1971
में पश्चिमी पाकिस्तान में पाकिस्तानी सेना और मुक्ति बाहिनी सेना के बीच
लड़ाई शुरू हुई. भारत ने मुक्ति बाहिनी का समर्थन किया और तेरह दिन चली
लड़ाई के बाद पाकिस्तानी सेना ने हथियार डाल दिए. इस तरह बांग्लादेश का
जन्म हुआ.
सात मार्च 1971 को जब बांग्लादेश के राष्ट्रपिता शेख़ मुजीबुर्रहमान
ढाका के मैदान में पाकिस्तानी शासन को ललकार रहे थे, तो उन्होंने क्या किसी
ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि ठीक नौ महीने और नौ दिन बाद बांग्लादेश एक
वास्तविकता होगा.
पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह याहिया ख़ाँ ने जब 25
मार्च 1971 को पूर्वी पाकिस्तान की जन भावनाओं को सैनिक ताकत से कुचलने का
आदेश दे दिया और शेख़ मुजीब गिरफ़्तार कर लिए गए, वहाँ से शरणार्थियों के
भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया.
जैसे-जैसे पाकिस्तानी सेना के दुर्व्यवहार की ख़बरें फैलने लगीं, भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह वहाँ पर सैनिक हस्तक्षेप करे.
इंदिरा चाहती थीं कि अप्रैल में हमला हो
इंदिरा गांधी ने इस बारे में थलसेनाअध्यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय माँगी.
उस
समय पूर्वी कमान के स्टाफ़ ऑफ़िसर लेफ़्टिनेंट जनरल जेएफ़आर जैकब याद करते
हैं, "जनरल मानेकशॉ ने एक अप्रैल को मुझे फ़ोन कर कहा कि पूर्वी कमान को
बांग्लादेश की आज़ादी के लिए तुरंत कार्रवाई करनी है. मैंने उनसे कहा कि
ऐसा तुरंत संभव नहीं है क्योंकि हमारे पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन है
जिसके पास पुल बनाने की क्षमता नहीं है. कुछ नदियाँ पाँच पाँच मील चौड़ी
हैं. हमारे पास युद्ध के लिए साज़ोसामान भी नहीं है और तुर्रा यह कि मॉनसून
शुरू होने वाला है. अगर हम इस समय पूर्वी पाकिस्तान में घुसते हैं तो वहीं
फँस कर रह जाएंगे."
मानेकशॉ राजनीतिक दबाव में नहीं झुके और उन्होंने इंदिरा गांधी से साफ़ कहा कि वह पूरी तैयारी के साथ ही लड़ाई में उतरना चाहेंगे.
तीन
दिसंबर 1971...इंदिरा गांधी कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं.
शाम के धुँधलके में ठीक पाँच बजकर चालीस मिनट पर पाकिस्तानी वायुसेना के
सैबर जेट्स और स्टार फ़ाइटर्स विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट,
श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू
कर दिए.
इंदिरा गांधी ने उसी समय दिल्ली लौटने का फ़ैसला किया.
दिल्ली में ब्लैक आउट होने के कारण पहले उनके विमान को लखनऊ मोड़ा गया.
ग्यारह बजे के आसपास वह दिल्ली पहुँचीं. मंत्रिमंडल की आपात बैठक के बाद
लगभग काँपती हुई आवाज़ में अटक-अटक कर उन्होंने देश को संबोधित किया.
पूर्व
में तेज़ी से आगे बढ़ते हुए भारतीय सेनाओं ने जेसोर और खुलना पर कब्ज़ा कर
लिया. भारतीय सेना की रणनीति थी महत्वपूर्ण ठिकानों को बाई पास करते हुए
आगे बढ़ते रहना.
ढाका पर कब्ज़ा भारतीय सेना का लक्ष्य नहीं
आश्चर्य
की बात है कि पूरे युद्ध में मानेकशॉ खुलना और चटगाँव पर ही कब्ज़ा करने
पर ज़ोर देते रहे और ढ़ाका पर कब्ज़ा करने का लक्ष्य भारतीय सेना के सामने
रखा ही नहीं गया.
इसकी पुष्टि करते हुए जनरल जैकब कहते हैं, "वास्तव
में 13 दिसंबर को जब हमारे सैनिक ढाका के बाहर थे, हमारे पास कमान मुख्यालय
पर संदेश आया कि अमुक-अमुक समय तक पहले वह उन सभी नगरों पर कब्ज़ा करे
जिन्हें वह बाईपास कर आए थे. अभी भी ढाका का कोई ज़िक्र नहीं था. यह आदेश
हमें उस समय मिला जब हमें ढाका की इमारतें साफ़ नज़र आ रही थीं."
