आश्चर्य की बात यह है कि भारत के सरकारी शिक्षक न
केवल प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले अपने समकक्ष शिक्षकों की तुलना में बल्कि कई
अन्य देशों की तुलना में अधिक वेतन पाते हैं। चीन की तुलना में इनका वेतन चार गुणा
अधिक है। प्रख्यात अर्थशास्त्री और नोबेल प्राइज विजेता अमर्त्य सेन और जीन डेरेज
के 2013 के एक विश्लेषण के अनुसार यूपी में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का
वेतन भारत के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद से चार गुणा और स्वयं उत्तरप्रदेश के
प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद से 15 गुणा अधिक है। इसके बावजूद सीखने के स्तरों
के आधार पर भारतीय शिक्षकों का प्रदर्शन प्रोग्राम फॉर द इंटरनेशनल असेसमेंट
(पीआईएसए) टेस्ट में बहुत ही खराब रहा है। इस कार्यक्रम में 74 देशों
के बीच भारत का स्थान 73वां रहा वहीँ चीन दूसरे स्थान पर रहा। सरकारी
स्कूलों की खराब होती गुणवत्ता का सबसे बड़ा कारण शिक्षा विभाग के अधिकारियों की
उदासीनता और लापरवाही है। जो सरकारी खजाने से वेतन और अन्य सुविधाएँ तो प्राप्त
करते हैं लेकिन अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं।
2019-20
के अंतरिम बजट में शिक्षा के क्षेत्र में करीब 94 हजार
करोड़ रुपए आवंटित किया गया है। जो पिछले वित्तीय वर्ष की तुलना में 10 फीसदी
अधिक है। अंतरिम बजट में उच्च शिक्षा के लिए 37,461.01 करोड़ रुपए की तुलना
में स्कूली शिक्षा के लिए 56,386.63 करोड़ रुपए आवंटित किये गए हैं। जबकि
पिछले वित्तीय वर्ष में 50 हजार करोड़ रुपए आवंटित किये गए थे। केवल
राष्ट्रीय शिक्षा मिशन मंध ही 38,573 करोड़ रूपए के बजट का प्रावधान किया गया
है। इन राशियों में जहां क्लास रूम को डिजिटलाइज करना शामिल है वहीँ शिक्षकों के
पढ़ाने का स्तर सुधारना और उन्हें ट्रेनिग देना भी शामिल है। विशेषज्ञों के अनुसार
इस वित्तीय वर्ष में शिक्षा के बजट में 3.69 फीसद का इजाफा हुआ
है।
केंद्र
और राज्य सरकारों द्वारा अपने अपने बजट में स्कूली शिक्षा पर एक बड़ी राशि खर्च
करने के बावजूद हमारे देश के सरकारी स्कूलों की हालत किसी से छुपी नहीं है।
विशेषकर शिक्षकों के पढ़ाने का स्तर इस पूरी शिक्षा व्यवस्था की सबसे कमजोर कड़ी है।
देश के सबसे बड़े हिन्दी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार के सरकारी स्कूलों में
बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती ने इस समस्या को और भी गंभीर बना
दिया है। परिणामस्वरूप अभिभावक अब अपने बच्चों को सरकारी स्कूल की बजाए निजी स्कूल
में पढ़ाने को प्राथमिकता दे रहे हैं। हाल ही में यू-डाइस और कई गैर सरकारी
संस्थाओं ने अपनी रिपोर्ट में अभिभावकों के इस रुझान को सामने लाकर सरकारी स्कूलों
की हालत और शिक्षकों के पढ़ाने के स्तर जैसी खामियों को उजागर किया है। यूनिफाइड
डिस्ट्रक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (यू-डाइस) द्वारा जारी रिपोर्ट और
आंकड़ों के मुताबिक बिहार और यूपी में अभिभावकों का सरकारी स्कूलों से मोहभंग हो
रहा है।
संस्था
की रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 की तुलना में 2016-17 में इन दोनों
