नमस्कार,
आज की इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम-आप बहुत कुछ पीछे छोड़कर आगे बढ़ते जाते हैं. हम अपने समाज में हो रहे सामजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक बदलावों से या तो अनजान रहते हैं या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश करते हैं. हमारी यह प्रवृत्ति हमारे परिवार, समाज और देश के लिए घातक साबित हो सकती है. अपने इस चिट्ठे (Blog) "समाज की बात - Samaj Ki Baat" में इन्हीं मुद्दों से सम्बंधित विषयों का संकलन करने का प्रयास मैंने किया है. आपके सुझावों का हार्दिक स्वागत रहेगा...कृष्णधर शर्मा - 9479265757

रविवार, 26 जनवरी 2014

बीजगणित

बीजगणित (algebra) गणित की वह शाखा जिसमें संख्याओं के स्थान पर चिन्हों का प्रयोग किया जाता है।
बीजगणित चर तथा अचर राशियों के समीकरण को हल करने तथा चर राशियों के मान निकालने पर आधारित है । बीजगणित के विकास के फलस्वरूप निर्देशांक ज्यामिति व कैलकुलस का विकास हुआ जिससे गणित की उपयोगिता बहुत बढ़ गयी। इससे विज्ञान और तकनीकी के विकास को गति मिली।
महान गणितज्ञ भास्कर द्वितीय ने कहा है -
पूर्व प्रोक्तं व्यक्तमव्यक्तं वीजं प्रायः प्रश्नानोविनऽव्यक्त युक्तया।
ज्ञातुं शक्या मन्धीमिर्नितान्तः यस्मान्तस्यद्विच्मि वीज क्रियां च ।
अर्थात् मंदबुद्धि के लोग व्यक्ति गणित (अंकगणित) की सहायता से जो प्रश्न हल नहीं कर पाते हैं, वे प्रश्न अव्यक्त गणित (बीजगणित) की सहायता से हल कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में, बीजगणित से अंकगणित की कठिन समस्याओं का हल सरल हो जाता है।
बीजगणित से साधारणतः तात्पर्य उस विज्ञान से होता है, जिसमें संख्याओं को अक्षरों द्वारा निरूपित किया जाता है। परंतु संक्रिया चिह्न वही रहते हैं, जिनका प्रयोग अंकगणित में होता है। मान लें कि हमें लिखना है कि किसी आयत का क्षेत्रफल उसकी लंबाई तथा चौड़ाई के गुणनफल के समान होता है तो हम इस तथ्य को निमन प्रकार निरूपित करेंगे—
क्ष = ल x च
बीजगणिति के आधुनिक संकेतवाद का विकास कुछ शताब्दी पूर्व ही प्रारंभ हुआ है; परंतु समीकरणों के साधन की समस्या बहुत पुरानी है। ईसा से 2000 वर्ष पूर्व लोग अटकल लगाकर समीकरणों को हल करते थे। ईसा से 300 वर्ष पूर्व तक हमारे पूर्वज समीकरणों को शब्दों में लिखने लगे थे और ज्यामिति विधि द्वारा उनके हल ज्ञात कर लेते थे।

बीजगणित की शाखाएँ तथा क्षेत्र

आज बीजगणित में केवल समीकरणों का ही समावेश नहीं होता, इसमें बहुपद, सतत भिन्न, अनंत गुणनफल, संख्या अनुक्रम, रूप, सारणिक, श्रेणिक आदि अनेक प्रकरणों का अध्ययन किया जाता है।
बीजगणित को प्रायः निम्नलिखित श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
  • प्रारम्भिक बीजगणित ( Elementary algebra) यह प्रायः स्कूलों में 'बीजगणित' के नाम से पढ़ाया जाता है। विश्वविद्यालय स्तर पर पढ़ाया जाने वाला 'ग्रुप सिद्धान्त' भी प्रारम्भिक बीजगणित कहा जा सकता है।
  • अमूर्त बीजगणित (Abstract algebra) - इसे कभी-कभी 'आधुनिक बीजगणित' भी कहा जाता है। इसके अन्तर्गत ग्रुप्स, रिंग्स, फिल्ड्स आदि बीजगणितीय संरचनाएँ इसके अन्तर्गत सिखाई जाती हैं।
  • रैखिक बीजगणित (Linear algebra) - इसमें सदिश स्पेस के गुणों का अध्ययन किया जाता है। मैट्रिक्स भी इसी के अन्तर्गत आता है।
  • सर्वविषयक बीजगणित (Universal algebra) - इसमें सभी प्रकार के बीजगणितीय संरचनाओं (algebraic structures) के सर्वनिष्ट (कॉमन) गुणों का अध्ययन किया जाता है।
  • बीजगणितिय संख्या सिद्धांत (Algebraic number theory) - इसमें संख्याओं के गुणों का अध्ययन बीजगणितीय पद्धति से किया जाता है। संख्या सिद्धान्त ने ही बीजगणित में अमूर्तिकरन का बीज बोया।
  • बीजगणितीय ज्यामिति (Algebraic geometry) - यह ज्यामितीय समस्याओं पर अमूर्त बिजगणित का प्रयोग करती है।
  • बीजगणितीय संयोजिकी (Algebraic combinatorics) - इसके अन्तर्गत संयोजिकी (क्रमचय-संचय) के प्रश्नों के हल के लिये अमूर्त बीजगणित का प्रयोग किया जाता है।