पूरे
युद्ध के दौरान इंदिरा गांधी को कभी विचलित नहीं देखा गया. वह पौ फटने तक
काम करतीं और जब दूसरे दिन दफ़्तर पहुँचतीं, तो कह नहीं सकता था कि वह
सिर्फ़ दो घंटे की नींद लेकर आ रही हैं.
जाने-माने
पत्रकार इंदर मल्होत्रा याद करते हैं, "आधी रात के समय जब रेडियो पर
उन्होंने देश को संबोधित किया था तो उस समय उनकी आवाज़ में तनाव था और ऐसा
लगा कि वह थोड़ी सी परेशान सी हैं. लेकिन उसके अगले रोज़ जब मैं उनसे मिलने
गया तो ऐसा लगा कि उन्हें दुनिया में कोई फ़िक्र है ही नहीं. जब मैंने जंग
के बारे में पूछा तो बोलीं अच्छी चल रही है. लेकिन यह देखो मैं नार्थ ईस्ट
से यह बेड कवर लाई हूँ जिसे मैंने अपने सिटिंग रूम की सेटी पर बिछाया है.
कैसा लग रहा है? मैंने कहा बहुत ही ख़ूबसूरत है. ऐसा लगा कि उनके दिमाग़
में कोई चिंता है ही नहीं."
गवर्नमेंट हाउस पर बमबारी
14
दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि दोपहर ग्यारह बजे
ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें
पाकिस्तानी प्रशासन के चोटी के अधिकारी भाग लेने वाले हैं.
भारतीय
सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं. बैठक के दौरान ही मिग
21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी. गवर्नर मलिक ने
एयर रेड शेल्टर में शरण ली और नमाज़ पढ़ने लगे. वहीं पर काँपते हाथों से
उन्होंने अपना इस्तीफ़ा लिखा.
दो दिन बाद ढाका के बाहर मीरपुर ब्रिज
पर मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने अपनी जोंगा के बोनेट पर अपने स्टाफ़ ऑफ़िसर
के नोट पैड पर पूर्वी पाकिस्तानी सेना के प्रमुख जनरल नियाज़ी के लिए एक
नोट लिखा- प्रिय अब्दुल्लाह, मैं यहीँ पर हूँ. खेल ख़त्म हो चुका है. मैं
सलाह देता हूँ कि तुम मुझे अपने आप को सौंप दो और मैं तुम्हारा ख़्याल
रखूँगा.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा अब इस
दुनिया में नहीं हैं. कुछ वर्ष पहले उन्होंने बीबीसी को बताया था, "जब यह
संदेश लेकर मेरे एडीसी कैप्टेन हरतोश मेहता नियाज़ी के पास गए तो उन्होंने
उनके साथ जनरल जमशेद को भेजा, जो ढाका गैरिसन के जीओसी थे. मैंने जनरल
जमशेद की गाड़ी में बैठ कर उनका झंडा उतारा और 2-माउंटेन डिव का झंडा लगा
दिया. जब मैं नियाज़ी के पास पहुँचा तो उन्होंने बहुत तपाक से मुझे रिसीव
किया."
16 दिसंबर की सुबह सवा नौ बजे जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश
मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुँचें. नियाज़ी ने जैकब
को रिसीव करने के लिए एक कार ढाका हवाई अड्डे पर भेजी हुई थी.
जैकब
कार से छोड़ी दूर ही आगे बढ़े थे कि मुक्ति बाहिनी के लोगों ने उन पर
फ़ायरिंग शुरू कर दी. जैकब दोनों हाथ ऊपर उठा कर कार से नीचे कूदे और
उन्हें बताया कि वह भारतीय सेना से हैं. बाहिनी के लोगों ने उन्हें आगे
जाने दिया.
आँसू और चुटकुले
जब
जैकब पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पहुँचें. तो उन्होंने देखा जनरल नागरा
नियाज़ी के गले में बाँहें डाले हुए एक सोफ़े पर बैठे हुए हैं और पंजाबी
में उन्हें चुटकुले सुना रहे हैं.
जैकब ने नियाज़ी को आत्मसमर्पण की
शर्तें पढ़ कर सुनाई. नियाज़ी की आँखों से आँसू बह निकले. उन्होंने कहा,
"कौन कह रहा है कि मैं हथियार डाल रहा हूँ."
जनरल राव फ़रमान अली ने इस बात पर ऐतराज़ किया कि पाकिस्तानी सेनाएं भारत और बांग्लादेश की संयुक्त कमान के सामने आत्मसमर्पण करें.
