शासकों और नीति-निर्माताओं को गंभीर एवं संवेदनशील होकर इनकी मूलभूत आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निर्णय लेने होंगे और नीतियां बनानी होगीं तभी इनकी समस्याओं का वास्तविक समाधान हो सकता है, केवल कागजी खानापूर्ति, झूठी बैठकें करने और दुनिया को दिखाने के लिए कोरी बयानबाजी से कुछ होने वाला नहीं है. इस पर भी कड़ाई से नजर रखनी होगी कि जो कुछ योजनायें इनके विकास के लिए बनाई जा रही हैं या लागू की जा रही हैं क्या उनका लाभ वास्तविक लोगों तक पहुँच पा रहा है या अन्य सरकारी योजनाओं की तरह उसकी भी दुर्गति हो रही है.
लौह अयस्क की ढुलाई व्यवस्था को सुचारू रूप से संपन्न करवाने के लिए कंपनी की तरफ से दो प्रतिनिधियों को भेजा गया था जो कि बस्तर पहुंचकर जनाक्रोश का शिकार बने. हालाँकि मजदूरों (विद्रोहियों) का गुस्सा या विरोध नाजायज नहीं कहा जा सकता क्योंकि हम लोग जिस तरह से सारा कार्य मशीनों से सम्पादित करवा रहे थे जैसे खदानों में खनन का कार्य मशीनों से हो रहा था और खनिजों को ट्रकों में लोड करने के लिए भी मशीनें ही काम कर रही थीं हाइड्रोलिक सिस्टम से लैस ट्रकों से अनलोडिंग भी स्वचलित ही हो रही थी और रेलवे साइडिंग पर खनिज गिरने के बाद मालगाड़ियों में लोडिंग भी मशीनें ही कर रही थीं इस तरह से मजदूरों के पास कोई काम नहीं रह गया था. जमीनें तो उनसे पहले ही छीनी जा चुकी थीं और यहाँ पर भी उनका काम मशीनों ने छीन लिया था इस तरह से उनके भूखों मरने कि नौबत आ चुकी थी. मुख्य सड़क से रेलवे साइडिंग तक जाने वाली कच्ची सड़क जो कि ओवरलोड ट्रकों के चलने से पूरी तरह से ख़राब हो चुकी थी उसे मजदूरों ने ही श्रमदान करके फिर से बनाया था और मजदूरों ने यह श्रमदान इस उद्देश्य से किया था इन रास्तों से जो माल ढुलाई होगी उसे मालगाड़ियों में लोड करने या खाली करने में उन्हीं की जरूरत पड़ेगी और इस तरह से उन्हें रोजगार मिलता रहेगा मगर जब लोडिंग-अनलोडिंग सहित सारा काम मशीनों से होने लगा और मजदूरों को काम ना मिलने से उनके लिए भूखों मरने की स्थिति बनने लगी तो मजदूरों का धैर्य जवाब देने लगा. उन्हें यह असहनीय लगने लगा कि उनके ही बनाये रास्ते से सारा काम हो रहा है और उनको ही खाने के लाले पड़े हैं तो उन्होंने विरोध करना शुरू कर दिया. मजदूरों के विरोध का एक और कारण था मालगाड़ियों की लोडिंग में तो सारा काम मशीनों से हो जाता था मगर अनलोडिंग में उनकी थोड़ी-बहुत जरूरत पड़ती थी और वह इसमें भी खुश थे मगर हम लोगों ने करीब हफ्ते भर के लिए रेलवे से पूरी साइडिंग सिर्फ लोडिंग के लिए बुक करवा ली थी इसलिए अनलोडिंग न होने से मजदूरों को हफ्ते भर कोई काम न मिला, उनका राशन-पानी ख़त्म हो गया और भूखों मरने की स्थिति आ गई थी और हम लोग फिर से हफ्ते भर के लिए साइडिंग बुक करने के लिए पहुँच गए और जब मजदूरों