इतिहास

बीजगणित के जिस प्रकरण में अनिर्णीत समीकरणों का अध्ययन किया जाता है, उसका पुराना नाम 'कुट्टक' है। हिंदू गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त ने उक्त प्रकरण के नाम पर ही इस विज्ञान का नाम सन् 628 ई. में ‘कुट्टक गणित’ रखा। बीजगणित का सबसे प्राचीन नाम यही है। सन् 860 ई. में पृथूदक स्वामी ने इसका नाम ‘बीजगणित’ रखा। ‘बीज’ का अर्थ है ‘तत्त्व’। अतः ‘बीजगणित’ के नाम से तात्पर्य है ‘वह विज्ञान, जिसमें तत्त्वों द्वारा परिगणन किया जाता है’।
अंकगणित में समस्त संकेतों का मान विदित रहता है। बीजगणित में व्यापक संकेतों से काम लिया जाता है, जिसका मान आरंभ में अज्ञात रहता है। इसलिए इन दोनों विज्ञानों के अन्य प्राचीन नाम व्यक्त गणित और अव्यक्त गणित भी हैं। अंग्रेजी में बीजगणित को 'अलजब्रा' (Algebra) कहते हैं। यह नाम अरब देश से आया है। सन् 825 ई. में अरब के गणितज्ञ ‘अल् ख्वारिज्मी’ ने एक गणित की पुस्तक की रचना की, जिसका नाम था ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’। अरबी में ‘अल-जब्र’ और फारसी में ‘मुकाबला’ समीकरण को ही कहते हैं। अतः संभवतः लेखक ने अरबी तथा फारसी भाषाओं के ‘समीकरण’ के पर्यावाची नामों को लेकर पुस्तक का नाम ‘अल-जब्र-वल-मुकाबला’ रखा। यूनानी गणित के स्वर्णिम युग में अलजब्रा का आधुनिक अर्थ में नामोनिशान तक नहीं था।
यूनानी लोग बीजगणित के अनेक कठिन प्रश्नों को हल करने की योग्यता तो रखते थे, परंतु उनके सभी हल ज्यामितीय होते थे। वहाँ बीजगणित हल सर्वप्रथम डायफ्रैंटस (लगभग 275 ई.) के ग्रंथों में देखने को मिलते हैं; जबकि इस काल में भारतीय लोग बीजगणित के क्षेत्र में अन्य राष्ट्रों से बहुत आगे थे। ईसा से 500 वर्ष पूर्व गणित के विकास में जैनाचार्यों का श्लाघनीय योगदान रहा है। इस काल की प्रमुख कृतियाँ ‘सूर्य प्रज्ञप्ति’ तथा ‘चंद्र प्रज्ञप्ति’ जैन धर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रंथ हैं। इन ग्रंथों की संख्या-लेखक-पद्धति, भिन्नराशिक व्यवहार तथा मिश्रानुपात, बीजगणित समीकरण एवं इनके अनुप्रयोग, विविध श्रेणियाँ, क्रमचय-संचय, घातांक, लघुगणक के नियम, समुच्चय सिद्धांत आदि अनेक विषयों पर विशद् प्रकाश डाला गया है। जॉन नेपियर (1550-1617 ई.) के बहुत पहले लघुगणक का आविष्कार एवं विस्तृत अनुप्रयोग भारत में हो चुका था, जो सार्वभौम सत्य है।
पूर्व-मध्यकाल (500 ई. पू. से 400 ई. तक) में भक्षाली गणित, हिंदू गणित की एकमात्र लिखित पुस्तक है, जिसका काल ईसा की प्रारंभिक शताब्दी माना गया है। इस पुस्तक में इष्टकर्म में अव्यक्त राशि कल्पित की गई है। गणितज्ञों की मान्यता है कि इष्टकर्म ही बीजगणित के विस्तार का आदि-स्रोत है। 628 ई. काल में ब्रह्मगुप्त ने ब्रह्मस्फुट सिद्धांत के 25 अध्यायों में से 2 अध्यायों में गणितीय सिद्धांतों एवं विधियों का विस्तृत वर्णन किया है। उन्होंने गणित की 20 क्रियाओं तथा 8 व्यवहारों पर प्रकाश डाला है। बीजगणित में समीकरण साधनों के नियमों का उल्लेख किया तथा अनिर्धार्य द्विघात समीकरण (Indeterminate quadratic equations) का समाधान भी बताया, जिसे आयलर (Euler) ने 1764 ई. में और लांग्रेज ने 1768 ई. में प्रतिपादित किया। मध्ययुग के अद्वितीय गणितज्ञ भास्कराचार्य द्वितीय ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक सिद्धान्तशिरोमणि (लीलावती, बीजगणित, गोलाध्याय, ग्रहगणितम्) एवं करण कुतूहल में गणित की विभिन्न शाखाओं तथा अंकगणित, बीजगणित, त्रिकोणमिति आदि को एक प्रकार से अंतिम रूप दिया है।
वेदों में जो सिद्धांत सूत्र रूप में थे, उनकी पूर्ण अभिव्यक्ति भास्कराचार्य की रचना में हुई है। इनमें ब्रह्मगुप्त द्वारा बताई गई 20 प्रक्रियाओं और 8 व्यवहारों का अलग-अलग विवरण और उनमें प्रयोग में लाई जानेवाली विधियों का प्रतिपादन सुव्यवस्थित और सुसाध्य रूप से किया गया है। लीलावती में संख्या पद्धति का जो आधारभूत एवं सृजनात्मक प्रतिपादन किया गया है, वह आधुनिक अंकगणित तथा बीजगणित की रीढ़ है।