समय
बीतता जा रहा था. जैकब नियाज़ी को कोने में ले गए. उन्होंने उनसे कहा कि
अगर उन्होंने हथियार नहीं डाले तो वह उनके परिवारों की सुरक्षा की गारंटी
नहीं ले सकते. लेकिन अगर वह समर्पण कर देते हैं, तो उनकी सुरक्षा की
ज़िम्मेदारी उनकी होगी.
जैकब ने कहा- मैं आपको फ़ैसला लेने के लिए
तीस मिनट का समय देता हूँ. अगर आप समर्पण नहीं करते तो मैं ढाका पर बमबारी
दोबारा शुरू करने का आदेश दे दूँगा.
अंदर ही
अंदर जैकब की हालत ख़राब हो रही थी. नियाज़ी के पास ढाका में 26400 सैनिक
थे जबकि भारत के पास सिर्फ़ 3000 सैनिक और वह भी ढाका से तीस किलोमीटर दूर !
अरोड़ा
अपने दलबदल समेत एक दो घंटे में ढाका लैंड करने वाले थे और युद्ध विराम
भी जल्द ख़त्म होने वाला था. जैकब के हाथ में कुछ भी नहीं था.
30 मिनट बाद जैकब जब नियाज़ी के कमरे में घुसे तो वहाँ सन्नाटा छाया हुआ था. आत्म समर्पण का दस्तावेज़ मेज़ पर रखा हुआ था.
जैकब
ने नियाज़ी से पूछा क्या वह समर्पण स्वीकार करते हैं? नियाज़ी ने कोई जवाब
नहीं दिया. उन्होंने यह सवाल तीन बार दोहराया. नियाज़ी फिर भी चुप रहे.
जैकब ने दस्तावेज़ को उठाया और हवा में हिला कर कहा, ‘आई टेक इट एज़
एक्सेप्टेड.’
नियाज़ी फिर रोने लगे. जैकब नियाज़ी को फिर कोने में ले
गए और उन्हें बताया कि समर्पण रेस कोर्स मैदान में होगा. नियाज़ी ने इसका
सख़्त विरोध किया. इस बात पर भी असमंजस था कि नियाज़ी समर्पण किस चीज़ का
करेंगे.
मेजर जनरल गंधर्व नागरा ने बताया
था, "जैकब मुझसे कहने लगे कि इसको मनाओ कि यह कुछ तो सरेंडर करें. तो फिर
मैंने नियाज़ी को एक साइड में ले जा कर कहा कि अब्दुल्ला तुम एक तलवार
सरेंडर करो, तो वह कहने लगे पाकिस्तानी सेना में तलवार रखने का रिवाज नहीं
है. तो फिर मैंने कहा कि तुम सरेंडर क्या करोगे? तुम्हारे पास तो कुछ भी
नहीं है. लगता है तुम्हारी पेटी उतारनी पड़ेगी... या टोपी उतारनी पड़ेगी,
जो ठीक नहीं लगेगा. फिर मैंने ही सलाह दी कि तुम एक पिस्टल लगाओ ओर पिस्टल
उतार कर सरेंडर कर देना."
सरेंडर लंच
इसके
बाद सब लोग खाने के लिए मेस की तरफ़ बढ़े. ऑब्ज़र्वर अख़बार के गाविन यंग
बाहर खड़े हुए थे. उन्होंने जैकब से अनुरोध किया क्या वह भी खाना खा सकते
हैं. जैकब ने उन्हें अंदर बुला लिया.
वहाँ पर करीने से टेबुल लगी हुई
थी... काँटे और छुरी और पूरे ताम-झाम के साथ. जैकब का कुछ भी खाने का मन
नहीं हुआ. वह मेज़ के एक कोने में अपने एडीसी के साथ खड़े हो गए. बाद में
गाविन ने अपने अख़बार ऑब्ज़र्वर के लिए दो पन्ने का लेख लिखा ’सरेंडर लंच.’
चार
बजे नियाज़ी और जैकब जनरल अरोड़ा को लेने ढाका हवाई अड्डे पहुँचे. रास्ते
में जैकब को दो भारतीय पैराट्रूपर दिखाई दिए. उन्होंने कार रोक कर उन्हें
अपने पीछे आने के लिए कहा.
जैतूनी हरे रंग की मेजर जनरल की वर्दी
पहने हुए एक व्यक्ति उनका तरफ़ बढ़ा. जैकब समझ गए कि वह मुक्ति बाहिनी के
टाइगर सिद्दीकी हैं. उन्हें कुछ ख़तरे की बू आई. उन्होंने वहाँ मौजूद
पेराट्रूपर्स से कहा कि वह नियाज़ी को कवर करें और सिद्दीकी की तरफ़ अपनी
राइफ़लें तान दें.
जैकब ने विनम्रता पूर्वक
सिद्दीकी से कहा कि वह हवाई अड्डे से चले जाएं. टाइगर टस से मस नहीं हुए.