को यह बात पता चली कि अगले एक हफ्ते भी उन्हें कुछ काम नहीं मिलने वाला है तो वह भड़क उठे और हमें ऐसा करने के लिए मना करने लगे तब स्टेशन मास्टर ने उन्हें कहा कि आप लोग रेलवे का काम मत रोकिये यह गैरकानूनी है और आप लोग काम रोकेंगे तो आपको सजा भी हो सकती है. भूखे-प्यासे मजदूर यह सुनकर और भड़क उठे और उन्होंने इस सबके लिए हम लोगों को ही कसूरवार माना और हमें बंधक बनाकर पास के जंगल में ले गए जहाँ पर करीब दो सौ मजदूर (विद्रोही) पहले से ही मौजूद थे. हमें चारों तरफ से करीब बीस लोगों ने घेर रखा था और जब वहां पर हमारा परिचय दिया गया तो भीड़ में से कई लोग गालियां देते हुए टंगिया, फरसे लेकर हमें मारने के लिए आगे बढ़े जिन्हें कुछ और लोगों ने समझाते हुए रोक लिया और कहा कि पहले जनअदालत में इनके ऊपर मुकदमा चलेगा फिर इनको सजा दी जायेगी, तब जाकर वह लोग शांत हुए और अनुशासनपूर्वक अपनी जगह जाकर बैठ गए. जनअदालत शुरू हुई और उन लोगों के एक लीडर (नेता) ने हमारे ऊपर लगाये गए आरोप जनता को सुनाये गए कि “ये लोग विदेशी कंपनियों और सरकार के एजेंट हैं और हमारी धरती से बहुमूल्य खनिज निकालकर विदेशों में बेचते हैं और भारी मुनाफा कमाते हैं”. “ऐसे ही लोगों की वजह से हमारी जमीनें हमारा घर हमसे छीन लिया गया और हमें मालिक से मजदूर बना दिया गया और अब ये लोग यहाँ मशीनें लेकर आये हैं जिस वजह से हम पूरी तरह से बेरोजगार हो चुके हैं, अगर अब भी इनका विरोध नहीं किया गया या इन्हें यहाँ से भगाया नहीं गया तो हमें और हमारी सभ्यता को मिटने से कोई नहीं रोक पायेगा. आखिर हमारी गलती क्या है? हम तो कितने ही बरसों से बिना किसी को परेशान किये इन जंगलों में अपना जीवन बिता रहे थे. इन जैसे लोगों ने किसी न किसी बहाने से पहले तो यहाँ पर घुसपैठ की और अब तो यहाँ के मालिक ही बन बैठे हैं. इन लोगों की साजिश यही है कि हमें किसी भी तरह से यहाँ से बाहर भगाया जाये जिससे कि यह लोग यहाँ की बहुमूल्य खनिज संपदा का मनमाने तरीके से दोहन कर सकें”. “अब जनता को फैसला करना है कि इन्हें क्या सजा दी जाए?”.
वहां पर मौजूद सारी जनता ने एक सुर में कहा “इनकी सजा तो मौत ही है”. सामने की तरफ मौजूद कई लोगों ने आपस में बात की और आरोप सुनाने वाले लीडर ने ही जनअदालत का फैसला सुनाते हुए कहा कि “इन लोगों को मौत की सजा सुनाई जाती है और इन्हें यहीं पर सबके सामने गला रेत कर मारा जायेगा”. यह फैसला सुनकर हम लोगों के तो होश ही उड़ चुके थे, हमने पहले भी सुन रखा था कि कैसे एक सरकारी कर्मचारी को रेत-रेत कर मारा गया था. पहले तो उसके पैर की उँगलियों को रेत-रेत कर काटा गया था और एक-एक करके पैर से शुरू करते हुए सिर तक उसके बाईस टुकड़े किये गए थे. तभी बाहर की तरफ से एक आदमी दौड़ते हुए आया और उसने लीडर को रोकते हुए उसके कान में कुछ कहा. लीडर ने फिर से कहा कि ऊपर से आदेश आया है कि हमारे बड़े लीडर आने वाले हैं और इनकी सजा का फैसला वही करेंगे.