राज्यों के सरकारी स्कूलों में नामांकित बच्चों की संख्या में करीब 25 लाख (24.79
लाख) की कमी दर्ज की गई है। अकेले बिहार में ही 15 लाख
बच्चे कम नामांकित हुए हैं। आंकड़ों के अनुसार 2015-16 में जहां बिहार के
सरकारी स्कूलों में 2.35 करोड़ बच्चों का नामांकन हुआ था वहीँ 2016-17
में यह आंकड़ा घटकर 2.19 करोड़ रह गया। वहीँ यूपी में इसी अवधि के
दौरान यह आंकड़ा 1.62 करोड़ की तुलना में घटकर 1.52 करोड़ रह
गया है। हालांकि संस्था की रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण भारतीय राज्यों केरल, तमिलनाडु,
तेलंगाना और कर्नाटक के सरकारी स्कूलों में भी बच्चों के नामांकन में
मामूली गिरावट आई है। कुल मिलाकर देश भर के सरकारी स्कूलों में त$करीबन 56.59
लाख बच्चों के नामांकन में कमी आई है और इन आंकड़ों में अकेले बिहार और
यूपी का 43 प्रतिशत हिस्सा है।
सरकारी
स्कूलों में नामांकन में आयी कमी का अर्थ यह नहीं है कि शिक्षा के प्रति रुचि कम
हो गई है बल्कि इसका साफ मतलब यह है कि माता-पिता अब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए
सरकारी स्कूलों से ज्यादा निजी स्कूलों को तरजीह दे रहे हैं। दरअसल सरकारी स्कूलों
में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में आ रही लगातार गिरावट से माँ-बाप को यह एहसास होने
लगा है कि यहां उनके बच्चों का भविष्य उज्ज्वल नहीं है। अभिभावकों को लगता है कि
सरकारी स्कूलों में अंग्रेजी केवल एक विषय के रूप में पढ़ाई जाती है, वह भी
नाममात्र के लिए। जबकि प्राइवेट स्कूलों में हिंदी विषय को छोड़कर अन्य सभी विषयों
को न केवल अंग्रेजी में पढ़ाया जाता है बल्कि स्कूल परिसर में छात्रों को अंग्रेजी
भाषा में ही बात करने के लिए प्रेरित भी किया जाता है। उन्हें विश्वास है कि
अंग्रेजी भाषा से स्कूली पढ़ाई करने वाले बच्चों को भविष्य में मेडिकल, इंजीनियरिंग,
लॉ, मैनेजमेंट और पत्रकारिता की पढ़ाई कराने वाले देश
के उच्च शिक्षण संस्थाओं में आसानी से प्रवेश मिल सकता है। जबकि सरकारी स्कूलों
में हिंदी माध्यम से पढ़ने वाले बच्चों को इन्हीं क्षेत्रों में प्रवेश पाना
मुश्किल हो जाता है। यूपीएससी जैसे देश के प्रतिष्ठित प्रतियोगिता परीक्षाओं में
भी अंग्रेजी माध्यम वाले परीक्षार्थियों का दबदबा उनकी आशंकाओं को बल देता है।
बिहार
और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में प्राइवेट स्कूलों के प्रति अभिभावकों के बढ़ते
रुझानों के पीछे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार भी एक प्रमुख कारण है। पिछले कुछ
दशकों में इन दोनों राज्यों में प्रति व्यक्ति आय में काफी सुधार हुआ है। केंद्रीय
सांख्यिकी कार्यालय की एक रिपोर्ट के अनुसार 2004-05 में बिहार में प्रति
व्यक्ति आय 8,560 रूपए से बढ़कर 2014-15 में 16,652 रूपए हो
गई। वहीँ यूपी में इसी अवधि के दौरान यह 14,580 रूपए से बढ़कर 22,892
रुपए प्रति व्यक्ति तक पहुंच गई। घर की अच्छी आमदनी ने बच्चों की
गुणवत्तापूर्ण पढ़ाई के प्रति उनके नजरिये को भी विकसित किया है। माँ-बाप के इसी
सोच ने बिहार और यूपी में शिक्षा के ट्रेंड को बदल दिया है। इन राज्यों में अब बड़े