जैकब ने अपना अनुरोध दोहराया. टाइगर ने तब भी कोई जवाब नहीं दिया. जैकब ने
तब चिल्ला कर कहा कि वह फ़ौरन अपने समर्थकों के साथ हवाई अड्डा छोड़ कर चले
जाएं. इस बार जैकब की डाँट का असर हुआ.
साढ़े चार बजे अरोड़ा अपने
दल बल के साथ पाँच एम क्यू हेलिकॉप्टर्स से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे.
रेसकोर्स मैदान पर पहले अरोड़ा ने गार्ड ऑफ़ ऑनर का निरीक्षण किया.
अरोडा
और नियाज़ी एक मेज़ के सामने बैठे और दोनों ने आत्म समर्पण के दस्तवेज़ पर
हस्ताक्षर किए. नियाज़ी ने अपने बिल्ले उतारे और अपना रिवॉल्वर जनरल
अरोड़ा के हवाले कर दिया. नियाज़ी की आँखें एक बार फिर नम हो आईं.
अँधेरा
हो रहा था. वहाँ पर मौजूद भीड़ चिल्लाने लगी. वह लोग नियाज़ी के ख़ून के
प्यासे हो रहे थे. भारतीय सेना के वरिष्ठ अफ़सरों ने नियाज़ी के चारों तरफ़
घेरा बना दिया और उनको एक जीप में बैठा कर एक सुरक्षित जगह ले गए.
ढाका स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है
ठीक
उसी समय इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ़्तर में स्वीडिश टेलीविज़न को
एक इंटरव्यू दे रही थीं. तभी उनकी मेज़ पर रखा लाल टेलीफ़ोन बजा. रिसीवर पर
उन्होंने सिर्फ़ चार शब्द कहे....यस...यस और थैंक यू. दूसरे छोर पर जनरल
मानेक शॉ थे जो उन्हें बांग्लादेश में जीत की ख़बर दे रहे थे.
श्रीमती
गांधी ने टेलीविज़न प्रोड्यूसर से माफ़ी माँगी और तेज़ क़दमों से लोक सभा
की तरफ़ बढ़ीं. अभूतपूर्व शोर शराबे के बीच उन्होंने ऐलान किया- ढाका अब एक
स्वतंत्र देश की स्वतंत्र राजधानी है. बाक़ी का उनका वक्तव्य तालियों की
गड़गड़ाहट और नारेबाज़ी में डूब कर रह गया.
जब महेंद्रनाथ मुल्ला ने जल समाधि ली
1971 में हर जगह वाहवाही लूटने के बावजूद कम से कम एक मौक़ा ऐसा आया जब पाकिस्तानी नौसेना भारतीय नौसेना पर भारी पड़ी.
नौसेना
को अंदाज़ा था कि युद्ध शुरू होने पर पाकिस्तानी पनडुब्बियाँ मुंबई
बंदरगाह को अपना निशाना बनाएंगी. इसलिए उन्होंने तय किया कि लड़ाई शुरू
होने से पहले सारे नौसेना फ़्लीट को मुंबई से बाहर ले जाया जाए.
जब
दो और तीन दिसंबर की रात को नौसेना के पोत मुंबई छोड़ रहे थे तो उन्हें यह
अंदाज़ा ही नहीं था कि एक पाकिस्तानी पनडुब्बी पीएनएस हंगोर ठीक उनके नीचे
उन्होंने डुबा देने के लिए तैयार खड़ी थी.
उस
पनडुब्बी में तैनात लेफ़्टिनेंट कमांडर और बाद मे रियर एडमिरल बने तसनीम
अहमद याद करते हैं, "पूरा का पूरा भारतीय फ़्लीट हमारे सिर के ऊपर से
गुज़रा और हम हाथ मलते रह गए क्योंकि हमारे पास हमला करने के आदेश नहीं थे
क्योंकि युद्ध औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ था. कंट्रोल रूम में कई लोगों
ने टॉरपीडो फ़ायर करने के लिए बहुत ज़ोर डाला लेकिन हमने उनकी बात सुनी
नहीं. हमला करना युद्ध शुरू करने जैसा होता. मैं उस समय मात्र लेफ़्टिनेंट
कमांडर था. मैं अपनी तरफ़ से तो लड़ाई शुरू नहीं कर सकता था."
पाकिस्तानी
पनडुब्बी उसी इलाक़े में घूमती रही. इस बीच उसकी एयरकंडीशनिंग में कुछ
दिक्कत आ गई और उसे ठीक करने के लिए उसे समुद्र की सतह पर आना पड़ा.