अब बड़े लीडर का इन्तजार होने लगा और करीब दो घंटे के बाद बड़े लीडर वहां पर पहुंचे जिनके साथ कुछ ठेकेदार भी थे हम लोग उन्हें पहचान गए और हमें आश्चर्य भी हुआ यह लोग आपस में मिले हुए हैं. बड़े लीडर को हमारे बारे में पूरी जानकारी दी गई और उन्हें बताया गया कि जन अदालत में उन्हें मौत की सजा सुनाई जा चुकी थी मगर आप लोगों के आने का सन्देश मिलते ही कार्रवाई रोक दी गई है अब आप लोग ही इनका फैसला करिए.
बड़े लीडर ने चारों तरफ निगाह घुमाते हुए हमसे पूछा कि “तुम लोगों पर जो आरोप लगाये गए हैं उसके बारे में तुम्हे कुछ सफाई देनी है क्या! 
हम लोगों ने कहा कि “हम तो कंपनी के नौकर हैं हमें यहाँ पर देखरेख के लिए भेजा गया है हम आप लोगों के खिलाफ भला क्या साजिश करेंगे! हमें तो कंपनी की तरफ से जो आदेश दिया जाता है हम लोग उसी का पालन करते हैं. हमारी आप लोगो से भला क्या दुश्मनी हो सकती है?".
बड़े लीडर ने कई लोगों और ठेकेदारों से बात करके हमसे कहा कि यह जो सड़क बनाई गई है हमारे लोगों ने मेहनत करके बनाई है और तुम लोगों को अगर यहाँ पर काम करना है तो हमसे मिलकर रहना होगा और हमारे तरीके से काम करना होगा. फिर हमारे पास एक लीडर आया और धीरे-धीरे अपनी शर्तें बताने लगा कि हमें हर महीने एक निश्चित रकम उन्हें देनी होगी और जो भी काम होंगे वह इन ठेकेदारों से करवाए जायेंगे जो हमारे साथ आये हैं. हमनें अपनी जान बचाने के लिए बिना कंपनी से पूछे उनकी सारी शर्तों को मान लिया. तब बड़े लीडर ने जनता से कहा कि इन लोगों ने अपनी गलती मान ली है और माफी भी मांग ली है इसलिए इन्हें माफ़ किया जाता है. बड़े लीडर का फैसला सुनकर कई लोग चिल्लाने लगे कि इन्हें माफ़ नहीं किया जा सकता अगर इन्हें जान से न भी मारा जाए तो कम से कम इनके एक-एक हाथ और पैर काट कर ही छोड़ा जाए. भीड़ की बातें सुनकर मैंने घबराहट में चिल्लाते हुए कहा कि नहीं, मारना है तो जान से मार दो मगर हाथ-पैर मत काटो.
बड़े लीडर ने सबको चुप कराते हुए कहा कि फैसला हो चुका है और इन्होने तो अपनी गलती मानकर माफ़ी भी मांग ली है इसलिए इनको छोड़ा जाता है.
बड़े लीडर ने कुछ लोगों से कहा कि इन्हें स्टेशन तक छोड़कर आओ और सारी बातें इन्हें दोबारा से समझा देना. कई लोग मिलकर हमारे साथ स्टेशन तक आये और हमें सारी शर्तें याद दिलाते हुए वापस लौट गए. हम लोग भी सुबह होटल से सिर्फ चाय पीकर निकले थे और शाम हो चली थी तो सबसे पहले हमने होटल पहुंचकर नहाया-धोया, खाना खाया और सारे घटनाक्रम की कड़ियाँ जोड़ने की कोशिश करते हुए सोचने लगे कि सही और गलत की परिभाषा क्या है! सोचते-सोचते ही नींद आ गई और सवाल का जवाब भी अधूरा ही रह गया.
                                         (कृष्णधर शर्मा- 2007)