पैमाने पर कुकुरमुत्ते की तरह प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आ गई है। गली-गली में
प्राइवेट स्कूल खुल गए हैं, जो अंग्रेजी भाषा में शिक्षा देने का दावा करते
हैं। हालांकि इनमें से अधिकांश स्कूल सीबीएसई के मानकों पर दूर-दूर तक खरे नहीं
उतरते हैं इसके बावजूद उन स्कूलों में बच्चों के नामांकन में तेजी से इजाफा होता
जा रहा है। ऐसे स्कूल मनमाने तरीके से फीस निर्धारण एवं अन्य मदों के नाम पर
अभिभावकों से मोटी रक़म वसूल कर रहे हैं। उनपर एक बार में ही साल भर की फीस भरने
का दबाब बनाया जाता है। वहीँ दूसरी तरफ अभिभावकों को स्कूल ड्रेस सहित किताब-कॉपी
भी स्कूल से ही खरीदने के लिए बाध्य किया जाता है।
एनसीईआरटी
की पुस्तकों की बजाए निजी प्रकाशकों की महंगी किताबें खरीदने को कहा जाता है। इसके
पीछे निजी प्रकाशकों एवं अन्य सामाग्री उपलब्ध कराने वाली एजेंसियों से स्कूल को
मिलने वाली मोटी कमीशन प्रमुख कारण माना जाता है। लेकिन इसके बावजूद ऐसे ही
स्कूलों में दाखिले की होड़ मची होती है। हालांकि इन दोनों ही राज्यों की सरकारों
ने निजी स्कूलों की मनमानी को रोकने के लिए सख्त कदम उठाने का फैसला किया है।
बिहार सरकार ने जहां इसके लिए फीस निर्धारण हेतु एक्ट 2018 बनाने
की बात कही थी वहीँ यूपी के निजी स्कूलों में मनमानी फीस पर नकेल कसने के लिए
सरकार ने यूपी स्ववित्तपोषित स्वतंत्र विद्यालय (शुल्क का विनियमन) विधेयक,
2017 को सख्ती से लागू करने पर जोर दिया है।
दूसरी
ओर सरकारी स्कूलों में शिक्षकों की कमी के कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा में लगातार
गिरावट आ रही है। देशभर में सरकारी स्कूलों में तकरीबन 60 लाख
शिक्षकों के पद स्वीकृत हैं, लेकिन अलग अलग स्तरों पर जारी किये गए सरकारी
आंकड़ों तथा कई संस्थाओं के रिसर्च और रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि इस वक्त
देशभर में सरकारी स्कूलों में लगभग दस लाख शिक्षकों के पद खाली हैं। इनमें अकेले 9
लाख पद प्राथमिक स्कूलों में खाली हैं। प्राथमिक स्तर पर सबसे अधिक दो
लाख चौबीस हजार से ज्यादा पद यूपी में रिक्त है। जबकि बिहार में दो लाख तीन हजार
के करीब है। पश्चिम बंगाल और झारखंड के प्राथमिक एवं माध्यमिक स्कूलों में भी
शिक्षकों की औसतन एक तिहाई सीटें खाली हैं। इसके बाद मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ का
नंबर आता है, जहां इन राज्यों की अपेक्षा स्थिति कुछ बेहतर है
लेकिन इसे भी संतोषजनक नहीं कहा जा सकता है। इसके विपरीत गोवा, ओडिशा
और सिक्किम में प्राथमिक स्कूलों में शिक्षकों का कोई पद खाली नहीं है। सिक्किम
देश का एकमात्र ऐसा राज्य है जहां प्राथमिक और माध्यमिक स्तरों पर शिक्षकों के
शत-प्रतिशत पद भरे हुए हैं। जबकि माध्यमिक स्तर पर देश में शिक्षकों की सबसे
ज्यादा कमी झारखंड में है। बिहार में भी माध्यमिक स्तर पर शिक्षकों के स्वीकृत 17
हजार से अधिक पद खाली है जबकि यूपी में तकरीबन 7 हजार
माध्यमिक शिक्षकों के स्वीकृत पद खाली पड़े हैं।
देश के
सबसे अशांत राज्य जम्मू-कश्मीर में भी 21 हजार से अधिक
माध्यमिक स्तर पर शिक्षकों की जगह खाली है। जहां 25,657 स्वीकृत पदों में