36
घंटों की लगातार मशक्कत के बाद पनडुब्बी ठीक कर ली गई. लेकिन उसकी ओर से
भेजे संदेशों से भारतीय नौसेना को यह अंदाज़ा हो गया कि एक पाकिस्तानी
पनडुब्बी दीव के तट के आसपास घूम रही है.
नौसेना
मुख्यालय ने आदेश दिया कि भारतीय जल सीमा में घूम रही इस पनडुब्बी को
तुरंत नष्ट किया जाए और इसके लिए एंटी सबमरीन फ़्रिगेट आईएनएस खुखरी और
कृपाण को लगाया गया.
दोनों पोत अपने मिशन पर आठ दिसंबर को मुंबई से
चले और नौ दिसंबर की सुबह होने तक उस इलाक़े में पहुँच गए जहाँ पाकिस्तानी
पनडुब्बी के होने का संदेह था.
टोह लेने की लंबी दूरी की अपनी क्षमता
के कारण हंगोर को पहले ही खुखरी और कृपाण के होने का पता चल गया. यह दोनों
पोत ज़िग ज़ैग तरीक़े से पाकिस्तानी पनडुब्बी की खोज कर रहे थे.
हंगोर ने उनके नज़दीक आने का इंतज़ार किया. पहला टॉरपीडो उसने कृपाण पर चलाया. लेकिन टॉरपीडो उसके नीचे से गुज़र गया और फटा ही नहीं.
3000 मीटर से निशाना
यह टॉरपीडो 3000 मीटर की दूरी से फ़ायर किया गया था. भारतीय पोतों को अब हंगोर की स्थिति का अंदाज़ा हो गया था.
हंगोर के पास विकल्प थे कि वह वहाँ से भागने की कोशिश करे या दूसरा टॉरपीडो फ़ायर करे. उसने दूसरा विकल्प चुना.
तसनीम
अहमद याद करते हैं, "मैंने हाई स्पीड पर टर्न अराउंड करके खुखरी पर पीछे
से फ़ायर किया. डेढ़ मिनट की रन थी और मेरा टॉरपीडो खुखरी की मैगज़ीन के
नीचे जा कर एक्सप्लोड हुआ और दो या तीन मिनट के भीतर जहाज़ डूबना शुरू हो
गया."
खुखरी में परंपरा थी कि रात आठ बजकर 45 मिनट के समाचार सभी
इकट्ठा होकर एक साथ सुना करते थे ताकि उन्हें पता रहे कि बाहर की दुनिया
में क्या हो रहा है.
समाचार शुरू हुए, 'यह आकाशवाणी है, अब आप अशोक
बाजपेई से समाचार...' समाचार शब्द पूरा नहीं हुआ था कि पहले टारपीडो ने
खुखरी को हिट किया. कैप्टेन मुल्ला अपनी कुर्सी से गिर गए और उनका सिर लोहे
से टकराया और उनके सिर से ख़ून बहने लगा.
दूसरा धमाका होते ही पूरे पोत की बत्ती चली गई. कैप्टेन मुल्ला ने मनु शर्मा को आदेश दिया कि वह पता लगाएं कि क्या हो रहा है.
मनु ने देखा कि खुखरी में दो छेद हो चुके थे और उसमें तेज़ी से पानी भर रहा था. उसके फ़नेल से लपटें निकल रही थीं.
उधर
सब लेफ़्टिनेंट समीर काँति बसु भाग कर ब्रिज पर पहुँचे. उस समय कैप्टेन
मुल्ला चीफ़ योमेन से कह रहे थे कि वह पश्चिमी नौसेना कमान के प्रमुख को
सिग्नल भेजें कि खुखरी पर हमला हुआ है.
बसु इससे पहले कि कुछ समझ
पाते कि क्या हो रहा है पानी उनके घुटनों तक पहुँच गया था. लोग जान बचाने
के लिए इधर उधर भाग रहे थे. खुखरी का ब्रिज समुद्री सतह से चौथी मंज़िल पर
था. लेकिन मिनट भर से कम समय में ब्रिज और समुद्र का स्तर बराबर हो चुका
था.
कैप्टेन मुल्ला ने बसु की तरफ़ देखा और कहा, 'बच्चू नीचे उतरो.'
बसु पोत के फ़ौलाद की सुरक्षा छोड़ कर अरब सागर की भयानक लहरों के बीच कूद
गए.
समुद्र का पानी बर्फ़ से भी ज़्यादा ठंडा था और समुद्र में पाँच-छह फ़ीट ऊँची लहरें उठ रही थीं.
मुल्ला ने जहाज़ छोड़ने से इनकार किया
उधर
मनु शर्मा और लेफ़्टिनेंट कुंदनमल भी ब्रिज पर कैप्टेन मुल्ला के साथ थे.