बीजगणित (संस्कृत ग्रन्थ) 

बीजगणित , भास्कर द्वितीय की रचना है। इसमें बीजगणित (algebra) की चर्चा है। यह सिद्धान्तशिरोमणि का द्वितीय भाग है। अन्य भाग हैं - लीलावती, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय ।
इस ग्रन्थ में भास्कराचार्य ने अनिर्धार्य द्विघात समीकरणों के हल की चक्रवाल विधि दी है। यह विधि जयदेव की विधि का भी परिष्कृत रूप है। जयदेव ने ब्रह्मगुप्त द्वारा दी गयी अनिर्धार्य द्विघात समीकरणों के हल की विधि का सामान्यीकरण किया था।
यह विश्व की पहली पुस्तक है जिसमें स्पष्ट उल्लेख है कि धनात्मक संख्याओं के दो वर्गमूल होते हैं।

संरचना

इसमें बारह अध्याय हैं।
इस ग्रन्थ मे निम्नलिखित उपविषय हैं-
  • धनात्मक एवं ऋणात्मक संख्याएँ
  • शून्य
  • अज्ञात राशि एवं उसका मान निकालना
  • करणी एवं करणियों का मान निकालना
  • कुट्टक ( अनिर्धार्य समीकरण (Indeterminate equations)तथा डायोफैण्टाइन समीकरण)
  • साधारण समीकरण (द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ घात के अनिर्धार्य समीकरण)
  • एक से अधिक अज्ञात राशि वाले सरल समीकरण
  • अनिर्धार्य वर्ग समीकरण ( ax² + b = y² की तरह के).
  • द्वितीय, तृतीय एवं चतुर्थ घात के अनिर्धार्य समीकरणों के हल
  • वर्ग समीकरण
  • एक से अधिक अज्ञात राशि वाले वर्ग समीकरण

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ

हिंदी में नाटकों का प्रारंभ भारतेन्दु हरिश्चंद्र से माना जाता है। उस काल के भारतेन्दु तथा उनके समकालीन नाटककारों ने लोक चेतना के विकास के लिए नाटकों की रचना की इसलिए उस समय की सामाजिक समस्याओं को नाटकों में अभिव्यक्त होने का अच्छा अवसर मिला।
जैसा कि कहा जा चुका है, हिन्दी में अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच के निर्माण का श्रीगणेश आगाहसन ‘अमानत’ लखनवी के ‘इंदर सभा’ नामक गीति-रूपक से माना जा सकता है। पर सच तो यह है कि ‘इंदर सभा’ की वास्तव में रंगमंचीय कृति नहीं थी। इसमें शामियाने के नीचे खुला स्टेज रहता था। नौटंकी की तरह तीन ओर दर्शक बैठते थे, एक ओर तख्त पर राजा इंदर का आसन लगा दिया जाता था, साथ में परियों के लिए कुर्सियाँ रखी जाती थीं। साजिंदों के पीछे एक लाल रंग का पर्दा लटका दिया जाता था। इसी के पीछे से पात्रों का प्रवेश कराया जाता था। राजा इंदर, परियाँ आदि पात्र एक बार आकर वहीं उपस्थित रहते थे। वे अपने संवाद बोलकर वापस नहीं जाते थे।
उस समय नाट्यारंगन इतना लोकप्रिय हुआ कि अमानत की ‘इंदर सभा’ के अनुकरण पर कई सभाएँ रची गई, जैसे ‘मदारीलाल की इंदर सभा’, ‘दर्याई इंदर सभा’, ‘हवाई इंदर सभा’ आदि। पारसी नाटक मंडलियों ने भी इन सभाओं और मजलिसेपरिस्तान को अपनाया। ये रचनाएँ नाटक नहीं थी और न ही इनसे हिन्दी का रंगमंच निर्मित हुआ। इसी से भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इनको 'नाटकाभास' कहते थे। उन्होंने इनकी पैरोडी के रूप में ‘बंदर सभा’ लिखी थी।