केवल 4436 पद ही भरे हुए हैं। हालांकि बिहार के शिक्षा
मंत्री ने पिछले वर्ष नवंबर में घोषणा की है कि शिक्षकों के खाली पड़े करीब डेढ़ लाख
पदों पर जल्द नियुक्ति की जाएगी। समस्या केवल शिक्षकों की कमी का नहीं है बल्कि
प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। सेंटर फॉर बजट एंड गवर्नेंस
अकाउंटबिलिटी (सीबीजीए) और चाइल्ड राइट एंड यू (क्राई) की एक रिसर्च के अनुसार
योग्य शिक्षकों की कमी देश के लगभग सभी राज्यों में है। समूचे देश में
शिक्षक-छात्र अनुपात, शिक्षकों की संख्या और उनकी ट्रेनिग के मामले में
बिहार की स्थिति सबसे खराब है। जहां खाली पड़े पदों को भरने के लिए अतिथि शिक्षकों
के नाम पर बड़ी संख्या में अप्रशिक्षित शिक्षकों की भर्ती कर दी गई है। रिपोर्ट के
अनुसार बिहार के प्राथमिक स्कूलों में 38.7 प्रतिशत अध्यापक
प्रशिक्षित नहीं हैं। जबकि माध्यमिक स्तर पर ऐसे शिक्षकों की संख्या 35.1 फीसदी
है। दूसरे स्थान पर पश्चिम बंगाल आता है जहां प्राथमिक स्तर पर 31.4 और
माध्यमिक स्तर पर 23.9 फीसदी शिक्षक प्रोफेशनली ट्रेंड नहीं हैं।
हालांकि एक अच्छी बात यह है कि शिक्षा के स्तर को सुधारने के लिए बिहार सरकार
प्रशिक्षित शिक्षकों की बहाली की दिशा में लगातार कोशिशें कर रही है।
आश्चर्य
की बात यह है कि भारत के सरकारी शिक्षक न केवल प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाने वाले
अपने समकक्ष शिक्षकों की तुलना में बल्कि कई अन्य देशों की तुलना में अधिक वेतन
पाते हैं। चीन की तुलना में इनका वेतन चार गुणा अधिक है। प्रख्यात अर्थशास्त्री और
नोबेल प्राइज विजेता अमर्त्य सेन और जीन डेरेज के 2013 के एक विश्लेषण के
अनुसार यूपी में सरकारी स्कूलों के शिक्षकों का वेतन भारत के प्रति व्यक्ति सकल
घरेलू उत्पाद से चार गुणा और स्वयं उत्तरप्रदेश के प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद
से 15 गुणा अधिक है। इसके बावजूद सीखने के स्तरों के आधार पर भारतीय
शिक्षकों का प्रदर्शन प्रोग्राम फॉर द इंटरनेशनल असेसमेंट (पीआईएसए) टेस्ट में
बहुत ही खराब रहा है। इस कार्यक्रम में 74 देशों के बीच भारत
का स्थान 73वां रहा वहीँ चीन दूसरे स्थान पर रहा।
सरकारी
स्कूलों की खराब होती गुणवत्ता का सबसे बड़ा कारण शिक्षा विभाग के अधिकारियों की
उदासीनता और लापरवाही है। जो सरकारी खजाने से वेतन और अन्य सुविधाएँ तो प्राप्त
करते हैं लेकिन अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में पढ़ाते हैं। जरूरत है 2015
में इलाहाबाद हाईकोर्ट के उस फैसले को सख्ती से लागू करने की, जिसमे
कोर्ट ने सभी नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के लिए उनके बच्चों को सरकारी
स्कूलों में पढ़वाना अनिवार्य किया था। मोटी रकम लेकर एडमिशन देने वाले निजी
स्कूलों की बढ़ती संख्या के बावजूद देश के 55 प्रतिशत (लगभग 26
करोड़) बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं। ऐसे में उनके भविष्य को
अंधकारमय होने से बचाने के लिए केवल भारी भरकम बजट आवंटित करना ही एकमात्र उपाय
नहीं हो सकता है बल्कि सुधार की आवश्यकता सभी स्तरों पर ईमानदारी से किये जाने की
जरूरत है।
(साभार-देशबंधु)