मुल्ला ने उनको ब्रिज से नीचे धक्का दिया. उन्होंने उनको भी साथ लाने की
कोशिश की लेकिन उन्होंने इनकार कर दिया.
जब मनु शर्मा ने समुद्र में छलांग लगाई तो पूरे पानी में आग लगी हुई थी और उन्हे सुरक्षित बचने के लिए आग के नीचे से तैरना पड़ा.
थोड़ी
दूर जाकर मनु ने देखा कि खुखरी का अगला हिस्सा 80 डिग्री को कोण बनाते हुए
लगभग सीधा हो गया है. पूरे पोत मे आग लगी हुई है और कैप्टेन मुल्ला अपनी
सीट पर बैठे रेलिंग पकड़े हुए हैं और उनके हाथ में अब भी जली हुई सिगरेट
है.
जब अंतत: खुखरी डूबा तो बहुत ज़बरदस्त सक्शन प्रभाव हुआ और वह अपने साथ कैप्टेन मुल्ला समेत सैकड़ों नाविकों और मलबे को नीचे ले गया.
चारों तरफ़ मदद के लिए शोर मचा हुआ था लेकिन जब खुखरी आँखों से ओझल हुआ तो शोर कुछ देर के लिए थम सा गया.
बचने वालों की आँखे जल रही थीं. समुद्र में तेल फैला होने के कारण लोग उल्टियाँ कर रहे थे.
खुखरी
के डूबने के 40 मिनट बाद लेफ़्टिनेंट बसु को कुछ दूरी पर कुछ रोशनी दिखाई
दी. उन्होंने उसकी तरफ़ तैरना शुरू कर दिया. जब वह उसके पास पहुँचे तो
उन्होंनें पाया कि वह एक लाइफ़ राफ़्ट थी जिसमें 20 लोग बैठ सकते थे.
एक-एक कर 29 लोग उन 20 लोगों की क्षमता वाली राफ़्ट पर चढ़े. उस समय रात के दस बज चुके थे. अब उम्मीद थी कि शायद ज़िंदगी बच जाए.
राफ़्ट हवा और लहरों के साथ हिचकोले खाती रही. भाग्यवश राफ़्ट पर पीने का पानी और खाने के लिए चॉकलेट्स और बिस्कुट थे.
अगले
दिन सुबह क़रीब 10 बजे उन्होंने अपने ऊपर एक हवाई जहाज़ को उड़ते देखा.
उन्होंने अपनी कमीज़ें हिला कर और लाल रॉकेट फ़्लेयर्स फ़ायर कर उसका ध्यान
आकर्षित करने की कोशिश की. लेकिन जहाज़ वापस चला गया.
थोड़ी देर बाद
दो और विमान आते दिखाई दिए. सब लेफ़्टिनेंट बसु और अहलुवालिया ने फिर वही
ड्रिल दोहराई. इस बार विमान ने उनको देख लिया. लेकिन वह वापस चला गया.
थोड़ी
देर बाद उन्हें क्षितिज पर पानी के जहाज़ के तीन मस्तूल दिखाई दिए. यह
जहाज़ आईएनएस कछाल था जिसे कैप्टेन ज़ाडू कमांड कर रहे थे.
एक-एक कर सभी नाविकों को जहाज़ पर चढ़ाया गया. बचने वालों की संख्या थी 64. सभी को गर्म कंबल और गरमा-गरम चाय दी गई.
इन
लोगों ने पूरे 14 घंटे खुले आसमान में समुद्री लहरों को बीच बिताए थे.
लेकिन इस बीच एक घायल नाविक टॉमस की मौत हो गई. उसके पार्थिव शरीर के
तिरंगे में लिपटा कर उसे समुद्र में ही दफ़ना दिया गया.
कुल मिला कर भारत के 174 नाविक और 18 अधिकारी इस ऑपरेशन में मारे गए.
अगले
कई दिनों तक भारतीय नौसेना हंगोर की तलाश में जुटी रही. हंगोर पर सवार एक
नाविक के अनुसार भारतीय नौसेना ने हंगोर पर 156 डेप्थ चार्ज हमले किए,
लेकिन यह पनडुब्बी इन सबसे बचते हुए 16 दिसंबर को सुरक्षित कराची पहुँची.
दोनों कमांडरों को वीरता पदक
इस मुक़ाबले में दोनों कमांडरों को उनके देश का दूसरा सर्वोच्च वीरता पुरस्कार मिला.
कैप्टेन
महेंद्रनाथ मुल्ला ने नौसेना की सर्वोच्च परंपरा का निर्वाह करते हुए अपना
जहाज़ नहीं छोड़ा और जल समाधि ली. उनकी इस वीरता के लिए उन्हें मरणोपरांत
महावीर चक्र दिया गया.