हिन्दी रंगमंच और भारतेन्दु हरिश्चंद्र

इस प्रकार भारतेन्दु से पूर्व हिन्दी रंगमंच और नाट्य-रचना के व्यावसायिक तथा अव्यावसायिक साहित्यिक प्रयास तो हुए पर हिन्दी का वास्तविक और स्थायी रंगमंच निर्मित और विकसित नहीं हो पाया था। सन् 1850 ई. से सन् 1868 ई. तक हिन्दी रंगमंच का उदय और प्रचार-प्रसार तो हुआ पर उसका सुरुचिपूर्ण विकास और स्थायी निर्माण नहीं हो सका था। पारसी नाटक मंडलियों के अतिरिक्त कुछ और भी छुटपुट व्यावसायिक मंडलियाँ विभिन्न स्थानों पर निर्मित हुईं पर साहित्यिक सुरुचि सम्पन्नता का उनमें भी अभाव ही रहा।
व्यावसायिक मंडलियों के प्रयत्न में हिन्दी रंगमंच की जो रूपरेखा बनी थी, प्रचार और प्रसार का जो काम हुआ था तथा इनके कारण जो कुछ अच्छे नाटककार हिन्दी को मिले थे-उस अवसर और परिस्थिति का लाभ नहीं उठाया जा सका था।
भारतेन्दु के नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुंदर (१८६७) नाटक के अनुवाद से होती है। यद्यपि नाटक उनके पहले भी लिखे जाते रहे किंतु नियमित रूप से खड़ीबोली में अनेक नाटक लिखकर भारतेन्दु ने ही हिंदी नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया। भारतेन्दु के पूर्ववर्ती नाटककारों में रीवा नरेश विश्वनाथ सिंह (१८४६-१९११) के बृजभाषा में लिखे गए नाटक 'आनंद रघुनंदन' और गोपालचंद्र के 'नहुष' (१८४१) को अनेक विद्वान हिंदी का प्रथम नाटक मानते हैं। यहाँ यह जानना रोचक हो सकता है कि गोपालचंद्र, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के पिता थे।
हिन्दी के विशुद्ध साहित्यिक रंगमंच और नाट्य-सृजन की परम्परा की दृष्टि से सन् 1868 ई. का बड़ा महत्त्व है। भारतेन्दु के नाटक-लेखन और मंचीकरण का श्रीगणेश इसी वर्ष हुआ। इसके पूर्व न तो पात्रों के प्रवेश-गमन, दृश्य-योजना आदि से युक्त कोई वास्तविक नाटक हिन्दी में रचा गया था। भारतेन्दु के पिता गोपालचन्दर चित ‘नहुष’ तथा महाराज विश्वनाथसिंह रचित ‘आनंदरघुनंदन’ भी पूर्ण नाटक नहीं थे, न पर्दों और दृश्यों आदि की योजना वाला विकसित रंगमंच ही निर्मित हुआ था; नाट्यारंगन के अधिकतर प्रयास भी अभी तक मुंबई आदि अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही हुए थे और भाषा का स्वरूप भी हिन्दी-उर्दू का मिश्रित खिचड़ी रूप ही था।
3 अप्रैल, सन् 1868 को पं. शीतल प्रसाद रचित ‘जानकी मंगल’ नाटक का अभिनय ‘बनारस थियेटर’ में आयोजित किया था। कहते हैं कि जिस लड़के को लक्ष्मण का अभिनय पार्ट करना था वह अचानक उस दिन बीमार पड़ गया। लक्ष्मण के अभिनय की समस्या उपस्थित हो गई और उस दिन युवक भारतेन्दु स्थिति को न सँभालते तो नाट्यायोजन स्थगित करना पड़ता। भारतेन्दु ने एक-डेढ़ घंटे में ही न केवल लक्ष्मण की अपनी भूमिका याद कर ली अपितु पूरे ‘जानकी मंगल’ नाटक को ही मस्तिष्क में जमा लिया। भारतेन्दु ने अपने अभिजात्य की परवाह नहीं की।
उन दिनों उच्च कुल के लोग अभिनय करना अपनी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं समझते थे। इस प्रकार इस नाटक से भारतेन्दु ने रंगमंच पर सक्रिय भाग लेना आरम्भ किया। इसी समय-उन्होंने नाट्य-सृजन भी आरम्भ किया।
भारतेन्दु ने सन् 1868 ई. से सन् 1885 ई. तक अपने स्वल्प और अत्यन्त व्यस्त जीवन से शेष 17 वर्षों में अनेक नाटकों का सृजन किया, अनेक नाटकों में स्वयं अभिनय किया, अनेक रंगशालाएँ निर्मित कराईं और हिन्दी रंगमंच के स्थापन का स्तुत्य प्रयास किया। यही नहीं, भारतेन्दु के अनेक लेखकों और रंगकर्मियों को नाट्य-सृजन और अभिनय के लिए प्रेरित किया। भारतेन्दु के सदुद्योग एवं प्रेरणा से काशी, प्रयाग, कानपुर आदि कई स्थानों पर हिन्दी का अव्यावसायिक साहित्यिक रंगमंच स्थापित हुआ।
भारतेन्दु के ही जीवन काल में ये कुछ रंग-संस्थाएँ स्थापित हो चुकी थीं :
(1) काशी में भारतेन्दु के संरक्षण में नेशनल थियेटर की स्थापना हुई। भारतेन्दु अपना ‘अंधेर नगरी’ प्रहसन इसी थियेटर के लिए एक ही रात में लिखा था,
(2) प्रयाग में ‘आर्य नाट्यसभा’ स्थापित हुई जिसमें लाला श्रीनिवासदास का ‘रंगधीर प्रेममोहिनी’ प्रथम बार अभिनीत हुआ था,
(3) कानपुर में भारतेन्दु के सहयोगी पं. प्रतापनारायण मिश्र ने हिन्दी रंगमंच का नेतृत्व किया और भारतेन्दु के ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’, ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘भारत-दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ आदि नाटकों का अभिनय कराया।
इनके अतिरिक्त बलिया, डुमराँव, लखनऊ आदि उत्तर प्रदेश के कई स्थानों और बिहार प्रदेश में भी हिन्दी रंगमंच और नाट्य-सृजन की दृढ़ परम्परा का निर्माण हुआ।