भीड़


एक दिन कुछ लोग किसी घटना पर
भीड़ बनकर बेहद आक्रोशित हुए
आक्रोश ने उन्माद की शक्ल ली
उन्माद ने भीड़ पर अपना असर किया
वह कुसूरवार था या बेकसूर!
उन्माद ने भीड़ को सोचने ही न दिया
भीड़ ने उसे पीट-पीटकर मार डाला
वह भी पिटता ही रहा मरने तक
यही सोचकर, कि इतने सारे लोग
मिलकर पीट रहे हैं मुझे
तो जरूर, मैं ही गलत रहा होऊंगा!
यही मानकर वह ख़ुशी-ख़ुशी मर गया
कुछ दिन तो बड़ी ही शांति से बीते
मगर भीड़ के मुंह तो खून लग चुका था
भीड़ तो आदमखोर हो चुकी थी
कई दिनों तक नहीं मिला कोई शिकार
तो बेचैन भीड़ ने अपने ही बीच से
चुन लिया एक कमजोर सा शिकार
अपराध और वजह भी बना ली गई उसे
पीट-पीटकर मार डालने की
चूँकि भीड़ काफी सात्विक
और अमनपसंद थी
जो मारना पसंद नहीं करती थी
बेवजह, बिना अपराध किसी को भी
इसके बाद तो भीड़ का यह
रोज का काम हो गया
अब तो भीड़ ने अपना-पराया
भी देखना बंद कर दिया
जो भी दिखता जरा सा कमजोर
शिकार हो जाता वही उन्मादी भीड़ का....
           (कृष्ण धर शर्मा, 24.06.2018)

सवालों के जवाब


बूढों के पास बचा ही क्या था
कुछ अदद नाती-पोतों के सिवाय
जो खिंचे चले आते थे उनके पास
सुनने कुछ नए-पुराने किस्से-कहानियां
या ढूँढने अपने कुछ अनसुलझे
सवालों के जवाब
वरना कौन आता है भला उनके पास
बड़े बेटे के अलावा
जो हफ्ते में छुट्टी के दिन
2 मिनट का समय निकाल पूछ लेता है
“कुछ परेशानी तो नहीं है न!
तबियत तो ठीक है न!”
अब तो टीवी और मोबाइल ने
छीन लिए हैं उनसे बच्चे भी
क्योंकि बच्चों को वह सब भी
मिल जाता है टीवी और मोबाइल पर
जो बूढ़े भी नहीं बता पाते थे
काफी देर सर खुजलाने के बाद भी.....
          (कृष्ण धर शर्मा, 05.06.2018)

हम और हमारा समाज


हरे-भरे और पुराने, छाँव वाले पेड़ों को 
घर के बड़े-बूढों और अनुभवी बुजुर्गों को
सदियों पुरानी आस्थाओं को, मान्यताओं को
बिना जाने उनके फायदे या नुकसान
काट देना जड़ों से बेवजह ही
क्योंकि उनकी वजह से आती हैं
हमारी स्वछंदता में कुछ अडचनें
जो कि बनता जा रहा है
आजकल विकास का सूचक
इन सब को ही मानने लगे हैं
लोग विकसित होने की निशानी
तब यह सोचना हो जाता है लाज़िमी
कि किस दिशा और दशा की ओर
बढ़ रहे हैं हम और हमारा समाज !
क्या हमें डर नहीं लगता बिलकुल भी!
कि अपने ही खोदे गड्ढे में गिरेंगे हम
एकदिन मुंह के बल बुरी तरह से!
ऐसे गड्ढे में, जहाँ से निकलने का
कोई भी रास्ता बनाया ही नहीं है हमने!
           (कृष्ण धर शर्मा, 25.05.2018)

तालाब याद आये


हमने तालाबों को
पाट-पाटकर
बड़े-बड़े आलीशान
घर बनाये
घरों में सुख-सुविधा के
तमाम उपकरण लगाये
मगर जब नहीं मिला
पानी गुजर-बसर के लिए
तब हमें वही
पाटे हुए तालाब
बहुत-बहुत याद आये
   (कृष्ण धर शर्मा, 16.05.2018)

हाँ मगर!


तुम्हारी भेड़ियों जैसी भूखी नजरें
तुम्हारी गलीज और कामुक भावनाएं
तुम्हारी अश्लील और गंदी टिप्पणियां
जो, राह चलती किसी की
बहन या बेटी को देखकर
उपजते हैं तुम्हारे भीतर
तुम सोचकर भी देखोगे यही सब
अपनी बहन या बेटी के बारे में कभी
सिहर जाओगे तुम, गड जाओगे जमीन में
कहीं गहरे तक शर्म के मारे
तुम्हें लगेगा कि धरती फट जाये अभी
और समा जाओ तुम उसमें सबसे मुंह छुपाकर
हाँ मगर! तुम इंसान होगे तभी न!
अन्यथा शैतानों का तो यह रोज का काम है....
               (कृष्ण धर शर्मा, 12.04.2018)