तसनीम अहमद को खुखरी को डुबाने के लिए
पाकिस्तान की तरफ़ से सितार-ए-जुर्रत से सम्मानित किया गया. दूसरे विश्व
युद्ध के बाद यह पहला मौक़ा था, जब किसी पनडुब्बी ने किसी पोत को डुबोया
था.
बाद में 1982 मे फ़ॉकलैंड युद्ध में ब्रिटेन ने 1982 में
अर्जेंटीना के पोत एआरए जनरल बेग्रानो को परमाणु पनडुब्बी काँकरर के ज़रिए
डुबोया था.
हिली की सबसे ख़ूनी लड़ाई
मेजर जनरल लक्षमण सिंह दूसरे विश्व युद्ध मे भाग ले चुके हैं और अपने
40 साल के सैनिक करियर में उन्हे कई लड़ाइयों में भाग लेने का अनुभव है.
वह 1971 में 20वीं पर्वतीय डिवीजन के कमांडर थे जिन्होंने हिली की लड़ाई में हिस्सा लिया था.
इस
लड़ाई को 1971 की सबसे ख़ूनी लड़ाई कहा जाता है. मानेक शॉ और जगजीत सिंह
अरोड़ा चाहते थे कि भारतीय फ़ौज हिली पर कब्ज़ा करे ताकि पूर्वी पाकिस्तान
में मौजूद पाकिस्तानी सेना को दो हिस्सों में बाँटा जा सके.
लक्ष्मण
सिंह और उनके कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल थापन दोनों इस हमले के ख़िलाफ़ थे,
क्योंकि उन्हें पता था कि पाकिस्तान ने वहाँ ज़बरदस्त मोर्चाबंदी कर रखी
है. अगर भारत हमला करता है, तो ज़बरदस्त घमासान होगा और बहुत से लोग हताहत
होंगे.
पाकिस्तानी बलों की कमान थी
ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक के हाथ में, जिन्होंने चार दिन पहले ही वहाँ
का चार्ज लिया था. वह पश्चिमी पाकिस्तान में सेना मुख्यालय में तैनात थे
और उन्होंने ख़ुद इच्छा प्रकट की थी कि वह पूर्वी पाकिस्तान में लड़ने जाना
चाहेंगे.
इस लड़ाई की शुरुआत युद्ध की औपचारिक घोषणा से 10 दिन पहले 23 नवंबर को ही हो गई थी.
पाकिस्तानी ब्रिगेडियर तजम्मुल हुसैन मलिक ने पूरी भारतीय डिवीजन और मुक्ति बाहिनी के सैनिकों का सामना किया.
पहले
ही हमले में भारत के 150 सैनिक मारे गए. कड़ा प्रतिरोध होता देख भारत ने
अपनी रणनीति बदली और उन्होंने हिली को बाईपास कर पाकिस्तानी बलों के पीछे
ठिकाना बना कर उनपर दोतरफ़ा हमला शुरू कर दिया.
इस लड़ाई में भारतीय
सेना के इंजीनयरों ने ख़ासा महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. फुलवारी की
महत्वपूर्ण रेलवे लाइन के पास जब भारतीय सैनिक पहुँचे तो उन्होंने पाया कि
पाकिस्तानियों ने पूरी की पूरी रेलवे लाइन उड़ा दी है और भारतीय सेना के
भारी औज़ार ज़मीन में धंस रहे हैं.
सेना के
इंजीनयरों ने स्थानीय लोगों की मदद से लगातार 48 घंटे काम कर रेलवे ट्रैक
को एक मोटर चलने लायक़ सड़क में तब्दील कर दिया. जब उस सड़क से होकर भारतीय
तोपें वहाँ पहुँचीं तो पाकिस्तानी सैनिक दंग रह गए.
भैंसों के सींग में तोपें
लक्ष्मण
सिंह याद करते हैं, "मुझे याद है, हमने एक पाकिस्तानी सिपाही को वायरलेस
पर अपने अफ़सर को कहते सुना कि भारतीय तोपों से हमला कर रहे हैं. अफ़सर ने
कहा कि वह बकवास न करे. ऐसा कैसे हो सकता है? इतने बड़े दलदल और बारूदी
सुरंगों के बीच भारतीय अपनी तोपें कैसे ला सकते हैं? वह भैंसे होंगीं.
पाकिस्तानी जवान ने जवाब दिया, सर तब यह समझिए कि इन भैंसों के सींगों में
100 एमएम की तोपें लगी हुई हैं और वह एक-एक करके हमारे बंकरों को ध्वस्त कर
रहे हैं."