प्रेरणा-स्रोत

भारतेन्दु और उनके सहयोगी लेखकों ने नाट्य-सृजन की प्रेरणा कहाँ-कहाँ से प्राप्त की, यह प्रश्न पर्याप्त महत्त्व का है। इस प्रश्न का महत्त्व इस दृष्टि से और भी बढ़ जाता है, जब हम देखते हैं कि हिन्दी में नाट्य-रचना का सूत्रपात भारतेन्दु की ही नव-प्रवर्तनकारी प्रतिभा से हुआ। यद्यपि भारतेन्दु से पूर्व नाट्य-शैली में कुछ सृजन-प्रयास हुए थे, पर नाटक के वास्तविक रूप का उद्भव सर्वप्रथम भारतेन्दु की ही लेखिनी से हुआ। अस्तु, जब हिन्दी में इस साहित्यि-विधा का अभाव था, तो भारतेन्दु ने नाट्य-सृजन की प्रेरणा कहाँ से ली ?
साहित्यिक प्रेरणा
साहित्यिक प्रेरणा की खोज की जाय तो कहा जा सकता है कि भारतेन्दु ने संस्कृत तथा प्राकृत की पूर्ववर्ती भारतीय नाट्य-परम्परा और बँगला की समसामयिक नाट्यधारा के साथ अंग्रेजी प्रभाव-धारा से प्रेरणा ली। यद्यपि हमारे यहाँ भास, कालीदास, भवभूति, शूद्रक आदि पूर्ववर्ती संस्कृत नाटककारों की समृद्ध नाट्य-परम्परा विद्यमान थी, पर यह खेद की बात है कि भारतेन्दु बाबू ने उस समृद्ध संस्कृत नाट्य-परम्परा को अपने सम्मुख रखा। प्राकृत-अपभ्रंश काल में अर्थात् ईसा की 9वीं-10 वीं शताब्दी के बाद संस्कृत नाटक ह्रासोन्मुख हो गया था। प्राकृत और अपभ्रंश में भी नाट्य-सृजन वैसा उत्कृष्ट नहीं हुआ जैसा पूर्ववर्ती संस्कृत-नाट्य-साहित्य था। अत: भारतेन्दु के सामने संस्कृत-प्राकृत की यह पूर्ववर्ती ह्रासगामी परम्परा रही। संस्कृत के मुरारि, राजशेखर, जयदेव आदि की क्रमश: ‘अनर्घराघव’, ‘बालरामायण’, ‘प्रसन्नराघव’ आदि रचनाएँ ही भारतेन्दु तथा उनके सहयोगी लेखकों का आदर्श बनीं। इनमें न कथ्य- या विषय-वस्तु का वह गाम्भीर्य था, जो कालिदास आदि की अमर कृतियों में था, न उन जैसी शैली-शिल्प की श्रेष्ठता थी। यही कारण है कि भारतेन्दु-पूर्व हिन्दी नाटक सर्वथा निष्प्राण रहा और यद्यपि भारतेन्दु ने उसमें सामयिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन की झलक पैदा कर नवोन्मेष और किंचित् सप्राणता का प्रयास किया, पर उनके प्रयत्नों के बावजूद भारतेन्दुकालीन हिन्दी नाटक कथ्य और शिल्प दोनों की ही दृष्टि से शैशव काल में ही पड़ा रहा, विशेष उत्कर्ष को प्राप्त नहीं हुआ।