इंसान को डर लगता है


इंसान को जिससे-जिससे
डर लगता है
वह उन सबको मार देता है
या फिर मारने की
कोशिश करता रहता है
भले ही वह डर वास्तविक न हो
डर काल्पनिक ही सही
मगर इंसान जिससे-जिससे डरता है
वह उन सबको मार देता है
इंसान जिससे डरता है
वह सांप भी हो सकता है
बिच्छू भी हो सकता है
शेर, भालू, बाघ, चीता सहित
तमाम जानवर या साधारण जीव भी
जिनसे-जिनसे इंसान डरता है 
उन सबको मार देता है
मगर आश्चर्य तो देखो जरा!
सबको मार देने के बाद
इंसान अकेलेपन से घबराकर
आख़िरकार एक दिन डरकर
खुद को भी मार देता है...
        (कृष्ण धर शर्मा, 18.03.2018)

घर और घरवाले


टीवी की आवाज म्यूट कर दो
मोबाइल को साइलेंट में डाल दो
मन को जरा शांत करके
गौर से सुनो तो कभी
तुम्हारा घर और घरवाले
बहुत बेचैन हैं इन दिनों!
वह तुमसे बातें करना चाहते हैं 
उन्हें लगता है कि वह भी
तुम्हारे जीवन का हिस्सा हैं 
टीवी, मोबाइल, गाड़ी, कंप्यूटर
तुम्हारे दोस्तों या अन्य सभी की तरह
जिनके साथ रहकर तुम खुश होते हो
अपने जीवन से जुड़े लोगों को, चीजों को
जिस तरह से देते हो अपना समय
खिलखिलाकर हँसते हो, बातें करते हो
अपने साथियों, संगियों-संगिनियों से
घर और घरवाले भी तो चाहते हैं
वही सबकुछ, उसी तरह से तुम कभी
बातें करो अपने घर से, घरवालों से
मगर न जाने क्यों इसमें तुम
अपनी तौहीन समझते हो! 
            (कृष्ण धर शर्मा, 08.03.2018)

अनमनी सी जिंदगी


अल्लसुबह की मीठी नींद
का मोह छोड़कर
लग जाते हैं काम पर
जाने की तैयारी में
मुंहअँधेरे ही गिरते-पड़ते से
सोते हुए बच्चे का माथा
चूमकर निकल पड़ते हैं
दिनभर काम में
अनमने से खटने के लिए
निभाने पड़ते हैं कई रस्मो-रिवाज
कई रिश्ते भी बेमन से
सुननी पड़ती हैं कई-कई बातें
ताने-उलाहने भी रोज ही
या कहा जाये सीधे-सीधे ही
कि जीनी पड़ती पूरी जिन्दगी ही
बिना मन के, अनमने ही
          (कृष्ण धर शर्मा, 02.03.2018)

राक्षस


अब जिसे राक्षस ही साबित करना हो
वह भला आपके कहने भर से
कैसे हो जायेगा राक्षस
उसके बारे में प्रचारित करना होगा
दुनियाभर का सच-झूठ
जैसे कि वह होता है घोर अत्याचारी
एक विशालकाय शरीर वाला
होते हैं उसके कई सर, कई हाथ
हो सकते हैं उसके सर पर सींग भी
बड़े-बड़े दांत होना तो अनिवार्य ही है
आसमान गूंजता है जब वह बोलता है
धरती कांपती है जब वह चलता है
निगल जाता है वह साबुत ही इंसान को
उसका तो काम ही है अच्छे लोगों को
परेशान करना, मार देना आदि-आदि
उसे राक्षस साबित करना खासतौर पर
और भी जरूरी हो जाता है
जबकि देव बनने की आपकी अभिलाषा
अपने प्रबलतम और निकृष्टतम रूप में हो 
क्योंकि यह तो आपको भी पता ही है
कि देव बनने के लिए किसी दानव का
किसी राक्षस का होना भी बहुत जरूरी है
              (कृष्ण धर शर्मा, 27.02.2018)