ढाका में पाकिस्तानी सेना के हथियार डालने के बाद भी मलिक
ने हार नहीं मानी. वह अपना जीप में घूम-घूम कर अपने सैनिकों को लड़ने के
लिए प्रोत्साहित करते रहे.
जब वह चारों तरफ़
से घेर लिए गए तो उन्होंने अपनी ब्रिगेड को आदेश दिया कि वह छोटे-छोटे
टुकड़ों में बंट कर नौगांव की तरफ़ बढ़ने की कोशिश करें, जहाँ अब भी कुछ
पाकिस्तानी सैनिक प्रतिरोध कर रहे थे.
लेकिन रास्ते में मुक्ति
बाहिनी के सैनिकों ने उनकी जीप पर गोलियाँ चलाईं, जिसमें मलिक बुरी तरह से
घायल हो गए और उनका अर्दली मारा गया. मुक्ति बाहिनी ने उन्हे भारतीय सेना
के हवाले करने से पहले काफ़ी यातनाएं दीं.
लक्षमण सिंह ने आदेश दिया
कि घायल मलिक को उनके सामने पेश किया जाए. लक्ष्मण ने उनसे पूछा कि भागने
का ख़याल आपके मन में कैसे आया. आपके गोरे रंग को देखते हुए लोगों को तो
पता चल ही जाना था कि तुम पाकिस्तानी हो.
मलिक ने जवाब दिया, "आप ही
जो सिखाते हैं कि किसी हालत में क़ैद नहीं होना चाहिए और भागने की कोशिश
करनी चाहिए. आप सीनियर ऑफ़िसर हैं. आप ही बताओ मैं क्या करता."
लक्षमण ने जवाब दिया भागने का विकल्प तभी चुनना चाहिए जब सफलता की काफ़ी गुंजाइश हो.
मलिक
को पकड़ भले ही लिया गया हो लेकिन उन्होंने ख़ुद हथियार नहीं डाले.
ब्रिगेड का आत्मसमर्पण कराने के लिए मेजर जनरल नज़र अली शाह को ख़ास तौर से
नटौर से हेलिकॉप्टर से लाया गया.
लक्ष्मण सिंह याद करते हैं कि जनरल
शाह इतने मोटे थे कि हेलिकॉप्टर की सीट बेल्ट उन्हें फ़िट नहीं आई और
उन्हें बैठाने के लिए दो सीट बेल्टों का इस्तेमाल करना पड़ा.
ब्रिगेडियर मलिक पाकिस्तानी सेना के अकेले अधिकारी थे जिन्हें बांग्लादेश से वापस आने के बाद पदोन्नति दे कर मेजर जनरल बनाया गया.
अद्वितीय बटालियन कमांडर
मैंने मेजर जनरल लक्ष्मण सिंह से पूछा कि आप ब्रिगेडियर मलिक को एक सैनिक कमांडर के रूप में किस तरह रेट करेंगे?
लक्ष्मण
सिंह का जवाब था, "बटालियन कमांडर के रूप में वह अद्वितीय थे. उन्होंने न
सिर्फ़ दूसरों को लड़ने के लिए प्रेरित किया बल्कि ख़ुद भी जी-जान से
लड़े. लेकिन उनमें दूरदृष्टि नहीं थी. जैसे उन्होंने मुझसे कहा कि नवंबर
में जो आपने हमला किया था उसके बाद तो आप डर ही गए. इधर उधर दौड़ते रहे और
सड़कें काटने की कोशिश करते रहे. मैंने उनसे कहा तजम्मुल, सेना में
प्लानिंग जैसी भी कोई चीज़ होती है. हमने हमला इसलिए किया कि तुम सब हिली
में जमा हो जाओ और बाक़ी मोर्चे कमज़ोर हो जाएं. आप लोग हिली में बैठे रहे
और हमने 50 मील पीछे जा कर मुख्य सड़क काट दी. इस सबके लिए एक अच्छा दिमाग़
चाहिए. अगर तुम्हारा डिवीजनल कमांडर अच्छा होता तो शायद तुम्हारा यह हश्र
नहीं होता."
हिली की लड़ाई इसलिए भी
महत्वपूर्ण थी, क्योंकि इसमें दोनों पक्षों ने असीम निजी वीरता का परिचय
दिया. लाँस नायक एल्बर्ट एक्का को मरणोपरांत भारत का सबसे बड़ा वीरता
पुरस्कार परमवीर चक्र मिला.
पाकिस्तान की तरफ से मेजर मोहम्मद अकरम को उनकी बहादुरी के लिए सर्वोच्च वीरता पुरस्कार निशान-ए-हैदर दिया गया.
रेहान फ़ज़ल-बीबीसी संवाददाता
(साभार-बीबीसी-हिन्दी)