भारतेन्दु के पश्चात

इस प्रकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के सत्यप्रयत्नों से हिन्दी के साहित्यिक रंगकर्म और नाट्य-लेखन की दृढ़ परम्परा चली। पर सन् 1885 ई. में भारतेन्दु के निधन के पश्चात् वह उत्साह कुछ मन्द पड़ गया। 19 वीं शती के अन्तिम दशक में फिर कुछ छुटपुट प्रयास हुए। कई नाटक मंडलियों की स्थापना हुई, जैसे प्रयाग की ‘श्रीरामलीला नाटक मंडली’ तथा ‘हिन्दी नाट्य समिति’, भारतेन्दु जी के भतीजों- श्रीकृष्णचन्द्र और श्री ब्रजचन्द्र-द्वारा काशी में स्थापित ‘श्री भारतेन्दु नाटक मंडली’ तथा ‘काशी नागरी नाटक मंडली।’ इन नाटक मंडलियों के प्रयत्न से उस समय ‘महाराणा प्रताप’, ‘सत्य हरिश्चन्द्र’, ‘महाभारत’, ‘सुभद्राहरण’, ‘भीष्मपितामह’, ‘बिल्व मंगल’, ‘संसार स्वप्न’, ‘कलियुग’ आदि अनेक नाटकों का अभिनय हुआ।
पर ये प्रयास भी बहुत दिन नहीं चल सके। धनाभाव तथा सरकारी और गैर-सरकारी प्रोत्साहन के अभाव में साहित्यिक रंगमंच की स्थापना के प्रयत्न कालान्तर में सब सो गए। इन छुटपुट प्रयासों के अन्तर्गत तत्कालीन साहित्यिक नाटकों का अभिनय हुआ और हिन्दी में कुछ अच्छे रंगमंचानुकूल साहित्यिक नाटकों की रचना हुई। पारसी नाटक कंपनियों के दुष्प्रभाव का तो यह प्रयास अच्छा जवाब था, किन्तु यह प्रयास था बहुत ही स्वल्प। दूसरे, इस साहित्यिक रंगान्दोलन से भी हिन्दी का रंगमंच विशेष विकसित नहीं हुआ, क्योंकि यह रंगमंच पारसी रंगमंच से विशेष भिन्न और विकसित नहीं था- वही पर्दों की योजना, वैसा ही दृश्य-विधान और संगी आदि का प्रबंध रहता था। वैज्ञानिक साधनों से सम्पन्न घूमने वाले रंगमंच का विकास 19 वीं शती में नहीं हो सका था। ध्वनि-यन्त्र आदि की स्थापना के प्रयास भी हिन्दी रंगमंच के विकास की दिशा में कोई महत्त्वपूर्ण योग नहीं दे पाए। हाँ, इनका यही लाभ हुआ की पारसी नाटक कम्पनियों के भ्रष्ट प्रचार को कुछ धक्का लगा तथा कुछ रंगमंचीय हिन्दी नाटक प्रकाश में आए।

बीसवीं शताब्दी

20 वीं शताब्दी के तीसरे दशक में सिनेमा के आगमन ने पारसी रंगमंच को सर्वथा समाप्त कर दिया। पर अव्यावसायिक रंगमंच इधर-उधर नए रूपों में जीवित रहा। अब हिन्दी का रंगमंच केवल स्कूलों और कॉलेजों में ही है। यह रंगमंच बड़े नाटकों की अपेक्षा एकांकियों को अधिक अपनाकर चला। इसके दो मुख्य कारण हैं- एक तो आज का दर्शक कम-से-कम समय में अपने मनोरंजन की पूर्ति करना चाहता है, दूसरे, आयोजकों के लिए भी बड़े नाटक का प्रदर्शन यहां बहुत कठिनाई उत्पन्न करता है वहाँ एकांकी का प्रदर्शन सरल है-रंगमंच, दृश्य-विधान आदि एकांकी में सरल होते हैं, पात्र भी बहुत कम रहते हैं। अत: सभी शिक्षालयों, सांस्कृतिक आयोजनों आदि में आजकल एकांकियों का ही प्रदर्शन होता है। डॉ. राजकुमार वर्मा, उपेन्द्रनाथ अश्क, सेठ गोविन्द दास, जगदीशचन्द्र माथुर आदि हमारे अनेक नाटककारों ने सुन्दर अभिनय-उपयोगी एकांकी नाटकों तथा दीर्घ नाटकों की रचना की है।
प्रसाद जी ने उच्चकोटि के साहित्यिक नाटक रच कर हिन्दी नाटक साहित्य को समृद्ध किया था, पर अनेक नाटक रंगमंच पर कुछ कठिनाई उत्पन्न करते थे। फिर भी कुछ काट-छाँट के साथ प्रसाद जी के प्राय: सभी नाटकों का अभिनय हिन्दी के अव्यावसायिक रंगमंच पर हुआ। जार्ज बर्नार्ड शॉ, इब्सन आदि पाश्चात्य नाटककारों के प्रभाव से उपर्युक्त प्रसादोत्तर आधुनिक नाटककारों ने कुछ बहुत सुन्दर रंगमंचीय नाटकों की सृष्टि की। इन नाटककारों के अनेक पूरे नाटक भी रंगमंचों से प्रदर्शित हुए।

स्वतंत्रता के पश्चात

स्वतंत्रता के पाश्चात् हिन्दी रंगमंच के स्थायी निर्माण की दिशा में अनेक सरकारी-गैर-सरकारी प्रयत्न हुए हैं। सरकार की ओर से भी कई गैर-सरकारी संस्थाओं को रंगमंच की स्थापना के लिए आर्थिक सहायता मिली है। पुरुषों के साथ अब स्त्रियाँ भी अभिनय में भाग लेने लगी हैं। स्कूलों-कॉलेजों में कुछ अच्छे नाटकों का अब अच्छा प्रदर्शन होने लगा है।
अनेक सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से संबद्ध कुछ अच्छे स्थायी रंगमंच बने हैं, जैसे थिएटर सेंटर के तत्त्वावधान में दिल्ली, बंबई, कलकत्ता, इलाहाबाद, हैदराबाद, बंगलौर, शान्तिनिकेतन आदि स्थानों पर स्थायी रंगमंच स्थापित हैं। केन्द्रीय सरकार भी इस ओर पर्याप्त ध्यान दे रही है। पर इन सर्वभाषायी रंगमंचों पर हिन्दी भिखारिणी-सी ही प्रतीत होती है।
केन्द्रीय सरकार ने संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की है, जिसमें अच्छे नाटककारों और कलाकारों को प्रोत्साहन दिया जाता है।
व्यावसायिक रंगमंच के निर्माण के भी पिछले दिनों कुछ प्रयत्न हुए हैं। प्रसिद्ध कलाकार स्वर्गीय पृथ्वीराज कपूर ने कुछ वर्ष हुए पृथ्वी थियेटर की स्थापना की थी। उन्होंने कई नाटक प्रस्तुत किए हैं, जैसे ‘दीवार’, ‘गद्दार’, ‘पठान’, ‘कलाकार’, ‘आहूति’ आदि। धन की हानि उठाकर भी कुछ वर्ष इस कम्पनी ने उत्साहपूर्वक अच्छा कार्य किया। पर इतने प्रयास पर भी बंबई, दिल्ली या किसी जगह हिन्दी का स्थायी व्यावसायिक रंगमंच नहीं बन सका है। इस मार्ग में कठिनाइयाँ हैं।

प्रमुख हिन्दी नाटकार

  • भारतेंदु हरिश्चंद्र
  • जयशंकर प्रसाद
  • कमलेश्वर
  • जगदीशचंद्र माथुर
  • सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
  • रामकुमार वर्मा
  • मोहन राकेश
  • स्वदेश दीपक
  • नाग बोडस
  • हरिकृष्ण प्रेमी

मराठी रंगमंच का इतिहास

मराठी रंगमंच की ऐतिहासिक परंपरा है। इसका प्रारंभ १८४३ से हुआ। आरंभ काल में ऐतिहासिक विषयों तथा पुराणों के आधार पर नाटकों में स्‍वदेश प्रेम, स्‍वतंत्रता के प्रति आस्‍था से संबंधित विषय रहे। इन नाटकों पर तिलक, चिपलुणकर जैसी विभूतियों के विचारों का प्रभाव था। १८८० में अण्‍णासाहेब किर्लोस्‍कर लिखित 'संगीत शाकुंतल' का मंचन हुआ। संगीत नाटक, कीर्तन, ऑपेरा, शास्‍त्रीय संगीत, महफिल, तमाशा, कर्नाटक संगीत से एकदम अलग नाट्याविष्‍कार था। १९१० से मराठी रंगमंच ने सुवर्णकाल देखा, जिसमें किर्लोस्‍कर और गोविंद बल्‍लाल देवल के बाद कृष्‍णाजी प्रभाकर खाडिलकर, राम गणेश गडकरी जैसे सिद्धहस्‍त लेखकों ने 'मानापमान', 'स्‍वयंवर', 'एकच प्‍याला' जैसे अनेक अजरामर नाटकों को जन्‍म दिया, जिनका मंचन आज भी हो रहा है। उस ज़माने में महिलाओं को नाटक में काम करना मना था, जिसके कारण किसी मोहक काबिल सुरीली आवाज के आदमी को ही स्‍त्री की भूमिका निभानी पड़ती थी। स्‍त्री की भूमिका करने वालों में और उन्‍हें ज्‍़यादा अमर बनाने वालों में प्रमुख नाम नारायणराव राजहंस का लिया जाता है, जो 'बालगंधर्व' के नाम से प्रख्‍यात हैं, जिन्‍होंने अपने गायन और रूप से सबका मन मोह लिया था। उनकी समकालीन महिलाएं तो उनके किये गए फैशन को अपनाती थीं। मास्‍टर दीनानाथ मंगेशकर, नानासाहेब फाटक, भालचंद्र पेंढारकर ने अपने गाँवों में रंगमंच पर इतिहास रचा। शुरू-शुरू में इन नाटकों की अवधि पाँच अंकों की रहती थी जो रात में १० बजे शुरू होकर सुबह पाँच बजे तक चलते थे। बदलते समय के अनुसार उसे कम कर दिया गया और धीरे-धीरे नाटक ३ अंकों का बन गया। अब तो २ अंक के नाटक होने लगे हैं, जिनकी अवधि ढाई या तीन घंटे होती है।

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संगीत-नाटक' मराठी रंगमंच की विश्‍व रंगमंच को एक महत्‍वपूर्ण देन है। नाट्यानंद, काव्‍यानंद और स्‍वरानंद का संगम अर्थात् 'नाट्यसंगीत'। संगीत नाटकों की परंपरा इस आधुनिकता और पश्चिमीकरण के भंवर में भी अपना स्‍थान अक्षुण्‍ण बनाए हुए है। समय के अनुसार 'संगीत-नाटक' में आविष्‍कार होते गए और नए-नए प्रयोग किए गए। लोगों की रुचि देखकर उसमें सरलता लाई गई। इसमें पं. जितेन्‍द्र अभिषेकी का कार्य महत्‍वपूर्ण रहा। उन्‍होंने सुगम नाट्यगीत तैयार कर अपनी अलग पहचान बनाई। १९६० से ८० की अवधि में विद्याधर गोखले और वसंत कानेटकर जैसी विभूतियों ने, सभी दर्शकों को भानेवाले संगीत नाटकों की निर्मिती की। आज के दौर में तो पार्श्‍वसंगीत के आधार पर रिकार्ड किए गए गाने पेश किए जाते हैं। इस प्रकार नया रूप लेकर पेश किए गए नाटकों को सभी लोगों ने पसंद किया। श्रीकांत मोघे, प्रशांत दामले जैसे अभिनेताओं ने 'लेकुरे उदंड जाहली', 'एका लग्‍नाची गोष्‍ट', जैसे नाटकों को लोकप्रिय बनाया। अब तो मराठी नाटकों में सामूहिक नृत्य भी होता है।
 
रंगमंच का इतिहास सामाजिक परिवर्तन से भी जुड़ा है क्‍योंकि अत्रे, रांगणेकर के नाटकों में महिला कलाकारों ने रंगमंच पर काम करना प्रारंभ किया। उस जमाने में ज्‍योत्‍सना भोळे, मीनाक्षी, जयमाला शिलेदार जैसी अनेक अभिनेत्रियों ने रंगमंच की सेवा की। आचार्य अत्रे, पु.ल. देशपांडे ने अपने हास्‍य नाटकों को लोगों के बीच अजर-अमर बनाया है। पु.ल. देशपांडे के 'बटाट्याची चाळ' तो एकपात्री प्रयोग का रिकार्ड है। उन्‍होंने अपना अलग दर्शकवर्ग तैयार किया।
मराठी दर्शकों का सबसे पसंदीदा नाट्य प्रकार है 'फार्स', जिसमें स्वर ऊँचा अभिनय चटकीला होता है। 'फार्स' नाट्यकृति को लोकप्रिय बनाने में बबन प्रभु और आत्‍माराम भेंडे दोनों का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। 'दिनूच्‍या सासूबाई राधाबाई', झोपी गेलेला जागा झाला' ये उनके फार्स तो बहुत ही लोकप्रिय रहे थे और आज भी लोकप्रिय हैं। मराठी नाटकों में अनेक नवीनतम विषयों को स्‍थान दिया गया। महिलाओं पर आधारित समस्‍याओं पर नाट्यलेखन हुआ जिसने समाज के जागरण में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 'संगीत शारदा', 'एकच प्‍याला' जैसे नाटक तो कालजयी कृतियों के उदाहरण हैं। 'कुलवधु', 'महानंदा', 'चारचौघी', 'आई रिटायर होतेय' स्‍त्री-जीवन से संबंधित थे जिन्‍होंने विचारों को प्रेरित किया। महाराष्‍ट्र में मराठी नाट्यकला में प्रोत्‍साहन बच्‍चों को बचपन से दिया जाता है। यहाँ की बालरंगमंच काफी विकसित है। सुधा करमरकर की 'लिटल थिएटर' संस्‍था तथा 'कुमार कला केन्‍द्र' ने अनेक बालकलाकार रंगमंच को दिये। अनेक मराठी नाटकों का हिन्‍दी, गुजराती में अनुवाद हुआ है। इस रंगमंच के कई कलाकारों ने हिन्‍दी, गुजराती, अंग्रेजी रंगमंच तथा सिनेमाजगत में नाम कमाया है। डॉ. मोहन आगाशे, रमेश देव, सीमा, नाना पाटेकर, डॉ. श्रीराम लागू, रोहिणी हट्टंगड़ी, रीमा लागू, सदाशिव अमरापूरकर, मोहन जोशी जैसे कई दिग्‍गजों के नाम इस सूची के चमकते सितारे हैं।
बदलते समय के अनुसार मराठी नाटक भी तकनीकी रूप से बदलता जा रहा है। इसमें नए-नए प्रयोग किये जा रहे हैं। नए-नए स्वरूप में नाटक की प्रस्‍तुति हो रही है। मराठी नाटकों का सेट नया मोड़ लेता नज़र आ रहा है। पहले रंगीन परदों से सेट बनाए जाते थे फिर घूमते रंगमंच का प्रयोग किया गया जिससे सेट बदलने की अवधि कम हुई। प्रकाश, ध्वनि आदि में भी नयापन आ रहा है और नाटक बदलता जा रहा है।

सिनेमा कलाकारों की तुलना में नाट्य कलाकारों की मेहनत अधिक होती है, किन्‍तु उन्‍हें मेहनताना कम मिलता है, मनोरंजन कर ने नाट्य व्‍यवसाय को पंगु बना दिया है। कला तो कला है, लेकिन राजाश्रय और लोकाश्रय के बिना उसका फलना फूलना मुमकिन नहीं है। मराठी नाटक, नाटककारों, कलाकारों को प्रोत्‍साहन देने तथा उनकी कला को रंगमंच प्रदान करने के लिए 'मराठी राज्‍य नाट्य स्‍पर्धा' का आयोजन होता है, जिसमें अहमदाबाद, इंदौर, भोपाल, दिल्‍ली जैसे अन्‍य राज्‍यों से भी प्रविष्टियाँ आती हैं।

अब तो मराठी नाटककला सात समुंदर पार जा पहुँची है। वहाँ जा कर बसे मराठी लोग वहां पर मराठी नाटक करते हैं, उनका आदर किया जाता है। भारतीय नाट्यकलाकारों को आमंत्रित कर यहां के नाटक वहां नाट्य महोत्‍सवों में मंचित किये जाते हैं। इस प्रकार नाट्यकला का आदान प्रदान किया जा रहा है। यह मराठी साहित्‍य और रंगमंच को गौरवान्वित करने वाली घटना है।
-मेधा साठे